पुस्तकें

समापन

Author : कुँवर नारायण

मैं गुजरता रहा, बल्कि बहता रहा
जैसे नदियाँ-बिना कुछ चाहे-
जो किनारे नहीं लग पातीं
किनारे लगा सकती हैं अगर कोई चाहे!

क्या तुम्हें मालू है कैसे एक नदी
सागर हो जाती है?
वह, बस, भटकती रहती है और एक दिन
किनारा पाकर खो जाती है।

‘परिवेश : हम तुम’ में संकलित ‘समापन’ शीर्षक कविता की अंतिम आठ पंक्तियाँ

SCROLL FOR NEXT