जिस प्रकार किसी उद्योग में प्रक्रियाओं के क्रमों को निर्धारित करना आवश्यक है, उसी प्रकार सफाई के कार्यक्रमों को कई हिस्सों में विभाजित करना आवश्यक है। इसका क्रम निम्नांकित होगाः
1. औजार आदि साधनों का चुनाव तथा उनकी यथायोग्य व्यवस्था करना,
2. सफाई के काम की योजना बनाना,
3. काम का आसन
4. काम से निकले कच्चे माल को एकत्र करना,
5. कच्चे माल की किस्म के अनुसार छँटाई करना,
6. विभिन्न प्रकार के माल को अपनी उपयोगिता के स्थान पर पहुँचाना,
7. कच्चे माल से उपयोगी माल बनाना,
8. प्रक्रियाओं का लेखा तैयार करना और
9. काम की जाँच।
a. छात्रावास-
छात्रावास के कमरों की सफाई व्यक्तिगत सफाई है। फिर भी कमरों की जमीन का कोना, छत-छप्पर आदि का स्थान सामूहिक सफाई में आता है। इसके अलावा इमारत के आगे-पीछे का भी स्थान है। अगर कच्चा मकान है, तो भीतर-बाहर की टूटी-फूटी जगह की मरम्मत भी सामूहिक सफाई में रखी जा सकती है। इन सारे कामों में साधारण झाड़ू देने का काम ऐसा है कि उसे दैनिक कार्यक्रम में शुमार करना पड़ेगा। बाकी आगे-पीछे की झाड़ू, जंगल, मिट्टी, पत्थर, खपरैल आदि की सफाई साप्ताहिक योजना में आयेगी। मकान के टूट-फूट की मरम्मत सप्ताह से अधिक दिन की है, लेकिन समय के अनुपात से सप्ताहभर का काम निश्चित कर लेना चाहिए। काम की योजना बन जाने के बाद जितने आदमी जिस सफाई के लिए मुकर्रर होंगे, उनके काम के बँटवारे की योजना भी बना लेनी चाहिए। इस तरह योजना बनाकर काम करने पर ही हमारा काम वैज्ञानिक होगा, वरना जगह की तो सफाई हो जायेगी, मगर सफाई करनेवाले की प्रकृति जैसी की तैसी रह जायेगी।
b. कुएँ का स्थान-
नयी तालीम की संस्थाएँ प्रायः देहाती वातावरण में होती हैं। अगर नहीं हैं, तो अवश्य होनी चाहिए। अतः कुएँ के पास की पक्की नाली न होने के कारण पानी के निकास की सहज व्यवस्था नहीं हो पाती। कुएँ के पास कहीं-कहीं स्नान-घर भी होता है। इन सबका पानी कच्ची नालियों से निकालना पड़ता है। कच्ची नाली से यदि पानी जोरों से निकल जाय तो ठीक है, लेकिन धीरे-धीरे निकलने से पानी आगे बढ़ने के बजाय नीचे जज्ब होता है। इसलिए नालियों की सड़ी मिट्टी निकालने की एक खास प्रक्रिया होती है। कितने दिन के अन्तर से मिट्टी निकाली जाय-यह स्थानीय मिट्टी की बनावट पर निर्भर करता है। मिट्टी के स्वरूप के अलावा परिमाण और स्थान के ढाल पर भी निर्भर करता है। कभी-कभी कच्ची नालियों को सूखने का मौका देना पड़ता है, अतः यह भी तय करना होगा कि कितने दिन बाद एक नाली को छोड़कर दूसरी नाली से पानी ले जाने की व्यवस्था करनी पड़ेगी।
कभी-कभी आसपास के खेतों की स्थिति देखते हुए साबुन तथा मामूली पानी को अलग रास्ते से निकालने की व्यवस्था करनी पड़ती है। अगर पानी खेत और बाग में जाय या अगर उसे सोख्ता के अन्दर ले जाना है, तो भिन्न किस्म की योजना बनानी पड़ेगी। इस तरह स्नान-घर के फर्श या किसी दीवार की गन्दगी या कोना, छप्पर आदि की सफाई-योजना अलग होती है। इन तमाम कामों में कुछ हिस्सा दैनिक करना होगा और कुछ साप्ताहिक तथा पाक्षिक और मासिक भी किया जा सकता है। जैसे नाली की दिशा बदलना, सोख्ता के रोड़े आदि साफ करना मासिक योजना में शामिल करना चाहिए।
c. स्नानागार-
स्नानागार की सफाई की योजना बनाते समय संस्थावासियों की गन्दगी की आदत का ख्याल भी करना होगा। प्रायः लोग स्नान-घर में टट्टी-पेशाब कर देते हैं। अतः इसके अन्दर बाहर की सफाई में दुर्गन्ध दूर करने की व्यवस्था होनी चाहिए। पक्की हौदी में फर्श तथा नाली की सफाई रोज होनी चाहिए। फर्श-सफाई के समय कोने के स्थान को प्रायः लोग भूल जाते हैं। फल यह होता है कि उन स्थानों में काई जम जाती है। अतः स्नानागार के लिए योजना बनाते समय मासिक सफाई का कार्यक्रम रखना जरूरी है।
d. टट्टी, पेशाब और थूक की सफाई-
इसके सम्बन्ध में शुरू से ही योजना बनानी पड़ती है। स्थानीय परिस्थिति और साधन के अनुसार यह विचार करना होगा कि योजना कैसी बनायी जाय। नाली, गड्ढे आदि कई प्रकार की टट्टी की योजना बनायी जा सकती है। उसी तरह पेशाब का गड्ढा साधारण सोख्ता, घड़ेवाला सोख्ता आदि कई प्रकार के बनते हैं। टट्टी-पेशाब के लिए बालटी का भी प्रयोग होता है। थूक के लिए तो किसी संस्था में कोई संयोजित व्यवस्था नहीं होती-ऐसा कहना भी अनुपयुक्त न होगा। प्रायः देखा जाता है कि संस्थावासी टट्टी-पेशाब का तो कुछ इन्तजाम करते हैं, मगर थूकने की कोई व्यवस्था नहीं करते। इन तीनों प्रकार के सफाई के साधन स्थाई न होने के कारण सफाई की प्रक्रिया में ट्टटी, पेशाब और थूकने की व्यवस्था एक में ही शामिल हो जाती है। इसलिए उसे साप्ताहिक या मासिक योजना में शामिल करना होगा। फिर सफाई की बात आती है। टट्टी पर वनस्पति और मिट्टी डालना, टट्टी-घर को हटाना, नया गड्ढा खोदना, बाल्टी की व्यवस्था होने पर मल-मूत्र व्यवस्थित ढंग से मिश्रित खाद के लिए डालना पेशाब-घर का स्थान-परिवर्तन करना, सोख्ते के रोड़े साफ करना, थूकने के गड्ढे में राख, मिट्टी डालना, गड्ढे बदलना आदि कई प्रकार के काम होते हैं। इसके लिए समय का बंटवारा करना होगा। दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक त्रैमासिक योजनाएँ बनानी पड़ेगी। वस्तुतः टट्टी, पेशाब और थूक की व्यवस्था ही सबसे महत्व की और सबसे अधिक विकास की है। अतः इस दिशा में खास ध्यान देना चाहिए। नागरिक-जीवन तथा समाज-शास्त्र के अभ्यास के लिए यही एक खास महत्वपूर्ण माध्यम है। कृषि और अर्थशास्त्र के शिक्षण के माध्यम के रूप में तो इसका महत्व है ही।
e. रसोईघर की सफाई-
जिस प्रकार कुएँ और स्नानागार की सफाई की योजना बनायी गयी है, उसी प्रकार रसोई-घर और बरतन साफ करने के स्थान की सफाई की योजना बनानी पड़ती है। फर्क इतना है कि नहाने में साबुन के जल और बरतन साफ करने के जल की व्यवस्था में अंतर होगा। इसके अलावा बरतन मलने के साधन, रसोईघर की लिपाई, साफ बरतनों का रखना, अनाज-सफाई, कोठार की सफाई आदि कई काम होते हैं। अतः इस मद की योजना बनाने में शिक्षकों को काफी मनोविज्ञान से काम लेना होगा। प्रायः देखा जाता है कि इस काम में ज्यादा असंतोष और मनोमालिन्य पैदा होता है, अतः इस दिशा में बड़ी सतर्कता और मानसिक वृत्तियों का ध्यान रखना होगा।
f. विभिन्न वर्गों की सफाई-
वर्ग की सफाई में कमरा, आसन, श्यामपट्ट शिक्षक के बैठने की जगह की सफाई, वर्ग लगाने का काम तथा सरंजाम दुरुस्त करना आदि आता है। विभिन्न प्रकार के विषय और उनके साधनों की समुचित तथा सुविधाजनक व्यवस्था, सांस्कृतिक साज और सरंजाम व्यवस्थित करना- इन सबको ध्यान में रखकर ही योजना बनाना अत्युत्तम होगा।
g. मैदान, सड़क आदि की सफाई-
यह कार्यक्रम प्रायः दैनिक योजना में नहीं आता। इसका साप्ताहिक और मासिक विभाजन करना चाहिए। इस मद में कूड़ा-करकट, घास, जंगल, खर-पत्ती आदि कई प्रकार की सफाई होती है। इसके अलावा ऊँच-नीच ठीक करना, सड़क-मेड़ आदि दुरुस्त करना तथा सजावट आदि कई प्रकार का काम होता है।
उपर्युक्त उदाहरण से यह स्पष्ट हो गया होगा कि प्रत्येक काम योजनाबद्ध होना चाहिए। प्रत्येक योजना में नयी तालीम के अनुसार आँकन करने और जाँचने का सिद्धांत लागू करना चाहिए। काम पूर्ण तभी हो सकता है, जब किसी काम में ये तीनों सिद्धांत पूरे होते हैं। अन्यथा काम तो कुछ हो भी सकता है, किन्तु काम करने वाला अपने स्थान पर स्थित रहता है, उसकी प्रगति नहीं होती, क्योंकि इसके बिना सारा काम अचेतन और यंत्रवत् होता है।
4. सफाई के निकले कच्चे माल को एकत्रित करना-
पहले बताया गया है कि सफाई का कूड़ा सफाई-उद्योग का कच्चा माल है। अतः इसे सावधानी से इकट्ठा करना चाहिए। इस दिशा में सभी संस्थाओं और परिवारों में लापरवाही होती है। इस लापरवाही के कारण हमारे देश में करोड़ों रुपयों की हानि होती है। देश के प्रत्येक वर्ग, जाति और समाज का कहना है कि भारत सबसे गरीब मुल्क है। लेकिन यदि गौर से देखा जाय, तो मालूम होगा कि मुल्क आर्थिक दृष्टि से चाहे कितना ही गरीब हो, मगर यहाँ के निवासियों की प्रवृत्ति में अमीरी कूट-कूटकर भरी है। समय, श्रम और साधन को लापरवाही से बरबाद करते हुए जितने लोग यहाँ पाये जाते हैं, उतने किसी भी देश में नहीं। यही कारण है कि हमारा मुल्क गरीब है। लक्ष्मी का अनादर करने वाला कभी सम्पत्तिशाली नहीं हो सकता। अतः हर मनुष्य और संस्था को चाहिए कि वह सफाई से निकले कूड़े को समय और श्रमपूर्वक सम्पत्ति का साधन बनाये। नयी तालीम के शिक्षण में तो इसका स्थान प्रथम है ही। प्रायः लोग झाड़ू देकर कूड़े-कचरे को यत्र-तत्र फेंक देते हैं। कमरे में झाड़ू देकर दरवाजे के सामने कूड़ा इकट्ठा कर ऊपर का मोटा-मोटा हिस्सा दरवाजे के बाहर गिराते हैं, पिर बारी क धूल को उसी जगह दोनों तरफ फैलाते हैं। बाकी कचरा भी झाड़ू से बरामदे में कचरे के साथ उसी बरामदे के नीचे फैला देते हैं, यह आम रिवाज है। इस प्रकार लापरवाही करते हिचक तो होती नहीं बल्कि इस दिशा में गम्भीरता से चर्चा करनेवाली की हँसी की जाती है।
कूड़े को यदि सम्पत्तिरूप में परिणत करना है, तो कचरे को एक जगह इस प्रकार इकट्ठा करना चाहिए, जिससे उसकी छँटाई करने में सहूलियत हो। धूल, मिट्टी, घास-फूस, सभी को एक जगह न बटोरकर सफाई के समय ही सामान्य वर्गीकरण कर देना चाहिए। ऐसा करने से बाद में होनेवाले श्रम और समय की बचत होगी। कूड़ा इकट्ठा करने के लिए विभिन्न प्रकार की चीजों के लिए विभिन्न प्रकार का स्थान भी निश्चित होना चाहिए। ईंट-पत्थर रखने की जगह, मवेशियों के खिलाने लायक घास का स्थान, खाद बनाने लायक कचरे का गड्ढा कागज, रूई, सूत आदि के टुकड़े रखने का स्थान, जूठन रखने और कूड़ा बटोरने का स्थान आदि भी विभिन्न प्रकार का होता है। शिक्षक को ख्याल रखना चाहिए कि इन चीजों की समुचित रक्षा हो, क्योंकि इस प्रकार वैज्ञानिक ढंग से कूड़ा-कचरा इकट्ठा करने से ही उन्हें सरलता से काम में लाया जा सकता है।