अप्रैल माह के अन्तिम सप्ताह तक हुए इस सर्वेक्षण के अनुसार 56 प्रतिशत गाँवों के लोग पानी और चारे के अभाव में अपने पशुओं को छोड़ने के लिये विवश थे। किन्तु समय के साथ हन गाँवों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी होने की आशंका है। क्योंकि जिन गाँवों के लोग हैण्डपम्प और कुओं का पानी पशुओं के लिये उपयोग कर रहे हैं, वहाँ हैण्डपम्प और कुओं के बन्द होने के साथ ही पशुओं के पानी की समस्या उत्पन्न हो जाएगी और उन्हें भी अपने मवेश छोड़ने के लिये विवश होना पड़ेगा।
सर्वेक्षित गाँवों में पशुओं की स्थिति | |||||
जिला | सर्वेक्षित गाँवों की संख्या | गाँवों की संख्या जहाँ से पशु छोड़े गए | इन गाँवों में कुल पशुओं की संख्या | छोड़े गए पशुओं की संख्या | छोड़े गए पशुओं का प्रतिशत |
छतरपुर | 32 | 15 | 4500 | 4105 | 91 प्रतिशत |
सागर | 14 | 13 | 2500 | 2025 | 81 प्रतिशत |
टीकमगढ़ | 20 | 09 | 7000 | 6674 | 95 प्रतिशत |
कुल | 66 | 37 | 14000 | 12804 | 91 प्रतिशत |
पलायन की पीड़ा और बंधुआ मजदूरी
सूखे के चलते पलायन की पीड़ा कितनी तकलीफदेह होती है, यह धर्मपुरा गाँव के माखनलाल की कहानी से जानी जा सकती है। छतरपुर जिले की बक्स्वाहा ब्लाक के इस गाँव की जनसंख्या लगभग 1200 है। जिनमें 40 परिवार दलित समुदाय के, 15 आदिवासी और 66 अन्य पिछड़ा वर्ग के हैं। यहाँ के माखनलाल बताते हैं कि “मेरे परिवार में कुल 9 सदस्य हैं, जिसमें हम पति, पत्नी और 7 बच्चे हैं। मेरे पास किसी प्रकार की कोई जमीन नहीं है, मात्र एक पुश्तैनी झोपड़ी है। रोजगार के लिये केवल कृषि आधारित मजदूरी है, जो कि फसल के मौसम में ही मिलती है। गाँव में मजदूरी 20-25 दिन के लिये मिलती है, जिसमें 120-150 रुपए मजदूरी (प्रतिदिन) मिलती है। मेरे पास गरीबी रेखा का कार्ड है, जिससे मेरे परिवार को 40 किलोग्राम अनाज प्रतिमाह प्राप्त होता है।
पिछले साल हमारे गाँव में सूखे की समस्या ने एक विकराल रूप धारण किया और गाँव में खरीफ और रबी की फसल न होने के कारण मुझे और मेरे परिवार को कृषि आधारित मजदूरी भी प्राप्त नहीं हुई। मेरे अलावा गाँव में अन्य 20 परिवार भी थे, जिनकी हालत मेरी तरह ही थी। हमने आपस में चर्चा कर रोजगार की तलाश में गाँव से बाहर जाने का फैसला किया।
जून 2015 में 46 लोग अपने बच्चों के साथ दिल्ली गए, जिसमें 29 लोग काम करने वाले थे, जिनकी उम्र 18-43 वर्ष के बीच थी। हम दिल्ली में एक व्यक्ति से मिले, जिसे लोग जमींदार बिल्डर के नाम से जानते थे। उसे हम पहले से नहीं जानते थे। उसने हमें रोहतक, हरियाणा में अल्वालिया कंशट्रक्शन कम्पनी में मजदूरों की आवश्यकता के बारे में बताया और क्या हम काम करना चाहेंगे के बारे में पूछा। हम सभी लोग काम के लिये तैयार हो गए, जिसमें 9 लोग मिस्त्री का काम करेंगे और इनको 350 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से वेतन दिया जाएगा और 19 लोग मजदूरी का काम करेंगे, जिन्हें 250 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से वेतन दिया जाएगा, यह तय हुआ। हम सभी लोगों ने 8 जून 2015 से काम शुरू किया और तीन माह तक काम किया। कार्य करने का प्रतिदिन 8 घंटे तय किया गया था, लेकिन वास्तविक रूप से सुबह 8 से रात 12 बजे (लगभग 16 घंटे) तक काम कराया गया। हम सभी का कुल वेतन 7,11,000 हुआ लेकिन तीन माह में सभी मजदूरों को मात्र 70 हजार रुपए दिये गए। 10 सितम्बर 2015 तक सभी ने काम किया था। हमने अपने वेतन का भुगतान करने की बात कही तो जमींदार बिल्डर ने कहा कि आप लोगों को दस दिन तक रुकना पड़ेगा। उसके बाद आप लोगों को आपका भुगतान किया जाएगा। हम सभी लोग बिना काम के 10 दिन तक वेतन भुगतान का इन्तजार करते रहे, किन्तु दस दिन बाद भी हमारा वेतन नहीं मिला। हम सभी लोग बुरी तरह वहाँ फँस गए थे और निकलने का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। इसी बीच मेरी बेटी भवानी को पीलिया हो गया और उसकी हालत बिगड़ने लगी। हम सभी लोगों ने यहाँ से बाहर निकलने का सोचा। मैं और मेरा एक साथी दोनों ने बीमारी का बहाना करके गेटपास बनवाया और वहाँ से बाहर निकलकर दिल्ली पहुँचे। एक आटो चालक ने हमारी मदद की और एक गैर सरकारी संगठन ने रोहतक एसडीएम के पास भेजा। रोहतक एसडीएम ने हमारी मदद की और पुलिस के साथ कम्पनी साइट पर गए और सभी मजदूरों से बात की और सभी के बयान दर्ज किये। सभी को बस द्वारा दिल्ली पहुँचाया गया और सरकारी विभागों से मदद की उम्मीद में चक्कर लगाने लगे। लेकिन किसी ने हमारी मदद नहीं की, गैरसरकारी संगठन की मदद से हम सभी वहाँ से छुटे और सभी मजदूरों ने गाँव वापस आने का फैसला किया। मैंने (माखन लाल) लेबरकोर्ट, चंड़ीगढ़ जाने का फैसला किया। लेबरकोर्ट, चंडीगढ़ में दिसम्बर 2015 में हमारा में हमारा केस दर्ज हुआ, 4 सुनवाई के बाद मार्च 2016 में 4 लाख का चेक प्राप्त हुआ है। परन्तु हमारी मजदूरी का अनुमान 7 लाख 11 हजार थे। इसमें प्रत्येक मिस्त्री को 19 हजार व प्रत्येक मजदूर को 14 हजार का चेक प्राप्त हुआ है।