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वराहमिहिर का उदकार्गल

Author : डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित

सुप्रसिद्ध ज्योतिर्विद वराहमिहिर की बृहत्संहिता में एक उदकार्गल (जल की रुकावट) नामक अध्याय है। 125 श्लोकों के इस अध्याय में भूगर्भस्थ जल की विभिन्न स्थितियाँ और उनके ज्ञान संबंधी संक्षेप में विवरण प्रस्तुत किया गया है। विभिन्न वृक्षों-वनस्पतियों, मिट्टी के रंग, पत्थर, क्षेत्र, देश आदि के अनुसार भूगर्भस्थ जल की उपलब्धि का इसमें अंदाज दिया गया है। यह भी बताया गया कि किस स्थिति में कितनी गहराई पर जल हो सकता है। फिर अपेय जल को शुद्ध कर कैसे पेय बनाया जाय, यह संकेत दिया गया है। इस विवरण के ज्ञान से भूगर्भस्थ जल को पाने का प्रयास किया जा सकता है। वराहमिहिर ने उनके समय प्रचलित लोकविश्वासों और अनुभवों की परख का सार लिखकर भावी जनता के लिए मार्गदर्शन किया है, जिससे विभिन्न क्षेत्रों के लोग भूगर्भस्थ जल का स्यवं ही परीक्षण कर सकें और तदनुसार कुएँ खोदकर जल प्राप्त करने का प्रयास कर सकें और उससे प्राणियों तथा फसलों के लिए पानी उपलब्ध करा सकें। ऐसे ही विभिन्न आधारों पर लोकानुभव के सार की समझ का ही परिणाम है कि प्राचीन काल के जो कुएँ बावड़ी आज उपलब्ध हैं उनमें अटूट जल पाया जाता है। परन्तु आज हम उनकी उपयोगिता की उपेक्षा करके पानी-पानी के लिए मोहताज होते जा रहे हैं। उधर पर्याप्त वर्षा के अभाव ने नयें पुराने कई वापी-कूपों को जीवनहीन कर दिया है। इधर उनके अखण्ड स्रोत के रूप में जो-जो नदी-तालाब थे उनका दोहन हो जाने से भी वे सूखते गये। अधिक गहाराई में जो जलस्रोत हैं उनका भी आज नलकूपों द्वारा दोहन हो जाने से भूगर्भस्थ जल का अभाव होता जा रहा है। इस प्रकार जलस्तर गिरता गया और गिरते जलस्तर के कारण पारम्परिक वृक्ष भी सूखते गये। यही नहीं कृषि-उपयोग या बढ़ती बस्तियों के लिए तथा लकड़ी के व्यवसायय ने वृक्षों की बेरहमी से कटाई इस तेजी से की कि वे पारम्परिक वृक्ष लुप्त हो गये। परिणामतः जिन वनस्पतियों के आधार परम्परा जल-स्थान बताती रही वे वनस्पतियाँ ही नहीं बचीं तो वहाँ जलबोध कैसे हो सकता है। तब भी अभी वनस्पतियाँ जहाँ बची हैं एवं मिट्टी, पत्थर आदि की पहचान से जलस्थिति का ज्ञान हो सकता है। यदि पुनः अच्छी वर्षा प्रतिवर्ष होती रहे, वन और वनस्पतियों की वृद्धि होती रहे तो वराहमिहिर के बताये लक्षणों के आधार पर भूगर्भस्थ जल स्थान और उसकी गहराई को जाना जा सकता है। वैसे भी ये लक्षण ऐसे हैं जो न केवल भारत अपितु विश्वभर में कहीं भी उपयोगी हो सकते हैं और इन लक्षणों के आधार पर विश्व में कहीं भी भूगर्भस्थ जल की प्राप्ति के प्रयास किया जा सकते हैं।

वैसे तो लौकिक परम्परा आज भी भूगर्भस्थ जल के कई लक्षणों को जानती है। गाँव-गाँव के अनुभवी लोगों की संगति में नयी पीढ़ी भी सरलता से इस ज्ञान की शिक्षा लेती रहती है। गाँवों में आज भी सब जानते हैं कि जहाँ गूलर का पेड़ है वहाँ पानी है ही। वे यह भी जानते हैं कि कुआँ खोदते समय काली चट्टान जब तक रहेगी, पानी नहीं मिलेगा। परन्तु जैसे ही हरा पत्थर दिखाई देगा उसमें पानी का स्रोत मिल जाएगा। लोक अनुभव सिद्ध ज्ञान की बहुधा रक्षा करता है। और रक्षित ज्ञान की वह अन्तः सलिला आज भी पूरे भारत के ग्राम जनजीवन में बहती जा रही है। तब भी पुरातन काल में प्रचलित कुछ नये नुस्खे आज भी उपयोग हो सकते हैं। इसलिए सर्वजन हिताय उन्हें पुनः जनता के सामने प्रस्तुत कर देना अनुचित नहीं है। यही कारण है कि मालवा के निवासी और सर्वप्रसिद्ध ज्योतिर्विद वराहमिहिर की बृहत्संहिता का यह भूगर्भस्थ जल संबंधी उदकार्गल (पानी की रुकावट) नामक पूरा का पूरा उपयोगी अध्याय हिंदी अनुवाद सहित पृथक से प्रस्तुत किया जा रहा है। ताकि लोग उसमें दिए गए आधारों पर भूगर्स्थ जल लाभ लेते रहें। सारस्वत और मनु के मतानुसार वराहमिहिर जहाँ भूगर्भस्थ जल की प्राप्ति की सम्भावनाओं की तलाश कर रहे हैं वहीं राजा भोज विभिन्न प्रकार के जलों की मानव-स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगिता को रेखांकित कर रहे हैं। इस प्रकार दोनों दृष्टियां जल संबंधी हमारे ज्ञानवर्धन में नितांत उपयोगी हैं। इसीलिए यहाँ इन दोनो पक्षों को एक साथ प्रस्तुत किया जा रहा है।

उदकार्गलम्

धर्म्यं यशस्यं च वदाम्योSहंदकार्गलं येन जलोपलब्धिः।

पुंसां यथाङ्गेषु शिरास्त्तयैव क्षितावपि प्रोन्नतनिम्नसंस्थाः।।1।।

धर्म और यश देने वाला दकार्गल (जल बाधा) बताते हैं जिससे भूमि में वर्तमान जल ज्ञात होता है। जिस प्रकार मानव शरीर में नाड़ियाँ होती हैं उसी प्रकार पृथ्वी में भी विभिन्न ऊँची-नीची शिराएँ होती हैं।

एकेन वर्णेन रसेन चाम्भश्चयुतं नभस्तो वसुधाविशेषात्।

नानारसत्वं बहुवर्णतां च गतं परी यं क्षितितुल्यमेव।।2।।

आकाश से बरसता सब जल स्वाद में एक सा होता है। परन्तु भूमि की विशेषता से वह अनेक वर्ण और स्वाद का हो जाता है। उसकी परीक्षा भू्मि के समान ही करनी चाहिए। अर्थात् जैसी भू्मि होगी वैसा जल भी होगा।2

पुरहूतानलमयनिर्ऋतिवरुणपवनेन्दुशङ्करा देवाः।

विज्ञातव्याः क्रमशः प्राच्याद्यानां दिशां पतयः।।3।।

क्रमानुसार पूर्वादि आठों दिशाओं के आठ देवता स्वामी हैं- इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, वरुण, वायु, सोम और ईशान।3 इन आठों के नाम से आठ शिराएँ (धाराएँ) हैं जैसे ऐन्द्री, आग्नेयी, याम्या इत्यादि। मध्य में एक बड़ी महाशिरा कहलाती है। इनसे और भी सैकड़ों शिराएँ निकलीं जो अपने-अपने नाम से प्रख्यात है।4 जो शिरा पाताल से सीधी ऊपर निकलती है और जो चारों दिशाओं में हो, वह शुभ होती है। जो आग्नेय आदि कोणों की हो वह शुभ नहीं होती। शिराज्ञान की अब पहचान बताते हैं।5

यदि वेतसोSम्बुरहिते देशे हस्तैस्त्रिभिस्ततः पश्चात्।

सार्धे पुरुषे तोयं वहति शिरा पश्चिमा तत्र।।6।।

जलहीन देश में वेदमजनूँ नामक पेड़ के पश्चिम में तीन हाथ दूर डेढ़ पुरुष नीचे जल होता है। वहाँ पश्चिमी शिरा बहती है। एक पुरुष वह होता है। जब एक पुरुष अपने हाथ ऊपर खड़े करे। यह 120 अँगुल का होता है।6

चिह् नमपि चार्ध पुरुषे मंडूकः पाण्डूरोSथ मृत्पीता।

पुटभेदकश्च तस्मिन् पाषाणो भवति तोपनधः।।7।।

आधा पुरुष खोदने पर वहाँ श्वेत मेंढक निकलता है, फिर पीले रंग की मिट्टी होती है। उसके बाद परतदार पत्थर होता है। उसके नीचे पानी होता है।7

जम्ब्वाश्चोदगधस्तौस्त्रभिः शिराधो नरद्वये पूर्वा।

मृल्लोहगन्धिका पाण्डुराय पुरुषेSत्र मण्डूकः।।8।।

जलहीन देश में जामुन के पेड़ से तीन हाथ उत्तर में दो पुरुष नीचे पूर्व दिशा की शिरा (आव) होती है। खोदने पर वहाँ से लोहे के गंध की मिट्टी निकलती है। फिर पांडुरंग की मिट्टी होती है। एक पुरुष नीचे मेंढक निकलता है।(8)

जम्बूवृक्षस्य प्राग्वल्मीको यदि भवेत्समीपस्थः।

स्माद्दक्षिणपाशर्वे सलिलं पुरुषद्वये स्वादु।।9।।

यदि जामुन के पेड़ से पूर्व दिशा में पास ही सर्प की बाँबी हो तो उस पेड़ से तीन हाथ दक्षिण में दो पुरुष नीचे मधुर जल होता है।9 वहाँ आधा पुरुष खोदने पर मत्स्य निकलता है और कबूतर के रंग का पत्थर होता है। यहाँ की मिट्टी नीली होती है, जल होता है। जो बिल्कुल काला होता है। यह भी तीन हाथ दूर हो।10 निर्जल क्षेत्र में गूलर के वृक्ष से तीन हाथ पश्चिम में ढाई पुरुष नीचे शिरा होती है। एक पुरुष नीचे सफेद सर्प निकलता है, फिर काजल सा बिलकुल काला पत्थर होता है। उसके नीचे मनोहर जल की धारा होती है।11

उदगर्जुनस्य दृश्यो वल्मीको यदि ततोSर्जुनाद्धस्तैः।।

त्रिभिरम्बु भवति पुरुषैस्त्रियभिरर्धसमन्वितैः पश्चात्।।12।।

अर्जुन वृक्ष के उत्तर में तीन हाथ पर बाँबी हो तो उस वृक्ष से तीन हाथ पश्चिम में साढ़े तीन पुरुष खोदने पर सफेद रंग की गोह, एक पुरुष नीचे धूसर वर्ण की मिट्टी, फिर काली, पीली और फिर बालू रेत मिली सफेद मिट्टी मिलती है। उसके नीचे प्रचुर पानी होता है।12 बाँबी वाला निर्गुडी (सिन्धुवार) वृक्ष के तीन हाथ दक्षिण में सवा दो पुरुष नीचे मधुर और अखूट जल होता है।14 वहाँ आधा पुरुष खोदने पर रोहू मछली मिलती है। फिर क्रमशः हल्के पीले रंग की, पांडुवर्ण की और पत्थर के बूरे के साथ बालू रेत के बाद जल होता है।15

पूर्वेण यदि बदर्या वल्मीको दृश्यते जलं पश्चात्।

पुरुषैस्त्रिभिरोदेश्यं श्वेता गृहगोधिकार्धनरे।।16।।

सपलाशा बदरी चेद् दिश्यपरस्यां ततो जलं भवति।

पुरुषत्रये सपादे पुरुषेSत्र द डुण्डुभिश्चिह्नम्।।17।।

बेर के पेड़ के पूर्व में बाँबी होने पर उस वृक्ष के तीन हाथ पश्चिम तीन पुरुष नीचे जल होता है। आधा पुरुष नीचे सफेद छिपकली होती है।16 जलरहित क्षेत्र में ढाक के पेड़ के साथ बेर का पेड़ हो तो उसके पश्चिम में तीन हाथ पर सवा तीन पुरुष नीचे जल होता है। वहाँ एक पुरुष खोदने पर निर्विष सर्प निकलता है।17

बिल्वोदुम्बरयोगे विहाय हस्तत्रयं तु याम्पेन।

पुरुषैस्त्रिभिरम्बु भवेत् कृष्णोSर्धनरे च मण्डूकः।।18।।

बेल व गूलर के पेड़ जहाँ एकत्र हों तो उनके दक्षिण में तीन हाथ दूर तीन पुरुष नीचे जल होता है। और आधा पुरुष खोदने पर काला मेंढक निकलता है।18 आकगूलर के पास बाँबी हो तो बाँबी के नीचे सवा तीन पुरुष खोदने पर पश्चिमवाहिनी शिरा निकलती है।19

आपाण्डुपीतिका मृद्गोरसवर्णश्च भवति पाषाणः।

पुरुषाSर्धे कुमुदनिभो दृष्टिपथं मूषको याति।।20।।

पीले और पांडु रंग की मिट्टी, मट्ठे जैसा सफेद पत्थर निकलता है और आधे पुरुष नीचे कुमुदपुष्प जैसा श्वेत चूहा प्रकट होता है।(20) जलरहित क्षेत्र में कपिल वृक्ष से तीन हाथ पूर्व में सवा तीन पुरुष नीचे दक्षिण शिरा बहती है।(21)

मृन्नीलोत्पलवर्णा कापोता चैव दृश्यते तस्मिन्।

हस्तेSजगन्धिमत्स्यो भवति पयोSल्पं च सक्षारम्।।22।।

पहले नीलकमल सी, फिर कबूतर वर्ण की मिट्टी दिखाई देती है। एक हाथ नीचे मछली निकलती है। उसमें चकोर जैसी दुर्गन्ध होती है। वहाँ थोड़ा और खारा पानी निकलता है।22

शोणाकरोरपरोत्तरे शिरा द्वौ करावतिक्रम्य।

कुमुदा नाम शिरां सा पुरुषत्रयवाहिनी भवति।।23।।

जलरहित क्षेत्र में श्योनाक (अरलू) पेड़ के दो हाथ वायव्य (उत्तर-पश्चिम) में खोदने से तीन पुरुष नीचे क्रमशः शिरा मिलती है। (23) बहेड़ा पेड़ के पास बाँबी हो तो उस पेड़ के दो हाथ पूर्व में डेढ़ पुरुष नीचे शिरा होती है। (24)

तस्यैव पश्चिमायां दिशि वल्मीको यदा भवेद्धस्ते।

तत्रोदग्भवति शिरा चतुर्भिरर्धाधिकैः पुरुषैः।।25।।

बहेड़े पेड़ के पश्चिम में बाँबी हो तो वृक्ष से एक हाथ उत्तर में साढ़े चार पुरुष नीचे शिरा होती है। 25

श्वेतो विश्वम्भरकः प्रथमे पुरुषे तु कुंकमाभोSश्मा।

अपरस्यां दिशि च शिरा नश्यति वर्षत्रयेSतीते।।26।।

वहाँ एक पुरुष खोदने पर सफेद विश्वंभरक (एक प्राणी), तब केशरिया पत्थर के नीचे पश्चिम वाहिनी शिरा (आव) मिलती है। यह तीन वर्ष बाद सूख कर समाप्त हो जाती है। 26

सकुशाशित ऐशान्यां वल्मीको यत्र कोविदारस्य।

मध्ये तयोर्नरैरर्धपञ्चमैस्तोयमक्षोभ्यम्।।27।।

कोविदार (सप्तपर्ण वृक्ष के ईशान (उत्तर-पूर्व) में कुश सहित सफेद मिट्टी की बाँबी हो तो वृक्ष और बाँबी के बीच साढ़े पाँच पुरुष नीचे बहुत पानी होता है। (27) प्रथम पुरुष खोदने पर कमल के फुल के मध्यभाग जैसे रंग का सर्प निकलता है। फिर लाल रंग की मिट्टी, फिर कुरविन्द (लालमणि) नामक पत्थर आता है। 28 जलरहित क्षेत्र में बाँबी वाले सप्तपर्ण से एक हाथ उत्तर में पांच पुरुष नीचे जल होता है। (29)

पुरुषार्धे मण्डूको हरितो हरितालसन्निभा भूश्च।

पाषाणोSभ्रनिकाशः सौम्या च शिरा शुभाम्बुवाहा ।।30।।

यहाँ आधा पुरुष खोदने पर हरा मेंढक, फिर हरिताल जैसी पीली मिट्टी, फिर मेघ जैसा काला पत्थर, उसके नीचे मधुर जल की उत्तरी आव मिलती है। (30) किसी भी पेड़ के नीचे मेंढक हो तो उस वृक्ष के एक हाथ उत्तर साढ़े चार पुरुष नीचे पानी होता है। (31)

पुरुषे तु भवति नकुलो नीला मृत्पीतिका ततः श्वेता।

दर्दुरसमानरूपः पाषाणो दृश्यते चात्र।।32।।

वहाँ एक पुरुष नीचे नेवला निकलता है। फिर नीली, पीली, श्वेत मिट्टी के बाद मेंढक जैसे रंग का पत्थर होता है। (32)

यद्यहिनिलयो दृश्यो दक्षिणतः संस्थितः करञ्जस्य।

हस्तद्वये तु याम्ये पुयाषत्रितये शिरा सार्धे।।33।।

करंज के पेड़ के दक्षिण में वल्मीक हो तो वृक्ष से दो हाथ दक्षिण में साढ़े तीन पुरुष नीचे आव होती है। (33)

कच्छपकः पुरुषार्थे प्रथमं चोद्भिद्यते शिरा पूर्वा।

उदगन्या स्वादुजला हरितोSधस्ततस्तोयम्।।34।।

वहाँ आधे पुरुष नीचे कछुआ फिर पूर्व दिशा की शिरा का पानी निकलता है। और फिर दूसरी स्वादिष्ट पानी की उत्तरी आव आती है। पहले हरे रंग का पत्थर होता है। उसके नीचे पानी होता है। (34) महुए के पेड़ के उत्तर में बाँबी हो तो उस वृक्ष के पश्चिम में पाँच हाथ दूर साढ़े आठ पुरुष नीचे पानी होता है। (35)

अहिराजः पुरुषेSस्मिन् धूम्रा धात्री कुलत्थवर्णोSश्मा।

माहेन्द्री भवति शिरा वहति सफेनं सदा तोयम्।।36।।

पहले पुरुष खोदने पर बड़ा सर्प, फिर धुएँ जैसी भूमि, फिर कुलथी के रंग के पत्थर के नीचे आव पूर्व की आती है। उसमे से सदैव झागदार पानी आता है। (36)

वल्मीकः स्निग्धो दक्षिणेन तिलकस्य सकुशदूर्श्वश्चेत्।

पुरुषैः पञ्चभिरम्भो दिशि वारुण्यां शिरा पूर्वा।37।।

तिलक तरु के दक्षिण में दूर्वा और कुश वाली बाँबी हो तो उस पेड़ से पाँच हाथ पश्चिम में पाँच पुरुष गहराई पर जल पूर्व दिशा से आता है। (37)

सर्पावासः पश्चाद् यदा कदम्बस्य दक्षिणेन जलम्।

परतो हस्तत्रितयात् षड्भिः पुरुषैस्तुरीयोनैः।।38।।

कदंब पेड़ के पश्चिम में बाँबी हो तो उस पेड़ से दक्षिण तीन हाथ पर पौने छः पुरुष नीचे जल स्तर से बहुत होता है। जिसमें लोहे की गंध आती है। एक पुरुष नीचे स्वर्णिम मेंढक के बाद पीली मिट्टी निकलती है। (38/39) बाँबी से घिरा ताड़ का अथवा नारियल का पेड़ हो तो उससे छः हाथ पश्चिम में चार पुरुष नीचे दक्षिण शिरा होती है। (40)

याम्येन कपित्थस्याSहिसंश्रयश्चेदुदग्जलं वाच्यम्।

सप्त परित्यज्य करान् खा्त्वा पुरुषान् जलं पञ्च ।।41।।

कैथ के वृक्ष से दक्षिण में बाँबी हो तो वृक्ष से सात हाथ उत्तर में पाँच पुरुष नीचे जल होता है। (41)

कर्बुरकोSहिः पुरुषे कृष्णा मृत्पुटभिदपि च पाषाणः।

श्वेता मृत्पश्चिमतः शिरा ततश्चोत्तरा भवति।।42।।

एक पुरुष नीचे चितकबरा साँप और काली मिट्टी, फिर परतवाला पत्थर, फिर सफेद मिट्टी और फिर उत्तर से आती धारा होती है। (42) अश्मंतक पेड़ के वाम भाग में बेर का वृक्ष हो या बाँबी हो तो अश्मंतक से छः हाथ उत्तर में साढ़े तीन पुरुष नीचे पानी होता है। (43)

कूर्मः प्रथमे पुरुषे पाषाणो धूसरः ससिकता मृत्।

आदौ शिरा च याम्या पूर्वोत्तरतो द्वितीया च।।44।।

एक पुरुष पर कछुआ, फिर धूसर रंग का पत्थर और रेत मिली मिट्टी, फिर पहले दक्षिण आव के बाद ईशान (पू्र्वोत्तर) की आव निकलती है। (44) हलदुआ (हरिद्र) वृक्ष के वाम में बाँबी होने पर उस वृक्ष से तीन हाथ पूर्व में एक तिहाई सहित पाँच पुरुष नीचे पानी होता है। (45)

नीलो भुजगः पुरुषे मृत्पीता मरकतो पमश्चाश्मा।

कृष्णा भूः प्रथमं वारुणी शिरादक्षिणे नान्या।।46।।

एक पुरुष नीचे नीला सर्प, तब पीली मिट्टी, फिर हरा पत्थर के बाद काली भूमि मिलती है। बाद में पश्चिम धारा के बाद दक्षिण आव निकलती है। (46) निर्जल देश में बहुत जल के क्षेत्र के निशान हों और वीरण (गॉडर) और दूर्वा कोमल हों तो एक पुरुष नीचे पानी होता है। (47)

भार्ङ्गी विवृता दन्ती शूकरपादीश्च लक्ष्मणा चैव।

भांरगी, निसोत दंती (दत्यूणी), सूकरपादी, लक्ष्मण, मालती वनस्पति जहाँ हो तो उनसे दो हाथ दक्षिण में तीन पुरुष नीचे पानी होता है। (48) जहाँ चिकनी लम्बी शाखा वाले छोटे-छोटे फैले हुए वृक्ष हों तो जल पास में ही होता है। परन्तु छेदवाले जर्ज पत्तों के रूखे पेड़ हों वहाँ पानी नहीं होता। (49)

तिलकाम्रातकवरुणकभल्लातकबिल्वतिन्दुकाङ्कोल्लाः।

पिण्डारशिरीषांजनपरूका वञ्जुलाSति वलाः।।50।।

तिलक, अंबाडा, वरण, भिलावा, बेल, तेंदु, अंकोल पिंडार, सिरस, अंजन, अशोक तथा फालसा एवं अतिबला पेड़ स्निग्ध बाँबियों से घिरे हों तो उत्तर में साढ़े चार पुरुष नीचे पानी होता है।(50-51)

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