जलवायु परिवर्तन अर्थ केन्द्रित विकास का परिणाम है, जिसे 21वीं शताब्दी की सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। विकास मानव की अपनी क्षमताओं की पहचान और उसमें वृद्धि कराने वाली और बेहतर जीवन शैली प्राप्त करने के लिए सक्षम बनाने वाली अनवरत प्रक्रिया है। अतः विश्व जनसंख्या के बढ़ने और जीवन शैली में आए परिवर्तन से खाद्य की मांग बढी है, लेकिन बढ़ती आबादी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए फसलों का उत्पादन उस अपेक्षित स्तर तक नहीं बढ़ पाया जितनी की मांग बढ़ी। कृषि पर जलवायु के नकारात्मक प्रभाव से यह चुनौती और गहरा रही है क्योंकि जलवायु परिवर्तन से कृषि प्रतिकूल रूप से प्रभावित हो रही है, उपज घट रही है और मौसमी परिस्थितियां पलट रही हैं। उपज के वर्तमान स्तर को बनाये रखने के लिए तथा आवश्यकता के अनुरूप उत्पादन बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर विनियोग आवश्यक है। विश्व बैंक के अनुसार वर्तमान में कुल ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का लगभग 19-29 प्रतिशत कृषि से होता है, जिससे जलवायु पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और 21वीं शताब्दी के अंत तक खाद्यान्नों के उत्पादन में 10 प्रतिशत कमी आ सकती है।
<p><h3><em>"जलवायु परिवर्तन के कारण विगत कई वर्षों में फसल चक्र में बहुत अधिक परिवर्तन हुआ है जिससे गेहूं एवं चना आदि फसलों के क्षेत्रफल में गिरावट देखी गई है। अनुमान है कि चारा सम्बन्धित अनाज का उत्पादन 2020 तक 2-14 प्रतिशत तक गिर जायेगा तथा 2050 तक इसके उत्पादन में और भी तीव्र गिरावट आयेगी, जबकि गंगा के मैदान में गेहूं के उत्पादन में 51 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की जायेगी। धान की खेती के लिए मौजूदा तापमान पहले से ही नाजुक स्थिति में पहुंच चुका है। हाल ही में किये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार यह अनुमान लगाया गया है कि 2050 तक खाद्यान्नों के उत्पादन में 18 प्रतिशत की गिरावट आयेगी।"<br> जलवायु परिवर्तन क्या है?</em></h3></p>
प्राकृतिक, मशीनरी एवं वैज्ञानिक प्रक्रियाओं, जैसे कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन आदि ग्रीन हाउस गैसों के कारण पृथ्वी की जलवायु में हुए हुए दीर्घकालीन परिवर्तनों को जलवायु परिवर्तन कहा जाता है। ये गैस वायुमंडलीय क्षेत्र में जमा हो जाती हैं और गर्मी को वायुमंडल में ही रोके रखती हैं, जिसके कारण ग्लोबल वार्मिंग होती है और जलवायु परिवर्तन होता है। ऋतु परिवर्तन, वैश्विक तापमान में वृद्धि, समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी, फसल चक्र में बदलाव के कारण न केवल हमारे बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी भूस्खलन, सुनामी, अकाल, महामारी, जन पलायन तथा स्वास्थ्य के लिए बड़ी आपदाएं हैं। पृथ्वी के औसत तापमान में पिछले 100 वर्षों में 0.74 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। इंटर गवर्नमेंट पैनल फॉर क्लाइमेट चेंज के अनुसार यह इस शताब्दी के अंत तक 1.8 से 4 डिग्री सेल्सियस हो जाएगा जिसका कृषि उत्पादन, पशुधन, मछली पालन आदि पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ेगा अर्थात् दोनों ही अर्थों में यह तापमान इन क्षेत्रों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगा।
5 .किसानों, मछुआरों, मजदूरों, महिलाओं की आजीविका व खाद्य सुरक्षा की चुनौती गरीब व विकासशील देशों में भयावह रूप लेती जा रही है। प्रतिवर्ष लगभग 3 लाख लोगों की मृत्यु व 1.2 ट्रिलियन डॉलर की आर्थिक हानि का दोष जलवायु परिवर्तन को ही दिया जा सकता है। इन्टरगवर्नमेंट पैनल फॉर क्लाइमेट चेंज के अनुसार वर्ष 2050 तक पर्यावरण के कारणों से पलायन करने वालों की संख्या लगभग 150 मिलियन होगी। केवल एशिया पैसेफिक क्षेत्र से वर्ष 2010-11 में जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न विपत्तियों से विस्थापित होने वालों की संख्या 42 मिलियन थी। मौजूदा जलवायु परिवर्तन के कारण पड़ने वाले संभावित प्रभाव भारत की अर्थव्यवस्था के विकास और संवृद्धि पर कुछ इस तरह से नकारात्मक असर डालेंगे कि उससे कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं होगा। इनमें से कुछ संभावित प्रभाव तो निकट भविष्य में ही 2040 तक महसूस किए जा सकेंगे, जबकि कुछ प्रभाव लम्बे समय के दौरान यानी लगभग 2100 तक देखने को मिलेंगे।
6. औद्योगिक क्रांति से लेकर अब तक एक-तिहाई परम्परागत ऊर्जा-स्त्रोत खर्च हो चुके हैं। इन गतिविधियों के परिणामस्वरूप आर्कटिक बर्फ की चादर और हिमनद अभूतपूर्व रूप से पिघल रहे हैं, महासागरों का अम्लीकरण बढ़ रहा है और भूमि लगातार बंजर होती जा रही है। प्राकृतिक आपदाओं के कारण हो रहे नुकसान की वजह से कृषि को बचाना चिंता का विषय बन गया है। जलवायु परिवर्तन विकास की गति के लिए बड़ा खतरा बन ही गया है। इसका पहला कारण बाढ़, सूखा, गर्म हवाएं, चक्रवात, आंधी की लहरें आदि हैं, वहीं दूसरा कारण ( अवसंरचना, दायरा और सेवाओं) पारितंत्रों का क्षरण या बदलाव, खाद्य उत्पादन में गिरावट, जल उपलब्धता की कमी तथा आजीविका पर नकारात्मक प्रभाव आदि हैं। समुद्र के जल स्तर में वृद्धि होने से फसल चक्र में परिवर्तन हो रहा है ।
7. भारत में जलवायु परिवर्तन एक बड़ी चिंता का विषय है। मध्यावधि जलवायु परिवर्तनों से गंभीर नकारात्मक प्रभावों का अंदेशा है। यह पूर्वानुमान लगाया गया है कि ऊष्मा की मात्रा और वितरण के अनुसार उपज 4.5 प्रतिशत से 9 प्रतिशत तक कम हो सकती है। मोटे तौर पर प्रति वर्ष सकल घरेलू उत्पाद का 1.5 प्रतिशत तक उपज कम हो सकती है। ग्लोबल वार्मिंग से वर्ष 2020 तक दूध का उत्पादन 1.5 से 2.0 मिलियन टन और वर्ष 2050 तक 15 मिलियन टन कम होने की संभावना है। इसका मछली प्रजनन, उसके प्रवास और पैदावार पर भी प्रभाव पड़ सकता है। पाले के कुप्रभाव से संवेदनशील फसलों जैसे चना, सरसों, धनिया, आंवला, अरण्डी आदि का उत्पादन प्रभावित हुआ है।
8. वर्तमान जलवायु परिवर्तन की अवस्थिति भविष्य में जैव विविधता संरक्षण के लिए खतरा है, तथापि जैव विविधता विशेषकर जंगल और वृक्ष पर आधारित जैविक कृषि जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम कर सकती है और इस चुनौती से निपटने के लिए मानव क्षमता को बढ़ा सकती है।
जलवायु के अन्तर्गत दो तत्वों का प्रमुख रूप से समावेश होता है-पहला जल व दूसरा वायु इन दोनों तत्वों का संतुलित रहना मानव स्वास्थ्य के लिए अति आवश्यक है। आज जलवायु परिवर्तन का तकाजा यह है कि सरकार और समाज मिलकर एक ओर शिक्षा, कुशल जैविक कृषि, कुटीर ग्रामोद्योग, सार्वजनिक वाहन, बिना ईंधन के वाहन आदि की बेहतरी व संरक्षण में लगे, तो दूसरी ओर धन का अपव्यय रोके, कचरा कम करें, पलायन व जनसंख्या नियंत्रित करें, फसलोत्तर प्रबंधन प्रभावी बनाएं, नदियाँ बचाएं, भूजल भण्डार बढ़ाएं इत्यादि ।
<p><h3><em>'विगत् 4-5 दशकों में तथाकथित विकास की चाह में प्रकृति का अंधाधुंध शोषण हुआ है तथा विश्व में उपभोक्तावादी संस्कृति का उदय हुआ है जिसके दुष्परिणाम से आज विश्व जलवायु परिवर्तन जैसे गंभीर संकट से जूझ रहा है। तापमान बढ़ने का मुख्य कारण वातावरण में ग्रीन हाउस गैस जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरो कार्बन और सल्फर ऑक्साइड आदि की मात्रा में वृद्धि होना है। ये गैसें औद्योगिक कारखानों एवं कृषि क्षेत्रा से उत्सर्जित होती हैं और पृथ्वी के वातावरण में एक आवरण बना देती हैं जो सूर्य से आने वाले प्रकाश के एक भाग को वापस नहीं जाने देती जिससे पृथ्वी का तापमान बढ़ता है। इसे हम ग्रीन हाउस प्रभाव भी कह सकते हैं।'</em></h3></p>
जलवायु चुस्त कृषि को संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन ने एक पद्धति के रूप में विकसित किया है। इसके अन्तर्गत जमीन, मवेशी, वन और मछली प्रबंधन सम्मिलित है। जलवायु चुस्त कृषि का मूल उद्देश्य खाद्य सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन की आपस में जुड़ी ( सम्बद्ध) चुनौती से पार पाना है। जलवायु चुस्त कृषि को ऐसी कृषि के रूप में परिभाषित किया है जिसमें उत्पादन निरंतर बढ़े, क्षमता विकास, ग्रीन हाउस उर्त्सजन यथासंभव कम हो या खत्म हो और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा तथा विकास के लक्ष्य प्राप्त किये जा सकें। जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि सर्वाधिक असुरक्षित क्षेत्र है। वर्षा की पद्धति में परिवर्तन का परिणाम, जल की अत्यंत कमी अथवा बाढ़ हो सकते हैं। बढ़ते तापमान से फसल बुवाई मौसम में परिवर्तन, यहां तक कि उपज में कमी आ सकती है। पर्यावरण पर और भी प्रभाव पड़ सकते हैं जिनसे समग्र रूप से कृषि उत्पादन क्षतिग्रस्त हो सकता है। इसलिए
5. विद्यमान हानिकारक नीतियों को दूर करना जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को बढ़ा देती हैं। और कृषि की ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन कम करना, कार्बन तथा जल शोधन और जैव विविधता जैसी अन्य कृषि पारिस्थितिकी सेवाओं के मूल्यांकन से स्थायी कृषि प्रणालियों को प्रोत्साहन।
<p><em><h3>'जलवायु चुस्त कृषि को संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन ने एक पद्धति के रूप में विकसित किया है। इसके अन्तर्गत जमीन, मवेशी, वन और मछली प्रबंधन सम्मिलित है। जलवायु चुस्त कृषि का मूल उद्देश्य खाद्य सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन की आपस में जुड़ी ( सम्बद्ध) चुनौती से पार पाना है। जलवायु चुस्त कृषि को ऐसी कृषि के रूप में परिभाषित किया है जिसमें उत्पादन निरंतर बढ़े, क्षमता विकास, ग्रीन हाउस उर्त्सजन यथासंभव कम हो या खत्म हो और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा तथा विकास के लक्ष्य प्राप्त किये जा सकें। जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि सर्वाधिक असुरक्षित क्षेत्र है। वर्षा की पद्धति में परिवर्तन का परिणाम, जल की अत्यंत कमी अथवा बाढ़ हो सकते हैं। बढ़ते तापमान से फसल बुवाई मौसम में परिवर्तन, यहां तक कि उपज में कमी आ सकती है। पर्यावरण पर और भी प्रभाव पड़ सकते हैं जिनसे समग्र रूप से कृषि उत्पादन क्षतिग्रस्त हो सकता है।'</h3></em></p>
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जलवायु चुस्त कृषि के उद्देश्य को संक्षेप में इस प्रकार उल्लेखित किया जा सकता है:-
यह महसूस किया गया है कि बाजारों में सुधार, कृषि नीतियों में परिवर्तन, सामाजिक सुरक्षा में वृद्धि और आपदाओं के लिये उचित तैयारी करना जैसे प्रतिक्रियात्मक अनुकूलनों की अपनी सीमाएं है। अतः खाद्य सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन की अंतर संबंधित चुनौतियों के समाधान के लिए जलवायु चुस्त कृषि के सक्रिय प्रचार की आवश्यकता है। यह कार्य पोषणीय विकास के तीन आयामों अर्थात्-
विश्व बैंक वर्तमान में जलवायु चुस्त कृषि को आगे बढ़ा रहा है और इस संगठन ने अपनी जलवायु परिवर्तन कार्ययोजना में 2019 तक 100 प्रतिशत जलवायु चुस्त कृषि परिचालन के लिए प्रतिबद्धता जताई है। दूसरी ओर विश्व बैंक समूह पोर्टफोलियों भी आने वाले समय में अनुकूलन और क्षमता विकास को बढ़ाएगा। सदाबहार कृषि को अपनाने वाले अफ्रीकी किसानों को महंगे खादों का इस्तेमाल किए बिना ही बेहतरीन परिणाम मिल रहे हैं। उनका फसल उत्पादन लगभग 30 प्रतिशत और कभी-कभी इससे ज्यादा बढ़ जाता है। उदाहरण के लिए जांबिया में मक्के को फेर्डर्बिया पेड़ों के नीचे उगाने से उत्पादन तीन गुना बढ़ गया।
(i) 2030 तक सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता में 2005 के स्तर की अपेक्षा 32 से 35 प्रतिशत की कमी लाना और
(ii) 2030 तक लगभग 40 प्रतिशत बिजली का उत्पादन अजीवाश्मीय ईंधन आधारित स्त्रोतों जैसे परमाणु, सौर, पवन, बायोमास एवं बायोगैस से करना ।
12. विश्व का लगभग 97 प्रतिशत जल संसाधन समुद्री जल है। अब हैलोफाइट (नमक सहने वाला पौधा) और मत्स्यपालन के द्वारा जैवलवणीय कृषि के लिए संभावना है।
हैलोफाइट को संरक्षित करने और जलवायु से अप्रभावित रहने वाली तटीय कृषि प्रणालियां तैयार करने हेतु प्रजननकर्ताओं को हैलोफाइट उपलब्ध कराने हेतु दो संस्थानों की स्थापना की गई है। वास्तव में स्थानीय स्तर पर कार्बन के साथ विकास में योगदान देने का सबसे प्रभावी तरीका "प्रत्येक खेत में बायोगैस संयंत्र, कम उर्वरक, पेड़ तथा एक तालाब के सिद्धांत का पालन करता है।
वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए गंभीर प्रयास आरंभ हुए है, जहां संयुक्त राष्ट्र संघ की महती भूमिका है। 1992 में रियो सम्मेलन में इस समस्या को सतत् विकास के प्रारूप में लाकर इसको हल करने का कारगर प्रवास किया गया। प्रतिवर्ष "जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र प्रारूप कर्वेशन" के अन्तर्गत होने वाले "कान्फ्रेंस ऑफ पार्टिज सम्मेलन,क्योटो बाली सम्मेलन, दोहा सम्मेलन, कैनकुन सम्मेलन और 30 नवम्बर से 11 दिसम्बर, 2015 में सम्पन्न पेरिस सम्मेलन इस समस्या से निपटने के लिए महत्वपूर्ण प्रवास हैं। उदाहरणार्थ 2012 में रियो +20 सम्मेलन में सतत विकास की प्रक्रिया के ढांचे में जलवायु परिवर्तन की समस्या पर गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श किया गया। पेरिस में आयोजित कॉप-21 में विश्व तापमान को वृद्धि 2 डिग्री सेन्टीग्रेड से कम रखने पर आम सहमति बनी। सभी राष्ट्रों ने स्वैच्छिक राष्ट्रीय निर्धारित योगदान के अन्तर्गत अपनी प्रतिबद्धताएं जाहिर की। लेकिन इन सब सदप्रयासों से वांछित परिणाम उसी दशा में आ सकते हैं, जब गरीब व विकासशील देशों को तकनीकी व वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाए और विकसित देश अपनी जवाबदेही के प्रति संवेदनशील हों।
पेरिस समझौते में निहित प्रावधानों के क्रियान्वयन की दिशा तय करने के संदर्भ में मारकेश कॉप-22 महत्वपूर्ण मान लिया गया क्योंकि इसमें पेरिस समझौते के क्रियान्वयन के लिए "पेरिस समझौते पर तदर्थ कार्यदल का गठन हुआ है। इस कार्यदल के नियम व मार्गदर्शिका तैयार की गई ताकि पेरिस समझौते के कार्यान्वयन की रूपरेखा तैयार हो सके जिनको 2018 तक पूरा करना है। इसे एक बड़ी चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन इस प्रक्रिया पर सहमति बनाते हुए मारकेश कॉप-22 में काफी हद तक सफलता मिली है। सच बात तो यह है कि पेरिस जलवायु समझौता, अभी एक समझीता भर है। कुल वैश्विक कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेवार देशों में से 55 देशों की सहमति के बाद यह समझौता एक कानून में बदलना है। शायद इसी के मध्यनजर 22 अप्रैल, 2016 को संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय पहुंचकर समझौते पर विधिवत हस्ताक्षर करने की बात तय हुई थी। वर्ष 2020 से प्रभावी होने वाले इस समझौते के लक्ष्यों के अनुरूप प्रगति के आंकलन हेतु 2023 से वैश्विक समीक्षा की जाएगी। इसके बाद प्रत्येक 5 वर्ष पर समीक्षा की जाती रहेगी। कॉप-23 का आयोजन फिजी में किया जाएगा। यह आशा की जा रही है कि सम्मेलन इस आइसलैण्ड से जुड़े राष्ट्रों के सरोकारों पर गंभीरतापूर्वक चिंतन होगा कॉप-22 सम्मेलन में भारत का दृष्टिकोण बहुत स्पष्ट रहा है। भारत जलवायु परिवर्तन का सामना करने वाले प्रयासों में कोई कसर नहीं छोड़ेगा। भारत सौर ऊर्जा को प्राथमिकता के साथ आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है। जलवायु परिवर्तन का सामना करने हेतु वैश्विक प्रयासों के साथ-साथ व्यक्तिगत स्तर पर किए जाने वाले प्रयास भी महत्वपूर्ण हैं।