शहर में कंक्रीट की छतें आग उगल रही हैं। कंक्रीट के ये निर्माण शहरों को हीटआईलैंड (ऊष्माद्वीप) में तब्दील कर रहे हैं। घरों को ठंडा रखने की सस्ती और कामयाब तकनीक बताते हुए नासा ने छतों को सफेद करने का उपाय सुझाया है। भारत में भी बहुत से लोग इस तकनीक को आजमा रहे हैं। इस तकनीक से न केवल शहरों में बने कंक्रीट के घरों का तापमान कम किया जा सकता है बल्कि ग्लोबल वार्मिग पर भी कुछ हद तक काबू पाया जा सकता है।देश में गर्मी का मौसम अपने शबाब पर है एवं कई शहरों में तापमान 40 डिग्री सेल्शियस के आसपास या इससे ऊपर भी पहुँच रहा है। बढ़ते तापमान से शहरी क्षेत्र ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं क्योंकि वहाँ बनी कंक्रीट की सड़कें तथा पक्के मकान दिन के समय सूर्य प्रकाश की गर्मी को सोखते हैं जिससे गहरे रंग की छतें काफी गर्म हो जाती है।
रात के समय जब तापमान में कमी आ जाती है तो कंक्रीट के ये निर्माण ताप को छोड़ने लगते हैं जिससे तापमान बढ़ने लगता है। इस प्रकार ताप लेने एवं छोड़ने की क्रिया से तापमान में जो वृद्धि होती है, उसे उष्माद्वीप (हीट आईलैंड) कहते हैं। इस क्रिया से शहरों के तापमान में औसतन एक से तीन डिग्री सेल्शियस वृद्धि की गणना की गई है।
बढ़ती गर्मी एवं गर्म होते मकानों के अन्दर का तापमान कुछ कम करने के लिये कूलर एवं एयर कडींशनर (एसी) का उपयोग किया जाता है। इन दोनों का उपयोग पर्यावरण हितैषी नहीं माना जाता है। कूलर के प्रयोग में पानी की जरुरत होती है इसलिये पानी के इस अपव्यय की किसी भी तरह से सराहना नहीं की जा सकती है। इसी प्रकार एसी का प्रयोग मकानों को ठंडा तो करता है लेकिन वह आस पास के तापमान में वृद्धि करने का काम भी करता है। साथ ही एसी और कूलर चलाने से बिजली की खपत बढ़ती
अतः बिजली की खपत जितनी ज्यादा बढ़ेगी बिजलीघरों से कार्बन डाइऑक्साइड का उतना ही ज्यादा उत्सर्जन होगा। कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा देती है। इस तरह यहाँ यह कहना अनुचित नहीं होगा कि बिजली की बढती खपत वातावरण के ह्रास का एक कारण है। इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स के बढ़ते इस्तेमाल और कंक्रीट के मकानों की बढ़ती संख्या ने शहरों के तापमान को प्रभावित किया है और इस समस्या थोड़ा कम करने के लिये पर्यावरण वैज्ञानिकों ने सलाह दी है कि पक्के मकानों की छतों की पुताई सफदे रंग से की जाये। चूँकि सफेद रंग ऊष्मा का कुचालक होता है इसलिये यह कंक्रीट के निर्माण को तेजी से गर्म नहीं करता है।
अमेरिकी शोधकर्ता प्रो. क्रीस ओलेसन ने अपने अध्ययन के आधार पर बताया कि मकानों की छतों की सफेदी, शहरी गर्मी को 30 प्रतिशत तक कम कर सकती है। अमेरिका के नेशनल एरॉनाटिक एंड स्पेस एडमिनीस्ट्रेशन (नासा) तथा नेशनल सेंटर ऑफ एटमॉस्फीरिक रिसर्च के वैज्ञानिकों के आकलन अनुसार दुनिया भर के सारे मकानों की छतों की सफेदी से लगभग 44 गीगा टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कम होगा। लारेंस बर्कले प्रयोगशाला (एल.बी.एल) के वैज्ञानिक प्रो. हैदर रहा तथा उनके साथियों ने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के साथ अध्ययन कर यह पाया कि छतों की सफेदी से घर के अन्दर का तापमान औसतन 4 डिग्री सेल्शियस तक कम हो जाता है जिससे लोगों की एसी पर निर्भरता काफी घट जाती है।
एलबीएस के ही प्रो. एच अकबरी ने केलिफोर्निया के पास सेकरामेटा नामक स्थान पर किये गए प्रयोग के दौरान यह पाया कि छतों की सफेदी के साथ-साथ मकान के आसपास यदि वृक्ष हो तो एसी की आवश्यकता को 40 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। उनके अनुसार छत की सफेदी सूर्य के प्रकाश को परावर्तित कर देती है वहीं वृक्ष की पत्तियों से निकली जलवाष्प तापमान को कम कर देती है।
एलबीएस के पूर्व निर्देशक प्रोफेसर आर्थर रोजेनफील्ड ने भी प्रयोगों के आधार पर बताया कि छत की सफेदी तथा वृक्षों से स्मॉग की मात्रा लगभग 10 प्रतिशत घट जाती है। इसका कारण यह है कि तापमान कम होने से ओजोन गैस का बनना भी घट जाता है जो स्मॉग के निर्माण में सहायक होती है। इन सारे अध्ययनों के आधार पर कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली सरकार के ऊर्जा नवीनीकरण विभाग ने ‘कूल रूफटॉप’ नाम से एक परियोजना प्रारम्भ की थी जिसके तहत सरकारी स्कूलों की छतों को सफेद किया जाना था।
इसी परियोजना के तहत न्यूफ्रेंड्स कॉलोनी के चार स्कूलों की छतों की सफेदी की गई थी जिसके परिणामस्वरुप बिजली की खपत 20 प्रतिशत की कमी आई थी। हैदराबाद के कुछ स्कूलों में भी इसी प्रकार के परिणाम देखे गए। मप्र में भी कुछ वर्षों पूर्व इस विषय पर चर्चा हुई थी एवं यह कहा गया था कि भूमि विकास अधिनियम 1984 में संशोधन कर भवन अनुज्ञा के लिये अनिवार्य शर्तों में छत सफेदी के कार्य को भी जोड़ा जाये।
छत को ठंडा रखने के लिये कई प्रकार की विधियाँ सुझाई गई हैं जो अलग-अलग प्रकार की सामग्री पर आधारित है। इन विधियों में प्रमुख है खोखली क्ले टाईल्स, ताप प्रतिरोधी टाईल्स, चाइना मोजेक टाईल्स, लाईम कंक्रीट, मिट्टी के उल्टे पात्र, शीतल छल पेंट, बाँस के पर्दे, हरी जालियों से छाया तथा थर्मीक्रीट आदि। इन सभी विधियों में अलग-अलग सामाग्री के उपयोग के आधार पर खर्च में भी भिन्नता होती है।
कुछ वर्षों पूर्व रॉकफेलर फाउंडेशन ने देश में कार्यरत तरू नामक संस्था के साथ सूरत एवं इन्दौर शहर में मकानों की छतों को ठंडा रखने के लिये प्रयोग किये थे। दोनों शहर के कुछ इलाकों के मकानों की छतों पर उपरोक्त में दी गई विधियों में से किसी एक का प्रयोग किया गया था एवं परिणाम काफी अच्छे रहे थे। बेअरफुट पर्यावरणविदों का कहना है कि इस प्रयोग को करने के लिये काफी ज्यादा तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। चूना, खड़ी या सफेद सीमेंट में कोई चिपकाने वाला रसायन डालकर पानी की मदद से उनका घोल बनाकर ब्रश की सहायता से छत की पुताई करने पर काफी अच्छे परिणाम मिलते हैं।