जलवायु परिवर्तन

क्या समुद्री खाद्य शृंखलाएं जलवायु परिवर्तन से बदल जाएंगी

तेजी से हो रहे निरंतर जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में समय के साथ तेजी से पोषक तत्वों की कमी होती जाएगी। एक शोध का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन का दक्षिण प्रशांत, हिंद-प्रशांत, पश्चिम अफ्रीकी तट और मध्य अमरीका के पश्चिमी तट पर स्थित देशों की समुद्री खाद्य श्रृंखलाओं पर प्रतिकल प्रभाव पड़ने की आशंका है।

Author : डॉ. शुभ्रता मिश्रा

जलवायु परिवर्तन के कारण पैदा हुई भीषण तपन ने एक ओर पृथ्वी के ध्रुवों और हिमनदों को पिघलने पर मजबूर कर रखा है, वहीं समुद्री जल स्तर को बढ़ाने पर भी तुली हुई है। जलवायु परिवर्तन से समुद्रों और महासागरों के तापमान में वृद्धि के साथ-साथ वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर भी बढ़ रहा है। कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्धि से महासागरों की अम्लीयता बढ़ रही है। सारू रूप में देखा जाए तो जलवायु परिवर्तन के कारण प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से समुद्री पारिस्थितिक तंत्र बदल रहा है। निश्चित रूप से इससे समुद्री खाद्य श्रृंखलाएं और खाद्यजाल निरंतर नित नई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।

पृथ्वी के तेजी से गर्म होने से व्यापक स्तर पर समुद्र के भौतिक और रासायनिक गुणों के साथ-साथ उसके जैविक गुण भी प्रभावित हो रहे हैं। मूलतः समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र की संरचना और कार्य प्रणाली, समुद्री खाद्य आपूर्ति, समुद्री प्रजातियों की प्रचुरता और वितरण परिवर्तित हो रहे हैं। यह महज़ एक शुरुआत है, जो धीमी गति से आगे बढ़ रही है, परंतु कब अचानक तेज होकर समुद्री खाद्य श्रृंखलाओं की कड़ियां खुलने लगे और खाद्य जाल तार तार होने लगे, कहना मुश्किल है।

समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में प्राथमिक उत्पादकों से लेकर उच्च श्रेणी के उपभोक्ताओं तक खाद्य पदार्थों या खाद्य ऊर्जा के स्थानांतरण के क्रमबद्ध प्रवाह पथ को समुद्री खाद्य श्रृंखला कहते हैं। यह सर्वविदित है कि पृथ्वी पर पहुंचने वाली कुल सौर प्रकाश ऊर्जा का एक प्रतिशत से भी कम भाग प्रकाश संश्लेषण द्वारा खाद्य ऊर्जा के रूप में बंधता है। पृथ्वी पर इस कुल प्रकाश संश्लेषण का लगभग 90 प्रतिशत भाग विशेषतः समुद्री पादपप्लवकों, डायटमों और समुद्री शैवालों द्वारा सम्पन्न होता है। समुद्री खाद्य श्रृंखलाओं के विभिन्न पोषक स्तरों में ऊर्जा का स्थानांतरण होता है। समुद्र की सतह पर सौरप्रकाश के पड़ने के साथ ही खाद्य उत्पादन प्रक्रिया का आरंभ हो जाता है। समुद्री पादपप्लवक प्रकाश संश्लेषण में इस सौरऊर्जा का उपयोग करते हैं और शुद्ध प्राथमिक उत्पादन शुरू होता है। पादपप्लवक समुद्री जीवन की आधारशिला होते हैं, जो लगभग सभी समुद्री प्रजातियों को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से ऊर्जा प्रदान करते हैं। पादपप्लवक अधिकतर एक कोशिकीय सूक्ष्म जीव होते हैं, जो समुद्री सतह पर और लगभग 100 मीटर (330 फीट) गहराई पर रहते हैं।

एक प्रारूपिक समुद्री खाद्य श्रृंखला में पादपप्लवक प्राथमिक उत्पादक होते हैं जिनका सेवन प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता के रूप में प्राणीप्लवकों (सूक्ष्म प्राणियों) द्वारा किया जाता है। फिर इन प्राणीप्लवकों को छोटी-छोटी मछलियां खाती हैं, जो द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ता होती हैं। खाद्य श्रृंखला के अंत में इन छोटी मछलियों को शीर्ष श्रेणी की उपभोक्ता मछलियां जैसे डॉल्फिन और शार्क अपना भोजन बनाती हैं। कुछ पादपपल्वक जिनका सेवन नहीं किया जाता है, वे समुद्र में शेष बने रहते हैं। ऐसे बचे हुए पादपप्लवकों और अन्य कार्बनिक पदार्थों, जैसे मृत प्राणीप्लवक और मछलियां, समुद्र की ऊपरी सतह पर जल में विघटित हो जाते हैं और पोषक तत्वों को स्वावित करते हैं। इन पोषक तत्वों विशेष रूप से नाइट्रोजन और फास्फोरस का उपयोग पादपप्लवक अपनी वृद्धि के लिए करते हैं। कुछ पोषक तत्व गहरे समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में पहुंच जाते हैं। यह पूरी प्रक्रिया जैविक पंप के रूप में जानी जाती है। इस तरह लगातार इसके माध्यम से समुद्री जल सतह से पोषक तत्व गहरे समुद्र में स्थानांतरित होते रहते हैं। 

विभिन्न महासागरीय धाराएं इन पोषक तत्वों की वितरण एजेंट के रूप में कार्य करती हैं। ये धाराएं महासागरों के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक पादप प्लवकों का भी वितरण करती हैं। समुद्रों में जिन स्थानों पर ठंडी महासागरीय जलधाराएं और गर्म महासागरीय जलधाराएं आपस में मिलती हैं वहां पादपप्लवकों की वृद्धि के लिए अनुकूल परिस्थितियां विकसित होती हैं। जैसे न्यूफाउंडलैंड के निकट लैब्राडोर ठंडी महासागरीय जलधारा और गल्फ स्ट्रीम गर्म जल धारा के आपस में मिलने के कारण यहां की खाद्य श्रृंखलाओं में पादपप्लवकों और विभिन्न मछली प्रजातियों की संख्या बहुत अधिक मिलती हैं। यहां तक कि ये क्षेत्र विश्व के मछली पकड़ने के सबसे प्रसिद्ध क्षेत्र के रूप में विकसित हुए हैं। ठीक इसी तरह पेरू तट पर भी ठंडी पेरू महासागरीय जलधारा और हंबोल्ट गर्म महासागरीय जल धारा के मिलने से यहां पंचो की मछलियों को पर्याप्त मात्रा में पादपप्लवक खाने के लिए उपलब्ध होते हैं। इस तरह के सभी क्षेत्रों में समुद्री खाद्य श्रृंखलाएं काफी उत्पादक और सक्रिय होती हैं।

ध्रुवीय समुद्री पारिस्थितिक तंत्रों में रुक्ष पर्यावरणीय परिस्थितियों के बावजूद भी खाद्य श्रृंखलाओं में विविध पोषक स्तर उच्चस्तरीय अनुकूलन और विविधता का उत्कृष्ट समायोजन प्रदर्शित करते हैं। यहां तक कि इनसे जैव भू-रासायनिक प्रक्रियाओं के संचालन में भी महत्वपूर्ण सहयोग मिलता है। अंटार्कटिक क्षेत्र के चारों ओर दक्षिणी महासागर और उत्तरी ध्रुव की ओर आर्कटिक महासागर में उच्च महासागरीय पोषण के कारण ही कई छोटी मछलियां और व्हेल व प्रवासी पक्षी भोजन की तलाश में वहां तक पहुंच जाते हैं।

खाद्य शृंखला पर बढ़ते समुद्री तापमान का असर

चिंता का विषय यह है कि कुछ नवीनतम शोधों से इस बात के संकेत मिलने शुरु हो गए हैं कि ग्लोबल वार्मिंग से समुद्री जैवविविधता एवं समुद्री खाद्य श्रृंखलाओं और खाद्य जालों की संरचनाएं बदल सकती हैं, जिससे गहरा समुद्री जीवन भी प्रभावित हो सकता है। वैश्विक जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के माध्यम से समुद्री पारिस्थितिक तंत्र को संचालित करने वाले प्रमुख कारकों जैसे हवाओं, जल के तापमान, समुद्री बर्फ के आवरण, समुद्र के अम्लीकरण और समुद्र परिसंचरण प्रवृत्तियों के मूल गुणों में बदलाव आ रहा है। इसका सबसे अधिक असर समुद्री खाद्य श्रृंखला के सभी पोषक स्तरों पर दिखने लगा है। संभवतः समुद्री सतह जल से पोषक तत्वों के गहरे समुद्र में नीचे स्थानांतरित हो जाने पर सतह पर पादपप्लवकों की वृद्धि में अवरोध आ सकता है। इस प्रकार, वैश्विक जलवायु परिवर्तन भविष्य में समुद्री खाद्य श्रृंखलाओं को कम उत्पादक बनाने की पूरी तैयारी कर चुके हैं।

यह बात अब पूरी तरह से ज्ञात हो गई है कि पृथ्वी पर महासागर सौर विकिरणों को वायुमंडल या भूमि की तुलना में दोगुना अवशोषित करते हैं। इन सौर विकिरणों के उपयोग से प्राथमिक उत्पादकों द्वारा समुद्री खाद्य श्रृंखला में निर्मित ऊर्जा का स्थानांतरण विभिन्न पोषक स्तरों में होता है। गर्म हो रहे महासागरों और उनमें घुल रही कार्बन डाइऑक्साइड की उच्च सांद्रता और उसके बढ़ते स्तर का प्रभाव समुद्री खाद्य श्रृंखलाओं में ऊर्जा के स्थानांतरण पर पड़ सकता है। इसके परिणामस्वरूप समुद्री खाद्य जाल में विभिन्न प्रजातियों द्वारा प्रयुक्त भोजन की उपलब्धता कम हो सकती है।

विभिन्न अनुमानों के अनुसार समुद्र की सतह का तापमान वर्ष 2080-2100 तक वैश्विक स्तर पर औसतन 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ सकता है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने इसी वर्ष 28 मार्च 2019 को जारी की जलवायु की स्थिति 2018 नामक अपनी वार्षिक रिपोर्ट में भी इस बात का उल्लेख किया है कि औद्योगिक युग की शुरुआत की तुलना में वर्तमान में पृथ्वी 1.8 डिग्री फॉरेनहाइट अधिक गर्म हो गई है। इस तरह के आंकड़ों से स्पष्ट है कि पृथ्वी के लगातार गर्म होने के कारण महासागरीय संचरण और उच्च जल स्तंभ स्तरीकरण में भी परिवर्तन होंगे, जो समुद्री पादपप्लवकों की वृद्धि के लिए पोषक तत्वों की उपलब्धता को प्रभावित करेंगे।

एक शोध में पाया गया है कि समुद्री जल का तापमान बढ़ने से सदी के अंत तक पादपप्लवकों और प्राणीप्लवकों के जैवभारों में क्रमशः 6 प्रतिशत और 11 प्रतिशत की कमी आएगी। समुद्री खाद्य जाल में इन दोनों प्रमुख पारिस्थितिकी तत्वों की न्यूनता से पृथ्वी के कुछ भागों में मत्स्य जैवभार भी कम हो सकता है। ऐसी स्थिति में जलवायु परिवर्तन का समुद्री खाद्य श्रृंखलाओं और खाद्यजाल पर कुछ इस तरह असर पड़ेगा कि पादपप्लवकों की तुलना में प्राणीप्लवकों की संख्या अधिक घट जाएगी। 

जैवभार निम्नता की यह प्रक्रिया मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय महासागरों में होगी, जो वैश्विक महासागर की सतह के 47 प्रतिशत हिस्से को ढके हुए हैं।

समुद्र के ऊष्णकटिबंधीय वन कहे जाने वाले प्रवालों का भी समुद्री खाद्य श्रृंखला में अपना विशिष्ट स्थान व योगदान है। प्रवाल लगभग 20 लाख समुद्री प्रजातियों का संरक्षण और पोषण करते हैं। कई द्वीपीय देशों और उष्ण कटिबंधीय देशों के लिये वे मौसम के प्रभावों से बचाव और राहत का काम भी करते हैं। प्रवाल संरचनाएँ अपनी अनूठी जैवविविधता के कारण आनुवंशकीय संग्रहालय की तरह होते हैं। पिछले दो-तीन दशकों से लगातार समुद्री जल के गर्म होने के साथ प्रवाल भित्तियां नष्ट होती जा रही हैं। जल के तापमान में परिवर्तन के प्रति अतिसंवेदनशील प्रवालों में विरंजन प्रक्रिया वढ़ती जी रही है। विरंजन के कारण ही ऑस्ट्रेलिया के ग्रेट बैरियर रीफ की विशाल प्रवाल भित्तियों से लेकर भारत में लक्षद्वीप तक प्रवालों को अत्यंत हानि पहुँची है। इसका सीधा असर समुद्री खाद्य श्रृंखलाओं की सक्रियता और उत्पादकता पर पड़ रहा है।

समुद्री खाद्य श्रृंखलाओं में विश्व स्तर पर प्राथमिक और द्वितीयक उत्पादनों में हो रही न्यूनता का असर वैश्विक जलवायु विनियमन पर भी नकारात्मक ढंग से पड़ने लगा है। यह सर्वविदित है कि महासागर और समुद्र अपनी अपनी खाद्य श्रृंखलाओं और खाद्य उत्पादनों के माध्यम से जैविक पंप को संचालित करते हुए जलवायु विनिमयन करते हैं। सदियों से पृथ्वी पर होने वाली कुल प्रकाशसंश्लेषण प्रक्रिया के संचालन में आधे उत्तरदायित्व का निर्वहन ये समुद्री पादपप्लवक ही करते आए हैं। ऐसे में भविष्य में यदि ग्लोबल वार्मिंग के कारण इन पादपप्लवकों की संख्या कम होती है, तो महासागरों द्वारा वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड के अवशोषण में भी कमी आना सुनिश्चित है। इस स्थिति में महासागरों की वैश्विक जलवायु को विनियमित करने क्षमता भी कम हो जाएगी।

जलवायु परिवर्तन के कारण सतही समुद्र जल के गर्म होने से समुद्र का स्तरीकरण यानी समुद्र के सतही और गहरे जल के बीच का पृथककरण बढ़ रहा है। समुद्री स्तरीकरण पर पड़ने वाला यह प्रभाव निम्न और मध्य अक्षांशीय क्षेत्रों में अधिक बढ़ने की संभावना है। अतः प्रमुखतया इन क्षेत्रों में पादपप्लवकीय उत्पादन में मामूली से मध्यम लगभग 5% तक की गिरावट हो सकती है। पिछले दशकों में हुए विभिन्न शोधों से एक स्पष्ट बात सामने आई है कि पृथ्वी के दूसरे भागों की तुलना में आर्कटिक तथा अंटार्कटिक जैसे ध्रुवीय क्षेत्रों पर ग्लोबल वार्मिंग का असर अधिक तीव्रता के साथ हो रहा है। इसका सीधा अर्थ यह है कि अब सर्दियों में ध्रुवों के निकट महासागर बर्फ से नहीं ढके रह पाएंगे।

वर्तमान में भले ही दक्षिणी महासागर में पादपप्लवकों की बहुत अधिक वृद्धि नहीं हुई है, क्योंकि भारी समुद्री बर्फ आवरण सूर्य की रोशनी को महासागर तक पहुँचने से रोकता है। जल में एक अन्य महत्वपूर्ण पोषक तत्व लोहे की सांद्रता कम है, और ठंडे पानी का तापमान प्लवकों की वृद्धि दर को सीमित करता है। परिणामस्वरूप, अधिकांश नाइट्रोजन और फास्फोरस जो इस क्षेत्र में सतह के जल में ऊपर आते भी हैं, तो वे उत्तर की ओर बह जाते हैं। आखिरकार, जब ये पोषक तत्व निचले अक्षांशों में गर्म पानी में पहुंचते हैं, तो वे अधिकांश प्रशांत, हिंद और अटलांटिक महासागरों में पादपप्लवकों की वृद्धि में सहायता करते हैं। सामान्य परिस्थितियों में, हवाएं और धाराएं मिलकर अंततः पोषक तत्वों को सतह के जल में वापस लाती हैं। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो पादपप्लवकों को अंततः पोषक तत्व नहीं मिल पाएंगे, जिससे पूरी महासागर खाद्य श्रृंखला प्रभावित होगी।

निकट भविष्य में समुद्री बर्फ रहित महासागरों के गर्म जल और वैश्विक जलवायु परिवर्तन द्वारा वहां संचालित हवाओं में बदलाव के कारण अंटार्कटिका और आर्कटिक के आस-पास समुद्री खाद्य श्रृंखलाओं में पादपप्लवकों की उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगेगी। पादपप्लवकों की इस वृद्धि के साथ-साथ इनमें पोषक तत्व भी उसी अनुपात में फंसेगे और अंटार्कटिका के निकट पोषक तत्वों का अच्छा स्रोत तैयार हो सकता है। जलवायु परिवर्तन से हो रहे समुद्री परिसंचरण में बदलाव के कारण ये पोषक तत्व उत्तर की ओर बहने से रोके जाएंगे और ये फंसे हुए पोषक तत्व अंततः गहरे समुद्र में वापस पहुंचकर और वहां जमा होते जाएंगे। अंटार्कटिक जल में हुए एक शोध के अनुसार दक्षिणी महासागर की ऊपरी 1,000 मीटर (3,300 फीट) सतह में नाइट्रोजन और फास्फोरस सांद्रता में लगातार कमी आ रही है। वहीं गहरे
समुद्र में, 2,000 मीटर से नीचे, वे लगातार बढ़ रहे हैं। गहरे समुद्र में संचयित होते जा रहे पोषक तत्व अंततः अंटार्कटिका के आस-पास के दक्षिणी महासागर में सतह पर वापस आ जाते हैं। अंटार्कटिका के उत्तर में, तेज़ हवाएँ अंटार्कटिका से दूर सतह के जल को धक्का देती हैं। जैसा कि ऐसा होता है, गहरे समुद्र का जल जो पोषक तत्वों से भरपूर होता है, अंटार्कटिका के चारों ओर सतह तक बढ़ जाता है, जो जल को दूर धकेलता है। जिस क्षेत्र में यह ऊपर की ओर होता है उसे 'अंटार्कटिक डाइवर्जेस' कहा जाता है।

जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में पोषक तत्वों की कमी

तेजी से हो रहे निरंतर जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में समय के साथ तेजी से पोषक तत्वों की कमी होती जाएगी। एक शोध का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन का दक्षिण प्रशांत, हिंद-प्रशांत, पश्चिम अफ्रीकी तट और मध्य अमरीका के पश्चिमी तट पर स्थित देशों की समुद्री खाद्य श्रृंखलाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की आशंका है। यदि कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर पृथ्वी पर वर्तमान गति से बढ़ता रहा, तो ये सभी देश मछली के भंडार में 30 प्रतिशत की कमी का सामना कर सकते हैं क्योंकि मछलियां ठंडे जल में चली जाएंगी। एक अन्य शोध से एक बात और उभरकर सामने आई है कि अमरीका के उत्तर-पूर्वी समुद्र तटों और बेरिंग सागर में औसतन 105 उत्तरी समुद्री सतही प्रजातियां वर्ष 1982 के बाद से लगभग 10 मील दूर उत्तर की ओर स्थानांतरित हुई हैं। वे औसतन 20 फीट की गहराई पर समुद्र के अंदर भी पहुंच गई हैं। सन् 1960 के दशक के उत्तरार्ध से, आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण तीन समुद्री प्रजातियां, अमरीकन लॉबस्टर, रेड हेक और ब्लैक सी बास उत्तर की ओर 119 मील की दूरी पर स्थानांतरित हो गई हैं।

तापमान में वृद्धि और प्राथमिक उत्पादन में कमी के कारण वैश्विक समुद्री प्राणी जैवभार में काफी कमी आएगी। समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में तेजी से पोषक तत्वों की कमी होने दुनिया के अधिकांश महासागरों में पादपप्लवकों विकास और शुद्ध प्राथमिक उत्पादन घट जाएगा। विशेष रूप से, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पादपप्लवकों की तुलना में उच्च खाद्य जाल स्तरों पर अधिक पड़ेगा।

स्वस्थ समुद्री खाद्य श्रृंखलाएं और खाद्य जाल समुद्री जव प्रजातियों की विविधता के रख-रखाव के लिए अति महत्वपूर्ण होती हैं। साथ ही उनसे पूरी दुनिया के लाखों करोड़ों मछुआरों और मछली व्यापारियों की आमदनी और खाद्यापूर्ति जुड़ी हुई है। समुद्री खाद्य शृंखलाओं और मत्स्य उत्पादकता पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का पर्याप्त रूप से पूर्वानुमान लगाने के लिए अधिक जटिल और यथार्थवादी दृष्टिकोण चाहिए होगा। जैसे कि बड़े मेसोकॉस्म जो परिष्कृत खाद्य जाल मॉडल के लिए अधिक विश्वसनीय आंकड़े प्रदान करते हैं। एक मेसोकॉस्म से तात्पर्य किसी भी ऐसी बाहरी प्रयोगात्मक प्रणाली से होता है जो नियंत्रित परिस्थितियों में प्राकृतिक वातावरण की जांच करती है। इस तरह मेसोकॉस्म अध्ययन क्षेत्र सर्वेक्षण और अत्यधिक नियंत्रित प्रयोगशाला प्रयोगों के बीच एक कड़ी प्रदान करते हैं। अतः निकट भविष्य में समुद्री खाद्य श्रृंखलाओं और खाद्य जाल में जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाले बदलावों को समझने के लिए इसी तरह के ठोस मॉडलीकृत शोध और समाधान दोनों की महती आवश्यकता है।

संपर्क - डॉ. शुभ्रता मिश्रा,
204, द्वितीय तल, सनसेट लगून
बिज़ीबी स्कूल के निकट, डेस्टीरो चर्च,
वास्को-द-गामा, गोवा 403 802
[ई-मेल: shubhrataravi@gmail.com]

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