पर्यावरण के किसी भी तत्व में होने वाला अवांछनीय परिवर्तन, जिससे जीव जगत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, प्रदूषण कहलाता है। पर्यावरण प्रदूषण में मानव की विकास प्रक्रिया तथा आधुनिकता का महत्वपूर्ण योगदान हैं। यहां तक मानव की वे सामान्य गतिविधियां भी प्रदूषण कहलाती है, जिनसे नकारात्मक फल मिलते हैं। उदाहरण के लिए उद्योग द्वारा उत्पादित नाइट्रोजन आक्साइड प्रदूषक हैं। हालांकि उसके तत्व प्रदूषक नही है। यह सूर्य की रोशनी की ऊर्जा है जो कि उसे धुएँ और कोहरे के मिश्रण में बदल देती हैं। प्रदूषण दो प्रकार का हो सकता है। स्थानीय तथा वैश्विक । अतीत में केवल स्थानीय प्रदूषण को समस्या माना जाता था। उदाहरण के लिए कोयले के जलाने से उत्पन्न धुआँ, अत्यधिक सघन होने पर प्रदूषक बन जाता है, जो कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। स्कूल कालेजों में एक नारा सिखाया जाता था कि प्रदूषण का समाधान उसे हल्का कर देना है। सिद्धान्त यह था कि विरल-कम-प्रदूषण से कोई हानि नही होगा। हाल के दिनो में हुयी शोधों से लगातार चेतना बढ़ रही है कि कुछ प्रकार का स्थानीय प्रदूषण, अब समस्त विश्व के लिए खतरा बन रहा है जैसे आणविक विस्फोटों से उत्पन्न होने वाली रेडियोधर्मिता। स्थानीय तथा वैश्विक प्रदूषणों की चेतना से पर्यावरण सुधार आन्दोलन प्रारंभ हुये हैं। जिसके कि मनुष्य द्वारा की गयी गतिविधियों से, पर्यावरण को दूषित होने से बचाया जा सके, उसे कम से कम जा सके।
शोधों की पश्चिमी देश विशेषकर अमेरिका स्वीकार नहीं कर रहा हैं। प्रदूषण के मायने अलग-अलग सन्दर्भों से निर्धारित होते हैं। परम्परागत रूप से प्रदूषण में वायु, जल, रेडियोधर्मिता आदि आते है। यदि इनका वैश्विक स्तर पर विश्लेषण किया जाये तो इसमें ध्वनि, प्रकाश आदि के प्रदूषण भी सम्मिलित हो जाते है। गम्भीर प्रदूषण उत्पन्न करने वाले मुख्य स्त्रोत है, रासायनिक उद्योग, तेल, रिफाइनरीज, आणविक अपशिष्ट स्थल, कूड़ा घर, प्लास्टिक उद्योग, कार उद्योग, पशुगृह, शवदाहगृह आदि। आण्विक संस्थान, तेल टैंक, दुर्घटना होने पर बहुत गंभीर प्रदूषण पैदा करते हैं कुछ प्रमुख प्रदूषक क्लोरीनेटेड, हायड्रोकार्बन, भारी तत्त्व लेड, कैडमियम, क्रोमियम, जिंक, आर्सेनिक, बैनजील आदि भी प्रमुख प्रदूषक तत्त्व हैं। प्राकृतिक आपदाओं के पश्चात् प्रदूषण उत्पन्न हो जाता हैं बड़े-बड़े समुद्री तूफानों के पश्चात् जब लहरें वापिस लौटती हैं तो कचरे कूड़े, टूटी नाव-कारें, समुद्र, सहित तेल कारखानों के अपशिष्ट म्यूनिसपैलिटी का कचरा आदि बहाकर ले जाती है। "सुनामी" के पश्चात् के अध्ययन ने बताया कि तटवर्ती मछलियों मे, भारी तत्वो का प्रतिषत बहुत बढ़ गया था। प्रदूषक विभिन्न प्रकार की बीमारियों को जन्म देते हैं। जैसे कैंसर, इलर्जी, अस्थमा, प्रतिरोधक बीमारियों आदि। जहां तक कि कुछ बीमारियों को उन्हे पैदा करने वाले प्रदूषक का ही नाम दे दिया गया है। जैसे मरकरी यौगिक से उत्पन्न बीमारी को "मिनामटा" कहा जाता है।
जैसे समुद्र के किनारे तथा झीलों मे उगने वाली वनस्पति शैवाल आदि जो कि प्रदूषण का कारण है, औद्योगिक कृषि, रिहायशी कॉलोनियों से निकालने वाले अपशिष्ट पदार्थ से प्राप्त पोषण से पनपते हैं। भारी तत्व जैसे लैंड और मरकरी का जियोकैमिकल चक्र में अपना स्थान है। इनकी खुदाई होती है और इनकी उत्पादन प्रक्रिया कैसी है उस पर निर्भर करेगा कि वे पर्यावरण में किस प्रकार सघनता से जाते हैं। जैसे इन तत्वों का पर्यावरण में मानवीय निस्तारण प्रदूषण कहलाता है। वैसे ही प्रदूषण, देशज या ऐतिहासिक प्राकृतिक भूरासायनिक गतिविधि से भी पैदा हो सकता है। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड का होना भी प्रदूषण हो जाता है यदि वह धरती के पर्यावरण में अनुचित अंतर पैदा करता है। "ग्रीन हाऊस" प्रभाव पैदा करने वाली गैसों में वृद्धि के कारण भूमण्डल का तापमान निरन्तर बढ़ रहा है। जिससे हिमखंडों के पिघलने की दर में वृद्धि होगी तथा समुद्री जलस्तर बढ़ने से तटवर्ती क्षेत्र, जलमग्न हो जायेंगे। हालांकि इन शोधों की पश्चिमी देश विशेषकर अमेरिका स्वीकार नही कर रहा हैं। प्रदूषण के मायने अलग-अलग संदर्भों से निर्धारित होते हैं।
प्रदूषण, पर्यावरण में दूषक पदार्थों के प्रवेश के कारण प्राकृतिक संतुलन में पैदा होने वाले दोष को कहते हैं प्रदूषक पर्यावरण और जीव-जन्तुओ को नुकसान पहुंचाते हैं। प्रदूषण का मतलब है। "हवा, पानी, मिट्टी आदि का अवांछित द्रव्यो से दूषित होना", जिसका सजीवों पर प्रत्यक्ष रूप से विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान द्वारा अन्य अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ते है। वर्तमान समय में पर्यावरणीय अवनयन का यह प्रमुख कारण है।
वर्तमान युग औद्योगिक विकास का युग है। संसार के सभी विकासशील देशों में हजारों लाखों फैक्टरियों दिन रात चलती रहती हैं। इन सब के प्रभाव से हमारा वातावरण दूषित हो गया है। जो वायु हमे सांस लेने के लिए चाहिए, वह शुद्ध नही रही। पानी और जमीन भी प्रदूषित हो गए हैं। वायु, पानी और जमीन का प्रदूषण एक बहुत बड़ी समस्या बनी हुई है। वायु का प्रदूषण मुख्य रूप से मिलों से निकलने वाले धुएँ से होता हैं। सड़कों पर चलने वाली गाड़ियों में जलने वाले ईंधन से भी वायु दूषित हो जाती है। इन सबसे वायु में बहुत सी विषैली गैसें मिलती रहती हैं। यही गैसें सांस द्वारा हमारे शरीर में प्रवेश करती हैं, जिनसे स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। नए-नए रोगों को जन्म होता है। कार्बन मोनोआक्साइड, नाइट्रोजन-डाइ आक्साइड और सल्फर-डाइऑक्साइड जैसी गैसें जो मोटरों के ईधनों के जलन से पैदा होती है, वायु को विषैला बना देती है। पानी का प्रदूषण मुख्य रूप से फैक्ट्रियों से निकलने वाले पदार्थों और मनुष्यो के मल-मूत्रो से होता है। बड़े-बड़े शहरो के गंदे नाले, नदियों में गिरते हैं, जिनसे पानी दूषित हो जाता है। इन मल पदार्थों से हजारों प्रकार के विषाणु और बैक्टीरिया पानी में पैदा हो जाते है। यही पानी हम पीते हैं, तो अनेको रोगो का आक्रमण हमारे ऊपर होता है। अनाजों की सुरक्षा के लिए जो हम अनेकों कीटाणु विनाशक औषधियाँ प्रयोग में लाते हैं, उनसे अनाज दूषित हो जाता हैं। इन अनाजों को बिना धोए खाने से स्वास्थ्य पर बहुत प्रभाव पड़ता हैं।
हजारो प्रकार के रसायन और कीटाणु विनाशक औषधियों के छिड़कने से जमीन का प्रदूषक होता है। बढ़ती हुई आबादी द्वारा जो व्यर्थ के पदार्थ गलियो और सड़को पर फेंक दिए जाते हैं, उनसे हजारो प्रकार के रोग फैलाने वाले कीटाणु पैदा होते हैं। सड़कों के किनारे लगे कूड़े-करकट के ढेर अनेको रोगो को जन्म देते हैं। चलती गाड़ियों और मिलों से पैदा होने वाले शोर भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। तरह-तरह के विकिरण जो हमें दिखाई नहीं देते, परमाणु युग की देन हैं। ये रेडियो विकिरण स्वास्थ्य के लिए बहुत ही घातक है। परमाणु शस्त्रों के परीक्षण से इन विकिरणों की मात्रा नित प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। सभी देशों के वैज्ञानिक आज ऐसे उपाय खोजने मे लगे हुए हैं, जिनको प्रयोग में लाकर जल, वायु, जमीन आदि का प्रदूषण कम किया जा सके। आज ऐसे तरीके विकसित किए जा रहे हैं जिनके द्वारा मिलो से निकलने वाले धुएं को कम किया जा सके।
वायु प्रदूषण का अर्थ है हवा में ऐसी अवांछित गैसों, धूल के कणो आदि की उपस्थिति, जो लोगो तथा प्रकृति दोनो के लिए खतरे का कारण बन जाए।
वायु प्रदूषण के कारण :- वायु प्रदूषण के कुछ सामान्य कारण है।
वायु प्रदूषण का प्रभाव :- वायु प्रदूषण हमारे वातावरण तथा हमारे ऊपर अनेक प्रभाव डालता है। उनमें से कुछ निम्नलिखित है।
हवा में अवांछित गैसों की उपस्थिति से मनुष्य, पशुओं तथा पंछियों को गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इससे दमा, सर्दी-खाँसी, अंधपन, श्रवण शक्ति का कमजोर होना, त्वचा रोग आदि जैसी बीमारियां पैदा होती हैं। लम्बे समय के बाद इससे जननिक विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और अपनी चरम सीमा पर यह घातक भी हो सकती है।
वायु प्रदूषण से सर्दियों में कोहरा छाया रहता है, जिसका कारण धुएँ तथा मिट्टी के कणों का कोहरे में मिला होना है। इससे प्राकृतिक दृश्यता में कमी आती हैं तथा आँखों में जलन होती है और सांस लेने में कठिनाई होती है।
ओजोन परत, हमारी पृथ्वी के चारों ओर एक सुरक्षात्मक गैस की परत है। जो हमें हानिकारक अल्ट्रावायलेट किरणो से, जो कि सूर्य से आती हैं, से बचाती है। वायु प्रदूषण के कारण जीन अपरिवर्तन, अनुवाशंकीय तथा त्वचा कैंसर के खतरे बढ़ जाते है।
वायु प्रदूषण के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ता है, क्योंकि सूर्य से आने वाली गर्मी के कारण पर्यावरण में कार्बन डाई आक्साइड, मीथेन तथा नाइट्रस आक्साइड का प्रभाव कम नहीं होता है, जो कि हानिकारक है।
वायु प्रदूषण से अम्लीय वर्षा के खतरे बढ़ हैं, क्योंकि बारिश के पानी में सल्फर डाई आक्साइड, नाइट्रोजन आक्साईड आदि जैसी जहरीली गैसों के घुलने की संभावना बढ़ी है। इससे फसलों, पेड़ों, भवनो तथा ऐतिहासिक इमारतों को नुकसान पहुँच सकता हैं।
ध्वनि की अधिकता के कारण भी वायु प्रदूषण बढ़ता है, जिसे हम ध्वनि प्रदूषण के रूप मे जानते हैं। ध्वनि प्रदूषण का साधारण अर्थ हैं अवांछित ध्वनि जिससे हम चिड़चिड़ापन महसूस करते हैं। इसका कारण हैं रेल इंजन, हवाई जहाज, जेनरेटर, टेलीफोन, टेलीविजन, वाहन, लाउडस्पीकर आदि आधुनिक मशीनें। लंबे समय तक ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव से श्रवण शक्ति का कमजोर होना, सिरदर्द, चिड़चिड़ापन, उच्चरक्तचाप अथवा स्नायविक, मनोवैज्ञानिक दोष उत्पन्न होने लगते हैं। लंबे समय तक ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव से स्वाभाविक परेशानियाँ बढ़ जाती है।
जल प्रदूषण का अर्थ हैं पानी में अवांछित तथा घातक तत्वों की उपस्थिति से पानी का दूषित हो जाना, जिससे कि वह पीने योग्य नहीं रहता।
जल प्रदूषण के कारण :-
जल प्रदूषण के प्रभाव :-
जल प्रदूषण के निम्नलिखित प्रभाव है।
इससे मनुष्य, पशु तथा पक्षियों के स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न होता है। इससे टाइफाइड, पीलिया, हैजा, गैस्ट्रिक आदि बीमारियां पैदा होती है।
इससे विभिन्न जीव तथा वानस्पतिक प्रजातियों को नुकसान पहुंचता है।
इससे पीने के पानी की कमी बढ़ती है, क्योंकि नदियों, नहरो यहां तक कि जमीन के भीतर का पानी भी प्रदूषित हो जाता है।
भूमि प्रदूषण से अभिप्राय जमीन पर जहरीले, अवांछित और अनुपयोगी पदार्थों के भूमि में विसर्जित करने से है, क्योंकि इससे भूमि का निम्नीकरण होता है तथा मिट्टी की गुणवता प्रभावित होती है। लोगों की भूमि के प्रति बढ़ती लापरवाही के कारण भूमि प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है।
भूमि प्रदूषण के कारण :-
भूमि प्रदूषण का प्रभाव :-
पर्यावरण को नियंत्रित करने में व्यवसाय की तीन प्रकार की भूमिका हो सकती है। निवारणात्मक, उपचारात्मक तथा जागरूकता।
निवारणात्मक भूमिका :- इसका अर्थ है कि व्यवसाय ऐसा कोई भी कदम न उठाए, जिससे पर्यावरण को और अधिक हानि हो। इसके लिए आवश्यक है कि व्यवसाय सरकार द्वारा लागू किए गए प्रदूषण नियंत्रण संबंधी सभी नियमों का पालन करे। मनुष्यो द्वारा किए जा रहे पर्यावरण प्रदूषण के नियंत्रण के लिए व्यावसायिक इकाईयों को आगे आना चाहिए।
उपचारात्मक भूमिका:- इसका अर्थ है कि व्यावसायिक इकाईयों पर्यावरण को पहुँची हानि को संशोधित करने या सुधरने में सहायता करे। साथ ही यदि प्रदूषण को नियंत्रित करना संभव न हो तो उसके निवारण के लिए उपचारात्मक कदम उठा लेने चाहिए। उदाहरण के लिए वृक्षारोपणः वनरोपण कार्यक्रमद्ध से औद्योगिक इकाईयों के आसपास के वातावरण में वायु प्रदूषण को कम किया जा सकता हैं व्यवसाय की प्रकृति तथा क्षेत्र।
जागरूकता संबंधी भूमिका:- इसका अर्थ हैं लोगों को (कर्मचारियों तथा जनता दोनों को) पर्यावरण प्रदूषण के कारण तथा परिणामो के संबंध में जागरूक बनाए, ताकि वे पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने की बजाय ऐच्छिक रूप से पर्यावरण की रक्षा कर सके। उदाहरण के लिए व्यवसाय जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन करे। आजकल कुछ व्यावसायिक इकाईयां शहरो में पार्को के विकास तथा रखरखाव की जिम्मेदारियों उठा रही हैं, जिससे पता चलता है कि वे पर्यावरण के प्रति जागरूक है।
जल प्रदूषण :- जल मनुष्य तथा अन्य जीवधारियों की एक आधरभूत आवश्यकता है। इसका उपयोग विशुद्ध रूप से मानव अपने जन्म से लगातार करता आ रहा है। जैसे-जैसे मानव सभ्यता विकसित हुई है, वैसे-वैसे प्रकृति द्वारा उपलब्ध शुद्ध जल प्रदूषित होता गया है। इस प्रदूषण का मुख्य कारण तेजी से बढ़ती जनसंख्या, जीवनयापन के स्तर में वृद्धि औद्योगीकरण, ऊर्जा के परम्परागत साधनों के उपयोग में तेजी से वृद्धि होना, शहरीकरण, झोपड़पट्टियों का विकास अपशिष्ट पदार्थों की उत्पत्ति तथा जैविक पदार्थो का सड़ना आदि प्रमुख है। मानव जैसे-जैसे अपने विकास के रास्ते से आगे बढ़ रहा है, उससे भी अधिक तेज गति से दिन-प्रतिदिन जल प्रदूषित होता जा रहा है।
जल प्रदूषण का तात्पर्य तथा परिभाषा
जल जीवमण्डल में सबसे अधिक महत्वपूर्ण तत्त्व है, क्योंकि एक तरफ तो यह सभी प्रकार के जीवों के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण तथा आवश्यक तत्व है, तो दूसरी तरफ यह जीवमण्डल में पोषक तत्वों के संचरण तथा चक्रण में सहायता करता है। इसके अतिरिक्त जल बिजली के निर्माण, नौका परिवहन, फसलों की सिचाई, गन्दगी की सफाई आदि के लिये महत्वपूर्ण होता हैं।
ज्ञातव्य है कि जलमण्डल के सस्त जल का मात्र एक प्रतिशत ही जल विभिन्न स्रोतों जैसे भूमिगत जल, नदी, जल, झील-जल, मृदा में स्थित जल, वायुमण्डलीय जल आदि मे मानव समुदाय के लिये सुलभ हो पाता है। इसमें भूमिगत स्रोतों से सबसे अधिक जल मिलता है।
औद्योगिकरण, नगरीकरण तथा मानव जनसख्या में तीव्र वृद्धि के कारण की मांग में गुणोत्तर वृद्धि हुई है, परिणामस्वरूप जल की गुणवत्ता में भारी गिरावट आयी है। यद्यपि जल में स्वयं शुद्धीकरण की क्षमता होती है, लेकिन जब मानव-जनित स्रोतों से उत्पन्न प्रदूषको का जल में इतना अधिक जमाव हो जाता है कि वह जल की सहनशक्ति तथा स्वयं शुद्धीकरण की क्षमता से अधिक हो जाता है, तो जल प्रदूषित हो जाता है। अतः जल की भौतिक रासायनिक तथा जीवीय विशेषताओं से हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करने वाले परिवर्तन को जल प्रदूषण कहते है। प्रदूषण की
पी.विविर के अनुसार, "प्राकृतिक या मान-जनित कारणों से जल की गुणवत्ता में इस प्रकार के परिवर्तनों को प्रदूषण कहा जाता है, जो आहार, मानव एवं जानवरों के स्वास्थ्य, कृषि, मत्सत्य व्यवसाय, आमोद-प्रमोद के लिये अनुपयुक्त या खतरनाक होते है।"
पर्यावरण समस्या आज एक वैश्विक समस्या है, आज पर्यावरण के बिगड़ते हालात के प्रति सतत् सावधान रहने की आवश्यकता है। सम्पूर्ण मानव समाज, जीव-जंतु, पेड़-पौधे, वायुमण्डल, कीड़े-मकोड़े, खाद्यान्न, फल-सब्जियों, मौसम, सर्दी, गर्मी, वर्षा ऋतु सभी क्षेत्रों में पर्यावरण असंतुलन का संकट व्याप्त है। इन सबका कारण मानव समाज है अतः परिणाम भी मानव समाज को ही भुगतने होंगे। पाश्चात्य तथा भौतिकवादी संस्कृति के बढ़ते प्रभाव बढ़ती जनसंख्या तथा प्राकृतिक संपदा के निर्ममता से दोहन का परिणाम यही होने वाला है कि आने वाले समय में हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ने वाला है। इस संबंध में पर्यावरणविदों द्वारा लगातार सावधान लिए जाने के बावजूद कुंभकर्णी निद्रा नहीं टूट रही है। पर्यावरण संतुलन का ही परिणाम है कि जहाँ ब्रह्माण के अन्य ग्रहों पर जीव जंतु वास नहीं करते वहीं पृथ्वी पर मानव तथा अन्य प्राणीवास करते है। आज इस पर्यावरण संतुलन के समक्ष विभिन्न प्रकार का प्रदूषण चुनौती बनकर खड़ा है। पर्यावरण को संतुलित बनाने में पेड़ पौधे तथा वनों का विशेष महत्व है। वन, मानव तथा जीव जंतुओं की सुरक्षा के लिए प्रमुख भूमिका निभाते है। वनों से एक ओर कार्बनडाई ऑक्साइड का खतरा घटता है वहीं मानव को ऑक्सीजन प्राप्त होता है। इतना ही नहीं मौसम को कृषि के अनुकूल बनाने तथा वर्षा के लिए भी पेड़-पौधों का विशेष महत्व है। औद्योगिक इकाइयों से निकला प्रदूषित जल तथा शहरी गंदे नालों के तालाब, झीलो, नदियों में मिलने से जल प्रदूषित हो रहा है इस प्रदूषित जल के कारण जल प्राणी संकट में पड़ गये है तथा मर रहें है। पशु तथा मानव समाज उस नदी जल के उपयोग से वंचित हजो रहे है तथ उपयोग करने वाले बीमार पड़ने या मरने को विवश होते है। इन प्रदूषित नदियों के आस-पास के गाँवों में वायु प्रदूषण संहित विभिन्न बीमारियों का प्रकोप भी बढ़ता जा रहा है। उस क्षेत्रों में मच्छरों का भी भयंकर प्रकोप देखा जा रहा है। एक अनुमान के अनुसार दुनिया के आधे तथा भारत के उससे भी अधिक जल स्त्रोत प्रदूषित हो चुके है। उपयोग विवेचना के स्पष्ट है कि पर्यावरण में निरंतर ह्रास होता जा रहा है। पर्यावरविदों तथा वैज्ञानिक द्वारा समय-समय पर संचेत किये जाने के बावजूद हम पर्यावरण के प्रति उदासीन है। पर्यावरण असंतुलन के परिणामस्वरूप यह भी देखने को मिल रहा है कि सैकड़ों जीव जंतु लुप्त हो गये है और हो रहें है। इतना ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण संरक्षण (प्न्ब्छ) की भविष्यवाणी के अनुसार चार सौ से अधिक पक्षियो तीन सौ स्तनधारियों, दो सौ प्रकार के जलचर एवं मछलियों तथा डेढ़ सौ प्रकार की उभयचर रेंगने वाली जातियों के प्राणियों के लुप्त होने की प्रबल संभावना है। आज समाज में पर्यावरण जागरूकता अत्यंत आवश्यक है।
यदि मानव स्वयं अपने तथा अपनी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य की सुरक्षा के लिए पर्यावरणविदों के सुझावों का अनुसरण नहीं करेगा तो नित्य प्रति बिगड़ते पर्यावरण के चलते मानव समाज का अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा। सूर्य की पराबैंगनी किरणों के पृथ्वी पर आने, अम्लीय वर्ष होने, कार्बन-डाइ-आक्साइड सहित अन्य गैसों की मात्रा बढ़ने से समुद्री जलस्तर में वृद्धि होने, कृषि भूमि के बंजर होने, मानव के सहायक जीव जन्तुओं के लुप्त हो जाने के बाद मानव पंगु, विकलांग, बहरा व बीमार पैदा होगा और धीरे-धीरे हमारा अस्तित्व नष्ट हो जाएगा। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए पर्यावरण संरक्षण अत्यन्त आवश्यक है।
पर्यावरण को निर्मल और शुद्ध रखना आज समय का तकाजा है, जिस पर देश को ध्यान देना चाहिए। आज का मशीनी इंसान अपनी ना समझ या स्वार्थ के कारण पर्यावरिक संसाधनों को नष्ट करता जा रहा है। आज विज्ञान ने हमें विकल्पों के चौराहे पर खड़ा कर दिया है। एक तो विवेक, मितव्ययी और नैतिकता का लम्बा रास्ता, दूसरा भोग विलास का, जिस पर पर्यावरण तथा मानव जाति का शीघ्र ही सर्वनाश निश्चित है। उससे बचनेका एक ही तरीका है कि मानव अपने नैतिक कर्तव्य को पहचानकर प्रकृति को समुचित सुरक्षा प्रदान करे और साथ ही उसके सीमित संसाधनों को नष्ट होने से बचाये। इसके अतिरिक्त पर्यावरण प्रदूषण को रोकने हेतु निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं
1. पर्यावरण एक परिचय, शशि शुक्ला एवं डॉ० एन. के. तिवारी, प्रकाशक - राम प्रसाद एण्ड सन्स पब्लिकेशन (आगरा)
प्रकाशन वर्ष 2008
2. समाजशास्त्र, डॉ० सुनील गोयल एवं श्रीमती संगीता गोयल,
प्रकाशक राम प्रसाद एण्ड सन्स पब्लिकेशन (भोपाल)
प्रकाशन वर्ष 2006
3 . रीवा दर्शन, डॉ० एस.अखिलेश, प्रकाशक गायत्री पब्लिकेशन्स (रीवा) प्रकाशन वर्ष 2014