मानसून के लोकल व माइक्रो स्‍केल पैटर्न्‍स के चलते कहीं बारिश, कहीं धूप जैसी स्थिति बनती है। इससे आसपास के इलाकों में वर्षा के स्‍तर में बड़ा अंतर देखने को मिलता है।  प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर
जलवायु परिवर्तन

दो-दो किलोमीटर पर क्‍यों बदल रहा मानसून का मूड? जानिए बारिश के 'माइक्रो पैटर्न' का विज्ञान

वर्षा के लोकल व माइक्रो स्‍केल पैटर्न से पड़ोस के इलाकों में पैदा हो रही बारिश में भारी असमानता की स्थिति, अर्बन हीट आइलैंड इफेक्‍ट की भी भूमिका

Author : कौस्‍तुभ उपाध्‍याय

हाल के वर्षों में आपने कई बार देखा होगा कि आपके इलाके में तो झमाझम बारिश हो रही है, लेकिन दो किलोमीटर दूरी पर रह रहे व्‍यक्ति से फोन पर बात करो, तो पता चलता है कि वहां सड़कें सूखी पड़ी हैं। या फिर इसका ठीक उल्‍टा नज़ारा भी देखने को मिला होगा। कई बार  पड़ोसी शहर में बाढ़ जैसे हालात होने के बावजूद आपके यहां काफी मामूली बारिश हो रही होती हैं। 

क्‍या आपने सोचा है कि ऐसा क्‍यों होता है? लोग अकसर इसे ‘मानसून का मूड’ कह देते हैं, कि मूड अच्‍छा हुआ तो अच्‍छी बारिश, खराब हुआ तो बादल घिरने पर भी बूंदें नहीं गिरतीं। पर, वास्‍तव में मौसम विज्ञान में ‘मूड’ जैसी कोई चीज नहीं होती। ऐसी घटनाएं दरअसल स्थानीय या माइक्रोस्केल वर्षा पैटर्न (Localized Patterns / Microscale Rainfall Patterns) के कारण होती हैं, जो आधुनिक मौसम विज्ञान के लिए एक चुनौती बना हुआ है।

लोकल और माइक्रोस्केल रेनफॉल पैटर्न क्‍या होते हैं 

स्थानीय और माइक्रोस्केल रेनफॉल पैटर्न वर्षा की ऐसी घटनाएं हैं, जो बहुत छोटे भौगोलिक क्षेत्रों तक सीमित होती हैं। जैसे कि एक-दूसरे से चंद किलोमीटर दूरी वाले इलाकों में एक तरफ 50–100 मिमी तक झमाझम बारिश होती है और दूसरी तरफ मौसम सूखा बना रहता है। कुछ ही किलोमीटर के दायरे में बारिश की तीव्रता और वर्षा जल की मात्रा में भारी अंतर देखने को मिलता है। 

मौसम विज्ञान की दुनिया में “माइक्रो स्केल” का दायरा 1 से 10 किलोमीटर तक होता है, जबकि “स्थानीय पैटर्न” इससे थोड़ा व्यापक होता है। यह 10 से 100 किलोमीटर के क्षेत्र में वर्षा में भिन्नता को दर्शाता है। ये पैटर्न बहुत तेजी से यानी कम समय में (Rapidly) सक्रिय हो कर आसपास के क्षेत्रों असमान वर्षा का कारण बनते हैं। इसलिए पारंपरिक मौसम प्रणाली की तकनीकें और मॉडल अकसर इन्‍हें पकड़ नहीं पाते। 

माइक्रो स्केल पैटर्न आमतौर पर कुछ मिनट से लेकर कुछ घंटे तक के लिए हो सकते हैं। ये पैटर्न बादलों के बहुत छोटे समूहों से जुड़े होते हैं। इसलिए इनका असर इतना सीमित होता है कि कई बार तो एक गली में सड़क भीग जाती है, जबकि पास ही स्थित दूसरी सूखी रह जाती है। यह पैटर्न हाल के वर्षों में बढ़ती गर्मी, स्थानीय सतही बदलाव और जलवायु असंतुलन के चलते काफी तेजी से उभर कर सामने आया है।

लोकल और माइक्रोस्केल रेनफॉल पैटर्न का बनना छोटे-छोटे बादलीय समूहों के कारण होता है, जो केवल उन्हीं क्षेत्रों में वर्षा करते हैं जहां पर्याप्त नमी वाली हवा ऊपर उठती है।

क्‍यों बनतें हैं लोकल और माइक्रोस्केल रेनफॉल पैटर्न 

लोकल और माइक्रोस्केल रेनफॉल पैटर्न का बनना छोटे-छोटे बादलीय समूहों (convective cells) के कारण होता है, जो केवल उन्हीं क्षेत्रों में वर्षा करते हैं जहां पर्याप्त नमी वाली हवा ऊपर उठती है। यह मौसम संबंधी घटना 'मेसोस्केल कनवेक्टिव सिस्टम' (MCS) और 'लोकलाइज़्ड कनवेक्शन' के तहत आती है। 

इसके कई कारण हो सकते हैं, जो एक सीमित या छोटे इलाके में मौजूद होने के कारण वर्षा के स्‍तर में अंतर पैदा करते हैं। इनमें से पहला कारण तापमान और आर्द्रता में सूक्ष्म अंतर हो सकता है, जो अर्बन हीट आइलैंड इफ़ेक्ट और लोकल ह्यूमिडिटी पॉकेट यानी स्‍थानीय स्‍तर पर अधिक व कम आर्द्रता क्षेत्र बनने के कारण उत्‍पन्‍न होता है। इसके अलावा  हवा की दिशा और हवा के मार्ग में आने वाली बाधाओं (जैसे पहाड़ियों, ऊंची और विशाल शहरी इमारतों द्वारा हवा का मोड़ा जाना) भी आसपास के इलाकों की वर्षा में अंतर का एक कारण बनता है। 

महानगरों में बड़ी संख्‍या में मौजूदा गगनचुंबी इमारतें प्राय: हवा के प्रवाह को बाधित कर देती हैं या उसकी दिशा को मोड़ देती हैं। इसके चलते आर्द्रता (नमी) वाली वायु धाराएं यहां न पहुंच कर इन शहरी इलाकों के बजाय आसपास के इलाकों में बारिश करती हैं। 

लोकल पैटर्न्स का एक अन्‍य कारण विशिष्ट बादलीय ऊर्ध्वधाराएं होती हैं। मौसम विज्ञानी इन्‍हें मेसोस्केल संवहन प्रणालियां (mesoscale convective systems) या संवहन कोश (convective cells) कहते हैं। इसमें होता यह है कि जैसे ही दिन में तापमान बढ़ता है, हवा गर्म होकर तेजी से ऊपर उठती है और आर्द्रता वाले बादलों को केंद्रित (concentrate) कर देती है, जिससे अचानक भारी वर्षा हो जाती है—जबकि उस क्षेत्र से कुछ ही किलोमीटर दूर यह चक्रीय ट्रिगर (Cyclic trigger) सक्रिय नहीं होता। इसके चलते वहां बारिश नहीं होती। 

साइंस जर्नल एडवांसिंग अर्थ एंड स्‍पेस साइंसेज में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि कैसे भूमि की ऊष्मा और नमी की विविधता के कारण स्थानीय स्‍तर पर कहीं भारी बारिश होती है और कहीं होती ही नहीं। इसके अलावा साइंस डायरेक्‍ट पर प्रकाशित एक रिपोर्ट में इन लोकल/माइक्रो पैटर्न्‍स को जलवायु परिवर्तन से जोड़ते हुए बताया गया है कि किस तरह जलवायु परिवर्तन से उत्‍पन्‍न स्थितियां स्‍थानीय स्‍तर पर बहुत छोटे पैमाने यानी लोकल लेवल पर वर्षा को प्रभावित कर रही हैं। इसमें बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वायुमंडल में नमी की मात्रा और तापमान के बीच संतुलन बदल रहा है। इसके कारण एक ही शहर में बाढ़ और सूखे दोनों की स्थितियां साथ में देखने को मिल रही हैं।

महानगरों में बड़ी संख्‍या में मौजूदा गगनचुंबी इमारतें प्राय: हवा के प्रवाह को बाधित कर देती हैं या उसकी दिशा को मोड़ देती हैं। इसके चलते आर्द्रता (नमी) वाली वायु धाराएं यहां न पहुंच कर इन शहरी इलाकों के बजाय आसपास के इलाकों में बारिश करती हैं।

अर्बन हीट आइलैंड इफेक्‍ट की भूमिका 

शहरी गर्मी द्वीप प्रभाव (Urban Heat Island Effect) भी लोकल/माइक्रो रेनफॉल पैटर्न्‍स में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साइंस जर्नल Springer Nature Link में प्रकाशित रिसर्च पेपर में इस बारे में जानकारी दी गई है। पेपर में बताया गया है कि इसकी वजह शहरों में कंक्रीट, वाहनों, उद्योगों और एयर कंडीशनर के कारण स्थानीय तापमान आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में 2–6°C अधिक होना है।

इस कारण शहरी इलाकों में गर्मी के कारण नीचे की सतह से हवा तेजी से ऊपर उठती है। ऐसे में ऊपर बादल में अगर ज़्यादा नमी होती है, तो इन झोकों की वजह से मची हलचल के कारण बारिश हो जाती है। इसके विपरीत बादल में कम या मध्‍यम नमी होने पर वह गर्म हवा के कारण मची हलचल के कारण विस्‍थापित होकर आसपास के किसी इलाके में जाकर बरस जाते हैं। 

मिसाल के तौर पर 14 जून 2025 को पुणे में हुई बारिश में भारी असमानता दिखने की खबर सामने आई। इस दिन शिवाजीनगर में जहां 63.5 मिलीमीटर बारिश हुई, वहीं कुछ दूरी पर स्थित राजगुरु नगर में महज़ 39.5 मिलीमीटर और हडपसर में केवल 38.5 मिलीमीटर वर्षा हुई। इसी तरह टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक हालिया खबर के मुताबिक बेंगलुरु में 20 मई 2025 को केंगेरी में 132 मिलीमीटर बारिश हुई, जबकि 15 किलोमीटर दूर बीएमटी लेआउट में महज़ 50 मिलीमीटर बारिश हुई। 

ऐसे ही असमान पैटर्न देशभर के कई शहरों में रिपोर्ट हुए हैं, जिससे यह समझ आता है कि बारिश अब 'एकसमान प्रणाली' नहीं रही, बल्कि एक 'पॉकेटेड फ़िनोमेना' बन चुकी है। दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद जैसे शहरों में यह प्रभाव बार-बार देखा गया है, जहां नगरों के भीतर ही दो इलाकों में बारिश का अंतर 80–90% तक होता है।

तापमान और आर्द्रता में अंतर के कारण बने लोकल और माइक्रोस्केल रेनफॉल पैटर्न के कारण आसपास के इलाकों में बारिश में अंतर देखने को मिलता है।

सुदूर इलाकों में भी बनते हैं माइक्रो रेन पैटर्न

लोकल या माइक्रो रेन पैटर्न्‍स शहरी इलाकों के अलावा सुदूर क्षेत्रों में भी देखने को  मिलते हैं। अमेरिकन मेटियोरोलॉजिकल सोसाइटी के जर्नल में प्रकाशित एक रिसर्च पेपर में बताया गया है कि कभी-कभी हवा की दिशा और क्षेत्र की भौगोलिक बनावट (जैसे पहाड़ी, नदी, इमारतें) भी बारिश के पैटर्न को प्रभावित करती है। पहाड़ियों की तलहटी या घाटियों में नमी लंबे समय तक बनी रहती है, जिससे कनवेक्शन सेल्स वहीं सक्रिय होते हैं। 

इस तरह पश्चिमी घाट, उत्तर पूर्व भारत और मध्य हिमालयी क्षेत्रों में इस कारण 5–8 किमी की दूरी पर भी वर्षा और सूखा एकसाथ देखे जा सकते हैं। माइक्रो स्केल वर्षा ज़्यादातर दोपहर बाद या शाम को होती है, जब ज़मीन की सतह का तापमान सूर्य की गर्मी से बढ़ जाता है। उस समय ज़मीन के ऊपर की हवा तेज़ी से ऊपर उठती है और वहां अगर पर्याप्त आर्द्रता हो, तो तेज़ी से छोटे लेकिन भारी बरसाती बादल बनते हैं। इसे वैज्ञानिक भाषा में “Diurnal Convection” कहा जाता है। यह एक दोपहर या शाम को होने वाली मौसमी प्रक्रिया है, जिसमें वर्षा बहुत ही संकुचित दायरे में गिरती है। 

यही कारण है कि उत्तराखंड या सिक्किम जैसे पहाड़ी राज्यों में अक्सर बाढ़ किसी एक घाटी या गांव को प्रभावित करती है, जबकि आसपास के क्षेत्र सूखे ही रहते हैं। इस घटना को समझने और प्रमाणित करने के लिए वैज्ञानिकों ने TRMM (ट्रॉपिकल रेनफ़ॉल मेज़रिंग मिशन) जैसे उपग्रहों के डेटा का विश्लेषण किया है, जिसने यह दिखाया कि पर्वतीय क्षेत्रों में वर्षा की सघनता और वितरण बेहद असमान होता है। यही असमानता जल-प्रबंधन और आपदा-नियोजन के लिए गंभीर चुनौती बनती जा रही है।

माइक्रो पैटर्न का पता क्‍यों नहीं लगा पातीं मौसम प्रणाली 

जैसा कि ऊपर बताया गया है कि लोकल रेनफॉल पैटर्न का दायरा 10 से 100 किलोमीटर का होता है, जबकि माइक्रो पैटर्न महज़ 1 से 10 किलोमीटर के दायरे में सीमित होते हैं। इलाका इतना सीमित होने के कारण ही अकसर मौसम प्रणालियों के मॉडल इनका पता नहीं लगा पाते, क्‍योंकि ये सिस्‍टम बड़े स्‍तर यानी मैक्रो लेवल पर काम करते हैं। 

इसके अलावा वर्षा के माइक्रो पैटर्न, बहुत ही छोटे पैमाने पर होने वाली आकस्मिक संवहनीय घटनाओं (flash convective events) के कारण उत्‍पन्‍न होते हैं। इस कारण भी इनका अनुमान लगा पाना कठिन होता है। ऐसा अकसर एक सीमित इलाके में अचानक 15–20 मिनट की मूसलधार बारिश होने के कारण होता है। इसमें वर्षा का समय और इलाका दोनों ही बहुत छोटे होते हैं। अत: मौजूदा तकनीकों और प्रणालियों से इनका पूर्वानुमान लगाना मुश्किल होता है।

हालांकि, अब मौसम विभाग (IMD) के वैज्ञानिक 1 किमी से भी कम रिज़ोल्यूशन वाले पूर्वानुमान मॉडल और AI आधारित Nowcasting तकनीकें विकसित कर रहे हैं। भारत में IMD और ISRO की साझेदारी में हाई रिज़ोल्यूश रैपिड रीफ़्रेश (HRRR) प्रणाली से स्थानीय वर्षा के अनुमान अब कुछ हद तक संभव हुए हैं। 

मौसम संबंधी कुछ और सेटेलाइट्स छोड़े जाने के बाद स्‍थानीय स्‍तर पर और सटीक पूर्वानुमान मिलने की उम्‍मीद है। ISRO आने वाले वर्षों में दो प्रमुख सैटेलाइट मिशनों पर कार्य कर रहा है। ये मिशन हैं NSAT-3DS और Megha-Tropiques-2 मिशन। इसरो की रिपोर्ट के मुताबिक INSAT-3DS में उन्नत इमेजिंग स्पेक्ट्रोमीटर लगे होंगे, जो हर 10 मिनट पर क्लाउड डाइनैमिक्स और वर्षा की गतिविधियों का माइक्रो स्तर पर अवलोकन कर सकेंगे। इसे साल 2025 के अंत तक लॉन्च किए जाने की योजना है।

वहीं Megha-Tropiques-2 का उद्देश्य ट्रॉपिकल क्षेत्र में वर्षा और जलवाष्प चक्र के उच्च आवृत्ति वाले डेटा (High-frequency data) को जुटाना है, जिससे मानसून से जुड़ी सूक्ष्म असमानताओं का बेहतर पूर्वानुमान संभव हो सकेगा।

इसके अलावा ISRO-NASA का संयुक्त मिशन NISAR (NASA-ISRO सिंथेटिक अपर्चर रडार) 2025 में लॉन्च होगा, जो भूमि की सतह की नमी, वर्षा और भू-आकृतिक परिवर्तनों (Geomorphological changes) की निगरानी करेगा। यह डेटा माइक्रो और लोकल स्केल मौसम मॉडलिंग में उपयोगी होगा, खासकर उन क्षेत्रों के लिए जहां परंपरागत रडार कवरेज सीमित है। 

भारत मौसम विज्ञान विभाग AI/ML आधारित वर्षा पूर्वानुमान मॉडल और शहरों के मुताबिक हाइपरलोकल नाउकास्टिंग सिस्टम विकसित कर रहा है, जो अगले 3–5 वर्षों में चुनिंदा शहरों के लिए काम करते हुए स्‍थानीय स्‍तर की जानकारियां दे सकेंगे। इन सब तकनीकों का सम्मिलित उद्देश्य यह है कि 5 किलोमीटर से छोटे क्षेत्रों में होने वाली फ़्लैश कनवेक्टिव रेनफ़ॉल को भी पहले से पहचाना जा सके और समय पर चेतावनी दी जा सके।

आगे की दिशा : माइक्रो-रिस्पॉन्स प्लानिंग

जैसे-जैसे बारिश के पैटर्न में लोकलाइजेशन बढ़ता जा रहा है, बारिश के अलर्ट्स और उसके अध्‍ययन का भी ज़्यादा से ज़्यादा स्‍थानीयकरण करने की ज़रूरत उभरती जा रही है। सरकार, मौसम विभाग और उपग्रहों के ज़रिये मौसम संबंधी गतिविधियों पर नज़र रखने वाले इसरो को अपनी गतिविधियों और नीतियों को भौगोलिक रूप से निचले स्‍तर पर ले जाना होगा।

इन्‍हें शहरों, वार्ड और गांव स्तर पर बारिश के पूर्वानुमान, वर्षा डेटा संग्रह और विश्लेषण करते हुए भविष्य में एक स्मार्ट वर्षा नीति बनाने पर फोकस करना होगा, ताकि ये डेटा और भी सटीक और उपयोगी हो सके। इससे पानी के उपयोग, जल-संग्रह की योजनाएं बनाने और ड्रेनेज की व्‍यवस्‍थाओं को माइक्रो लेवल पर डिज़ाइन करने में मदद मिलेगी। 

आज के दौर में स्मार्ट शहरों (Smart Cities) की परिकल्पना तभी सफल हो सकती है, जब उनमें मौसम आधारित सटीकता लचीलापन (climate-accuracy & climate-resilience) शामिल हो। इसके आधार पर ही माइक्रो-रिस्पॉन्स प्लानिंग का मॉडल खड़ा किया जा सकता है। इसमें छोटे स्तर पर मौसम संबंधी चेतावनी देने के अलावा, स्थानीय जलभराव मॉडलिंग, ग्रीन इन्फ्रास्ट्रक्चर प्लानिंग, ज़ोनल वर्षा विश्लेषण और समुदाय आधारित अलर्ट सिस्टम तैयार करने जैसी महत्‍वपूर्ण चीजें शामिल करनी होंगी।

अच्‍छी बात यह है कि हैदराबाद, चेन्नई और भोपाल जैसे कुछ शहरों में ऑटोमैटिक रेन गेज़ (ARGs) को वार्ड स्तर पर लगाने की पहल की जा चुकी है। इससे समय-समय पर बारिश का डेटा मिल सकेगा और भविष्‍य में उसी के अनुरूप नाले या तालाबों के फ्लडिंग रिस्क का प्रबंधन किया जा सके। साथ ही, लोकल व माइक्रो लेवल पर रीयल टाइम पूर्वानुमान भी जारी किया जा सकेगा।

साथ ही, ‘रेन सेल मैपिंग’ जैसे GIS आधारित टूल का उपयोग कर छोटे-छोटे क्षेत्रों में वर्षा के असर के प्रेडिक्टिव मॉडल तैयार किया जा सकते हैं। टोक्यो, एम्स्टर्डम और सिंगापुर जैसे कुछ अंतरराष्ट्रीय शहरों में वर्षा आधारित ट्रैफिक, जल निकासी और नागरिक सुरक्षा रणनीति पहले ही लागू हो चुकी हैं।

भारत के लिए भी ज़रूरी है कि स्मार्ट रेन पॉलिसी को केवल बड़े शहरों तक सीमित न रखकर, गांवों और कस्बों के वार्ड और पंचायत स्तर तक उतारा जाए। इससे, अचानक होने वाली वर्षा से पैदा होने वाले जल भराव के संकट या बाढ़ की स्थितियों से निपटने के ससमय इंतज़ाम किए जा सकेंगे और स्थानीय स्‍तर पर इन समस्याओं के समाधान तलाशे जा सकेंगे।

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