नेपाल की लैंगतांग घाटी में 12 मई को बौद्ध प्रार्थनाएं सुनाई दीं। ये प्रार्थानाएं याला ग्लेशियर के अंतिम संस्कार का हिस्सा थीं, जिसमें बौद्ध भिक्षुओं, स्थानीय निवासियों और नेपाल, भूटान, चीन और भारत के ग्लेशियरविदों समेत करीब पचास से ऊपर लोग शामिल हुए। ये वे लोग थे जिन्होंने एक ग्लेशियर को मरते हुए करीब से देखा था।
आखिरकार हम अपने करीबियों के लिए ही प्रार्थना करते हैं, तो क्या यह ग्लेशियर सिर्फ़ इन्हीं पचास लोगों का करीबी था? क्या इसके अस्तित्व का खत्म होना हमारे लिए किसी अनजान व्यक्ति की मृत्यु जितना ही महत्वहीन है? यह आयोजन हम सभी के लिए कुछ ज़रूरी सवाल छोड़ गया है।
मध्य नेपाल हिमालय के रसुवा ज़िले में लैंगतांग घाटी के साथ-साथ एक बड़ा ग्लेशियर क्षेत्र मौजूद है। याला ग्लेशियर इसी समूह का हिस्सा जहाँ अपेक्षाकृत आसानी से पहुँचा जा सकता है। यह एक कारण है कि इस ग्लेशियर पर एशिया में सबसे अधिक शोध हुआ है। स्थानीय भाषा में याला का अर्थ है ‘ऊंची चोटी’। पर अब याला की ऊंची चोटी की बर्फ़ इतनी कम रह गई है कि यह एक मृत ग्लेशियर बन गया है।
पहली बार 1970 में इसकी पैमाइश की गई थी और तब से अब तक यह 66 फीसद सिकुड़कर अपनी जगह से 784 मीटर पीछे हट चुका है। माना जा रहा है कि साल 2040 तक यह पूरी तरह ख़त्म हो जाएगा। हिंदुकुश हिमालय में संरक्षण का प्रयास करने वाले अंतर-सरकारी संगठन इंटरनेशनल सेंटर फ़ॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (ICIMOD) के मुताबिक हिंदुकुश हिमालय की बहुत कम निगरानी की गई है, जबकि दोनों ध्रुवों के बाद इस ग्रह पर मौजूद बर्फ़ का तीसरा सबसे बड़ा रिज़र्व है। हालांकि, याला, हिंदुकुश के 3,500 किमी लंबे ग्लेशियर क्षेत्र के उन महज सात ग्लेशियर में से सबसे ज़्यादा स्टडी किया गया ग्लेशियर है जिन्हें पिछले वर्षों में शोध का हिस्सा बनाया जाता रहा है।
साल 2011 में ICIMOD ने याला के लिए प्रशिक्षण यात्राएं शुरू कीं। तबसे अब तक अफगानिस्तान, पाकिस्तान, चीन और भारत समेत कई देशों के करीब 100 लोगों को ग्लेशियरविद बनने का प्रशिक्षण दिया जा चुका है। पिछले 50 साल से याला शोध करने वालों को आकर्षित करता रहा है, पर हिंदुकुश ग्लेशियरों के आकार और महत्व के अनुपात में देखा जाए तो इस क्षेत्र पर ज़रूरत भर काम नहीं हुआ है।
याला से पहले कई और ग्लेशियर ऐसे हैं जिनका अंतिम संस्कार किया गया। सबसे पहले 2019 में आइसलैंड के ओके ग्लेशियर के लिये यह आयोजन किया गया। फिर 2019 में ही स्विस पिज़ोन ग्लेशियर, 2020 में ओरेगॉन के क्लार्क ग्लेशियर और 2021 में स्विटज़रलैंड के ऐल्प्स में बासोडिनो ग्लेशियर और मेक्सिको के अयोलोको ग्लेशियर को इसी तरह अलविदा कहा गया। ऐसे में अगर यह पूछा जाए कि ग्लेशियर क्यों खत्म हो रहे हैं, तो इसका एक सीधा जवाब हो सकता है। मानवीय गतिविधियों के कारण धरती का तापमान तेज़ी से बढ़ा है, जिसके कारण ग्लेशियरों की बर्फ़ के पिघलने की दर उनपर बर्फ़ जमने की दर से ज़्यादा है।
ओके ग्लेशियर का अंतिम संस्कार करते समय एक स्मृति-पट्ट लगाया गया। पर रवायत के उलट इस पत्थर पर ग्लेशियर के जन्म या मृत्यु का समय न लिखकर, मृत्यु के साल में वहाँ मौजूद कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा का ज़िक्र किया गया। पट्ट पर लिखा गया, “अगस्त 2019, 415 ppm CO2.” यानी ग्लेशियरों की इस असमय मृत्यु का अपराधी है हमारे वायुमंडल में बढ़ता कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस का स्तर।
हमारे ग्रह को जीने योग्य गर्मी देने के लिए ज़िम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों में सबसे महत्वपूर्ण यह गैस पिछले कई दशकों से लगातार बढ़ती जा रही है। अमेरिका स्थिति नेशनल ओशीएनिक एंड एटमोस्फ़ेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (NOAA) की ग्लोबल मॉनिटरिंग लैबोरेट्री द्वारा एकत्रित डेटा को देखें तो पाएंगे कि 1750 के दशक में औद्योगिक क्रांति आने से पहले CO2 की मात्रा जहाँ 280 पीपीएम से कम थी वह अब फरवरी 2025 में बढ़कर 426.13 हो गई है। इसका सीधा असर ग्लेशियरों के पिघलने और समुद्रतल के बढ़ने की दर पर दिखाई दे रहा है।
ऐसा नहीं है कि पृथ्वी पहले गर्म नहीं हुई। पहले भी इस ग्रह ने कई अंंतर्हिमयुगीय काल या इंटर्ग्लेशियल पीरियड देखे हैं। दो ग्लेशियल पीरियड के बीच के इस समय में प्राकृतिक रूप से बढ़ी CO2 के कारण ग्लेशियर तेज़ी से पिघलते हैं और समुद्र का तल बढ़ जाता है। पर हमारे समय में CO2 की मात्रा में यह वृद्धि इसलिए खतरे की घंटी है क्योंकि यह प्राकृतिक रूप से हुई वृद्धि से बहुत ज़्यादा है। मीलों गहरी बर्फ़ की परतों में कैद हज़ारों साल पुरानी हवा से मिला डेटा हमें बताता है कि किसी भी अंतर्हिमयुग में CO2 की मात्रा 300 पीपीएम से अधिक नहीं रही है। डरावना सच यह है कि इस सीमा को हम दशकों पहले लांघ चुके हैं।
ग्लेशियरों के संरक्षण की ज़रूरत का महत्व हम इस बात से भी समझ सकते हैं कि यूनेस्को और विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) ने साल 2025 को ‘ग्लेशियर संरक्षण का वर्ष’ घोषित किया है। इसी साल 21 मार्च को संयुक्त राष्ट्र ने अंतर्राष्ट्रीय ग्लेशियर दिवस भी मनाया। विश्व की लगभग एक चौथाई जनसंख्या को मीठा पानी उपलब्ध कराने वाले ग्लेशियरों का घटना इस समय वैश्विक चिंता का विषय है। पर इन्हें बचाने के लिए तमाम देशों की सरकारों को न सिर्फ़ विकास के अपने नज़रिए को नई दिशा देनी होगी, बल्कि मौजूदा नीतियों में ज़रूरी बदलाव करने होंगे।
बदलाव के लिए यह ज़रूरी है कि सरकारों के साथ-साथ नागरिक भी प्रकृति के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझें। याला ग्लेशियर का अंतिम संस्कार सिर्फ़ एक खबर नहीं, इसी बदलाव को प्रेरित करने के प्रयास के रूप में सामने आता है। याला को अलविदा कहने के लिए जुटे लोगों में सिर्फ़ ग्लेशियरविद ही नहीं, दो लेखक भी शामिल थे। आइसलैंड के लेखक और ग्लेशियर संरक्षण एक्टिविस्ट आंद्रे स्नेर मैग्नासोन और नेपाल मूल की कनाडाई लेखक मंजुश्री थापा ने ग्लेशियर के अंतिम संस्कार के समय दो स्मृति-पट्ट भी लगाए।
मंजुश्री ने जहाँ अपने पट्ट पर ग्लेशियर और उनपर आश्रित सभ्यताओं के स्वप्न के बारे में कविता लिखी वहीं आंद्रे ने भविष्य के लोगों के लिए एक संदेश छोड़ा। आंद्रे का परिवार तीन पीढ़ियों से ग्लेशियरों को जानने समझने की कोशिश करता रहा है। उनकी नब्बे वर्षीय दादी के समय से अब तक उन्होंने आइसलैंड के ग्लेशियरों को तेज़ी से पीछे हटते देखा है।
कई भाषाओं में अनूदित ‘ऑन टाइम एंड वाटर’ किताब के लेखक आंद्रे यह बताने की कोशिश करते हैं कि 100 साल का समय जो हमें बहुत लंबा लग सकता है, पर दरअसल यह उतना लंबा समय नहीं है। आइसलैंड के ओके ग्लेशियर के लिए स्मृति पट्ट पर उन्होंने सिर्फ कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा का ज़िक्र किया, पर याला के पट्ट पर आंद्रे ने इस जानकारी के अलावा जो लिखा वह हमारी मानवीय संवेदना को कसौटी पर रख देता है।