हिमालय से भी प्राचीन उत्तर भारत की अरावली पर्वतमाला के ज़्यादातर पहाड़ अब ‘पहाड़’ नहीं कहलाएंगे, न ही उनके पास रह जाएगा वन कानूनों के तहत मिला सुरक्षा का दर्ज़ा। अब आप सोच रहे होंगे कि अरावली में अचानक ऐसा क्या हो गया कि हज़ारों साल से अचल-अडिग खड़े अरावली के पर्वत अब पहाड़ नहीं रहे? आप शायद यह भी सोच रहे होंगे कि दिल्ली और उसके आसपास के एक बड़े इलाक की रेगिस्तानी लू और मरुस्थलीकरण जैसी कुदरती आपदाओं से रक्षा करने वाले ये पहाड़ नहीं रहेंगे तो क्या होगा?
आप के इन दोनों सवालों का जवाब देश का सरकारी और न्यायिक तंत्र ही बेहतर दे सकता है, बहरहाल मूलभूत मसला यह है कि अरावली पर्वतमाला के मामले में ‘पहाड़’ की परिभाषा को ही बदल दिया गया है। चिंताजनक बात यह है कि इस बदलाव के चलते अरावली के 90% से ज़्यादा पहाड़ अब पहाड़ के दायरे से बाहर हो जाएंगे और इससे 'ग्रेट ग्रीन वॉल' कहलाने वाली दिल्ली-एनसीआर व आसपास के एक बड़े इलाके की सदियों पुरानी 'सुरक्षा ढाल' के छिन जाने का ख़तरा पैदा हो गया है। क्योंकि, नए मानकों के लागू होने से अरावली का ज़्यादातर हिस्सा खनन और निर्माण गतिविधियों की भेंट चढ़ सकता है।
अरावली के जंगल और पहाड़ों के मानकों या परिभाषा का मामला पुराना है। 1990 के दशक से लेकर अबतक इसे लेकर कई केस सुप्रीम कोर्ट में चले हैं और अब भी चल रहे हैं। इसके बारे में आप हाल ही में इंडिया वाटर पोर्टल पर प्रकाशित हमारी स्टोरी ‘अरावली के जंगलों से वन होने का हक छीन रही है हरियाणा की नई वन परिभाषा’ को पढ़कर विस्तृत जानकारी हासिल कर सकते हैं। दरअसल, इन मामलों में असली पेंच इसी बात पर आकर फंसता है कि किन इलाकों को अरावली के जंगल और पहाड़ माना जाए, किन्हें नहीं। इसे लेकर समय-समय पर अलग-अलग मानक और परिभाषाएं सामने आ चुकी हैं। हाल ही में हरियाणा सरकार ने 18 अगस्त को जारी राजपत्र अधिसूचना में अरावली के कम से कम 40% कैनोपी कवर यानी वृक्षों की छतरी वाले इलाकों को ही जंगल मानने की बात कही थी।
अरावली से जुड़े मामले में हरियाणा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि हरियाणा राज्य में अब कोई ज़मीन तभी वन यानी जंगल मानी जाएगी, जब उसका क्षेत्रफल पांच हेक्टेयर हो या अगर यह पहले से घोषित वन के साथ जुड़ा है तो कम से कम दो हेक्टेयर हो। साथ ही, उसमें कम से कम 40% कैनोपी कवर यानी वृक्षों की छतरी हो।
सरकार ने इसके पीछे ‘शब्दकोशीय अर्थ’ का हवाला दिया था। इसके विरोध में पर्यावरणविदों का कहना था कि हरियाणा सरकार की यह नई परिभाषा अरावली पहाड़, जंगल और उसके समूचे पारिस्थितिक तंत्र के लिए घातक साबित होगी, क्योंकि, इससे छोटे-छोटे कम ऊंचाई वाले इलाके, जहां अब 40% से कम कैनोपी कवर बचा है, वह वन कानून के तहत मिली सुरक्षा के दायरे से बाहर हो जाएंगे। इससे अरावली पहाड़ और जंगल का अस्तित्व ही ख़तरे में पड़ जाएगा।
इतिहास में थोड़ा पीछे जाएं, तो इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक 1996 में टी.एन. गोदावर्मन बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि “वन” का तात्पर्य उसके शब्दकोशीय अर्थ के अनुरूप समझा जाना चाहिए। यदि कोई क्षेत्र वृक्षों से आच्छादित है तो उसे वन माना जाएगा, चाहे वह सरकारी रिकॉर्ड में वन के रूप में दर्ज़ हो या नहीं। अदालत ने राज्य सरकारों को निर्देश दिया था कि इसी आधार पर वे अपने-अपने राज्यों में वन के इलाक़ों को चिह्नित करें। लेकिन, वन को लेकर हरियाणा की 18 अगस्त को जारी राजपत्र अधिसूचना सुप्रीम कोर्ट की इस व्यापक व्याख्या से बिल्कुल अलग थी।
इसमें सरकार ने किसी भूमि को वन भूमि मानने के मानकों को क्षेत्रफल से लेकर हरियाली (कैनोपी कवर) को सीमित कर दिया था। इससे अरावली जंगल के 90% से ज़्यादा इलाक़ों के वन के दायरे से बाहर होने का ख़तरा पैदा हो गया था। इसी कड़ी में अब अरावली के पहाड़ों को पहाड़ मानने के लिए ऊंचाई के मानक का मामला सामने आ गया है।
इसमें पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय समिति रिपोर्ट में 100 मीटर या उससे ज़्यादा ऊंचाई (स्थानीय ऊंचाई से 100 मीटर ऊपर) वाले पहाड़ों को ही पहाड़ मानने की बात कही है। इसका चारों ओर विरोध होना शुरू हो चुका है। इस विरोध ने बीते 11 दिसंबर को 'जन-विरोध' का रूप ले लिया, जब अरावली पहाड़ और इसके जंगलों को बचाने के लिए सोशल मीडिया और कई जगह ज़मीनी स्तर पर 'सेव अरावली' नाम से एक मुहिम शुरू हो गई। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलौत तक खुलकर इसके समर्थन में उतर आए। उन्होंने मीडिया प्लेटफॉर्म X पर इस अभियान से जुड़ी तस्वीर को अपनी डीपी बना डाला और समाचार एजेंसी एएनआई से बातचीत में अरावली से जुड़े इस फैसले की निंदा की है।
इधर उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर 'अरावली बचेगी तो ही दिल्ली-NCR बचेगा' शीर्षक से एक लंबी पोस्ट डाली है। इसमें उन्होंने बताया है कि अरावली के पहाड़ और जंगल क्यों है ज़रूरी हैं। उन्होंने दिल्ली वासियों को एक लंबा संदेश देते हुए कहा कि अरावली को बचाना विकल्प नहीं, संकल्प होना चाहिए। हालांकि, अरावली को लेकर तेज़ी से उभर रहे इस विरोध की पृष्ठभूमि करीब एक महीने पहले ही बननी शुरू हो गई थी, जब 20 नवंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार की समिति की उस सिफारिश को मान लिया था, जिसमें सिर्फ 100 मीटर से ऊंचे पहाड़ को ही अरावली पर्वत मानने की बात कही गई थी। इस मानक के अनुरूप केवल 8.7% प्रतिशत पहाड़ियां ही कानूनी रूप से ‘अरावली’ मानी जाएंगी, जबकि शेष लगभग 90 प्रतिशत पहाड़ियां संरक्षण कानूनों से बाहर हो सकती हैं।
अरावली से जुड़े मामलों की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने पाया है कि अरावली पर्वत शृंखला की पहचान के लिए अलग-अलग राज्य और सरकारी महकमें अलग मानक रख रहे हैं। इनमें पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (एफएसआई) भी शामिल हैं। एफएसआई ने 2010 में कहा था कि अरावली शृंखला में उन्हें ही पर्वत माना जाएगा, जिनकी ढलान तीन डिग्री से ज्यादा हो। ऊंचाई 100 मीटर के ऊपर हो और दो पहाड़ियों के बीच की दूरी 500 मीटर हो। इस दायरे में अरावली की ज्यादातर पहाड़ियों, यहां तक कि कई ऊंचे पहाड़ों के भी इन मानकों के दायरे में न आने के चलते इसे खारिज कर दिया गया था। आगे चलकर, अरावली क्षेत्र में खनन व संरक्षण से जुड़े ‘एम. सी. मेहता बनाम भारत संघ’ केस की सुनवाई के दौरान 2023 में इसे लेकर विशेषज्ञों की एक समिति बनाई।
सुप्रीम कोर्ट की बनाई इस समिति में पर्यावरण मंत्रालय, एफएसआई, राज्यों के वन विभाग, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) और अपनी समिति के प्रतिनिधियों को शामिल किया गया था। इस समिति को ‘अरावली की परिभाषा’ तय करने की जिम्मेदारी दी गई। इस समिति ने 31 मार्च 2025 को सुप्रीम कोर्ट को अपनी रिपोर्ट भेजी। इस रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि अब सिर्फ 100 मीटर से ऊंची पहाड़ियों को ही अरावली पर्वत शृंखला का हिस्सा माना जाए। सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर को इस रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया। हालांकि इस मामले में कोर्ट की तरफ से नियुक्त एमिकस क्यूरी (कोर्ट को कानूनी या तकनीकी सहायता देने के लिए नियुक्त निष्पक्ष विशेषज्ञ) के. परमेश्वर ने आपत्ति जताई थी। उन्होंने कहा था कि यह परिभाषा काफी संकीर्ण है। इसे लागू करने पर सभी पहाड़ियां, जिनकी ऊंचाई 100 मीटर से कम है, वह खनन और निर्माण कार्यों की अनुमति के दायरे में आ जाएंगी। इससे पूरी अरावली पर्वत माला पर गंभीर असर पड़ेगा। दूसरी ओर, अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्य भाटी ने कहा कि समिति की 100 मीटर की पहाड़ियों को पर्वत शृंखला मानने का तर्क काफी बेहतर और मानने योग्य है।
इन तर्कों को सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पर्वतमाला को लेकर समिति की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए इसके बेहतर प्रबंधन योजना तैयार करने के निर्देश जारी किए। इस योजना के तहत उन क्षेत्रों को तय किया जाएगा, जहां खनन और निर्माण गतिविधियों को पूरी तरह प्रतिबंधित किया जाए। साथ ही उन क्षेत्रों को भी पहचाना जाएगा, जहां सिर्फ सीमित या नियमित ढंग से ही खनन को मंजूरी मिल पाए। हालांकि, कोर्ट ने फिलहाल खनन के लिए नए पट्टे देने पर प्रतिबंध बरकरार रखा है।
केंद्र सरकार के पत्र सूचना कार्यालय की एक विज्ञप्ति के ज़रिये अरावली के मामले में केंद्र सरकार का अधिकृत पक्ष सामने आया है। इस विज्ञप्ति में बताया गया है, '’उच्चतम न्यायालय ने नवंबर-दिसंबर 2025 के अपने आदेश में, 9 मई 24 के आदेश द्वारा गठित समिति की सिफारिशों और खनन को विनियमित करने के संदर्भ में अरावली पहाड़ियों और पर्वतमालाओं की एक समान नीति स्तर की परिभाषा के संबंध में 12 अगस्त 2025 के उसके आगे के निर्देशों पर विचार किया, और संबंधित राज्य सरकारों के विचारों को शामिल किया। दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात के वन विभागों के सचिवों के साथ-साथ भारतीय वन सर्वेक्षण, केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति और भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के प्रतिनिधियों की मौजूदगी वाली समिति का नेतृत्व पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) ने किया। न्यायालय ने मरुस्थलीकरण के खिलाफ एक बाधा, भूजल रिचार्ज क्षेत्र और जैव विविधता आवास के रूप में अरावली पर्वतमाला के पारिस्थितिक महत्व पर जोर दिया।'’
पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय समिति रिपोर्ट के निष्कर्षों की जानकारी देते हुए आगे कहा गया, '’उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के बाद एमओईएफएंडसीसी द्वारा बनाई गई समिति ने राज्य सरकारों के साथ बड़े पैमाने पर बातचीत की, जिसमें यह सामने आया कि सिर्फ राजस्थान में ही अरावली में खनन को विनियमित करने के लिए एक औपचारिक परिभाषा है। यह परिभाषा राज्य सरकार की 2002 की समिति रिपोर्ट पर आधारित थी, जो रिचर्ड मर्फी लैंडफ़ॉर्म वर्गीकरण पर आधारित थी। इसमें स्थानीय ऊंचाई से 100 मीटर ऊपर उठने वाले सभी लैंडफ़ॉर्म को पहाड़ के रूप में पहचाना गया और उसके आधार पर, पहाड़ों और उनकी सहायक ढलानों दोनों पर खनन पर रोक लगाई गई। राजस्थान राज्य 9 जनवरी 2006 से इस परिभाषा का पालन कर रहा है।''
साथ ही बताया, '’चर्चा के दौरान, सभी राज्यों ने अरावली क्षेत्र में माइनिंग को रेगुलेट करने के लिए ‘स्थानीय ऊंचाई से 100 मीटर ऊपर’ के उपरोक्त समान मानदंड को अपनाने पर सहमति व्यक्त की, जैसा कि 9 जनवरी 2006 से राजस्थान में लागू था। साथ ही इसे और अधिक वस्तुनिष्ठ और पारदर्शी बनाने पर भी सर्वसम्मति से सहमति व्यक्त की। 100 मीटर या उससे ज़्यादा ऊंचाई वाली पहाड़ियों को घेरने वाले सबसे निचली सीमिता (कंटूर) के अंदर आने वाले सभी भू-आकृतियों को, उनकी ऊंचाई और ढलान की परवाह किए बिना, खनन की लीज देने के मकसद से बाहर रखा गया है। इसी तरह, अरावली रेंज को उन सभी भू-आकृतियों के रूप में माना गया है जो 100 मीटर या उससे ज्यादा ऊंचाई वाली दो आस-पास की पहाड़ियों के 500 मीटर के दायरे में मौजूद हैं। इस 500 मीटर के जोन में मौजूद सभी भू-आकृतियों को, उनकी ऊंचाई और ढलान की परवाह किए बिना, माइनिंग लीज़ देने के मकसद से बाहर रखा गया है। इसलिए, यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली सभी भू-आकृतियों में खनन की अनुमति है।'’
मंत्रालय का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित समिति ने राजस्थान द्वारा वर्तमान में अपनाई जा रही परिभाषा में कई सुधारों का प्रस्ताव दिया ताकि इसे मजबूत बनाया जा सके और इसे अधिक पारदर्शी, वस्तुनिष्ठ और संरक्षण-केंद्रित बनाया जा सके।
अरावली पर्वत शृंखला के संबंध में आया सुप्रीम कोर्ट का जजमेंट पर्यावरण संरक्षण के लिए कार्य करने वाले हम सभी लोगों को निराश करने वाला है। मानकों में ढील देकर खनन रास्ते खोलना पर्यावरण के लिए ख़तरनाक होगा। यह मानव जीवन के साथ साथ तमाम जीव जन्तुओं के लिए भी खतरा उत्पन्न करेगा, भू-जल स्तर और भी नीचे चला जाएगा। जिन इलाक़ों में पानी की कमी है, वहां हालत और ख़राब हो जाएगी। अभी इतने प्रदूषण से ही देश की राजधानी दिल्ली का हाल इतना बुरा है कि स्कूलों की छुट्टी करनी पड़ रही है। जब प्रदूषण का लेवल और अधिक हो जाएगा तो क्या होगा? कोर्ट को इस पर भी विचार करना चाहिए था। इस फैसले को वापस लिया जाना चाहिए।संपूर्णानंद, पर्यावरण कार्यकर्ता, मिर्ज़ापुर
अरावली उत्तर पश्चिम भारत की सबसे महत्वपूर्ण पर्वतमाला है। यह दिल्ली से लेकर हरियाणा, राजस्थान और गुजरात तक फैली इस पर्वत शृंखला की सबसे ऊंची चोटी राजस्थान के माउंट आबू में स्थित 'गुरु शिखर' है जो राजस्थान का इकलौता ‘हिल स्टेशन’ और बर्फ़बारी (कभी-कभी) वाला स्थान है।
उत्तर अरावली पर्वतमाला के कारण दिल्ली और हरियाणा की जलवायु आर्द्र उपोष्णकटिबंधीय (Humid Subtropical) है। ‘ग्रेट ग्रीन वॉल' कही जाने वाली अरावली पर्वत माला के कारण ही दिल्ली और उसके आसपास के इलाक़े में गर्मी के मौसम में राजस्थान के थार रेगिस्तान से उठने वाली धूल भरी आंधियों और प्रचंड गर्मी वाली हीटवेव के सख्त थपेड़ों से बचे रहते हैं। साथ ही यह इलाक़ा मरुस्थली करण की चपेट में आने से भी बचा हुआ है। इस तरह अरावली पर्वत एक तरह से दिल्ली के लिए ‘प्राकृतिक वरदान' जैसा है। पर, हाल के वर्षों में अवैध खनन और निर्माण कार्यों के चलते जब से अरावली का पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ना शुरू हुआ है, तब से दिल्ली में वायु प्रदूषण तेज़ी से बढ़ता जा रहा है।
इसकी एक बड़ी वजह जगह-जगह अरावली की पहाड़ियों पर हो रहा अवैध उत्खनन और जंगलों की कटाई भी है। इसके कारण दिल्ली-एनसीआर वासियों के लिए सांसे लेना भी दुश्वार होता जा रहा है और बेरोकटोब बढ़ता यह वायु प्रदूषण अब जानलेवा स्तर पर पहुंचता जा रहा है। हालांकि, इसे लेकरअब लोगों में जागरूकता आती दिख रही है। अरावली पर्वत की ऊंचाई की सीमा तय किए जाने के बाद बीते दिनों अरावली पर्वत को को बचाने के लिए 'सेव अरावली' की मुहिम शुरू हुई है। लोग अब इस बात को समझने लगे है कि अगर दिल्ली की आबोहवा को बचाना है, तो अरावली को बचाना ही होगा।