बाढ़ से पूर्ण मुक्ति के लिये ''नदी मुक्ति आंदोलन'' शुरु किया है, परंतु राजनेता व तटबंध ठेकेदारों द्वारा निरंतर रोढ़े डाले जाने की वजह से यह बहुत अधिक सफल नहीं हो पाया है। नदी मुक्ति आंदोलन सभी तटबंधों को हटाने व नदी को 1954 पूर्व की अवस्था पर लाने की माँग करता है। हम शोधकर्ता, नीति निर्माता व सरकार को इस मुद्दे से अवगत कराते हैं और आम जनता को शिक्षित करते हैं कि तटबंध बाढ़ समस्या का समाधान नहीं, असली समाधान नदी को तटबंध से मुक्त करने में है – ये शब्द हैं दीपक भारती के।
-दीपक भारती 1974 के छात्र आंदोलन से निकले हैं, जो देश के अनेक हिस्सों में फैल गया था व इंदिरा गाँधी द्वारा इमरजेंसी लगाये जाने की एक वजह भी बना था। आश्चर्य नहीं कि जयप्रकाश नारायण के अनुयायी दीपक भारती नितांत खरे व्यक्ति हैं। वे बिहार की बाढ़ पर अपनी पैनी अंतर्दृष्टि व व्यावहारिक समझ से प्रकाश डालते हैं, व बताते हैं कि तटबंध निर्माण बिहार बाढ़ का सबसे बड़ा कारण है। इसके बावजूद राजनेता-ठेकेदार गठबंधन की वजह से तटबंध निर्माण जारी है। बाढ़ संबंधी हरेक मसले पर दीपक के बड़े ही निर्भीक विचार हैं। दीपक भारती अपनी संस्था एसएसवीके यानी सामाजिक शैक्षणिक विकास केंद्र’ देश के साथ अत्यंत गरीब राज्य बिहार में हाशियाग्रस्त व उपेक्षित लोगों, खासकर महिलाओं के उत्थान व सशक्तीकरण हेतु कार्यरत है।
बिहार में बाढ़ के लिहाज से 1954, 1974 व 2004 बहुत भयावह वर्ष रहे हैं। वर्तमान साल इन सबसे अधिक तबाहीकारक सिध्द हो सकता है। बिहार में बाढ़ आने की आखिर क्या वजह है? 1954 से पहले जब तक नदियों को तटबंध में नहीं बाँधा गया था, पानी को बहने के लिये काफी खुली जगह मिलती थी, पानी कितना भी तेज हो जन-धन हानि बहुत अधिक नहीं होती थी। 1954 से पहले नदियॉ खुली जगह में धीमे प्रवाह से बहतीं थीं। मध्दिम प्रवाह उर्वरा मिट्टी के बहाव में मदद करता था व आसपास के इलाके उर्वर हो जाते थे। परंतु तटबंध से नदियों को बाँधने के बाद जल भराव व बाढ़ से तबाही होना शुरु हो गया। बिहार की बाढ़ का मुख्य कारण तटबंध हैं। तटबंध बाढ़ को नियंत्रित करने व सिंचाई को बढ़ावा देने के लिये हैं परंतु इनसे बाढ़ रुक नहीं पाती है बल्कि तटबंध टूटने से बालू बहुत तेज बहती आती है, आसपास की उर्वरा भूमि बंजर हो जाती है। तटबंध निर्माण से ठेकेदारी व भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिलता है। कई सारे ठेकेदार विधायक व मंत्री बन गये हैं। बाढ़ नियंत्रण व सिंचाई के नाम पर यह तटबंध राजनीति की देन है। तटबंध बाढ़ से सुरक्षा के बजाय बाढ़ की विभीषिका में वृध्दि करते हैं। अगर आप आंकड़े देखें, जैसे-जैसे तटबंध बनते गये हैं, बाढ़ में तेजी आयी है।
2007 बाढ़ क़े प्रमुख कारण क्या हैं?
बिहार व नेपाल में लगातार वर्षा, वैश्विक तापमान वृद्धि, जल निकासी व्यवस्था के बिना गाँव में सड़क निर्माण, आपदा प्रबंधन विभाग की उदासीनता व राज्य सरकार की उपेक्षा से इस वर्ष की बाढ़ भीषण होती गई है। 19 जिले एक रात में नहीं डूब सकते थे। बाढ़ का पानी धीमे-धीमे फैला था, परंतु प्रशासन जिला व राज्य मुख्यालयों के वातानुकूलित कमरों में सोया हुआ था। बाढ़ प्रभावित इलाकों में दौरे के दौरान मैं कई पत्रकार मित्रों के संपर्क में आया मसलन प्रणव कुमार चौधरी, विशेष संवाददाता “टाइम्स ऑफ इंडिया” पटना व अभय मोहन झा संवाददाता एनडीटीवी, जो सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित दरभंगा जिले में थे। उन्होंने भी माना कि स्थानीय प्रशासन कुछ नहीं कर रहा है। विडंबना है कि अब तक पुलिस दो बाढ़ पीढ़ित व्यक्तियों को नृशंसतापूर्वक मार चुकी है।
आपने 2004 में इनसाइड बिहार एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। उसके मुख्य बिंदुओं के बारे में बतायें।
वह रिपोर्ट यही कहती है कि तटबंध व बड़े बाँध बिहार की बाढ़ के समाधान नहीं हैं। दवा ऐसी हो जो रोग घटाये, जबकि 1954 के बाद के आंकड़े बताते हैं कि तटबंध के बनने से बाढ़ अनियंत्रित होती गयी है। यह रिपोर्ट पूरे विस्तार में,प्रामाणिक ऑंकड़ों के साथ तटबंधों की निरर्थकता सिद्ध करती है।
ये तो रही समस्या। आपके अनुसार इसका क्या समाधान होना चाहिये? बिहार की नदियों पर बड़े बाँध बनने की बात भी है। इन दिनों नुंथार, शीशपनी व बराह में नेपाल से निकलने वाली कोसी, बागमती व कमला इत्यादि नदियों पर बड़े बाँध बनाने की बात चल रही है। कहा जाता है कि इससे बाढ़ नियंत्रित होगी, सिंचाई बढ़ेगी व बिजली का उत्पादन होगा। परंतु चीन समेत कई देशों के उदाहरण हैं कि भूकंप में बड़े बाँधों के फटने से भीषण तबाही होती है। अगर आप 1988 के बिहार भूकंप व 2001 के गुजरात भूकंप की तुलना करें तो पायेंगे कि भले ही ये दोनों भूकंप पैमाने पर लगभग बराबर थे, परंतु बिहार में नुकसान बहुत कम हुआ क्योंकि गरीबी बहुत अधिक होने यहाँ झोंपड़ियाँ अधिक हैं, पक्के मकान कम हैं, नुकसान की संभावना कम है। उत्तरी बिहार भूकंप संभावित इलाका है, बड़े बाँध के बनने से कई खतरे हो सकते हैं।
1998 में दरभंगा में झटके आये थे, जो बड़े बाँध के प्रस्तावित स्थल से महज 60 किलोमीटर दूर है। 1988 के मधुबनी भूकंप में कमला नदी का तटबंध टूट गया था। पर्यावरणविदों का मानना है कि भूकंप के बाद अगर बाँध चरमराता है व फूटता है तो पूरा उत्तरी बिहार बह जायेगा, कुछ नहीं बचेगा। दूसरे, भूमंडलीकरण के दौर में किस देश का संबंध कब दूसरे देश से बिगड़ जायेगा कहना मुश्किल है। दरभंगा में चीन को ध्यान में रखकर हवाईअड्डा बनाया गया है। अगर कल चीन के साथ हमारे संबंध गड़बड़ाते हैं और चीन इस बाँध पर बमबारी करता है तो पूरा इलाका बह जायेगा। दूसरे, नेपाल में माओवादी सत्ता में हैं। बिहार में भी कई सारे इलाके नक्सली हिंसा से प्रभावित हैं। बड़े बाँध नक्सलवादियों के हमेशा निशाने पर रहेगें व जरा से हमले से भीषण तबाही आ जायेगी। इसलिये बड़े बाँधों के बजाय लघु बाँध बनने चाहिये। छोटे बाँधों से सिंचाई बढ़ेगी, बिजली उत्पादन भी होगा व बाढ़ बचाव भी होगा। परंतु राजनैतिक नेताओं में बाढ़ व बाँध संबंधी समझ नहीं है व इस विषय पर चर्चा का भी अभाव है।
इस साल की बाढ़ व तबाही पिछले वर्षों की तुलना में किस तरह अधिक है? सरकारी आंकड़े क़ुछ कहते हैं, मीडिया कुछ और। आपके अनुसार जन-धन हानि कितनी है? कितने जिले बाढ़ प्रभावित हैं? सरकारी आंकड़ों के अनुसार 19 जिलों के 175 प्रखंड, 1958 पंचायत, 7302 गाँव व एक करोड़ चौवालीस लाख लोग प्रभावित हुये हैं व 217 मनुष्य और 108 पशुओं कालग्रसित हुये हैं। 10023.37 लाख के अनुमानित मूल्य के 133050 घर तबाह हो गये हैं। 26618.89 लाख मूल्य की फसल प्रभावित हुयी है। परंतु गैर सरकारी सूत्र असल नुकसान को सरकारी आंकड़ों से चार गुना अधिक बताते हैं। 1000 से अधिक व्यक्तियों के मारे जाने की खबर है। सरकार के अनुसार दरभंगा जिले में 51 लोग मरे हैं जबकि हिंदुस्तान दैनिक के दरभंगा संवाददाता सतीश ने दरभंगा में कुल 100 लोगों के मारे जाने की खबर दी है। समस्तीपुर में नाव के डूबने से 125 लोग बह गये। सरकारी आंकड़े कहीं कम हैं, भरोसेमंद नहीं हैं। गाँव की नदी में नाव डूबती है तो सरकार नाव की क्षमतानुसार जनहानि का अनुमान लगाती है। परंतु यह नजरअंदाज कर दिया जाता है कि नाव की क्षमता भले ही पचास लोगों की हो, उसमें डेढ़ सौ लोग चढ़ते हैं। यह गाँव की नाव है कोई हवाई जहाज नहीं कि आप यात्रियों की लिस्ट देखकर बता दें कि चूंकि इतने आदमी चढ़े थे इसलिये इतने लोग मरे हैं। बाढ़ प्रभावित जिले हैं-मधुबनी, समस्तीपुर, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, सहरसा, पूर्वी चंपारन, दरभंगा, पटना, सुपोल, भागलपुर, पश्चिमी चंपारन, शिवहर, नालंदा, कटिहार, गोपालगंज, मधेपुरा, अररिया, बेगूसराय, खगरिया।
नौकरशाह व अन्य सरकारी अफसर बाढ़ राहत का कार्यों में समुचित रूप से संलग्न नहीं हैं। हैलीकॉप्टर से राहत का कार्य में भी अनावश्यक देरी हुई है। पूरे बिहार में दो चार हैलीकॉप्टर ही लगा लगाये गये हैं। क्या यह गौतमगोस्वामी प्रकरण के बाद उपजा डर है? निश्चित रूप से है। गौतमगोस्वामी बाढ़ घोटाले प्रकरण का भूत नौकरशाहों पर हावी है। लगता है उन्होंने तय कर लिया था कि राहत कार्य में इस बार नहीं उलझना है। परंतु यह बहुत ही खराब उदाहरण है। होना यह चाहिये था कि वे मॉनीटरिंग सख्त करते, सरकारी फाइलों में ईमानदारी बरतते, ईमानदारी से पैसा खर्च करते, लेकिन उन्होंने तो हाथ ही पीछे खींच लिये। घोटाले के डर से काम नहीं करना निहायत ही अमानवीय है व अपनी नौकरी के साथ दगा भी है। आज लोग डूब रहे हैं। राहत, भोजन, दवा के अभाव में मर रहे हैं। उप मुख्यमंत्री व वित्तमंत्री सुशील मोदी 1974 आंदोलन से निकले हैं। सुशील मोदी हमारे मित्र हैं व मानवीय दृष्टि रखने वाले अच्छे नेता हैं। इनकी काफी ईमानदार छवि है। परंतु न जाने क्यों राहत कार्य शुरु करने में इतनी देर हुई है। मुझे बड़ा अफसोस है, उन्हें गाँवों में जाकर लोगों से बात करनी चाहिये थी। मुख्यमंत्री की अनुपस्थिति में सुशील मोदी के पास सभी अधिकार थे। परंतु आपदा प्रबंधन विभाग मुख्यमंत्री के पास था,इसलिये जब वे लौटे, हरी झंडी दी तब जाकर राहत कार्य शुरु हो पाया। हैलीकॉप्टर न चलाना तो शायद ये लोग पहले से ही तय कर चुके थे। वो तो विरोधियों ने मुद्दा उठाया तब कुछ बात बनी। प्रश्न यह है कि हैलीकॉप्टर से राहत कार्य एक हफ्ते के बाद क्यों शुरु हुआ जबकि सरकार कह रही थी कि हैलीकॉप्टर गोरखपुर में एकदम तैयार है। घोटाले के डर से हैलीकॉप्टर से राहत कार्य बहुत देर में जाकर शुरु हो पाया। जबकि बहुत सारे इलाके ऐसे हैं जहाँ बिना हैलीकॉप्टर के राहत पहुँच ही नहीं सकती।
राहत कार्य में देरी की एक वजह क्या राज्य की राजनीति में आंतरिक रस्साकशी भी है?
मैं तो यह नहीं मानता। मैं मानता हूं कि इस देश को जो नौकरशाह चला रहे हैं, यह सब उनकी मनमानी है। इनको पूरी छूट मिली हुई है, इसलिये ये अपनी मर्जी के अनुसार काम करते हैं। इनके बंगलों में तो पानी जा नहीं रहा है, इसलिये इनको कोई चिंता है नहीं। कुछ गैरजिम्मेदार आईएएस अफसरों को कम से कम पंद्रह दिनों के लिये बाढ़ प्रभावित इलाकों में भेजा जाना चाहिये। जॉर्ज फर्नानिंडस ने रक्षा मंत्री बतौर अपने कार्यकाल के दौरान ऐसे अफसरों को सियाचिन ग्लेशियर पर तैनात कर दिया था।
नीतिश कुमार मॉरी मॉरीशस में थे जबकि बिहार बाढ़ में डूब रहा था। क्या यह अच्छे नेता की निशानी है? मुझे बड़ा ही अफसोस है कि नीतिशजी जैसे समझदार व्यक्ति स्थिति की गंभीरता को नहीं समझ सके। बाहर जाना टाला जा सकता था,पहले बिहार की बाढ़ पर ध्यान देना चाहिये था। उन्होंने विरोधियों को ोलने का भी मौका दिया व नौकरशाहों को खुला खेलने का भी अवसर दे दिया।
बाढ़ में स्टंटबाजियाँ भी देखने को मिल रहीं हैं। लालू प्रसाद हाईवे पर हैलीकॉप्टर उतार देते हैं। मुझे लगता है इसे अनावश्यक रुप से राजनैतिक मुद्दा बनाया जा रहा है। यद्यपि कानूनन हैलीकॉप्टर हाईवे पर उतारना नहीं चाहिये था। पंरतु अगर उतर भी गया है तो यह इतना बड़ा मुद्दा नहीं है कि इस पर चर्चा कर समय बरबाद किया जाये। बाढ़ में कैसे राहत दी जाये,इस पर काम करना चाहिये।
इस संदर्भ में स्वयंसेवी संगठनों का काम आप किस तरह दे देखते हैं? स्वंयसेवी संगठन अच्छा काम रहे हैं। लगभग 30000 एनजीओ बिहार में पंजीकृत हैं। परंतु सिर्फ 100 ही विश्वसनीय हैं, अच्छा काम कर रहे हैं। सौ एनजीओ व लगभग पच्चीस अंतर्राष्ट्रीय संस्थायें इतने बड़े बिहार की बाढ़ समस्या पर कैसे काबू पा सकते हैं। यहाँ भी अगर सरकार समुचित सहयोग करे तो स्थिति काफी संभल सकती है। कल पटना में रेडियो मिर्ची पर मेरा साक्षात्कार प्रसारित हुआ था। मैंने विनम्र निवेदन किया था कि बाढ़ पीढ़ित जिलों के सभी खंडों में जो भी सहायता पहुंच रही है, उन सभी का उल्लेख आपदा प्रबंधन की “वैबसाइट” पर किया जाये। इससे फायदा यह होगा कि इन सभी जिलों व खंडों में कार्यरत एनजीओ वहाँ के सरकारी कर्मचारियों से मिलकर तुरंत देख लेंगे कि उपयुक्त संसाधन वहां पहुँचे हैं या नहीं। यह घोटाले पर काबू पाने में मदद करेगा व राहत सामग्री को सही जगह पहुँचाने में भी मदद करेगा। मैंने यह भी निवेदन किया था कि बिहार में आने वाली बाढ़ संबंधित विदेशी सहायता की जानकारी भी आपदा प्रबंधन की वैबसाइट पर आनी चाहिये। इससे सभी एनजीओ के बीच सांमजस्य बढ़ेगा, सरकार पर भी निगरानी रहेगी और राहत कार्य सुचारु हो सकेगा। मैंने बिहार व अन्य राज्यों के एनजीओ समुदाय व सामाजिक कार्यकर्ताओं से इस कठिन समय में आगे आकर मदद करने की अपील की थी। बिहार का मुख्यमंत्री भवन राहत कार्य देख रहा है। परंतु विश्वस्त सूत्र बताते हैं सरकार ने तथ्यों को उघाड़ने वाली,सरकार की आलोचना करने वाली ईमानदार संस्थाओं की मदद न करने के सख्त आदेश दे दिये हैं।
बाढ़ प्रभावित लोगों की त्वरित व दूरगामी जरूरतें क्या हैं?
सबसे पहले तो उनको सिर पर छत, दवाई व जिंदा रहने के लिये भोजन चाहिये। रोजमर्रा की वस्तु वस्तुएं यथा दियासलाई, मोमबत्ती चाहिये। बाढ़ के दिनों में सर्पदंश की घटनायें बहुत बढ़ जातीं हैं, सांप काटे की दवा अधिक मात्रा में चाहिये। बाढ़ पीढ़ित लोगों की दूरगामी जरूरतों में सबसे पहले स्थायी आवास है। उनके घर नष्ट हो गये हैं, काम के साधन नहीं रहे हैं। पानी उतरने के बाद उन्हें काम के बदले अनाज इत्यादि का कार्यक्रमों से लाभान्वित कराना चाहिये। सरकार को बाढ़ समस्या के दीर्घकालीन समाधान पर विमर्श करना चाहिये।
बिहार में लगभग हर साल बाढ़ आती है। आखिर क्यों उचित तरीके से इस पर काम नहीं हो पाया है जिससे बाढ़ से निपटा जा सके सके?
राजनैतिक वर्ग ने कभी भी इस मसले पर मंथन नहीं किया है कि तटबंध टूटने की समस्या पर कैसे काबू पाया जाये। बाढ़ राहत के क्या विकल्प हो सकते हैं, इस पर विचार ही नहीं हुआ है। सरकार को बाढ़ नीति बनानी चाहिये व इससे संबंधित विमर्श में बाढ़ प्रभावित व्यक्ति, शोधकर्ता, चिंतक, नीति निर्माता, सामाजिक कार्यकर्ता व पत्रकारों को शामिल करना चाहिये। जरा नर्मदा से तुलना कीजिये। बाढ़ नर्मदा में भी आती है। वहाँ नुकसान बहुत कम है लेकिन चूँकि वहाँ तीन राज्यों की बात आ जाती है, इसलिये अगर कोई छींकता भी है तो तीनों राज्यों के लोग बयान देने लग जाते हैं।
आप 1974 के जेपी आंदोलन से जुड़े रहे हैं। आपके अनुसार पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में बिहार की प्रशासन व्यवस्था किस तरह परिवर्तित हुई है?
लालूजी के कार्यकाल में सामाजिक जागरुकता आयी थी। उनका एक विजन है। उन्होंने नौकरशाहों की तानाशाही को भी तोड़ा। लाल बत्ती में घूमने वालों को बस की सवारी भी करवाई। आम जनता के साथ भी जुड़े। परंतु पाँच साल के बाद शासन व्यवस्था खराब होने लगी। अब पंद्रह साल के बाद नीतिशजी के कार्यकाल में सुशासन शुरु हुआ है। सरकार ने काफी प्रयास भी किये हैं, परंतु बड़ा अफसोस है कि बाढ़ जैसे बड़े मसले पर सरकार ने उपेक्षा बरती है। अगर सरकार सजग रही होती तो इतनी बड़ी हानि नहीं होती।
आप देशवासियों से क्या अपील करना चाहेंगे?
रातों रात तो बाढ़ की समस्या खत्म नहीं की जा सकती। इसमें पाँच दस साल लगेंगे। 1954 से लेकर आज तक की बाढ़ स्थिति का मूल्यांकन करना चाहिये कि आज तक कितनी जन हानि हुई,कितने गाँव डूबे,कितनी संपत्ति तबाह हुई। इस आधार पर रणनीति बनायी जानी चाहिये। दिल्ली में भी एक समूह बनना चाहिये, जो बाढ़ पर योजना बनाते समय ग्लोबल वार्मिंग जैसे मसलों को भी ध्यान में रखे। मैं यह भी अपील करूंगा कि अन्य राज्यों के लोग स्वयंसेवा करने बिहार आयें व हाथ बटायें। कई स्वयंसेवक आ भी रहे हैं। चेन्नई के डॉक्टरों ने उत्तर बिहार के बाढ़ प्रभावित इलाकों में गये हैं। स्विस रैड क्रॉस एसएसवीके के साथ दरभंगा के सबसे अधिक प्रभावित इलाके घनश्यामपुर में कार्यरत है। अन्य प्रदेशों से भी अगर इसी तरह डॉक्टर आते हैं बाढ़ पीढ़ित लोगों को बड़ी राहत मिलेगी। बाढ़ की वजह से कई बीमारियाँ फैल रहीं हैं व समुचित चिकित्सा का अभाव है। पूरे देश को इस विपत्ति के समय बिहार की मदद के लिये आगे आना चाहिये। हमारी संस्था एसएसवीके उन्हें समुचित सहयोग देगी।
एसएसवीके के बाढ़ नियंत्रण संबंधी क्या प्रयास रहे हैं?
हमने बाढ़ से पूर्ण मुक्ति के लिये ''नदी मुक्ति आंदोलन'' शुरु किया है, परंतु राजनेता व तटबंध ठेकेदारों द्वारा निरंतर रोढ़े डाले जाने की वजह से यह बहुत अधिक सफल नहीं हो पाया है। नदी मुक्ति आंदोलन सभी तटबंधों को हटाने व नदी को 1954 पूर्व की अवस्था पर लाने की माँग करता है। हम शोधकर्ता, नीति निर्माता व सरकार को इस मुद्दे से अवगत कराते हैं और आम जनता को शिक्षित करते हैं कि तटबंध बाढ़ समस्या का समाधान नहीं, असली समाधान नदी को तटबंध से मुक्त करने में है।