धराली में बादल फटने के बाद आए सैलाब ने चंद मिनटों में ही पूरे गांव को अपनी चपेट में ले लिया।  स्रोत : इंडिया टुडे
आपदा

उत्तरकाशी में बादल फटने से हुई तबाही को रोक सकते थे देवदार के जंगल

जंगलों की लगातार कटाई के कारण खुली और अस्थिर पहाड़ी ढलान पर पानी का तेज़ी से बहना बना भयंकर सैलाब का कारण। पर्यावरणविदों ने चेतावनी दी थी कि पहाड़ों पर घने, मज़बूत पेड़ नहीं रहेंगे तो ऐसी आपदा कभी भी आ सकती है।

Author : कौस्‍तुभ उपाध्‍याय

उत्तरकाशी के धराली में हाल ही में बादल फटने से आई भयंकर तबाही के दृश्य दिल दहलाने वाले हैं। पलक झपकते आए 'जल प्रलय' ने जिस तेज़ी से पेड़ों, मकानों और इंसानों को निगला उसने स्पष्ट कर दिया किया कि प्राकृतिक प्रणालियों से छेड़छाड़ के नतीजे कितने भयावह हो सकते हैं।

घटना को लेकर पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि धराली में अगर देवदार के जंगलों का सफाया न हुआ होता, तो पेड़ इस आपदा को काफ़ी हद तक रोक सकते थे। खड़ी ढलान वाली इस ज़मीन पर अगर मोटे-लंबे पेड़ों की कतारें खड़ी होतीं, तो बादल फटने से आया सैलाब इतनी तेज़ी से आगे बढ़कर इतना नुकसान न कर पाता और उसकी चपेट में आने वाला इलाका भी काफी सीमित होता। 

दैनिक भास्‍कर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, हिमालय पर कई किताबें लिख चुके प्रोफेसर शेखर पाठक का कहना है कि देवदार के पेड़ इस भयंकर तबाही को रोक या काफ़ी हद तक सीमित कर सकते थे। उन्‍होंने बताया कि ट्रांस हिमालय (समुद्र तल से 2000 मीटर से ऊपर का क्षेत्र) की ऊंचाइयों पर बसा उत्तराखंड का यह इलाका कुछ दशक पहले तक देवदार के भारी-भरकम पेड़ों वाले जंगलों से भरा था।

उस वक्‍त यहां एक वर्ग किलोमीटर में औसतन 400-500 देवदार पेड़ थे। देवदार के पेड़ों की सबसे ज़्यादा तादाद धराली से ठीक ऊपर हिमालय के गंगोत्री वाले इलाके में थी। पेड़ों की ये घनी कतारें बादल फटने या भूस्‍खलन (लैंडस्लाइड) जैसी प्राकृतिक आपदाओं के वक्‍त पानी और मलबे को तेज़ी से बहकर नीचे नहीं आने देती थीं। सदियों तक देवदार के वृक्ष यहां के निवासियों के लिए एक मज़बूत सुरक्षा ढाल बनकर खड़े रहे, लेकिन बीते कई दशकों से इलाके में जारी जंगलों की कटाई और बढ़ते शहरीकरण ने इस ढाल को ही निढाल कर दिया। 

भगोड़े ब्रिटिश सिपाही ने शुरू किया देवदारों सफाए का सिलसिला

हिमालय के देवदार जंगलों के सफाए का जो सिलसिला करीब दो सौ साल पहले ब्रिटिश काल में शुरू हुआ था, वो आज भी बंद नहीं हो पाया। हिन्‍दुस्‍तान टाइम्‍स की एक रिपोर्ट के मुताबिक फ़्रेडरिक विल्सन ब्रिटिश-ईस्ट इंडिया कंपनी का एक भगोड़ा सिपाही था। वह 1830 के दशक में हुए पहले एंग्लो-अफ़गान युद्ध से भागकर गढ़वाल के हर्षिल इलाके में आ बसा था।

पहले तो उसने यहां के जंगली जानवरों, खासकर कस्‍तूरी हिरणों (musk deer) के शिकार को अपनी रोज़ी-रोटी का ज़रिया बनाया। इसके बाद उसने  यहां की प्राकृतिक संपदा, खासकर देवदार के घने जंगलों की कटाई को अपना कारोबार बना लिया।

विल्सन ने 1850 के दशक में गढ़वाल के राजा से लकड़ी काटने ठेका हासिल कर लिया। इसके बाद उसने ब्रिटिश हुकूमत के अधिकारियों और स्थानीय ठेकेदारों के साथ मिलकर देवदार के जंगलों की लकड़ी की बड़े पैमाने पर कटाई शुरू कर दी। उस दौर में लकड़ी की भारी मांग थी, क्योंकि ब्रिटिश हुकूमत रेलवे की पटरी बिछाने और बड़े-बड़े पुलों के निर्माण में मजबूत लकड़ी का इस्तेमाल करती थी।

विल्सन ने आसपास के क्षेत्रों से लाखों पेड़ कटवाए और लकड़ी को टिहरी-देहरादून होते हुए कलकत्ता तक पहुंचाया। इससे वह बहुत दौलतमंद बन गया और गढ़वाल राज्‍य में उसका एक दबदबा कायम हो गया। धीरे-धीरे उनका व्यापार इतना बढ़ा कि जिस विल्‍सन को स्थानीय लोग कभी ‘पहाड़ों का पाखंडी' कहते थे, उसे अब ‘पहाड़ों का राजा' कहा जाने लगा। इस लालची अंग्रेज़ की वजह से कभी इस इलाके की पहचान माने जाने वाले देवदार के घने जंगल तेज़ी से घटने लगे। स्थानीय पारिस्थितिकी और जैवविविधता पर इसका गहरा असर पड़ा। 

रुका नहीं जंगल कटने का सिलसिला

शोषणकारी सिलसिला एक व्यक्ति तक सीमित नहीं रहा। बाद में और भी ठेकेदारों ने पट्टे लेकर और वन माफियाओं व बिचौलियों के गिरोहों ने अवैध रूप से देवदार के जंगलों की कटाई को जारी रखा। आज़ादी के बाद अलग-अलग दौर में कुछ-कुछ समय के लिए इसपर अंकुश तो लगा, पर वन विभाग के भ्रष्‍ट अधिकारियों की मिलीभगत से स्‍थानीय वन माफियाओं और ठेकेदारों का खेल जारी रहा।

आज भी सरकारी ठेकों और निजी मुनाफाखोरों के ज़रिए यह सिलसिला दबे-छिपे ढंग से चल रहा है।  इसका नतीजा यह हुआ कि अब इस इलाके के प्रति वर्ग किलोमीटर में देवदार के औसतन 200-300 पेड़ ही रह गए हैं। इनमें से भी कई पेड़ नए, कमज़ोर या रोगग्रस्‍त हैं, जो सूखने के कगार पर पहुंच चुके हैं।

बीते दिनों धराली में बादल फटने पर जिस रास्ते से सैलाब इतनी तेज़ी नीचे आया, वहां कभी देवदार का घना जंगल था, जो तबाह हो चुका है। इसी का गंभीर परिणाम सैलाब में हुई जन-धन की भारी हानि के रूप में देखने को मिला है, क्‍योंकि इस सैलाब को रोकने या इसकी रफ़्तार को कम करने के लिए रास्‍ते में पेड़ों की संख्‍या काफी कम थी। लिहाज़ा सैलाब की तेज़ रफ्तार को थामने के बजाय ये पेड़ भी बाढ़ की चपेट में आकर उखड़ कर बाढ़ के पानी के साथ बहने लगे।

सैलाब के साथ बहकर आए मलबे और कीचड़ में दर्ज़नों मकान पूरी तरह डूब गए। कई घर तो पानी के तेज़ प्रवाह के साथ बह भी गए।

5 अगस्त की दोपहर क्‍या हुआ था धराली में

धराली में 5 अगस्त को दोपहर 1.45 बजे बादल फटा था। महज़ कुछ ही मिनटों में हुई मूसलधार बारिश का पानी पास की खीर गंगा नदी में जा समाया और नदी का जलस्तर असामान्य रूप से बढ़ गया। लगभग 34 सेकेंड के भीतर यह तेज़ पानी गांव की ओर टूट पड़ा और पूरे धराली को ज़मींदोज़ कर दिया।

चंद मिनटों में देखते ही देखते दर्ज़नों मकान बाढ़ में बह गए, कई पुल और सड़कें ध्वस्त हो गईं। प्रशासनिक आंकड़ों के मुताबिक कई लोग लापता हो गए, जबकि कई ग्रामीणों की मौत की पुष्टि हुई। बड़ी संख्या में मवेशी बह गए और खेत भी बर्बाद हो गए, जिससे लोगों की आजीविका पर गहरा असर पड़ा।

टाइम्‍स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक सरकारी अनुमान है कि करीब दो दर्ज़न (20–25) होटल और होमस्टे पूरी तरह बहकर नष्ट हो गए। दर्ज़नों दुकानें और बाज़ार भी तहस-नहस हो गए। हादसे के बाद लगभग 100 लोग लापता बताए गए, जिनमें कई स्थानीय निवासी और पर्यटक थे। इन सभी के बाढ़ के मलबे में दबने की आशंका है। 

यह घटना केवल बारिश भर नहीं थी, बल्कि पर्वतीय पर्यावरण की संवेदनशीलता की भी झलक थी। भारी वर्षा का पानी जब एकदम से गिरा तो वह ढलानों से मिट्टी, पेड़ों, इमारतों, बड़ी चट्टानों, बोल्डर और मलबे को बहाकर नीचे लाया। चूंकि ढलानों पर पर्याप्त वृक्ष और वनस्पति नहीं बचे थे, इसलिए पानी बिना किसी प्रतिरोध के तेज गति से आगे बढ़ता हुआ सैलाब की शक्ल में गांवों को अपनी चपेट में लेता गया।

हादसे के चश्‍मदीद रहे स्थानीय लोगों ने बताया कि बाढ़ का पानी खेतों और ढलानों के रास्‍ते घरों को बहाता हुआ इतनी तेज़ रफ्तार में आया कि लोगों को संभलने तक का मौका नहीं मिला। इस तरह पर्यावरणीय दृष्टि से बादल फटने की यह घटना सिर्फ एक प्राकृतिक आपदा नहीं थी। इसमें पहाड़ पर हुई इंसानी कारगुज़ारियों का असर भी शामिल था।

तेज़ ढलान वाले पहाड़ी इलाके में प्राकृतिक संतुलन की परवाह किए बिना जिस तरह से जंगलों की कटाई और मनमाने ढंग से जहां-तहां निर्माण कार्य किए गए, उसने उस पानी को नियंत्रित करने वाली प्राकृतिक ढाल को कमजोर कर दिया। अगर यहां देवदार और गहरी जड़ों वाले अन्य पेड़ पर्याप्‍त संख्या में होते, तो वे सैलाब के एक बड़े हिस्‍से को रोक लेते और धीरे-धीरे पानी को जमीन में सोखने देते। लेकिन वृक्षहीन ढलानों ने पानी को सीधे गांव की ओर धकेल दिया, जिससे आधे मिनट से भी कम समय में इतनी बड़ी त्रासदी हो गई।

दरअसल, देवदार के पेड़ों ने केवल धराली ही नहीं, बल्कि पूरे हिमालय क्षेत्र को सदियों तक स्थिर बनाए रखने में अहम भूमिका निभाई। देवदार के जंगल काफ़ी घने होते थे। इसमें मोटे तने वाले पेड़ों के नीचे बांज जैसी घनी झाड़ियां होती थीं। यह एक ईकोसिस्टम था, जो भूधंसाव या बादल फटने पर भी हिमालय की मिट्‌टी को जकड़ कर रखता था। लेकिन, जंगलों की अंधाधुंध कटाई ने इस पूरे सिस्‍टम को खोखला कर दिया। 

भागीरथी नदी में अवरोध से बनी कृत्रिम झील को हटाया गया

पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर काम करने वाली संस्‍था संदर्प की एक रिपोर्ट के मुताबिक सैलाब के साथ भागीरथी नदी में भारी मात्रा में बहकर आए मलबे और कीचड़ से उसका प्रवाह बाधित होने के कारण तेल गाड़ (धारा) और भागरथी नदी के संगम पर 1200-1500 मीटर लंबी एक कृत्रिम झील बन गई। इस झील का निर्माण धराली आपदा के 30-45 मिनट के भीतर हुआ।

अगले कुछ दिनों में झील का बढ़ता जलस्तर मानव बस्तियों के क़रीब पहुँच गया। झील में पानी जमा होते जाने से गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग (NH) 34 का एक हिस्सा प्रभावित हुआ और दाहिने किनारे के लगातार कटाव से हर्षिल शहर में नदी किनारे की इमारतों की सुरक्षा को लेकर चिंताएं पैदा हो गईं।

झील के अचानक टूटने के खतरे को देखते हुए 9 अगस्त को सिंचाई विभाग ने योजना बदल दी और झील को हाथ से तोड़ने का फैसला किया। करीब हफ़्ते भर तक चली कोशिशों के बाद पानी के प्रवाह के अवरोधों को साफ कर 16 अगस्त को इस कृत्रिम झील को कुछ हद तक हटा दिया गया। इससे झील के फूटने से इलाके में एक और सैलाब आने का खतरा फिलहाल टल गया है।

देवदार की घटती संख्या एक गहरी पर्यावरणीय चेतावनी

एक रिपोर्ट के मुताबिक देवदार सहित हिमालयी वनों के शंक्‍वाकार वृक्षों की छतरीनुमा आकृति भारी बारिश की स्थितियों में तेज रफ़्तार से गिरने वाली वर्षा की तीव्र बूंदों को सीधे जमीन तक पहुंचने से रोकती है। पेड़ अपने पत्तों और शाखाओं में पानी रोककर धीरे-धीरे उसे जमीन तक पहुंचाते हैं। इस कारण बारिश की बूंदे एक सीमित गति से धरती तक पहुंचती हैं। इससे बारिश का झटका कम होता है और अचानक बाढ़ जैसी स्थितियां नियंत्रित होती हैं।

पर्यावरण विज्ञान की भाषा में इसे “इंटरसेप्शन लॉस” कहा जाता है। इस तरह देवदार के वृक्ष एक ढाल की तेज़ तरह बारिश से होने वाले मिट्टी के कटाव को रोक देते हैं, जिससे यकायक भूस्‍खलन (ज़मीन धंसने) और पहाड़ों के टूटने जैसी घटनाएं नहीं होने पाती हैं।

इसके अलावा, देवदार और बाकी अल्पाइन वृक्ष भी हिमालयी जल-ग्रहण क्षेत्रों में जलधाराओं को स्थायी प्रवाह देने में मदद करते हैं। साथ ही, वाष्‍पोत्‍सर्जन के ज़रिये यह स्‍थानीय वातावरण में नमी बनाए रखने भी मददगार होते हैं, जिससे कम दबाव के क्षेत्र बनने की संभावनाएं घट जाती हैं, जो कि बादल फटने की घटनाओं में अहम भूमिका निभाती हैं।

जी.बी. पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान की एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्तरकाशी के आसपास, जहां भागीरथी और उसकी सहायक नदियां बहती हैं, वहां वनों की कटाई ने सीधे तौर पर ज़मीन की जलग्रहण क्षमता को काफ़ी घटा दिया है। यह भी एक कारण है कि इन तीखी ढलानों वाले इलाक़ों में तेज़ बारिश तुरंत सैलाब या भूस्‍खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं में बदल जाती है। 

दि न्‍यू इंडियन एक्‍सप्रेस की एक रिपोर्ट में उत्तराखंड के पर्यावरण पर अपने व्यापक कार्य के लिए अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त पर्यावरणविद् और लेखक-इतिहासकार डॉ. अजय सिंह रावत के हवाले से बताया गया है कि देवदार के पेड़ संवेदनशील हिमालयी क्षेत्रों की मिट्टी को मज़बूत बनाए रखने में बेहद अहम भूमिका निभाते हैं। पर्यावरण संरक्षण में इनका एक महत्‍वपूर्ण योगदान है।

उत्तराखंड के वनों और पारिस्थितिक चुनौतियों पर कई पुस्तकें लिख चुके डॉ. रावत ने बताया, "किसी समय, उत्तराखंड में समुद्र तल से 2,000 मीटर से ऊपर के क्षेत्र में देवदार के पेड़ों से घने जंगल थे। यहां हर वर्ग किलोमीटर में औसतन 400 से 500 देवदार के पेड़ होते थे। ये बादल फटने की स्थिति में पानी को अनियंत्रित रूप से नीचे गिरने से रोक देते थे और भूस्खलन जैसी आपदाओं से लोगों की रक्षा करते थे। धराली त्रासदी हमारे लिए एक गंभीर सबक होनी चाहिए कि हिमालय पर अगर जंगल नहीं रहेंगे, तो पहाड़ भी नहीं बचेंगे।

दुनिया का सबसे पुराना देवदार का पेड़ उत्तराखंड के चकराता में स्थित कोटी-कनासर जंगल में मौजूद है। हालांकि इसकी उम्र के बारे में एकदम सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है, पर तने की लकड़ी की संरचना के आधार पर इसकी उम्र 500 साल से भी ज्यादा बताई जाती है। इस वृक्ष के तने का व्‍यास 6.35 मीटर है। यह प्राचीन वृक्ष कई वर्षों से पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।
इसरो की ओर से जारी तस्‍वीरें हादसे से पहले और बाद का सूरत-ए-हाल बयां कर रही हैं। इसमें एक बड़ा इलाका सैलाब के मलबे में डूबा दिखाई दे रहा है।

जलवायु परिवर्तन भी बन रहा आपदाओं का कारण

धराली जैसी विनाशलीलाओं के पीछे जलवायु परिवर्तन का भी बड़ा हाथ है, जिसके चलते हिमालय के इलाके अब मानसून के दौरान तबाही का केंद्र बनते जा रहे हैं। डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से अब मानसूनी तूफान गर्म वातावरण में बनने लगे हैं, जो भारी मात्रा में नमी समेट कर नाज़ुक पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्रों से टकरा रहे हैं। पहाड़ों से टकरा कर यह अपने भीतर समाई सारी नमी और पानी को बहुत कम समय में जमीन पर उडे़ल देते हैं। इससे बादल फटने या प्रचंड वर्षा जैसी विनाशकारी स्थितियां पैदा हो रही हैं।

हिमालयी क्षेत्रों में ऐसी घटनाए विशेषकर तब देखने को मिल रही हैं, जब मानसूनी गतिविधियां "ब्रेक मानसून" के चरण में प्रवेश कर जाती है। इस चरण में मध्य भारत में मानसून कमजोर पड़ कर हिमालय की ओर खिसक जाता है। तब अरब सागर और बंगाल की खाड़ी, दोनों से भारी मात्रा में नमी वाले बादल संवेदनशील पर्वतीय क्षेत्रों में जमा हो जाते हैं। ये बादल पर्वतीय अवरोध में फंस कर एक झटके में काफी प्रचंड बारिश कर देते हैं।

धराली में बिल्‍कुल ऐसा ही हुआ। उत्तरकाशी ज़िले में 5 अगस्त को लगभग सात घंटों में 100 मिमी से अधिक वर्षा हुई। धराली के आसपास के क्षेत्रों में तो कुछ ही घंटों में 400 मिमी से अधिक वर्षा रिकॉर्ड की गई। मूसलाधार बारिश का सिलसिला अगले दिन भी जारी रहा और 5 - 6 अगस्त के बीच राज्य में सामान्य से 421 प्रतिशत अधिक वर्षा हुई।

रियल-टाइम मौसम निगरानी और चेतावनी प्रणाली न होने से बढ़ा ख़तरा

चिंताजनक बात यह है कि हिमालय के संवेदनशील पहाड़ी क्षेत्रों में रियल-टाइम मौसम निगरानी और प्रभावी चेतावनी प्रणालियों का अभाव है। यह बात संसद में सवाल-जवाब के ज़रिये भी सामने आ चुकी है। संदर्प की एक रिपोर्ट के मुताबिक 24 जुलाई, 2025 को ही जल शक्ति राज्य मंत्री राज भूषण चौधरी ने लोकसभा में एक प्रश्न के लिखित उत्तर में बताया था कि केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) फेसबुक, एक्स, फ्लड वॉच इंडिया मोबाइल ऐप आदि जैसे विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बाढ़ की जानकारी साझा करता है।

वास्तव में, सीडब्ल्यूसी यह काम बहुत ही रस्मी तौर पर करता रहा है और जब उसके निगरानी केंद्र प्रभावित होते हैं और पूर्वानुमान की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, तब आम जनता को वास्तविक स्थिति के बारे में कभी अपडेट नहीं करता। मंत्री का यह जवाब बताता है कि ऐसी चरम घटनाएं बढ़ने पर भी कोई क्विक अलर्ट सिस्टम न होना ऐसा है, मानो हम आंखें मूंदकर आपदा की ओर बढ़ते जा रहे हैं।

ग्‍लोबव वार्मिंग के चलते हिमालयी क्षेत्र में हो रहे जलवायु परिवर्तन का एक और खतरनाक पहलू है यहां के ग्‍लेशियरों का पिघलना। पिघलते हिमनदों से पहाड़ी इलाकों में जगह-जगह ऐसी ऐसी झीलें बन गई हैं और बनती जा रही हैं, जो पानी के ओवरफ़्लो से कभी भी फूट सकती हैं।

हिमालय की ये अतिसंवेदनशील ग्‍लेशियर झीलें टिक-टिक करते टाइम बम सरीखी हैं, जो कभी भी सैलाब लाकर न जाने कितनी ज़िंदगियां निगल सकती हैं। ऐसे में, इनकी निरंतर निगरानी और चेतावनी प्रणाली स्‍थापित करना भी ज़रूरी हो गया है। खासकर, उन सभी हिमनद झीलों की पहचान की जानी चाहिए, जिनके नीचे गांव या घनी बस्तियां बसी हुई हैं।

इन झीलों के आकार, पानी की मात्रा और प्रवाह मार्गों का भी सावधानीपूर्वक अध्ययन किया जाना चाहिए। साथ ही, इनके आसपास स्थित बस्तियों पर संभावित खतरे भी मूल्यांकन किया जाना चाहिए और ज़रूरत पड़ने पर उन्हें सुरक्षित क्षेत्रों में स्थानांतरित किया जाना चाहिए।

महंगा पड़ा वैज्ञानिक चेतावनियों को नज़रअंदाज़ करना 

धराली की आपदा ने यह भी साफ़ किया कि पानी की राह रोककर घर और गांव बसाना दरअसल अपनी जान से खिलवाड़ करना है। सैलाब की गाद में दबे मकान बता रहे हैं कि बस्तियां खीर गंगा (खीर गाड़) के रास्ते में बसा ली गई थीं।

इसे लेकर कई बार वैज्ञानिकों की ओर से जारी चेतावनियों को भी अनदेखा किया गया। इसका नतीजा भारी संख्‍या में मौतों और लोगों के लापता होने के रूप में चुकाना पड़ा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, वरिष्ठ भूविज्ञानी प्रोफेसर नवीन जुयाल ने 2023 में चेतावनी दी थी कि धराली एक टाइम बम पर बैठा है जो कभी भी फट सकता है।

प्रोफ़ेसर जुयाल, हर्षिल घाटी में छह किलोमीटर सड़क चौड़ीकरण के लिए करीब 6,800 पेड़ काटे जाने की योजना को लेकर भी चेतावनी दी थी। उनके अनुसार जो आपदा आई है वह अवश्यंभावी थी और यह हिमालय की नदियों की समझ न होने, हिमालय की प्रकृति से छेड़छाड़ की वजह से आई है।

वे कहते हैं कि झाला-जांगला की रोड के जंगल हिमस्खलन (एवलांच) की गाद पर बने हैं। यहां सर्दियों में काफी हिमस्खलन होते हैं जो पेड़ों के कारण ये रुक जाते हैं और उनकी जड़ें इस ढलान को स्थिर करती हैं। इसलिए अगर ये पेड़ काटे गए तो पूरा पहाड़ अस्थिर हो जाएगा।

धराली हादसे के बाद उनका यह वीडियो सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुआ। चेतावनियों को अनदेखा किए जाने के बाद हुए इस हादसे ने प्रशासनिक तंत्र को भी झकझोर दिया है और अब वह मूल वजहों की पड़ताल की बात कर रहा है। बीते 9 अगस्त 2025 को उत्‍तराखंड के मुख्य सचिव आनंद बर्द्धन ने आपदा प्रबंधन एवं पुनर्वास सचिव को धराली एवं पौड़ी में भू-वैज्ञानिकों की एक टीम भेजने के निर्देश दिए, जो इन आपदाओं के कारणों का अध्ययन करेगी।

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