आसमान में जमा नदियों के पानी से भारत में भीषण बाढ़ आ सकती है।  चित्र: आईडब्ल्यूपी फ़्लिकर फ़ोटोज़
आपदा

जलवायु संकट और बाढ़ के कहर से कैसे उबरेगा भारत

यह लेख बाढ़ के प्रभाव को कम करने वाले उपायों के बारे है। इन उपायों में विकास कार्यों को लेकर बनाए गए सख्त नियम, पर्यावरणीय प्रभाव आकलन और वर्षा जल का संरक्षण शामिल हैं।

Author : डॉ. गुरिन्दर कौर

साल 2024 में भारत के अधिकांश राज्यों में मानसून के दौरान औसत से अधिक बारिश हुई। आमतौर पर भारत में मानसूनी हवा उत्तर-पश्चिमी राज्यों से सितंबर के महीने में वापस लौटती है और अपने साथ राजस्थान, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश सहित अन्य राज्यों के लिए भारी बारिश लाती है। अगस्त और जुलाई के मौसम में मानसूनी हवा और बारिश के कारण राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, असम, त्रिपुरा, केरला और कुछ अन्य राज्यों को भारी नुकसान हुआ है।

जुलाई के अंतिम सप्ताह में केरल के वायनाड में हुई भूस्खलन की घटनाओं में लगभग चार सौ लोगों की जानें चली गईं। इन घटनाओं का कारण भी लगातार होने वाली बारिश ही थी। पहली मानसूनी बारिश में जहां दिल्ली में आठ लोगों की मौत हो गई वहीं अगस्त और सितंबर में राजस्थान और गुजरात में 35 लोगों की, और आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में 75 लोगों की जानें चली गईं।

कई राज्यों में जान का ही नहीं बल्कि माल का भी उतना ही नुकसान हुआ है। पहाड़ी राज्यों में भूस्खलन के कारण कई जगहों पर सड़क मार्ग बाधित हो गया। नदियों के किनारे बनाई गई कई बहुमंज़िला इमारतें (होटल, मोटल आदि) गिर रहे पहाड़ों के नीचे दब गईं या नदियों में समा गईं।

हर जगह पानी ही पानी दिखता है, फिर चाहे वो शहर हो, गांव हों या मैदानी इलाके हों। बाढ़ के पानी को निकालने के लिए सड़कों पर नालियां बनाई गई हैं। तेज़ गति से आता पानी पुलों, रेल पटरियों और बाकी सतहों के ऊपर से बह रहा है।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अंडरपास में पानी भरने से दिल्ली में तीन और फरीदाबाद में दो लोग की मौत हो गई। हर साल, कई राज्यों में बाढ़ से कई तरह के नुकसान होते हैं, जिनमें घरों, व्यवसायों, फसलों और बुनियादी ढांचे को होने वाले भारी नुकसान के साथ-साथ इंसानों और जानवरों की मौत भी शामिल है।

और घातक होगी जलवायु परिवर्तन की अनदेखी

सभी जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन और देश में आने वाली बाढ़ों की बढ़ती संख्या के बीच एक संबंध है। यह एक ऐसी वास्तविकता है जिसे एक आम आदमी आसानी से स्वीकार कर सकता है। यह सच है कि इस साल देश में सामान्य से अधिक बारिश हुई है लेकिन बाढ़ों की बढ़ती संख्या का एकमात्र कारण जलवायु परिवर्तन ही नहीं है। जलवायु परिवर्तन के अलावा इसका दूसरा बड़ा कारण प्राकृतिक पर्यावरण में बढ़ता मानवीय हस्तक्षेप भी है।

सबसे पहले जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को देखते हैं। पृथ्वी का औसत तापमान तेज़ी से बढ़ रहा है। साल 2023 को अब तक के सबसे गर्म साल के रूप में दर्ज़ किया गया है। कई अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के अनुसार, औद्योगिक क्रांति से पूर्व की अवधि की तुलना में पृथ्वी का औसत तापमान लगभग 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। संयुक्त राज्य अमेरिका के नेशनल ओशीनिक एटमॉस्फ़ेरिक एडिमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) का अनुमान है कि वैश्विक तापमान में साल 2023 तक 1.38 डिग्री सेल्सियस की औसत बढ़ोतरी हो चुकी है, जबकि यूरोप की कोपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस ने 1.48 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि का अनुमान लगाया है।

तापमान में होने वाली मामूली से मामूली वृद्धि बहुत मायने रखती है। एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से लू की आवृत्ति और तीव्रता पांच गुना बढ़ जाती है, वहीं अल्पकालिक मूसलाधार बारिश की संख्या और तीव्रता में सात गुना बढ़ोतरी हो जाती है। इतना ही नहीं, इस वृद्धि के कारण तूफ़ानी हवाओं की गति पांच गुना और जंगल की आग की आवृत्ति और तीव्रता कई गुना बढ़ जाती है।

नतीजतन, पृथ्वी पर लगभग हर देश में प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति में तेज़ी से वृद्धि हो रही है। जैसा कि जलवायु परिवर्तन पर इंटर-गवर्नमेंटल (अंतर-सरकारी) पैनल की पांचवीं (2014) और छठी (2021-2022) रिपोर्टों में कहा गया है, अगर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में भारी कटौती नहीं की गई, तो पृथ्वी पर कोई भी देश जलवायु परिवर्तन के हानिकारक परिणामों से बच नहीं पाएगा।

साल 2020 में, भारतीय ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप आने वाली प्राकृतिक आपदाओं से देश के 75 फीसद ज़िले पहले ही प्रभावित हैं। इस सर्वे का यह भी दावा है कि पिछले 50  सालों (1970 से 2019) में देश में बाढ़ों की संख्या में आठ गुना वृद्धि हुई है।

इस शोध के अनुसार, जलवायु परिवर्तन की वजह से भारत में हर रोज़ प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं। जहां जलवायु परिवर्तन ने प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति को बढ़ाया है, वहीं मानवीय गतिविधियों के कारण उनके प्रभावों की गंभीरता बढ़ी है।

मानवीय गतिविधियां बढ़ा रहीं जलवायु परिवर्तन का असर

मानवीय गतिविधियों के कारण नदियों के प्रवाह में भी बदलाव आया है। नदियों पर बड़े-बड़े बांध बनाकर उन्हें जलधाराओं और मौसमी नदियों में बदल दिया गया है। नदियों के विस्तार और बाढ़ की संभावना वाले क्षेत्रों में तरह-तरह की इमारतें खड़ी कर दी गई हैं। मानवीय गतिविधियों और हस्तक्षेप के कारण बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं की आवृति बढ़ गई है, क्योंकि बारिश का पानी इकट्ठा करने वाली झील, तालाब और शहरों और गांवों के निचले इलाकों जैसी जगहें अब खाली नहीं रह गई हैं।

मौसमी नदियों के बहाव मार्गों, तालाबों और झील की ज़मीन पर किए गए निर्माण कार्यों के कारण साल 2014 में श्रीनगर में, साल 2015 में चेन्नई में, साल 2018 में केरल में और साल 2022 में बंगलुरु में भीषण बाढ़ आई थी। झीलों और तालाबों जैसी जल इकाइयों के आसपास बनाई गई नई इमारतों के कारण ही ज़रा सी बारिश की स्थिति में भी दिल्ली और गुरुग्राम में जलजमाव की स्थिति पैदा हो जाती है। 

गुरुग्राम में मौसमी जलधाराओं और नालों से होता हुआ बारिश का पानी नज़फ़गढ़ झील तक पहुंचता था, लेकिन इलाके में हुए विकास के कारण अब वही पानी बहकर सड़कों पर आ जाता है। कृष्णा और गोदावरी नदी घाटियों पर किए गए निर्माण के कारण आंध्र प्रदेश और तेलंगाना को भी बहुत अधिक नुकसान हुआ है।

कम वर्षा के कारण पहले राजस्थान के जैसलमेर के चुंगी क्षेत्र से होकर बहने वाली काक नाम की मौसमी नदी लुप्त हो गई। यह सूखा और वीरान नदी बेसिन और इसका जलग्रहण क्षेत्र कई निर्माण परियोजनाओं का क्षेत्र रहा है। इस साल हुई भारी बारिश के कारण ये नदियां उफान पर आ गईं। नतीजतन, उनके किनारे बनी इमारतों में पानी भर गया और भारी नुकसान हुआ।

केरल राज्य का अधिकांश भूभाग पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत है। गाडगिल समिति के अध्ययन के अनुसार, पश्चिमी घाट क्षेत्र का 87 फीसद हिस्सा ऐसे क्षेत्र में स्थित है जो पर्यावरणीय परिवर्तनों के प्रति संवेदनशील है। समिति ने इस क्षेत्र में खनन, निर्माण (नए बांधों और कस्बों सहित) और अन्य गतिविधियों को रोकने या ना करने का सुझाव दिया है।

हालांकि, केरल सरकार ने इन निष्कर्षों को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया और पर्यावरणीय परिवर्तनों के प्रति संवेदनशील इन इलाके में विकास कार्यों को मंजूदी दे दी। खनिजों के लिए खनन के परिणामस्वरूप, भारी बारिश के दौरान खोखली पहाड़ियां भूस्खलन का शिकार हुईं और वायनाड बुरी तरह से त्रासदीग्रस्त हो गया।

उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी इलाकों में बारिश के बाद होने वाली आपदाओं के मुख्य कारणों में चार लेन वाले राजमार्ग, नदियों पर बने अत्यधिक बांध और जंगलों की बेतहाशा कटाई शामिल है। अंदर से खोखले पहाड़ खिसक रहे हैं और भारी तबाही मचा रहे हैं, क्योंकि बांधों और चार लेन वाली सड़कों के निर्माण के दौरान नए उभरते हिमालय पर्वतों पर विस्फोटकों की बौछार की जा रही है।

क्या हो सकते हैं उपाय

जहां जलवायु परिवर्तन बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि में योगदान देता है, वहीं अधिक नुकसान के लिए अंततः मानवीय गतिविधियां ही ज़िम्मेदार हैं। बाढ़ से होने वाले विनाश को रोकने के लिए, केंद्रीय और राज्य सरकारों को देश के सभी क्षेत्रों, जिनमें पहाड़ियां, मैदान, गांव और कस्बे शामिल हैं, में विकास के कड़े नियम लागू करने चाहिए।

ये नियम चार लेन वाली सड़कों और नदियों पर बांध के निर्माण पर भी लागू होने चाहिए। किसी भी निर्माण कार्य को शुरू करने से पहले, उस विशेष जगह का भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण और उस पर निर्माण के पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन किया जाना चाहिए। इसके अलावा, स्थानीय लोगों की राय लेनी भी ज़रूरी है।

मौसमी जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली प्राकृतिक आपदाओं (जैसे बाढ़) के प्रबंधन को सुगम बनाने के लिए नदियों और झरनों के जलग्रहण क्षेत्रों और बाढ़ के मैदानों में किसी भी प्रकार के निर्माण पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए। मानसून शुरू होने से पहले सभी मौसमी नदियों और नालों की अच्छी तरह सफाई भी ज़रूरी है। ऐसा इसलिए क्योंकि सालों की अनदेखी के कारण, मौसमी नदियों और नालों में अन्य प्रकार की वनस्पतियों के अलावा कीचड़ और गाद जमा होने से उनकी जल धारण क्षमता कम हो जाती है। इससे पानी उनके किनारों से बहकर आसपास के इलाकों में पहुंच जाता है और बाढ़ का रूप ले लेता है।

शहरी और ग्रामीण विकास के क्रम में झीलों, तालाबों और जल की अन्य इकाइयों की तरह वर्षा जल भंडारण के सभी स्रोत अतिक्रमण का शिकार हो गए हैं। नतीजतन, बारिश के बाद इन जल इकाइयों का पानी सड़कों पर बहने लगता है। बारिश के बाद वर्षा जल संचयन को रोकने के लिए, निचले इलाकों और सड़क के अंडरपास जैसे क्षेत्रों में रीचार्ज कुओं का निर्माण किया जाना चाहिए। 

पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील स्थानों पर सड़कें और बांध बनाते समय, पहाड़ी इलाकों में भूस्खलन की घटनाओं को सीमित करने के लिए विस्फोटक पदार्थों का उपयोग बिल्कुल नहीं किया जाना चाहिए। पहाड़ी क्षेत्रों में चार लेन वाले राजमार्गों के बजाय, सड़कों की चौड़ाई क्षेत्र की क्षमता के अनुसार होनी चाहिए। व्यक्तिगत से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक, वर्षा जल संरक्षण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

इस लेख का अनुवाद डॉ कुमारी रोहिणी ने किया है।

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