आपदा

कलाकारों की रिलीफ पार्टी

फणीश्वरनाथ रेणु

वर्ष 1966 का भयानक सूखा-जब अकाल की काली छाया ने पूरे दक्षिण बिहार को अपने लपेट में ले लिया था और शुष्कप्राण धरती पर कंकाल ही कंकाल नजर आने लगे थे... और सन् 1975 की प्रलयंकर बाढ़- जब पटना की सड़कों पर वेगवती वन्या उमड़ पड़ी थी और लाखों का जीवन संकट में पड़ गया था....। अक्षय करुणा और अतल-स्पर्शी संवेदना के धनी कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु प्राकृतिकप्रकोप की इन दो महती विभीषिकाओं के प्रत्यक्षदर्शी तो रहे ही, बाढ़ के दौरान कई दिनों तक एक मकान के दुतल्ले पर घिरे रह जाने के कारण भुक्तभोगी भी। अपने सामने और अपने चारों ओर मानवीय विवशता और यातना का वह त्रासमय हाहाकार देखकर उनका पीड़ा-मथित हो उठना स्वाभाविक था। विशेषतः तब, जबकि उनके लिए हमेशा ‘लोग’ और ‘लोगों का जीवन’ ही सत्य रहे। आगे चलकर मानव-यातना के उन्हीं चरम साक्षात्कार-क्षणों को शाब्दिक अक्षरता प्रदान करने के क्रम में उन्होंने संस्मरणात्मक रिपोर्ताज लिखे।

फणीश्वरनाथ रेणु के बाढ़ के अनेक रिपोर्ताज में से एक -

‘अपने लोग’
“आचार्यजी, लाठी में गुण बहुत है, सदा राखिये संग। नदि-नाला...”
“बहुत मुश्किल से एक बोतल “ऊपर” किया है। आज-भर तो काम चल जायेगा न...?”
‘ब्लैकनाइट’
“यह ...क्यों...फिर...फिर...”
“जी, किरासन तेल!”
‘माताल’
“अंदर आइए न...भीगकर आये हैं। चाय पी लीजिए।”
“तुम दया करके इनसे यह मत पूछा करो कि दाम कितना लगा। आर्टिस्ट लोग हैं, छोटी-सी बात से ही ठेस लग जाती है इन्हें।”
“तीन-चार किलों तो जरूर होगा – सब मिलाकर। इतना ढेर क्यों ले आये? ...कितना दाम...?”
“असल दिक्कत किरासन तेल की है।”
‘तोमार बस एकई कथा-किरासन तेल। नहीं, रामवचनजी, आप किरासन तेल मत लाइएगा। मैं भी अभी निकलूँगी, ले आऊँगी...देखिए न, आज सुबह से जो भी आते हैं सबसे बस किरासन तेल की दिक्कत ...मैं तो डरी कि कहीं अपने नये ‘जमाय’ और ‘कुटुंब’ को भी किरासन तेल की दिक्कत सुनाकर फरमाइस न कर बैठें।’
‘डालडा’
“लीजिए, कितना तेल लीजिएगा।”
‘फैरेजनी’
“अशोक राजपक्ष पर एक दुकान में मिल गयीं...”
“देखिए मैं, यानी पटना का एक लेखक, अर्थात् कलाकार, बाढ़ से घिरा हुआ हूं..एरा आमार जातेर लोक,...ये हमारी बिरादरी के लोग हैं – लेखक, कवि, पत्रकार, कथाकार, आर्टिस्ट, अभिनेता-मेरी सुधि लेने आते हैं और मेरे लिए ‘रिलीफ’ ले आते हैं। मुझे जिस चीज की जरूरत होती है उनसे बेझिझक कह देता हूँ...अपने को धन्य मानकर, उनके लाये हुए ‘सौगात’ को प्रसाद से भी अधिक पवित्र समझकर, निर्विकार चित्त से उपभोग करता हूँ। इसमें लाज-शर्म की बात अथवा ‘जग/हंसाई’ कहां है?...हां, बेटी ससुराल से आये हुए फल तथा अन्न की आप निश्चय ही अलग रख दीजिए।”
“पूरी से भी ज्यादा स्वाद है इस रोटी में...कितना प्रेम से ‘बांट-बखर’ करते हैं; न किसी को कम, न किसी को ज्यादा ...बोल रहे थे कि सांझ को भी ‘लंगर’ आयेगा, घबराना मत...ई ‘लंगर’ का है हो? ...”हँ हँ हँ – लंगर नहीं समझा – यही जो खा रहे हो।”
‘अनकॉमन’
‘सतसंग’
‘उजला’
‘रिलीफ’
“यह भी समझो कि ...हमारे पूर्णियां के ‘परताप’ से ही...”
‘मुठिया’
“आलोक ? आलोधन्वा?”
“बाहर आकर देखिए, हमारे तरुण कलाकारों का रिलीफ पार्टी।”
‘चंगा’
‘गांधी मैदान’
‘हम लोग पानी से घिरे हैं। अगर आप लोगों में से किसी को यह बक्सा मिले..’ ‘अरे साहब, तटबंध को तो ‘फलाना’ ने उड़ा दिया है- वीमेंस कालेज में क्या हुआ सो मालूम है?’
‘बोरियत’
“हमलोग अगस्त से लेकर अक्तूबर तक किसी भी स्थानीय समाचारपत्र के दो-तीन कालम को कभी नहीं पढ़ते थे- उत्तर बिहार की बाढ़ के समाचारों के कारण। हर वर्ष नियमपूर्वक आनेवाली हर बाढ़ को पिछले साल की बाढ़ से बढ़कर बताया जाता। किसी तटबंध का टूट जाना और फसल के साथ जान– माल की बर्बादी के समाचारों के कोई प्रभाव हम पर नहीं पड़ते थे। इसीलिए इस बार ऐसा लगता है कि ..हे मोर अभागा देश, जादेर कोरेछो अपमान हते हबे तादेर समान...”
“खोकन, की सब जा-ता देश-देश निये जादेर –तादेर संगे तुई ‘आबोल-ताबोल’ बले बेड़ाच्छिस?..नीचे चल!”
“की दीदी?...आपनि रवि ठाकुरेर कविता के आबोल-ताबोल बलछेन?”
‘भद्रमहिला’
“जे दुखे छोड़लहु घोराघाट, से दुख लागले रहल साथ...जिस दुख के कारण घोराघाट छोड़ा, वह दुख साथ लगा ही रहा। कमला-बलान ने गांव उजाड़ दिया तो भागकर पटना आये। पटना आये तो-ले बलैया! पटना में भी वही हाल!”
“पटना में भी वही हाल कैसे? वहाँ, अपने गांव में, बाढ़ के समय रहने को तिमंजिला मकान मिलता था! एँ! बोलो! ऐसन नरम नरम, गर्म-गरम रोटी और रसादार तरकारी वहाँ मिलता था? ए? बोलो?”
“अयँ हो, रेडियों में तो बोलिस है कि होली-कफ्टर से बनल-बनाबल, पकल-पकाबल खाना गिराबल जाता है। मरदा इधर कहाँ गिराइस है एको दिन? अयँ हो..?”
“सुनते हैं जी? सरदारजी लोग के ‘लंगर’ में अभी जो पियाज की चटनी दिया था ऐसा स्वाद था कि क्या बतावें। कि सच्चो कहते हैं – टोकरियो-भर रोटी हम उत्ती-सी चटनी से खा जाते!”
“धेत्त मर्दे! टोकरी –भर रोटी खाने का मिजाल है तुम्हारा?”
“अब आप रामरेणु गुप्त से समाचार सुनिए...!”
‘क्लोरिन’
‘एनामेल’
‘तुम्ही क्यों बाकी रहोगे आस्मां!’
‘बरसा’
“जहाँ में अब तो जितने रोज अपना जीना होना है। तुम्हारी चोटें होनी हैं, हमारा सीना होना हैं। जहाँ में अब तो जितने रोज...”
‘एहि में हौ...एहि में हौ? एहि में...बीचवाला में...हमको तो आवाज से ही पता लग गया कि यही प्लेन है।’
“आपको थोड़ा कष्ट दिया। माफ किया जाये। देखिए, तीन दिन हो गये। अब तक हम लोगों के चारों ब्लॉक में एक भी नाव नहीं मिली। सुना है कि ‘कलेक्टेरियट’ में ‘ज्वायंटली’ जाकर कहने से नाव मिलती है। तो सोचा कि आपको ही अगुआ बनाकर ले चलें। आपके रहते फिर...”
“मुझे ? अरे...मेरे लिए तो...मुश्किल है ...मैं तो इतना लाचार हो गया हूं...कि,”
“क्यों-क्यों? बीमार-उमार हैं क्या ?”
“मेरा चेहरा देखकर आप कुछ नहीं समझ सके?”
“हां, हां। इधर थोड़ा कमजोर लग रहे हैं। तो क्या तकलीफ है?”
“पेप्टिक अलसर है तो ऑपरेशन क्यों नहीं करवा लेते?”
“ऑपरेशन नहीं। इसको इंडियन मेडिकल इंस्टिट्यूट – दिल्ली में डाक्टर आत्मप्रकाश के द्वारा ‘फ्रीज’ करवाना है।”
“यह फ्रीज क्या होता है?”
“होता है....”
“माफ किया जाये । आपको कष्ट दिया।”
“साला, मिथ्येवादी, बेईमान जोच्चोर...झूठा। भाग यहां से।”
“तुम तो जानते हो ठाकुर, मैंने एक शब्द भी झूठ नहीं कहा। मैंने यह भी नहीं कहा कि पेप्टिक अलसर के कारण उनके साथ जाने में असमर्थ हूं..अब तुम्हीं बताओ न, नाव लेकर मैं क्या करता, अथवा वे ही क्या करेंगे? उधर सारा पश्चिमी पटना अगम पानी में है – आप छाती-भर पानी में ही हैं। कहीं डुबाव पानी तो है नहीं। कहीं से एक नाव मिल भी गयी तो रोज आपस में ही सिर-फुटौवल...”
‘तेज गति से चलकर मारनेवाली’
‘नयी नदी’
“भाइयों! बाढ़ के कारण पटना नगर में तरह-तरह के संक्रामक रोगों के फैलने की आशंका है। आपके दरवाजे पर हमारे स्वयंसेवक टीका लगाने पहुँच रहे है। कृपया, फौरन टायफायड तथा हैजे का टीका ले लें।”
‘इतनी दवाइयाँ अभी मौजूद होंगी? अथवा ...बाहर से आनेवाली दवाओं के समाचार के आधार पर...?’
‘दान’
‘एयर-ड्रॉपिंग’
‘लो-फ्लाइंग’
‘थुथने’
‘सीं-ई-ई-ई-ई-...गरगरगरगरगरगर...गुड़रगुड़रगुड़र...सींई-ई-ई-ई—गर-गर-गरगरगरगरगर एक और आ गया उधर से ..उस छत पर एक बक्सा फिर गिरा। एक नहीं दो?’
‘फ्लैगिंग’
SCROLL FOR NEXT