इस बार कमजोर मानसून की वजह से सूखे की आशंका ने किसानों की मुसीबत बढ़ा दी है। जुलाई का तीसरा हफ्ता बीत गया लेकिन बारिश का कोई आसार नहीं है। इसका असर खेती और पीने के पानी पर दिखने लगा है। कमजोर मॉनसून की वजह से न सिर्फ खेती और जल प्रबंधन में दिक्कत आ रही है बल्कि खाने-पीने की चीजों की कीमतें भी बढ़ रही हैं। पिछले साल के मुकाबले इस बार 8 लाख हेक्टेयर क्षेत्र कम बुआई हुई है। इससे ज्वार बाजरा जैसे पारंपरिक अनाज की पैदावार पर असर पड़ेगा। देश के 84 बड़े जलाशयों में पिछले साल के मुकाबले सिर्फ 61 फीसदी पानी भरा है जो इस बार विकट संकट पैदा करेगा। बढ़ रहे सूखे की आहट को बता रहे हैं शशि शेखर।
अभी तक पूरे देश में मानसून ठीक से नहीं बरसा है। खुद सरकारी आंकड़े गवाह हैं कि हरियाणा में 69 फीसदी और पंजाब में अभी तक बारिश में 68 फीसदी की कमी दर्ज की गई है। झारखंड, जहां पर इस समय तक सारे सूखे ताल-तलैया भर जाने चाहिए थे, वहां भी वर्षा में 32 फीसदी की कमी है। सब जानते हैं कि देश के दक्षिण भाग में मानसून काफी पहले आता है और वहां सह्याद्रि जैसे पर्वत वर्षा के जल से उफनने लगते हैं। यह दुर्भाग्य है कि अभी तक वहां जरूरत का 70 फीसदी जल ही उपलब्ध हो सका है।
दिल्ली के संपन्न उपनगर नोएडा के ‘मेघदूतम्’ पार्क में आवारा चहलकदमी के दौरान कुछ बूंदें शरीर से क्या टकराईं कि मन प्रवासी हो चला। बचपन और घनघोर जवानी के वे दिन याद आने लगे, जब बारिश अलग-अलग भाव लेकर आती थी। वर्षा की बूंदें कभी-कदा ऐसा असर करतीं, जैसा ‘मेघदूतम्’ के यक्ष के दिलो दिमाग पर होता रहा होगा। कभी ‘कुमारसंभवम्’ की पार्वती की तरह शुरुआती जल देह पर पड़ते ही वाष्प में तब्दील होता प्रतीत होता। जिंदगी महज कुछ आंसुओं और मुस्कानों का गुणा-भाग नहीं है, यह तभी समझ में आने लगा था, पर अब हालात पूरी तरह बदल गए हैं। हर मुद्दे को अर्थ और आर्थिक व्यवस्था से जोड़कर देखने वाली दुनिया में बारिश हर बार नए मुहावरे लेकर आती है। अखबारों में इसके लिए शेरो-शायरी नहीं, बल्कि आशंका से भरी हेडलाइन्स की भरमार होती है। डॉलर, येन या यूरो के मुकाबले रुपया कितना चढ़ा या उतरा, इसमें कितने हिन्दुस्तानियों की रुचि है, कम से कम मैं तो नहीं जानता। पर यह सच है कि 70 फीसदी से अधिक लोगों को दो जून की रोटी आज भी आषाढ़, सावन और भादो में आसमान से टपका जल उपलब्ध करवाता है। यही वजह है कि वर्षा हमारे यहां जरूरत, सियासत और बाजीगरी का घालमेल हो गई है।
आप पिछले दस साल के आंकड़े और बारिश संबंधी बयानों को उठाकर देख लीजिए। मानसून को जब हिंद महासागर को छूने में हफ्तों बाकी होते हैं, तभी से कुकुरमुत्ते की तरह अचानक तमाम मौसम वैज्ञानिक सिर उठाने लगते हैं। सब एक सुर से कहते हैं कि बदरा सही समय पर उमड़ेंगे और बारिश भरपूर होगी। इन्हीं लोगों के आंकड़े गवाह हैं कि एक दशक में छह बार ऐसा हुआ है, जब बरसात अपनी समय सीमा को पीछे छोड़कर आगे निकल गई। देश के कई प्रदेश इनकी भविष्यवाणियों के बावजूद औसत से कम वर्षा के शिकार हुए, जिसके चलते किसान बदहाल होते जा रहे हैं और महंगाई बेलगाम।
इस बार तो गजब ही हो गया। एक मौसम विज्ञानी ने कहा कि आंकड़ों का इशारा साफ है, वर्षा का चक्र बदल रहा है। क्यों न मानसून के आगमन की तारीखों को 10-15 दिन पीछे खिसका दें? मसलन, पूर्वी उत्तर प्रदेश में मानसून के पहुंचने का समय अभी 15 जून है, तो इसे अब 25 जून क्यों न कर दिया जाए? इसी प्रकार, लखनऊ में 18 जून को मानसून पहुंचता है, इसमें देरी हो रही है, तो क्यों न अब इसकी नई तारीख 29 जून कर दी जाए? गजब है! अभिलेख आपके, आंकड़े आपके, फैसला आपका और किसान? उनका क्या होगा? आप मानसून की तारीख बदल सकते हैं, पर क्या इससे फसलों का ऋतुचक्र बदल जाएगा? यकीनन ऐसा नहीं होने जा रहा। तो फिर भला इस पेशकश की जरूरत क्या है? इस सवाल के जवाब के लिए हमें पुरानी बोध कथा पर गौर करना होगा। हम सबने पढ़ा है कि एक शुतुरमुर्ग को जब शत्रु ने दौड़ाया, तो उसने रेत में मुंह छिपा लिया, ताकि वह दुश्मन को न देख सके। हम कब तक खुद ही अपना शिकार करते रहेंगे?
अभी तक पूरे देश में मानसून ठीक से नहीं बरसा है। खुद सरकारी आंकड़े गवाह हैं कि हरियाणा में 69 फीसदी और पंजाब में अभी तक बारिश में 68 फीसदी की कमी दर्ज की गई है। झारखंड, जहां पर इस समय तक सारे सूखे ताल-तलैया भर जाने चाहिए थे, वहां भी वर्षा में 32 फीसदी की कमी है। सब जानते हैं कि देश के दक्षिण भाग में मानसून काफी पहले आता है और वहां सह्याद्रि जैसे पर्वत वर्षा के जल से उफनने लगते हैं। यह दुर्भाग्य है कि अभी तक वहां जरूरत का 70 फीसदी जल ही उपलब्ध हो सका है। मध्य भारत के पठार-मैदान भी बारिश के मामले में 24 प्रतिशत पीछे हैं। जो लोग उत्तर-पश्चिम भारत को जानते हैं, उनको भी जानकर अचरज होगा कि बादल इस हरी-भरी धरती को दगा देने पर आमादा हैं। यहां भी 34 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई। चेरापूंजी में कभी संसार में सर्वाधिक बारिश हुआ करती थी। भावनाओं और वर्षा-जल से हमेशा सीली-सीली रहने वाली यह सरजमीं सूख तो पहले से ही रही थी, इस बार इस जिले में 44 फीसदी वर्षा कम हुई। ये आंकड़े घट-बढ़ भी सकते हैं, पर एक बात सच है कि मौसम विज्ञानी एक बार फिर बेपर्दा हुए हैं। सूखा एक बार फिर देश के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है।
कृषि मंत्री एक तरफ जहां आपातकालिक योजना तैयार करने की बात करते हैं, वहीं दिलासा भी देते हैं कि 15 जुलाई तक अगर मानसून ने गति पकड़ ली, तो बहुत नुकसान नहीं होगा। टेलीविजन पर उनको बोलता देखकर हमारे भोले-भाले किसानों को भले ही हफ्ते, दो-हफ्ते की उम्मीद बंध जाए, पर सियासी भाषा को समझने-बूझने वाले लोग जानते हैं कि इसके बहुत से मतलब हैं। इनमें से एक भी अर्थ हमारे आपके भले के लिए नहीं है। हकबकाई हुई सूबाई और दिल्ली की सरकारों के बीच जो भी सियासी लुका-छिपी चले, पर सच यह है कि हमें महंगाई और आत्महत्याओं के नए दौर के लिए तैयार हो जाना चाहिए। इस मामले में हमारा देश पहले से ही काफी बदनाम रहा है। 1995 से 2010 तक 16 सालों में 2,56,213 धरती पुत्रों को जान गंवाने पर मजबूर होना पड़ा। सरकारी आंकड़े इस संख्या को किंतु-परंतु के मकड़जाल में फंसाकर मुक्ति पा लेते हैं, पर यह शर्मनाक है कि किसानी पर आश्रित इस मुल्क के किसानों को मौत के बाद भी रुसवाई का सामना करना पड़ता है।
यही वजह है कि ‘मेघदूतम्’ की हरियाली के बीच टहलते हुए जब उच्च-मध्यवर्गीय लोगों की गलचौर मेरे कानों से टकराती है, तो सुबह-ही-सुबह उदासी घेर लेती है। उनके लिए मानसून सिर्फ गरमी से निजात पाने का जरिया है। उन्हें इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि उनके वातानुकूलित आवासों से कुछ ही दूर ऐसे लोगों की आबादी शुरू हो जाती है, जिनके लिए वर्षा का जल जिंदगी का पैगाम लेकर आता है। यही वजह है कि मुझे कालिदास की जगह पाश याद आते हैं। उनकी एक कविता की चुनिंदा पंक्तियां पढ़िए :
‘भारत’-
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहां कभी भी प्रयोग किया जाए
बाकी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं।
इस शब्द का अर्थ
खेतों के उन बेटों में है
जो आज भी वृक्ष की परछाइयों से
वक्त मापते हैं।
उनके पास सिवाय पेट के
कोई समस्या नहीं..
‘भारत’ के अर्थ
किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं
वरन् खेतों में दायर हैं
जहां अन्न उगता है
जहां सेंध लगती है।
वह पंजाब के किसानों के लिए जिए और अपनी ही सरजमीं पर मारे गए। पाश को गुजरे हुए वर्षों बीत गए। पर अब भी दुष्यंत के बेटे ही देश पर हुकूमत करते हैं और धरतीपुत्र मानसून के भ्रम भरे आंकड़ों से अपना मन बहलाने की कोशिश करते हैं।