हिमालयी क्षेत्र के साथ पूर्वी और पश्चिमी घाट को शिमला, मसूरी, दार्जिलिंग और महाबलेश्वर जैसे हिल स्टेशनों के लिए जाना जाता है। यहां अधिकांश हिल स्टेशन और शहर पहाड़ी ढालों पर ही बसे हुए हैं। इनमें पिछले कुछ दशकों से शहरीकरण और जनसंख्या वृद्धि के साथ पर्यटकों की आमद बढ़ने से विकास का दबाव बढ़ा है, लेकिन पहाड़ी ढालों पर भवन निर्माण के लिए खास मानक नहीं होने से यहाँ भूकम्प और भूस्खलन जैसी आपदाओं में खतरा बना रहता है।
इसी के मद्देनजर आईआईटी रुड़की पहाड़ी ढालों पर भवन निर्माण के लिए अलग मानक तैयार करने के काम में जुटा है। जिसमें पहाड़ी ढाल के अनुसार भवन की नींव कैसी हो, इस पर भी फोकस किया जा रहा है। इसके लिए मसूरी, श्रीनगर और देवप्रयाग जैसे पहाड़ी शहरों का अध्ययन कर भी डाटा जुटाया गया है। देश में 18 फीसदी भू-भाग पहाड़ी देश का कुल करीब 11 प्रतिशत भाग पर्वतीय और 18 प्रतिशत भू-भाग पहाड़ी है।
समुद्र तल से 600 मीटर से अधिक की ऊंचाई या 30 डिग्री की औसत ढलान वाला क्षेत्र पहाड़ की श्रेणी में रखा जाता है। जिसमें हिमालय, मध्य उच्च भूमि, दक्षिण का पठार, उत्तर पूर्वी पहाड़ी शामिल हैं। भारत में हिमालय क्षेत्र के उत्तर से पर्वतीय क्षेत्र में आते हैं। नए मानक बनाए जाने से भवनों को मजबूती के साथ ही भूकम्प में कम नुकसान होगा।
आईआईटी रुड़की के भूकंप इंजीनियरिंग विभाग के अध्ययन के मुताबिक पहाड़ी ढालों पर भूकंप से ज्यादा जान-माल का नुकसान भवनों के ढहने से होता है। मैदान के मानक के अनुसार नींव निर्माण से भूकंप आदि आपदा के दौरान सबसे पहले भवनों की नीव ही ध्वस्त हो जाती है। नींव ध्वस्त होने से पूरा मकान जमींदोज हो जाता है। इसलिए पहाड़ी ढालों पर अलग मानकों की ज्यादा जरूरत है
निचले पहाड़ | समुद्रतल से 1200 मीटर तक |
मध्य पहाड़ी क्षेत्र | 1200-3500 मीटर |
उच्च-पहाड़ी क्षेत्र | 3500 मीटर से अधिक |
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