अपनी उत्सवमय संस्कृति, सरसों के फूलों और उच्च तकनीकी के साथ खेती करने वाले किसानों के लिए मशहूर पंजाब के लिए बीता अगस्त का महीना पहचान का संकट लेकर आया। अगस्त 2025 में पंजाब ने चार दशकों की सबसे भयानक बाढ़ का सामना किया।
भारत के विभाजन के पहले पंजाब पांच नदियों, सतलुज, ब्यास, रावी, चिनाब और झेलम का राज्य था। लेकिन विभाजन के बाद इसके हिस्से में सिंधु बेसिन की पूर्वी नदियां सतलज, ब्यास और रावी ही आईं। यहाँ की उपजाऊ धरती गेहूँ, धान और गन्ने जैसी भरपूर फसलें देती है, जिससे यह भारत का अन्न भंडार माना जाता है। पंजाब भारत के कुल धान और गेहूं उत्पादन में क्रमशः लगभग 10 प्रतिशत और 14 प्रतिशत योगदान देता है। वर्ष 2023-24 में केंद्रीय पूल में पंजाब का योगदान 31 प्रतिशत था।
टाइम्स ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, मौजूदा बाढ़ में बीते चार सितंबर तक कुल 4,29,547 एकड़ फसल का नुकसान हो चुका है।
पंजाब की इस हालिया त्रासदी को देखते हुए कई बुनियादी सवाल उठ रहे हैं। मसलन, क्या पंजाब का विकास मॉडल जल और कृषि की वास्तविकताओं के साथ तालमेल बैठा पाया है? साल दर साल पंजाब मानसूनी बाढ़ की चपेट में क्यों आ जाता है? और क्या अब पंजाब को भी एक आपदा-संभावित राज्य मानकर स्थायी और दीर्घकालिक पुनर्वास और जल-प्रबंधन नीतियों पर काम करने की ज़रूरत है?
सिंधु बेसिन की साल भर बहने वाली तीन पूर्वी नदियों सतलज, राबी और ब्यास के अलावा और भी कई सहायक नदियों के प्रवाह के कारण पंजाब में बाढ़ आना स्वाभाविक है। जब हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में इन नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में ज़्यादा बारिश होने पर पंजाब की नदियों में पानी काफ़ी बढ़ जाता है।
हालांकि, मानसून के दौरान आए अतिरिक्त पानी को रिहाइशी और खेती वाले इलाकों में घुसने से बचाने के लिए नदियों और नहरों के दोनों तरफ़ धुस्सी बांधों (मिट्टी के बने तटबंध) का निर्माण किया जाता है। ये बांध इलाके के लिए पहले दर्ज़े की सुरक्षात्मक सीमाओं के रूप में काम करते हैं और मानसून के दौरान बाढ़ के असर को कम करने में मददगार साबित होते हैं।
हालांकि, जब ज़्यादा बारिश होती है, तो सबसे पहले यही बांध टूटते हैं। साल 1955, 1988, 1993, 2004, 2008, 2010, 2013, 2019, और 2023 में आई बाढ़ इन्हीं के टूटने का नतीजा थी। इस बार भी यही हुआ, रावी और ब्यास पर करीब आधा दर्ज़न धुस्सी बांध तेज़ बहाव के कारण गिर चुके हैं। हालांकि, पंजाब सरकार ने इस साल 204 करोड़ रुपये खर्च करके धुस्सी बांधों को मज़बूत किया था।
पंजाब की बाढ़ को समझने के लिए तीन महत्वपूर्ण बांधों की भूमिका को समझना भी ज़रूरी है। हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर में सतलज पर बने भाखड़ा बांध, कांगड़ा ज़िले में ब्यास पर बने पोंग बांध और पंजाब के पठानकोट और जम्मू-कश्मीर के कठुआ ज़िले की सीमा पर रावी पर बने थीन या रंजीत सागर बांध से तय होता है कि पंजाब तक कब और कितना पानी पहुंचेगा।
हिमाचल प्रदेश के बांधों को भाखड़ा ब्यास प्रबंधक बोर्ड (बीबीएमबी) नियंत्रित करता है, जो कि केंद्र सरकार के अधीन है। थीन बांध को पंजाब राज्य विद्युत निगम लिमिटेड और राज्य सिंचाई विभाग नियंत्रित करते हैं। बहुत ज़्यादा बारिश की स्थिति में बांधों को डूबने से बचाने के लिए अतिरिक्त पानी नदियों में छोड़ दिया जाता है। पर जब पूरे इलाके में बहुत ज़्यादा बारिश हो रही हो, तो नियंत्रित मात्रा में छोड़ा गया पानी भी निचले इलाकों में बाढ़ ला सकता है।
दी इंडियन एक्स्प्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक पंजाब की बाढ़ के लिए बीबीएमबी काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार है। पंजाब के अधिकारियों की शिकायत रही है कि सर्दियों में सिंचाई की ज़रूरत पूरी करने के लिए हिमाचल के दोनों बांधों में जुलाई और अगस्त के महीनों में पानी का स्तर इतना ऊंचा रखा जाता है कि ज़्यादा बारिश होने पर अतिरिक्त पानी इकट्ठा करने के लिए जगह नहीं बचती। मानसून के दौरान अतिरिक्त पानी को बिना चेतावनी दिए छोड़ दिया जाता है और खामियाज़ा निचले इलाके में पड़ने वाले पंजाब को उठाना होता है।
पंजाब की शिकायत यह भी है कि चूंकि इन दोनों बांधों का मुख्य उद्देश्य सिंचाई और जल-विद्युत उत्पादन है इसलिए बाढ़ नियंत्रण को प्राथमिकता नहीं दी जा रही है। साथ ही, प्रबंधन बोर्ड में राज्य का दखल भी बहुत कम है।
संदर्प की रिपोर्ट भी भांखड़ा और पोंग बांधों के प्रबंधन पर सवाल खड़े करती है। इसके मुताबिक भाखड़ा का जलाशय 1 अगस्त तक 53 फीसद भर चुका था। बीते 19 अगस्त तक आउटफ़्लो को नहीं बढ़ाया गया, जबकि पानी की आवक, निकासी से 180 फीसद ज़्यादा थी और जलाशय 80 फीसद भर गया। इस स्थिति में पानी की निकासी बढ़ाई जानी चाहिए थी, लेकिन इन 20 दिनों में जलाशय से पानी सिर्फ़ पनबिजली के लिए छोड़ा जा रहा था। वह भी कई तारीखों पर ज़रूरत से कम छोड़ा गया था।
पोंग की स्थिति भी यही थी। 1अगस्त को जहां जलाशय 60 फीसद भर गया था वहीं 18 अगस्त तक इसका स्तर 85 फीसद पर पहुंच गया। 1 से 6 अगस्त तक पानी का इन्फ़्लो काफ़ी ज़्यादा बढ़ चुका था। जबकि आउटफ़्लो का बढ़ना 8 अगस्त से शुरू हुआ जब जलाशय 83 फीसद भर चुका था। 29 अगस्त तक आउटफ़्लो 1 लाख क्यूसेक तक पहुंच गया। पोंग पावर स्टेशन पर बिजली का उत्पादन भी 1 जुलाई से 2 अगस्त तक क्षमता से काफ़ी कम रहा, जिसका सीधा अर्थ था कि बांध से इस दौरान काफ़ी कम पानी छोड़ा गया।
ब्यास के जलग्रहण क्षेत्र में भारी बारिश के दिनों, हिमाचल प्रदेश में बारिश के लिए मौसम विभाग की चेतावनी और जलाशय के बढ़े हुए स्तर के आधार पर पोंग से पानी छोड़ने के लिए सही निर्णय लिए जाने चाहिए थे, जो कि नहीं लिए गए।
संवाद और चेतावनी का मसला थीन बांध के मामले में भी देखने को मिलता है, जिसे पंजाब का ही सिंचाई विभाग नियंत्रित करता है। बीते 26 अगस्त को रंजीत सागर बांध से पानी छोड़े जाने के बाद माधोपुर बैराज के दो गेट टूट गए और रावी नदी में बाढ़ आ गई। एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक यहां भी डाउनसट्रीम और अपस्ट्रीम अधिकारियों के बीच तालमेल की कमी की शिकायत सुनने को मिलती रही है।
इसके अलावा, पंजाब द्वारा प्रबंधित इस बांध पर भी वही आरोप लग रहे हैं, जो पंजाब ने बाकी दो बांधों पर लगाए हैं। संदर्प की रिपोर्ट में राज्य के कृषि मंत्री से पूछा गया कि रंजीत सागर जलाशय में इतना पानी क्यों रखा गया था कि 26 अगस्त की बारिश के बाद पानी खतरे के निशान से ऊपर चला गया। जवाब में मंत्री का कहना था कि जलाशय में पानी इकट्ठा नहीं किया गया था, अचानक बढ़ी बारिश की वजह से पानी इतना बढ़ गया।
पंजाब की बाढ़ का संयुक्त आकलन करके समाधान निकालने की बजाय केंद्र और राज्य सरकारें इसका ठीकरा एक-दूसरे पर फोड़ने की राजनीति में लग चुकी हैं।
हाल ही में पंजाब के अपने दौरे के बाद केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक ट्वीट में कहा, “श्रद्धेय अटल जी जब प्रधानमंत्री जी थे और आदरणीय प्रकाश सिंह बादल जी पंजाब के मुख्यमंत्री थे, तब फसलों को बाढ़ से बचाने के लिए सतलज, ब्यास, रावी और घग्गर नदियों के किनारों पर बांध (बंध) मज़बूत और ऊंचे किए गए। लेकिन अवैध खनन के कारण वे कमजोर हो गए और गांवों में पानी आ गया। अब उन संरचनाओं को मजबूत करना ज़रूरी है ताकि भविष्य में ऐसी त्रासदी से पंजाब को बचाया जा सके।”
इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में पंजाब के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री बरिंदर सिंह गोयल ने इसे पूरी तरह झूठ करार देते हुए बताया कि रावी पाकिस्तान और भारत के बीच बहती है और यह सीमा सुरक्षा बलों के नियंत्रण में है, इसलिए यहां खनन का सवाल ही नहीं उठता।
ब्यास के बारे में गोयल ने कहा कि यह नदी आरक्षित वन क्षेत्र में आती है। यहां खनन तो दूर नदी से गाद निकालने के लिए भी केंद्र से इजाज़त लेनी पड़ती है, जो नहीं मिलती। सतलज पर खनन के लिए जगह चिन्हित करके पर्यावरणीय मंज़ूरी (एनवायर्नमेंटल क्लीयरेंस) दी जाती है और उसकी रिपोर्ट बनती है, जबकि घग्गर पर खनन नहीं किया जाता।
बीबीएमबी के अध्यक्ष मनोज त्रिपाठी ने प्रेसवार्ता के दौरान पंजाब सरकार पर आरोप लगाया कि नदियों और नहरों से समय पर गाद निकालने के कारण ही पंजाब में बाढ़ की समस्या ने इतना विकराल रूप ले लिया है। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि इस बार इतनी अधिक बारिश थी कि बाढ़ से बचा नहीं जा सकता था। उन्होंने बताया, “इस साल पोंग बांध में आने वाला पानी साल 2023 की बाढ़ में आए पानी से 20 फीसद ज़्यादा था। इससे पहले इतना पानी कभी रिकॉर्ड नहीं किया गया है।”
राज्य के मौजूदा कृषि मंत्री ने खनन के बारे में जो भी कहा हो, अवैध रेत खनन पंजाब की दुखती रग है। पिछले दो दशकों में राज्य में निर्माण कार्य बढ़ने के साथ-साथ रेत की ज़रूरत भी बढ़ी। साल 2007 में शिरोमणि अकाली दल सरकार ने खनन को नियंत्रित करने के लिए नियम बनाए और खनन पट्टों की नीलामी की जाने लगी। पंजाब डिस्ट्रिक्ट मिनरल फ़ाउंडेशन रूल 2018 ने तय किया कि इन पट्टों से होने वाली आय का एक तिहाई सरकार के हिस्से में आएगा। पंजाब पल्स की रिपोर्ट के मुताबिक, खनन के इर्द-गिर्द नियम इतने सख्त थे कि उन्हें तोड़ा जाने लगा।
इन दो दशकों में पंजाब में खनन माफ़िया ने जड़ें जमा लीं। समस्या इतनी जटिल और बड़ी हो गई यह चुनावों का एक बड़ा मुद्दा बन गया।
इस साल जनवरी में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने भी पंजाब सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि वह अवैध खनन रोकने में विफल रही है। इससे न सिर्फ़ राज्य के खजाने को नुकसान हो रहा है, बल्कि पारिस्थितिकी और पर्यावरण भी खतरे में है। न्यायमूर्ति संदीप मोदगिल ने कहा, “अनियोजित खनन नदियों का प्राकृतिक प्रवाह बदलकर आस-पास के इलाके को बाढ़ के लिए संवेदनशील बना सकता है।”
पर्यावरण विशेषज्ञ डॉ. गुरिन्दर कौर बाढ़ के लिए नदी तल पर अतिक्रमण, जंगलों के काटे जाने, बांधों के कुप्रबंधन और अनियोजित विकास को भी ज़िम्मेदार ठहराती हैं। वे कहती हैं, “दुनिया के सबसे ऊंचे बांधों में गिना जाने वाला भाखड़ा इतना पानी जमा कर लेता है कि सतलज साल के बड़े हिस्से में लगभग सूखी रहती है। ऐसे में, इसके बेड पर अतिक्रमण बढ़ता जाता है।”
वे लिखती हैं कि पटियाला अर्बन एस्टेट के कई बड़े हिस्से मौसमी नदियों के तल पर बने हुए हैं और इन्हें राज्य की स्वीकृति मिली हुई है। अगर राज्य ही ऐसे विकास को बढ़ावा देगा, तो नागरिकों को कौन रोकेगा?
वे कहती हैं, “नदियों का प्राकृतिक मार्ग बाधित हो रहा है, बांध टूट रहे हैं और सुदूरवर्ती इलाकों में होने वाले इस तरह के विकास ने नदियों को विद्रोही बना दिया है।” दरअसल, नदी किनारों पर अनियंत्रित निर्माण और तटबंधों का अत्यधिक दबाव नदियों के लिए प्राकृतिक फैलाव की जगह को कम कर देता है। नतीजा यह होता है कि जब पानी का स्तर बढ़ता है, तो वह बस्तियों और खेतों में घुस आता है।
कई गांव और कस्बे उन्हीं जगहों पर बने हैं, जिन्हें नदियों का पुराना बहाव मार्ग माना जाता है। घग्गर नदी के किनारे बसे गांवों की तबाही इसका उदाहरण हैं।
पंजाब की मौजूदा बाढ़ केवल एक मौसमी घटना नहीं है, बल्कि जलवायु परिवर्तन के व्यापक प्रभावों का प्रत्यक्ष उदाहरण है। पिछले दो दशकों में मानसून का स्वरूप काफी बदल चुका है। कभी लंबे समय तक सूखे की स्थिति आ जाती है तो कभी अचानक ही भारी बारिश का सामना करना पड़ जाता है।
मौसम विभाग के मुताबिक इस साल अगस्त के महीने में 253.7 मिमी बारिश हुई, जो इस महीने राज्य में होने वाली औसत 146.2 मिमी बारिश के 74 फीसद ज़्यादा थी। पूरे मानसून की बात करें तो 3 सितंबर तक राज्य में औसत 779 मिमी की अपेक्षा 1035 मिमी बारिश हुई, जो औसत से 33 फ़ीसद ज़्यादा थी।
इन कारणों के अलावा विशेषज्ञ जलवायु परिवर्तन को पश्चिमी विक्षोभ के लंबे समय तक बने रहने को भी एक कारण के रूप में देखते हैं। मौसम विभाग के चंडीगढ़ केंद्र के निदेशक सुरेंद्र पॉल का कहना है, “जलवायु परिवर्तन के कारण पश्चिमी विक्षोभ की अवधि बढ़ी है और अरब सागर उसकी तीव्रता को और बढ़ा देता है।”
पंजाब में बाढ़ की मौजूदा स्थिति कहीं न कहीं उस विकास मॉडल पर भी सवाल खड़ा कर रही है जिसे हम दशकों से सफल मानते आए हैं। दरअसल, 1960-70 के दशक में हरित क्रांति में आई तेज़ी के बाद पंजाब की अर्थव्यवस्था अनाज के उत्पाद पर आधारित होती चली गई। इस क्रांति के तहत धान और गेहूं की भरपूर उपज ने भारत को खाद्य संकट से उबारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन कुछ ही सालों में पर्यावरण पर इसका नकारात्मक असर भी दिखने लगा।
जहां एक तरफ़ धान की खेती में भूजल का दोहन हुआ वहीं दूसरी ओर अच्छी पैदावार के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों ने मिट्टी की उर्वरता घटाई। क्योंकि धान की खेती में काफ़ी समय तक पानी खेतों में खड़ा रहता है, इससे पानी की ज़मीन में रिसने की क्षमता कम होने लगी। अब बहुत अधिक बारिश होने पर पानी ज़मीन में रिसने के बजे सतह पर ही जमा होने लगता है और बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हो जाती है।
जबकि, कपास और मक्का की खेती पानी को भीतर रिसने में मदद करती है। ऐसे में, सरकारों को प्रयास करना होगा कि पंजाब में लोग धान की जगह अन्य फसलें लगाने को प्रेरित हों। इससे न केवल मिट्टी और पानी पर दबाव कम होगा बल्कि किसानों को नए बाज़ार और अधिक आय के अवसर भी मिलेंगे। इसके लिए सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और कृषि मंडियों में सुधार जैसे ठोस कदम उठाने होंगे।
पंजाब राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की रिपोर्ट के अनुसार इस बाढ़ में अभी तक राज्य के लगभग 1900 से अधिक गांव पानी में डूब चुके हैं और 46 से अधिक लोग अपनी जान (6 सितंबर 2025 तक) गंवा चुके हैं। इतना ही नहीं, इस बाढ़ से 3.5 लाख से ज़्यादा लोगों के प्रभावित होने की भी खबर है।
हालांकि, यह आंकड़ा साल 1988 में पंजाब में आए बाढ़ के आंकड़ों से काफी कम है, जिसमें कम से कम 600 लोगों की मृत्यु हुई थी, लेकिन इसका फैलाव उतना ही व्यापक है। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि इस बाढ़ के कारण पंजाब को लगभग छह सौ करोड़ से अधिक रुपये का आर्थिक नुकसान हुआ है। ट्रांसपोर्ट व्यवस्था ठप होने और मंडियों के बंद होने से किसान और मज़दूर दोनों प्रभावित हुए। इसके अलावा लोगों के घरों और पशुधन को भी भारी नुकसान हुआ है।
लंबे समय तक जलजमाव के कारण पानी से होने वाले रोग जैसे डायरिया, गैस्ट्रोएंट्राइटिस, बुखार, त्वचा की एलर्जी और आंखों में संक्रमण की शिकायतें भी बढ़ रही हैं।
पंजाब के लोग मदद के लिए सरकारी महकमों पर निर्भर नहीं हैं। लोग ट्रैक्टरों में राहत-सामग्री और खाने-पीने की चीजें लेकर एक गांव से दूसरे गांव पहुंच रहे हैं और बाढ़ से पीड़ित लोगों की मदद कर रहे हैं। लोग बांधों की मरम्मत और जल निकासी के कामों में लगे हुए हैं। सरकार और समुदाय के लोगों के साझे प्रयास से पंजाब में अब स्थिति थोड़ी बेहतर होती दिखाई पड़ रही है।
बाढ़ से निपटने के लिए सिर्फ़ पंजाब ही नहीं हिमाचल और जम्मू कश्मीर जैसे अपस्ट्रीम राज्यों में जल प्रबंधन सुधार ज़रूरी है। हर साल बाढ़ के मौसम से पहले नहरों और तटबंधों की मरम्मत अधूरी रह जाती है, जिससे आपदा का असर कई गुना बढ़ जाता है। पंजाब में सिंचाई संरचना की मरम्मत और ड्रेनेज सिस्टम की सफ़ाई और रखरखाव में गंभीर कमी है।
अगर वर्षा जल संचयन और भूजल पुनर्भरण जैसी तकनीकों को पंचायत स्तर तक लागू किया जाए तो बाढ़ और सूखा- दोनों से निपटना संभव होगा। इसके अलावा सतलज, रावी और ब्यास के तीनों महत्वपूर्ण बांधों के उद्देश्यों में बाढ़ प्रबंधन को भी शामिल करना ज़रूरी है।
दूसरे, आपदा प्रबंधन ढांचे की मज़बूती पर भी ध्यान देना होगा। पंजाब के कई ज़िले पहले से बाढ़-संभावित घोषित हैं, लेकिन उनकी वैज्ञानिक मैपिंग और त्वरित राहत व्यवस्था पर्याप्त नहीं है। यदि ज़िला स्तर पर स्थायी राहत केंद्र और स्थानीय आपदा दल गठित हों, तो ऐसी त्रासदियों से होने वाला नुकसान काफी कम किया जा सकता है।
तीसरे, नदी तंत्र की बहाली अब अनिवार्य हो गई है। सतलज, ब्यास और घग्गर जैसी नदियाँ अपने पुराने बहाव से हट चुकी हैं, जिसका बड़ा कारण अवैध रेत खनन और किनारों पर अतिक्रमण है। पंजाब में रेत खनन ने नदी के प्राकृतिक प्रवाह को गंभीर रूप से बाधित किया है। यदि फ्लडप्लेन ज़ोनिंग कानून को लागू किया जाए और नदी किनारों को पुनर्जीवित किया जाए, तो बाढ़ के प्रभाव को काफी हद तक रोका जा सकता है।
आखिर में, जलवायु अनुकूलन रणनीति को पंजाब की नीतियों में शामिल करना होगा। किसानों को “क्लाइमेट-स्मार्ट एग्रीकल्चर” तकनीकों की ट्रेनिंग, बाढ़ और सूखा-रोधी किस्मों का इस्तेमाल, और स्थानीय स्तर पर अर्ली वार्निंग सिस्टम तक पहुंच सुनिश्चित करना आवश्यक है।