वह सुबह भी बाकी सुबहों जैसी थी। अस्पताल के नलों में पानी आ रहा था, नर्सिंग ऑफिसर बोतलें भर रही थीं, और तीमारदार, अपने मरीजों को घूंट-घूंट पानी पिला रहे थे। किसी को क्या पता था कि वही पानी किसी की मौत से भीग चुका है। दस दिन तक ज़िंदगी उस ज़हर को अमृत समझकर पीती रही।
यह कोई कहानी नहीं है, यह उत्तर प्रदेश के देवरिया मेडिकल कॉलेज की भयावह सच्चाई है। पानी में बदबू आने की शिकायत के बाद, छह अक्टूबर 2025 को जब कॉलेज की ओवरहेड टंकी खोली गई, तो उसमें एक मृत व्यक्ति का शव मिला। वही पानी अस्पताल के मरीजों, परिजनों और कर्मचारियों के लिए रोज़ इस्तेमाल हो रहा था। जब यह खुलासा हुआ, तो पूरे ज़िले में दहशत फैल गई। प्रशासन ने जांच शुरू की और कॉलेज के प्राचार्य को हटा दिया गया। लेकिन सवाल यह नहीं था कि कार्रवाई कितनी तेज़ हुई, सवाल यह था कि दस दिन तक किसी ने टंकी की तरफ़ देखा तक क्यों नहीं।
हम यह मानकर चलते हैं कि जल ही जीवन है, पर देवरिया की टंकी में जब मौत तैरती मिली, तब यह कथन अपने सबसे भयावह रूप में सामने आया। वहां पानी नहीं, व्यवस्था की लाश तैर रही थी।
तेलंगाना से देवरिया तक, लापरवाही की एक सी कहानी
देवरिया की यह घटना कोई अपवाद नहीं थी। ठीक एक साल पहले, तेलंगाना के नलगोंडा ज़िले में 27 वर्षीय अवुला वाम्सकृष्ण का शव एक ओवरहेड टंकी में मिला था। गांव वाले लगभग दस दिन तक उसी दूषित पानी का सेवन करते रहे। दोनों घटनाओं ने एक ही सवाल उठाया: क्या भारत में पीने का पानी भी भरोसे के लायक नहीं है?
बी.आई.एस. मानक IS-10500 के अनुसार पानी में ई.कोलाई या कोलीफॉर्म नहीं होना चाहिए, और नाइट्रेट, फ्लोराइड व आर्सेनिक जैसे तत्व भी सीमित स्तर से अधिक नहीं होने चाहिए। पानी इन मानकों पर खरा उतरता है या नहीं, यह जानने के लिए पानी की नियमित जांच ज़रूरी है। देवरिया में इन मानकों का पालन पूरी तरह विफल रहा। न जल परीक्षण हुआ, न सफाई का रिकॉर्ड रखा गया, न ही वहां निगरानी की ज़िम्मेदारी तय थी।
देवरिया और तेलंगाना दोनों ही जगहों पर शव के संपर्क में रहा पानी जैविक और रासायनिक प्रदूषकों से भर गया था। हर घूंट संक्रमण का खतरा बढ़ा रहा था।
बी.आई.एस. मानक IS-10500 के अनुसार पानी में ई.कोलाई या कोलीफॉर्म नहीं होना चाहिए, और नाइट्रेट, फ्लोराइड व आर्सेनिक जैसे तत्व भी सीमित स्तर से अधिक नहीं होने चाहिए।
अगर पानी भी भरोसे लायक न रहे, तो हम डॉक्टर क्या बचाएंगे?
कभी-कभी मैं सोचता हूं, अगर पानी भी भरोसे लायक न रहे, तो हम डॉक्टर क्या बचाएंगे?
देवरिया की टंकी में जो मिला, वह सिर्फ़ एक शव नहीं था, बल्कि हमारी चिकित्सा व्यवस्था की अवस्था थी। मैंने जब यह ख़बर पढ़ी, तो एक बाल रोग विशेषज्ञ के रूप में मेरे मन में सवाल उठा, आखिर हमारे अस्पतालों में जल-सुरक्षा की निगरानी कौन करता है?
मैंने कुछ अस्पताल अधिकारियों से बात की। एक ने कहा, “सर, जब तक कोई शिकायत न हो, पानी की जांच कौन करवाए?”
यह वाक्य जैसे सीधे दिल में उतर गया। क्योंकि शिकायत हमेशा तब होती है, जब कोई मर चुका होता है। हम पानी की सुरक्षा को तब तक गंभीरता से नहीं लेते, जब तक उसकी कीमत किसी की जान न बन जाए।
आदर्श रूप में हर अस्पताल में जल-सुरक्षा की निगरानी के लिए एक स्पष्ट सिस्टम होना चाहिए, जिसमें वॉटर टेस्टिंग, स्टोरेज और वेस्ट वॉटर मैनेजमेंट की नियमित मॉनिटरिंग हो। “वॉटर स्ट्रेस एंड द इफेक्टिव मैनेजमेंट ऑफ वॉटर इन द हेल्थकेयर सेक्टर” किताब में बताया गया है कि स्वास्थ्य संस्थानों को वॉटर मैनेजमेंट के लिए ठोस ढांचा अपनाना चाहिए। जैसे कि महीनेवार पानी की जांच, वॉटर ऑडिट, रेनवॉटर हार्वेस्टिंग, वेस्ट वॉटर रीसाइक्लिंग और इंफेक्शन कंट्रोल के उपाय। भारत सरकार की ‘कायाकल्प योजना’ में भी ऐसे कदम सुझाए गए हैं, लेकिन ज़्यादातर अस्पतालों में यह सिस्टम सिर्फ़ कागज़ों पर ही रह जाता है।
कई सरकारी मानक कहते हैं कि 100 से ज़्यादा बेड वाले अस्पतालों के लिए रोज़ाना 450 लीटर पानी प्रति बेड का इंतज़ाम होना चाहिए । सुनने में यह बहुत संतुलित लगता है, लेकिन ज़मीन पर तस्वीर कुछ और है। देश के छोटे-छोटे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों तक आते-आते यह आंकड़ा सूख जाता है। प्रीवेंटिव मेडिसिन: रीसर्च एंड रिव्यू (2025) की एक ताज़ा स्टडी बताती है कि गुजरात के 99 आयुष्मान आरोग्य मंदिरों (AAM-SHC) में से करीब 36 फ़ीसदी केंद्रों के पास नियमित पानी की सप्लाई ही नहीं थी।
यानी मरीज़ तो दूर, नर्स तक को हाथ धोने के लिए भरोसेमंद पानी नहीं मिलता (स्रोत: PMRR, 2025)। अब सोचिए, जहां पानी ही न मिले, वहां संक्रमण-नियंत्रण कैसे होगा? यही वजह है कि हाथ धोने, उपकरणों की सफ़ाई और नवजात शिशुओं की देखभाल जैसे बुनियादी काम सबसे पहले प्रभावित होते हैं। काग़ज़ों में 450 लीटर का वादा है, हक़ीक़त में सूखी बाल्टियां हैं और यही फ़ासला हर दिन किसी न किसी अस्पताल में बढ़ता जा रहा है।
इसी के साथ एक और अनदेखी कहानी जुड़ी है। अस्पतालों से निकला दूषित पानी। वही पानी जिसमें दवाइयों, एंटीबायोटिक और रसायनों के अंश घुले होते हैं। ये ज़हर धीरे-धीरे नालों से निकलकर नदियों और ज़मीन में उतरता है, और वहीं से एंटीमाइक्रोबियल रेज़िस्टेंस (AMR) की नई महामारी जन्म लेती है।
यानी जो पानी ज़िंदगी बचाने के लिए अस्पतालों में इस्तेमाल होता है, वही पानी बाहर निकलकर संक्रमण फैलाने का ज़रिया बन जाता है।
दरअसल, जल-सुरक्षा की निगरानी किसी एक विभाग का काम नहीं है। ये अस्पताल प्रशासन, इंजीनियरिंग टीम और पब्लिक हेल्थ यूनिट, तीनों की साझा ज़िम्मेदारी है। एक पाइप अगर लीक करे तो सिर्फ़ प्लंबर नहीं, सिस्टम भी जवाबदेह होना चाहिए। हर बड़े अस्पताल में एक वॉटर सेफ़्टी ऑफ़िसर या एक छोटी-सी टीम बनाई जा सकती है, जो यह देखे कि टंकी की सफ़ाई कब हुई, क्लोरीनेशन सही है या नहीं, और अगर अलार्म बजे तो कोई उसे सुने भी।
पानी की निगरानी कोई काग़ज़ी औपचारिकता नहीं, बल्कि वही लकीर है जो इलाज और संक्रमण के बीच फर्क तय करती है।
सरकारी मानक कहते हैं कि 100 से ज़्यादा बेड वाले अस्पतालों के लिए रोज़ाना 450 लीटर पानी प्रति बेड का इंतज़ाम होना चाहिए ।
स्वास्थ्य पर पानी का घातक असर
भारत में हर साल लगभग 3.7 करोड़ लोग जल-जनित बीमारियों से प्रभावित होते हैं। इनमें दस्त, हैजा, टायफाइड और हेपेटाइटिस जैसी बीमारियां शामिल हैं। अहमदाबाद के पांच प्रमुख अस्पतालों के आंकड़े (2015–2025) बताते हैं कि इन दस वर्षों में 897 मौतें जल-जनित और मच्छर-जनित बीमारियों से हुईं।
हर संख्या एक चेहरा है, किसी बच्चे का, किसी मां का, किसी बुज़ुर्ग का, जो सोचता था कि अस्पताल ही सबसे सुरक्षित जगह है। दूषित पानी से न केवल संक्रमण फैलता है, बल्कि इसके कारण मरीज़ों और उनके परिवारों में भय और अविश्वास भी गहराता है।
जब मानक कागज़ पर हों और ज़िम्मेदारी हवा में
भारत में जल-गुणवत्ता की निगरानी और जवाबदेही की स्थिति बेहद कमज़ोर है। गलहोत्रा और सहयोगियों (2023) के अध्ययन “सिचुएशनल एनालिसिस ऑफ़ वाटर, सैनिटेशन एंड हाइजीन गल हेल्थकेयर फ़ैसिलिटीज़ ऑफ़ अ डिस्ट्रिक्ट इन सेंट्रल इंडिया ” में पाया गया कि कई सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में WASH (पानी, स्वच्छता और हाइजीन) अवसंरचना अधूरी है और जल-परीक्षण अनियमित होता है। यह समस्या संसाधनों की नहीं, बल्कि रखरखाव और निगरानी की कमी से जुड़ी हुई है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और यूनिसेफ (JMP) की वैश्विक रिपोर्टें भी इसी बात की पुष्टि करती हैं कि स्वास्थ्य-सुविधाओं में सुरक्षित पानी और WASH ढाँचे की स्थिति अब भी असमान और अधूरी है।
विकसित देशों की राह, जहां मशीनें जागती हैं, लोग भी
अमेरिका में हर ओवरहेड टंकी और पाइपलाइन पर डिजिटल सेंसर और SCADA सिस्टम लगे हैं। SCADA यानी सुपरवाइज़री कंट्रोल एंड डेटा एक्विज़िशन। नाम बड़ा है, पर काम सीधा। पानी के तापमान, दबाव या रासायनिक संतुलन में ज़रा-सा भी बदलाव होते ही यह सिस्टम अलार्म बजा देता है। ऐसे हालात में तुरंत “बॉयल वॉटर एडवाइज़री” जारी की जाती है । यानी “यह पानी मत पियो, इसे उबाल कर इस्तेमाल करो।”
फ्लिंट (मिशिगन) की 2014 की सीसा-संदूषण घटना के बाद अमेरिका ने अपना पूरा जल-तंत्र डिजिटल कर दिया। यूरोपियन यूनियन (EU) ने ड्रिंकिंग वॉटर डायरेक्टिव 2020 के तहत सभी देशों में वॉटर सेफ़्टी प्लान (WSP) को कानूनी रूप से लागू किया है - टंकियों की सफाई, जोखिम मूल्यांकन और निरीक्षण की समय-सीमा तय है। नागरिक अपने क्षेत्र की जल गुणवत्ता रिपोर्ट ऑनलाइन देख सकते हैं। वहां पानी ज़िम्मेदारी के साथ बहता है। यहां हादसे के बाद ही जागरूकता आती है, और हादसा भूलते ही भुला दी जाती है।
भारत में असली रिसाव जवाबदेही का
भारत में जल-सुरक्षा में असली कमी तकनीकी नहीं, नीयत की है। नियम हैं, फंड हैं, पर जवाबदेही नहीं। कौन टंकी की जांच करेगा? कौन रिपोर्ट देखेगा? कौन कार्रवाई करेगा? हर सवाल का जवाब वही: “ये हमारे विभाग का काम नहीं।”
यही वह रिसाव है, जहां से भरोसा टपक-टपक कर खत्म हो जाता है।
संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य (SDGs)
संयुक्त राष्ट्र के सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स (SDGs) के संदर्भ में यह स्थिति और भी चिंताजनक है। भारत ने वर्ष 2030 तक SDG-6 “स्वच्छ जल और स्वच्छता” को हासिल करने का वादा किया है, जिसमें सभी को सुरक्षित पेयजल और स्वच्छता सुनिश्चित करना शामिल है। लेकिन देवरिया और नलगोंडा जैसी घटनाएं इस लक्ष्य की कलई खोलती हैं। यह न केवल जल-सुरक्षा में विफलता है, बल्कि एक वैश्विक वचन-भंग भी है।
समाधान: जब इंसान और मशीन दोनों जागें
समाधान सिर्फ़ नई तकनीक में नहीं, बल्कि नई समझ में है। अस्पतालों में वॉटर सेफ़्टी प्लान (WSP) को ज़मीन पर उतारना होगा, ताकि पानी की हर बूंद की जवाबदेही तय हो सके।
संरचना को सुरक्षित बनाना ज़रूरी है। मज़बूत टंकी, बंद ढक्कन और लॉकिंग सिस्टम जैसे बुनियादी कदम किसी भी सेंसर से ज़्यादा असरदार हो सकते हैं। स्मार्ट तकनीक जैसे सेंसर, ऑटो-अलार्म और डिजिटल मॉनिटरिंग संदूषण का तुरंत पता लगाने में मदद कर सकते हैं, पर यह तभी कारगर हैं जब लोग उन अलार्म को सुनें।
अस्पताल में बिजली और ऑक्सीजन के बैकअप की बात तो सब करते हैं, लेकिन पानी के बैकअप की बात कोई नहीं करता। हर अस्पताल में इमर्जेंसी वॉटर प्रोटोकॉल होना ही चाहिए। दूसरी टंकी, मोबाइल जल स्रोत या फ़िल्टर यूनिट, जो दूषित पानी मिलते ही तुरंत चालू हो जाए। अब ज़रा सोचिए यह तो AIIMS जैसा बड़ा अस्पताल है।
अप्रैल 2025 में वहीं की नियमित जल-जांच में पता चला कि नेशनल सेंटर फॉर एजिंग ब्लॉक और ब्वॉयज़ हॉस्टल की ग्राउंड-फ्लोर RO यूनिट के पीने के पानी में फ़ीकल बैक्टीरिया यानी मल से पैदा होने वाला संक्रमण मिला। सोचिए, जिस पानी से ज़िंदगी बचाने की उम्मीद होती है, वही ज़हर बन जाए तो? AIIMS ने रिपोर्ट को छुपाया नहीं, जांच सार्वजनिक की, मीडिया को बताया। यही असली पारदर्शिता है, जब संस्थान अपने सिस्टम की खामियाँ भी जनता के सामने रखने की हिम्मत दिखाए।
लेकिन ऐसी मिसालें गिनती की हैं। अभी ज़्यादातर अस्पतालों में न तो रियल-टाइम सेंसर लगे हैं, न ऑटो-क्लोरीनेशन यूनिट्स। तकनीक मौजूद है। IoT-आधारित पानी की निगरानी हो या इन-लाइन क्लोरीनेशन यूनिट्स, मगर ज़्यादातर ये प्रयोग सिर्फ़ शोध या सरकारी पायलट प्रोजेक्ट तक सिमटे हैं। अस्पतालों में ये सिस्टम नज़र नहीं आते, रिपोर्टें नहीं मिलतीं। मतलब साफ़ है, हम तकनीकी रूप से तैयार हैं, लेकिन मानसिक रूप से अब भी बेख़बर हैं।
भारत में कुछ अस्पतालों ने जल-प्रबंधन की दिशा में छोटे लेकिन निर्णायक कदम उठाए हैं - जैसे दिल्ली का इंडियन स्पाइनल इंजरी सेंटर और पांडिचेरी का अरविंद आई केयर हॉस्पिटल, जहां वर्षा जल संचयन और अपशिष्ट जल पुनर्चक्रण जैसी प्रणालियां सफलतापूर्वक लागू की गई हैं। ये प्रयास भले ही सीधे तौर पर पेयजल सुरक्षा का प्रमाण न हों, लेकिन यह स्पष्ट करते हैं कि जहां प्रबंधन सजग हो, वहां जल-संरक्षण, स्वच्छता और निगरानी - तीनों न केवल संभव बल्कि स्थायी बन सकते हैं। यही सजगता किसी भी सुधार की पहली और सबसे मज़बूत सीढ़ी है।
अंतिम चेतावनी, जल ही जीवन है बस नारा न रहे
देवरिया और तेलंगाना की घटनाएं कोई संयोग नहीं, बल्कि हमारी नींद का आईना हैं। हर हादसे के बाद कुछ बयान, कुछ निलंबन और फिर वही सन्नाटा। जैसा कि ग़ालिब ने कहा था, “हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले…” नियम बनते हैं, रिपोर्टें आती हैं, पर ज़मीन पर वही असुरक्षित ढक्कन, वही नल, वही बेख़बर सिस्टम।
अब वक्त आ गया है कि “जल ही जीवन है” सिर्फ़ नारा नहीं, जिम्मेदारी बने, ताकि हर बच्चा, हर बुज़ुर्ग, हर मरीज़ सचमुच पानी को जीवन की तरह महसूस कर सके। वरना अगली बार जब किसी टंकी का ढक्कन खुलेगा, तो शायद फिर वही शव, वही नल, और वही बेख़बर सिस्टम हमें हमारी भूल याद दिलाएगा।