कोटा। कहीं रेत भरते ट्रैक्टर-ट्रॉलियों की धड़धड़ाहट तो कहीं अवैध खनन के धमाके। अब ऐसे में कोई अपने नन्हें बच्चों को कैसे छोड़ सकता है? बरसों को चंबल नदी में रह रहे मादा मगरमच्छों की भी ऐसी ही स्थिति है। चंबल की कराइयों में बढ़ती मानवीय गतिविधियों के चलते इन्होंने अपने प्रजनन स्थल बदल लिए हैं। अब ये चंबल छोड़कर उसकी सहायक नदी चंदलोई व उसमें गिरने वाले नालों के इर्दगिर्द अण्डे दे रही हैं।
चंदलोई के किनारों व उसमें गिरने वाले नालों के आसपास प्रजनन से इसके निकटवर्ती क्षेत्र में मगरमच्छों की तादाद दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। नए बच्चे भी इन ठिकानों को नहीं छोड़ रहे। इससे एक ओर जहां ग्रामीणों को इनसे खतरा बना हुआ है। वहीं इस दुर्लभ वन्यजीव पर भी खतरा मंडरा रहा है। नदी किनारे के उम्मेदगंज, देवली अरब, रायपुरा, अर्जुनपुरा, बोरखण्डी, चंद्रेसल आदि गांवों में तो मगरमच्छों का खौफ है। ज्यादातर ग्रामीण तो इन्हें अपनी जान का दुश्मन मानने लगे हैं।
चंदलोई व उसके नालों के किनारे बढ़ रही मगरमच्छों की तादाद से वन्यजीव प्रेमी खासे चिंतित है। उनका मानना है कि इस ओर नहीं सोचा गया तो आने वाले समय में समस्या और भी विकट हो सकती है। मगरमच्छ बचाने होंगे और ग्रामीणों को उनसे भी बचाना होगा। ऐसे में बेहतर हो कि वन विभाग चंबल किनारों पर अवैध गतिविधियों पर अंकुश लगाएं और अण्डों को
'आर्टिफिशियल ब्रीडिंग'
के जरिए वहां से स्थानांतरित कर अण्डों से निकलने के बाद मगरमच्छों को चंबल में प्रवाहित करें।
• शिड्यूल प्रथम का वन्यजीव है मगरमच्छ।
• हर साल इनका प्रजनन काल फरवरी से अप्रैल तक होता है।
• नदी किनारों पर सुरक्षित स्थान में रेतीली जगह अण्डे देती हैं।
• मादा मगरमच्छ एक बार में 10 से 40 तक अण्डे देती हैं।
• अण्डे देकर जगह को रेत से ढंककर खुद करती हैं सुरक्षा।
• 55 से 75 दिन में अण्डों से बाहर निकल आते हैं बच्चे।
यदि किसी जगह विशेष के बारे में हमें सूचना मिलती है तो हम मगरमच्छ को नदी में शिफ्ट कर सकते हैं, लेकिन इन्हें रोकना असंभव है। क्योंकि ऐसी कई जगह है, जहां से ये इन नालों तक पहुंचते हैं। वैसे इससे समस्या मगरमच्छ को भी है और क्षेत्र के लोगों को भी। ऐसे में इस पर हम नए सिरे से अध्ययन करेंगे। देखेंगे, क्या हल निकाल सकते हैं।
के.के. गर्ग, मुख्य वन संरक्षक [वन्यजीव], कोटा