राजमहल पहाड़ी का निर्माण बेसाॉल्ट नामक 'आग्नेय पत्थर’ से हुआ है। यह पहाड़ी 26 सौ वर्ग किमी क्षेत्र में फैली है। राजमहल पहाड़ की ज्वालामुखी चट्टानें झारखंड के पूर्वी भाग में जमीन के अंदर दबी हैं। इस क्षेत्र के मूल निवासी आदिम जनजाति पहाड़िया जनजाति हैं।
राजमहल पहाड़ी की सबसे महत्वपूर्ण प्राकृतिक संपदा जंगल है। भू-वैज्ञानिकों के अनुसार अब इस क्षेत्र के मौसम में पिछले कुछ वर्षों में तेजी से बदलाव आया है। पहाड़ों की कटाई से जंगल मे रहने वाले जीव-जंतु का वजूद खतरे में है। 70 के दशक तक यहां के पहाड़ी पर बाघ, शेर, हाथी सहित कई जंगली जानवरों के साथ हुआ था। इनमें से अधिकांश जानवर अब विलुप्त हो चुके हैं।
राजमहल पहाड़ी की निरंतर हो रही कटाई से इस क्षेत्र में हमेशा भू-स्खलन का डर बना रहता है। पत्थर निकालने के क्रम में बचे अवशेष पदार्थ व मिट्टी और पहाड़ी पर पाए जाने वाले कई प्रकार के रासायनिक पदार्थ बारिश के कारण पानी मे घुलकर सीधे गंगा में प्रवाहित हो जाते हैं। इससे गंगा का पानी भी प्रदूषित हो रहा है। इससे गंगा में पाए जाने वाली डॉलफिन व अन्य मछलियां भी समाप्त हो रही हैं।
साहिबगंज कॉलेज के भूगर्भ विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. सैयद रजा इमाम रिजवी के मुताबिक जब वन ही नहीं रहेंगे तो ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा ही मिलेगा।
साहिबगंज के पतना अंचल क्षेत्र स्थित बोरना पहाड़ पर शुरु से आदिम पहाड़िया जनजाति के पांच दर्जन परिवार रहते हैं। 2005 तक इस गांव में कुछ दूर पर बने कुआं से ग्रामीणों की प्यास बुझती थी। गांव के पास से ही स्वच्छ व निर्मल झरना सालों भर बहता था। अब झरना के सूख जाने से पानी की किल्लत हो गई है। कुछ साल पहले तक पहाड़िया जनजाति के लोग पहाड़ पर खेती (स्थानीय भाषा में करुआ) कर जीवन यापन करते थे। मंडरो, बरहेट, बोरियो व उसके आसपास में फैली राजमहल पहाड़ी पर रहने वाले पहाड़िया लोग बड़े पैमाने पर वहाँ बाजरा, मकई, अरहर, सुतली आदि की खेती करते थे। लेकिन अब बहुत कम पहाड़िया परिवार ही करुआ करते हैं।