तेल-गैस जैसे जीवाश्म ईंधनों का विदेशों से आयात घटाकर ऊर्जा के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने और विदेशी मुद्रा की बचत के लिए सरकार ने हाल के वर्षों में बायो फ़्यूल के रूप में ईथेनॉल के उपयोग पर ज़ोर देना शुरू किया है। इसके तहत देशभर में पेट्रोल में 20% ईथेनॉल मिलाकर बेचा जाना शुरू हो चुका है।
ईथेनॉल को कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के साथ ही किसानों की आय बढ़ाने में मददगार भी बताया जा रहा है, क्योंकि इसे मुख्यत: गन्ने से बनाया जाता है। हालांकि, यही बात पर्यावरण के लिए एक नई समस्या पैदा कर रही है, क्योंकि गन्ना पानी की काफ़ी अधिक खपत वाली फसल है। ऐसे में, मक्के व दूसरी कम सिंचाई की ज़रूरत वाली फसलों से ईथेनॉल बनाने की कवायदें भी चल रही हैं। इस सबके बीच डेयरी उद्योग के अपशिष्ट से ईथेनॉल बनाने के इनोवेटिव विकल्प की संभावनाओं पर भी काम शुरू हो गया है।
अमूल नाम से दूध व डेयरी उत्पादों के लिए मशहूर गुजरात सहकारी दुग्ध विपणन संघ (जीसीएमएमएफ) ने हाल ही में इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए एक महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त की है। रिपोर्ट के मुताबिक कंपनी ने परीक्षण के तहत पनीर बनाने के बाद बचे पानी (Expired Milk), जिसे पनीर मट्ठे (Cheese Whey) के नाम से भी जाना जाता है, से ईथेनॉल बनाने में कामयाबी हासिल की है। परीक्षण में 4.5 लाख लीटर पनीर मट्ठे का इस्तेमाल किया गया, जिससे 96.71% ईथेनॉल युक्त 20,000 लीटर रेक्टिफ़ाइड स्पिरिट प्राप्त हुई। यह पायलट परियोजना भरूच जिले की एक चीनी सहकारी संस्था श्री नर्मदा खांड उद्योग सहकारी मंडली लिमिटेड की धारीखेड़ा इकाई में शुरू की गई।
प्रोजेक्ट के उत्साहजनक नतीजों के बाद अमूल 70 करोड़ रुपये की लागत से प्रतिदिन 50,000 लीटर ईथेनॉल उत्पादन करने वाला बायोईथेनॉल संयंत्र स्थापित करने की योजना बना रहा है। कंपनी गुजरात की सहकारी चीनी मिलों के साथ मिलकर मौजूदा बायोईथेनॉल संयंत्रों में ईथेनॉल बनाने के अवसर भी तलाश रही है।
टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार जीसीएमएमएफ के प्रबंध निदेशक जयेन मेहता ने बताया कि हमने पनीर/पनीर मट्ठे से बायोईथेनॉल उत्पादन का बड़े पैमाने पर परीक्षण किया। इसका उद्देश्य हमारे 36 लाख किसान-पशुपालकों को आमदनी का एक नया ज़रिया देना और बेकार बचे पनीर मट्ठे का ईको फ्रेंडली तरीके से निपटान करना था। मेहता ने उम्मीद जताई है कि डेयरी वेस्ट से होने वाली 4.4% की ईथेनॉल रिकवरी को भविष्य में 8% तक बढ़ाया जा सकता है। इस परीक्षण के पीछे सरकार के ईथेनॉल-मिश्रित पेट्रोल (ईबीपी) कार्यक्रम का समर्थन करने का विचार है। इस प्रक्रिया से मीथेन गैस, शुष्क बर्फ (Dry ice) और पानी जैसे उपयोगी सह-उत्पाद प्राप्त होते हैं।
अमूल वर्तमान में प्रतिदिन लगभग 30 लाख लीटर मट्ठे का प्रसंस्करण करता है। गुजरात में कंपनी खटराज, पालनपुर और हिम्मतनगर में स्थित तीन प्रमुख पनीर संयंत्रों का संचालन करती है। पूरे भारत में पनीर बनाने के संयंत्रों की संख्या 15 से अधिक है। ऐसे में अगर इन सभी संयंत्रों में पनीर मट्ठे से ईथेनॉल उत्पादन शुरू किया जाता है, तो प्रतिदिन लाखों लीटर बायो ईथेनॉल का उत्पादन हो सकता है। इससे स्वच्छ ऊर्जा विकल्प को बढ़ावा मिलने के साथ ही भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा की बचत की जा सकेगी।
क्या होता है पनीर मट्ठा
पनीर मट्ठा (Cheese Whey) पनीर बनाने की प्रक्रिया में कैसीन के जमने के दौरान बचने वाला दूध का जलीय भाग होता है। यह डेयरी उद्योग से बड़ी मात्रा में निकलने वाला एक सह-उत्पाद है। इसमें कार्बनिक पदार्थों की मात्रा अधिक होने के कारण इसे अकसर अपशिष्ट माना जाता है। इसलिए ईथेनॉल जैसी उपयोगी चीज़ बनाने के लिए मट्ठे का उपयोग महत्वपूर्ण है। क्योंकि इससे ईथेनॉल बनाने के अलावा अपशिष्ट पदार्थों का भी उपचार किया जा सकता है।
पनीर मट्ठे से बनने वाले ईथेनॉल की मात्रा दूध के प्रकार और दूध के स्रोतों (गाय, भैंस, भेड़, बकरी) पर निर्भर करती है, क्योंकि इन सभी दूधों में कैसीन जमावट की दर अलग-अलग होती है। इसके अलावा ईथेनॉल की मात्रा पशु आहार और पशु नस्ल पर भी निर्भर करती है, क्योंकि इससे भी दूध की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
मट्ठे से ईथेनॉल बनाने के लिए दूध को लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया, कवक और यीस्ट जैसे सूक्ष्म जीवों द्वारा किण्वित किया जाता है, जिन्हें प्रसंस्करण के दौरान दूध में मिलाया जाता है। यह सूक्ष्म जीव पनीर बनाने के लिए दूध को अम्लीय बनाते हैं, जिससे कैसीन और दूघ का पानी यानी पनीर मट्ठा अलग हो जाते हैं।
क्या है पनीर मट्ठे से ईथेनॉल उत्पादन की प्रक्रिया
साइंस जर्नल फ्रंटीयर्स में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक पनीर मट्ठे से ईथेनॉल उत्पादन के लिए पनीर मट्ठे में सैक्रोमाइसिस सेरेविसिया जैसे कुशल ईथेनॉल-उत्पादक यीस्ट का उपयोग किया जाता है। यह मट्ठे में में मौजूद लैक्टोज़ का उपयोग करके उससे बीटा-गैलेक्टोसिडेज़ उत्पन्न करता है, क्योंकि ईथेनॉल-उत्पादक यीस्ट, पनीर मट्ठे में आमतौर पर पाए जाने वाले लैक्टिक अम्ल जीवाणुओं के विरुद्ध सक्षम होते हैं।
हालांकि कुछ यीस्ट उपापचयी प्रक्रिया में पनीर मट्ठे में मौजूद विभिन्न प्रकार की शर्कराओं का किण्वन नहीं कर पाते। इसलिए ईथेनॉल उत्पादन की प्रक्रिया को किफायती बनाने के लिए सुपरफ़ैमिली (MFS) जैसे प्रमुख सुगमकर्ता एजेंटों को मिलाया जाता है। जो, विभिन्न प्रकार की शर्कराओं और प्रोटीनों को लक्षित करके उपापचयी प्रक्रियाओं को तेज करके पनीर मट्ठे से ईथेनॉल उत्पादन की मात्रा को बढ़ाते हैं। इस पूरी चरणबद्ध प्रक्रिया को कुछ इस प्रकार समझा जा सकता है -
मट्ठे का संग्रह और ठंडा करना
सबसे पहले पनीर बनाते समय प्राप्त होने वाले मट्ठे (whey) को संग्रहित किया जाता है। इसे इसके मौजूदा तापमान 60 °C से ठंडा करके सामान्य तापमान यानी रूम टेंप्रेचर पर लाना होता है, जिससे कि यीस्ट सुचारु रूप से फ़र्मेंटेशन की प्रक्रिया कर सके।
फ़र्मेंटेशन से लैक्टोज़ का रूपांतरण
फ़र्मेंटेशन की प्रक्रिया को अंजाम देने के लिए विशेष प्रकार के यीस्ट जैसे Kluyveromyces marxianus या K. fragilis इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि ये स्वयं लैक्टोज़ को ग्लूकोज़ और गैलेक्टोज़ में तोड़ कर इन्हें बायोईथेनॉल में बदल सकते हैं। इस चरण में हाइड्रोलिसिस और फ़र्मेंटेशन प्रक्रिया होती है।
डिस्टिलेशन के ज़रिए ईथेनॉल को अलग करना
फर्मेंटेशन के बाद, प्राप्त “ब्राइन” (fermented whey) से ईथेनॉल अलग करने के लिए डिस्टिलेशन की प्रक्रिया की जाती है, जिसमें लेक्टोज़ + पानी → गैलेक्टोज़ + ग्लूकोज़ → ईथेनॉल + CO₂ की प्रक्रिया अपनाई जाती है।
अब इसके लिए सेरेविसिया के नैनो कणों और धातु-कार्बनिक तत्वों से लेपित सूक्ष्म कणों का इस्तेमाल किया जाता है। इस जैव प्रक्रिया से 14% ईथेनॉल का उत्पादन किया जा सकता है। इस तरह लिग्नोसेल्यूलोसिक सब्सट्रेक्ट्स वाले एल्जिनेट जैसे पारंपरिक वाहकों की तुलना में ज़्यादा ईथेनॉल का उत्पादन किया जाता है।
बेहतर प्रबंधन और किण्वन के सही स्थितियों में पनीर प्रसंस्करण से 15% से ज़्यादा ईथेनॉल बनाना संभव है। इस प्रकार किण्वन (फ़र्मंटेशन) की प्रक्रिया के ज़रिये लैक्टोज़ के रासायनिक, जैविक और भौतिक जल-अपघटन से पनीर मट्ठे से काफी कम खर्च में ज़्यादा मात्रा में ईथेनॉल बनाया जा सकता है।
पनीर मट्ठे से ईथेनॉल बनाने के पर्यावरणीय और आर्थिक लाभ
आमतौर पर पनीर मट्ठे को बिना उपचार के पर्यावरण में छोड़ दिया जाता है, क्योंकि पनीर मट्ठे का उपचार करना एक बहुत महंगी प्रक्रिया होती। खुले वातावरण (लैंड फ़िल) या नदी-नाले जैसे जलस्रोतों में छोड़ा गया यह मट्ठा सड़कर दुर्गंध फैलाने के साथ ही अपनी अम्लीय प्रवृत्ति के चलते मिट्टी की उर्वरता को घटाता है और उसमें मौजूद सूक्ष्म जीवों को नष्ट करता है।
साथ ही, इससे कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन जैसी ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी होता है, जो पर्यावरण के लिए काफी नुकसानदायक होता है। दूसरी ओर, सीवेज में बहाए जाने पर यह सूक्ष्म जलीय जीवों और वनस्पतियों को नष्ट कर जलीय पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान पहुंचाता है। इसकी कैमिकल ऑक्सीजन डिमांड (COD) लगभग 60 kg/m³ होती है। अगर यह ज़्यादा COD वाले जल स्रोतों में जाता है, तो ऑक्सीजन की कमी बढ़ जाती है और जलजीवों को नुकसान पहुंचता है।
साइंस डायरेक्ट में प्रकाशित रिपोर्ट में पाया गया कि मट्ठे के किण्वन के बाद डिस्टिलेशन से कुल CO₂ उत्सर्जन ~8.4 kg प्रति फंक्शनल यूनिट तक कम हुआ। इससे प्रोसेसिंग की प्रक्रिया में पानी के इस्तेमाल में भी कमी दर्ज़ की गई। इससे साफ़ है कि कचरे से ईंधन बनाने की यह तरकीब सिर्फ़ अपशिष्ट की समस्या को ही नहीं घटाती, बल्कि ईंधन-श्रृंखला के कार्बन ब्लूप्रिंट को भी कम करती है। इस तरह पनीर मट्ठे को पर्यावरण में छोड़ने के बजाय उससे बायोईथेनॉल बनाने से इसके पर्यावरणीय दुष्प्रभावों को खत्म किया जा सकता है।
आर्थिक दृष्टिकोण से पनीर मट्ठे से ईथेनॉल बनाना काफी लाभदायक होता है। हमारे देश में आमतौर पर बायोईथेनॉल का उत्पादन खाद्य-आधारित स्टार्च, लिग्नोसेल्यूलोसिक फीडस्टॉक और खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों के विभिन्न अपशिष्टों, जैसे बीयर के बचे हुए अनाज, मक्के के घोल, गुड़ से किया जाता है।
इस सबके बीच पनीर के मट्ठे से बायोईथेनॉल उत्पादन दो कारणों से ध्यान आकर्षित कर रहा है। पनीर मट्ठा लैक्टोज़ और प्रोटीन जैसे कार्बनिक यौगिकों से भरपूर होता है। इसमें वे ज़रूरी पोषक तत्व होते हैं जो सूक्ष्मजीवों को किण्वन के लिए चाहिए होते हैं। नतीजतन, इससे कम खर्च में भरपूर मात्रा में बायोईथेनॉल बनाया जा सकता है। भारत जैसे देशों में डेयरी उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है, पर इसका अपशिष्ट प्रबंधन चुनौतीपूर्ण है। ऐसे देशों में व्हे-टू-ईथेनॉल मॉडल सर्कुलर इकोनॉमी का एक ठोस उदाहरण पेश करता है।
ईथेनॉल बनाने के बाद भी काफ़ी उपयोगी होता है व्हे
पनीर मट्ठे से बायो ईथेनॉल बनाने की प्रकिया की एक महत्वपूर्ण बात यह है कि फर्मेंटेशन की प्रक्रिया के ज़रिये ईथेनॉल निकाले जाने के बावजूद व्हे कई तरह से उपयोगी होता है। इसके बचे हुए अवशेष (whey biomass) से आगे और भी कई उपयोगी उत्पादों को तैयार किया जा सकता है, क्योंकि फर्मेंटेशन के बाद जो ठोस-तरल मिश्रण बचता है उसमें अच्छी खासी मात्रा में प्रोटीन, खनिज, और बायोएक्टिव पेप्टाइड्स मौजूद रहते हैं।
इसको सुखाकर व्हे पाउडर बनाया जाता है, जिसे पशु चारे, प्रोबायोटिक सप्लीमेंट, या बायोप्लास्टिक के कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। विदेशों में इसका बड़े पैमाने पर उपयोग होता है। रिपोर्टलिंक के आंकड़ों के मुताबिक 2023 में यूनाइटेड किंगडम 76.75 हज़ार मीट्रिक टन के साथ दुनियाभर में मट्ठा पाउडर उत्पादन में सबसे आगे रहा। उसके बाद कनाडा 40.09 हज़ार मीट्रिक टन के साथ दूसरे स्थान पर रहा। न्यूज़ीलैंड और नॉर्वे ने क्रमशः 30.97 और 22.27 हज़ार मीट्रिक टन उत्पादन किया, जबकि भारत केवल 1.15 हज़ार मीट्रिक टन के साथ काफ़ी पीछे रहा। 2023 से 2030 तक व्हे पाउडर के उत्पादन में भारत में 3.84% की वार्षिक वृद्धि हुई, जबकि कनाडा में 1.66% की मामूली वृद्धि हुई।
गौरतलब बात यह है कि अगर आप व्हे से केवल ईथेनॉल बनाने पर रुक जाते हैं, तो इसमें कुछ कार्बनिक पदार्थ बचे रह जाते हैं, जो अपशिष्ट जल के रूप में जलस्रोतों में जाने पर प्रदूषण करते हैं। अगर इस अवशेष का दोबारा उपयोग करके व्हे पाउडर जैसे उत्पाद तैयार किए जाते हैं, तो लाइफ़-साइकल असेसमेंट (LCA) में नेट ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और जल प्रदूषण दोनों में और कमी आती है।
भारत में इसकी व्यापक संभावनाएं मौजूद हैं, क्योंकि भारत में पनीर और पनीर आधारित छेने व चीज़ जैसे उत्पादों से निकलने वाला व्हे को आमतौर अपशिष्ट मान कर बहा दिया जाता है। इसकी वजह देश में फिलहाल व्यापक स्तर पर इसके लिए प्रोसेसिंग इंफ्रास्ट्रक्चर का न होना है। अगर इससे व्हे पाउडर बनाकर उसका इस्तेमाल पशुचारे में किया जाए, तो देश में दूध उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। अच्छी बात यहा है कि अमूल जैसे कुछ बड़े डेयरी समूह अब इस दिशा में कदम बढ़ाने की पहल कर रहे हैं।
इसके अलावा, व्हे से प्रोबायोटिक सप्लीमेंट बनाने की बात करें, तो अवशेष को लेक्टोबैसिलस जैसे लाभकारी बैक्टीरिया से फ़र्मेंट करके इसे पाउडर या पोषक पेय रूप में बेचा जाता है, जो पाचन व आंत स्वास्थ्य (गट हेल्थ) में सुधार करता है और प्रतिरोधक क्षमता को बेहतर बनाता है। बायोप्लास्टिक के इस्तेमाल में भी व्हे पाउडर को कच्चे माल के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है।
इसके लिए इसमें मौजूद लैक्टोज़ और प्रोटीन को पॉलीहाइड्रॉक्सीअल्कानोएट (PHA) जैसे बायोपॉलिमर में परिवर्तित किया जाता है, जिससे फूड ग्रेड व बायो-डिग्रेडेबल बायोप्लास्टिक पैकेजिंग सामग्री बनाई जाती है। इस तरह पनीर मट्ठे से ईथेनॉल का उत्पादन एक मल्टी-प्रॉडक्ट बायोरिफ़ाइनरी मॉडल का हिस्सा बनकर सर्कुलर इकोनॉमी को मज़बूती दे सकता है।