समुद्र में लापता या छोड़ दिए जाने वाले जालों में फंस कर हर साल लाखों समुद्री जीवों की जान चली जाती है। इसके अलावा इनसे मरीन इको सिस्‍टम में भारी मात्रा माइक्रोप्‍लास्टिक प्रदूषण भी हो रहा है। स्रोत : सेल्‍वाटोर बारबेरा (विकी कॉमंस)
पर्यावरण

भारतीय वैज्ञानिकों की खोज दिला सकती है महासागरों को पुराने जालों के ‘जंजाल’ से निजात

आईआईएससी की रिसर्च टीम ने विकसित की सागरों में मिलने वाले जटिल पॉलिमर्स से बने पुराने जालों और फिशिंग गियर्स की रीसाइकलिंग की तकनीक, बनाई जा रहीं फूलदान से लेकर पतवार जैसी कई उपयोगी चीजें

Author : कौस्‍तुभ उपाध्‍याय

हाई प्रोटीन और अन्‍य पोषक तत्‍वों की मौजूदगी के कारण दुनिया भर में लोग मछली खाते हैं। कई समुदायों में तो यह लोगों का मुख्‍य भोजन होता है और कई देशों की अर्थव्‍यवस्‍थाएं मछली पकड़ने पर टिकी होती हैं, जिसे 'ब्‍लू इकोनॉमी' के नाम से जाना जाता है। पर, इन मछलियों को पकड़ने के लिए इस्‍तेमाल होने वाले जाल हमारे सागर-महासागरों, नदियों व झीलों जैसे जलस्रोतों में प्‍लास्टिक प्रदूषण की एक बड़ी वजह बनते जा रहे हैं। इस समस्‍या का एक कारगर समाधान भारत के वैज्ञानिकों ने ढूंढ निकाला है, पुराने मछली के जालों से उपयोगी चीज़ें बनाकर इनके दोबारा इस्‍तेमाल के रूप में।

समुद्र में माइक्रो प्‍लास्टिक का बढ़ता ख़तरा 

पुराने पड़ चुके मछली पकड़ने के जाल अकसर मछली पकड़ने के दौरान टूटकर समुद्र या नदियों में रह जाते हैं। समय के साथ यह छोटे-छोटे टुकड़ों में टूटकर माइक्रो प्‍लास्टिक में बदल जाते हैं, जो जलीय जीवों सहित पूरे पर्यावरण के लिए हानिकाराक साबित होते हैं। एक अध्‍ययन के मुताबिक हर साल लगभग 640,000 टन मछली पकड़ने के जाल व रस्सियां, ट्रैप्स जैसे प्‍लास्टिक के सामान (घोस्‍ट गियर्स) समुद्र में फेंक दिए जाते हैं। डॉल्फ़िन, समुद्री कछुए और व्हेल इन जालों में फंसकर मर जाते हैं। साथ ही यह जाल समय के साथ छोटे-छोटे टुकड़ों में टूटकर माइक्रो प्‍लास्टिक में बदल जाते हैं। पानी को प्रदूषित करने के साथ ही यह माइक्रो प्‍लास्टिक भोजन के साथ मछलियों के शरीर में भी पहुंच रहा है। नतीजतन, इन मछलियों को खाने वाले लोगों के शरीर में भी यह माइक्रो प्‍लास्टिक पहुंच कर अपने दुष्‍प्रभाव दिखा रहा है। 

एलेन मैकआर्थर फ़ाउंडेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार अगर स्थिति ऐसी ही बनी रही, तो 2050 तक समुद्र में मछलियों (फिश बायोमास) से ज़्यादा प्लास्टिक होगा। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि हर साल कम-से-कम 80 लाख टन प्लास्टिक महासागरों में चला जाता है। सरल ढंग से समझाया जाए, तो यह हर मिनट एक ट्रक प्लास्टिक समुद्र में फेंकने के बराबर है। रिपोर्ट के मुताबिक 2014 तक दुनिया में प्लास्टिक उत्पादन 20 गुना बढ़ चुका था और इसमें सबसे ज्‍़यादा हिस्‍सेदारी पैकेजिंग में इस्‍तेमाल होने वाले सिंगल यूज़ प्‍लास्टिक की है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के मुताबिक दुनिया में हर साल 43 करोड़ टन से अधिक प्लास्टिक का उत्पादन होता है और मछली पकड़ने में इस्‍तेमाल होने वाली चीज़ों से पैदा होने वाला कचरा पर्यावरण के लिए सबसे बड़े ख़तरों में से एक है, जो अनगिनत समुद्री जीवों का जीवन संकट में डालता है।

हर साल 10 लाख टन तक फिशिंग गियर दुनिया भर के सागरों-महासागरों में खो जाते या छोड़ दिए जाते हैं। इनमें से लगभग 5.7% हिस्‍सा जालों का, 8.6% ट्रैप व पॉट का और 29% हिस्‍सा फिशिंग लाइंस (मछली पकड़ने वाली डोर) का होता है। यूएन एनवायरनमेंट प्रोग्राम की रिपोर्ट के अनुसार इस वक्‍त महासागरों में कुल 7.5 करोड़ से 19.9 करोड़ टन प्‍लास्टिक मौज़ूद है।
डब्‍लूडब्‍लूएफ फाउंडेशन की रिपोर्ट
समुद्री पारिस्थितिक तंत्र को इस तरह नुकसान पहुंचाता है माइक्रो प्‍लास्टिक।

समुद्री पारिस्थितिक तंत्र पर असर

वर्ल्‍ड वाइल्‍ड लाइफ ऑर्गेनाइजेशन की 'स्‍टॉप घोस्‍ट गियर' शीर्षक से प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक हर साल दुनिया भर में मछली पकड़ने में इस्‍तेमाल किए जाने वाले जालों व घोस्‍ट गियर्स में से 5.7% फिशिंग नेट्स, 8.6% ट्रैप/पॉट्स, और 29% फिशिंग लाइन्स समुद्र में खो जाते हैं या छोड़ दिए जाते हैं। इसके चलते दुनिया के कुल समुद्री कचरे में 10% से ज्‍़यादा हिस्सा फिशिंग नेट्स, रस्सियों और घोस्‍ट गियर्स का ही होता है। उत्तर प्रशांत महासागर में तो यह 46% तक दर्ज़ किया गया है। नॉयलॉन, पॉलीएथिलीन और पॉलीप्रोपेलीन जैसे सिंथेटिक प्‍लास्टिक से बने होने के कारण यह चीजें दशकों तक समुद्र में बने रहते हैं। साइंस जर्नल एमडीपीआई में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक समुद्र में मौज़ूद माइक्रो प्‍लास्टिक धीरे-धीरे टूटकर माइक्रोप्‍लास्टिक और माइक्रोफाइबर्स में बदल जाते हैं, जिन्‍हें मछलियां, समुद्री कछुए, केकड़े, समुद्री पक्षी, और मूंगा (कोरल) जैसे समुद्री जीव भोजन के साथ ग्रहण करते रहते हैं। इस तरह इस माइक्रो प्‍लास्टिक के कारण समुद्री पारिस्थितिक तंत्र यानी मरीन इको सिस्‍टम में जैविक क्षति (बायोलॉजिकल डैमेज), मृत्यु (मॉर्टेलिटी) और खाद्य शृंखला संदूषण (फूड चेन कंटेमिनेशन) जैसे ख़तरे उत्‍पन्‍न होते हैं। 

भारत में भी बढ़ रहा माइक्रो प्‍लास्टिक का दायरा

समुद्र में माइक्रोप्‍लास्टिक की  समस्‍या  भारत में भी तेज़ी से बढ़ती जा रही है। साइंस डायरेक्‍ट में ‘घोस्ट फ़िशिंग गियर थ्रेटनिंग एक्वाटिक बायोडाइवर्सिटी इन इंडिया' शीर्षक से प्रकाशित अध्‍ययन में बताया गया है कि पुराने गुमशुदा व छूटे हुए जाल, रस्सियां जल जीवों के लिए बड़ा खतरा बन गए हैं। इस अध्ययन में 35 प्रजातियों के कुल 144 जीवों के इन चीज़ों से प्रभावित होने की जानकारी दी गई है। यूनियन फ़ॉर कन्ज़र्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) के अनुसार इनमें से 13 प्रजातियां इंटरनेशनल असुरक्षित या संकटग्रस्त श्रेणी के तहत आती हैं। गोवा के तटीय व ज्वारीय क्षेत्रों में 25–273 माइक्रोप्लास्टिक प्रति लीटर/किलोमीटर पाए गए। ‘सीज़नल शिफ़्ट्स इन माइक्रोप्लास्टिक्स: अनकवरिंग गोवा’ज़ मरीन पोल्यूशन पैटर्न्स’ शीर्षक से प्रकाशित अध्‍ययन में बताया गया है कि भारत में मानसून के दौरान पानी में माइक्रोप्लास्टिक का फैलाव बढ़ता है और मानसून के बाद यह तलछट (सेडिमेंट) के साथ तल में बैठ जाते हैं। अध्ययन के मुताबिक तल के आसपास रहने वाली और तलछट को खाने वाली मैकरेल और मुलेट जैसी कुछ मछलियों की आंतों में 6 ग्राम तक माइक्रो प्लास्टिक कण पाए गए।

पुराने, टूटे जालों और मछली पकड़ने के अन्‍य सामानों के रूप में समुद्र में लाखों टन प्‍लास्टिक कचरा हर साल समा रहा है।
मछली पकड़ने के जालों को बनाने में इस्‍तेमाल पीए-66 जैसे जटिल पॉलिमरों की रीसाइक्लिंग के ज़रिये हम बेकार पड़े मछली पकड़ने के जालों को फूलों के गुलदस्तों जैसी कई उपयोगी चीज़ों के रूप में नया जीवन दे रहे हैं। इससे समुद्री इको सिस्‍टम को साफ़ रखने और अपशिष्ट संग्रहण को भी प्रोत्साहन मिल रहा है। साथ ही यह समुद्र तट के किनारे रहने वाले लोगों के लिए रोजगार का अवसर भी हो सकता है। यह प्रक्रिया सरल है और इसमें प्रयुक्त रसायन सस्ते हैं।
प्रो. सूर्यसारथी बोस, आईआईएससी (मैटेरियल्स इंजीनियरिंग विभाग)

आईआईएससी ने ढूंढ निकाला रीसाइक्लिंग समाधान

भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) के मैटेरियल्स इंजीनियरिंग विभाग (मैटई) ने अपने रिसर्च से इस समस्‍या का एक बेहतरीन और व्‍यावहारिक समाधान ढूंढ निकाला है। इसके लिए आईआईएससी के वैज्ञानिकों की टीम ने बेकार हुए मछली पकड़ने के जाल और ऑटोमोटिव पार्ट्स को सामग्री में बदलने की विधि विकसित की है।  इसके ज़रिये इनसे नाव के पतवार बनाकर इनका दोबारा इस्‍तेमाल किया जा रहा है और इस तरह खतरनाक माइक्रो प्‍लास्टिक को पानी के इको सिस्‍टम को बर्बाद करने से रोका जा रहा है।

आईआईएससी की वेबसाइट पर दी गई जानकारी के मुताबिक टीम ने पाया कि मछली पकड़ने के जाल और ऑटोमोटिव पार्ट्स को बनाने में एक खास तरह का प्लास्टिक इस्‍तेमाल होता है, जिसे आमतौर पर “नायलॉन 66” कहते हैं। चिंताजनक बात यह है कि यह नायलॉन 66 है बदलते मौसमी हालात में माइक्रोप्लास्टिक के रूप में टूट जाता है, जो समुद्र और तटीय पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचा सकता है।

वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों और परीक्षणों में पाया कि इसको पुनः संसाधित यानी रीसाइकिल या अप-साइकिल करना संभव है। इसके लिए उन्होंने एक रासायनिक प्रक्रिया विकसित की, जिसमें प्लास्टिक कचरे को पिघलाया जाता है। इसके बाद उसमें एक मेलामाइन और कुछ उत्‍प्रेरक (कैटालिस्‍ट) मिलाए जाते हैं, जिससे एक रासायनिक प्रतिक्रिया होती है। महज़ दो मिनट में पूरी होने वाली यह प्रतिक्रिया में प्लास्टिक की आण्विक शृंखला नए ढंग से संयोजित कर देती है। अच्‍छी बात यह है कि औद्योगिक एक्‍सट्रूडर में होती है, यानी इसे बड़े पैमाने पर करना व्यावहारिक रूप से आसान है। साथ ही इससे और सामग्री की यांत्रिक ताकत या मजबूती भी जस की तस बनी रहती है। इस रीसाइकिल्‍ड नायलॉन से 3D-प्रिंटिंग करके विभिन्न वस्तुएं बनाई जा सकती हैं जैसे कि नाव के पाट (बोट हल्‍स), मज़बूत पतवार, पार्क बेंच, सड़क पर लगने वाले लिडवाडर और बरियर जैसी चीज़ें। इस तरह न सिर्फ समुद्र या समुद्र तटों से प्लास्टिक प्रदूषण को हटाया जा ककता है, बल्कि उससे स्थायी, उपयोगी और टिकाऊ चीजें बनाकर कचरे को संसाधन में बदला जा रहा है।

आईआईएससी की इस पहल के तहत प्रोफेसर सूर्यसारथी बोस के नेतृत्व में शोध दल ने चेन्नई स्थित कंपनी चाइम पॉलीमर्स प्राइवेट लिमिटेड के साथ मिलकर मछली पकड़ने के जालों को इकट्ठा किया और उन्हें प्लास्टिक के छर्रों (पैलेट्स) में बदल दिया। बोस द्वारा सह-स्थापित (को-फाउंडेड) स्टार्टअप वोइला 3डी ने इन प्लास्टिक पैलेट्स से मज़बूत और टिकाऊ डिवाइडर, नाव के पतवार और पार्क बना दिए।

बोस ने बताया, शुरु में हमने रासायनिक रीसाइक्लिंग की कोशिश की, लेकिन इसमें बहुत समय लगता है और यह पर्यावरण के अनुकूल भी नहीं है। इसलिए, हमने मैकेनिकल रीसाइक्लिंग को अपनाया। इसमें पॉलिमर को पिघलाया जाता है। इस प्रक्रिया के दौरान, मेलामाइन और एक ज़िंक-आधारित उत्प्रेरक मिलाकर पॉलिमर का एक उन्नत और रीसाइकिल्‍ड संस्करण तैयार किया जाता है। इसे 3डी प्रिंट करके किसी भी उत्पाद में बदला जा सकता है। अच्‍छी बात यह है कि इस अंतिम उत्पाद को भी रीसाइकिल किया जा सकता है।

भारतीय तटीय इलाकों में भी समुद्र में प्‍लास्टिक प्रदूषण तेज़ी से बढ़ता जा रहा है।
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