उत्तर प्रदेश में गांगेय डाल्फिन के संरक्षण की कवायद अब तेज हो गई है। इसी कारण चंद रोज पहले सरकार ने इसे राज्य का जलीय जीव घोषित कर दिया। नदी की जैव विविधता को बनाए रखने में इनकी अहम भूमिका होती है। विशेषज्ञों का मानना है कि इस घोषणा से लुप्तप्राय हो रहे इस स्तनधारी जीव (मैमल्स) के सुरक्षा, संरक्षण और संवर्धन पर फोकस बढ़ेगा। इससे इनकी संख्या भी बढ़ेगी और ये गंगा का आकर्षण भी बढ़ाएंगी। गांगेय डॉल्फिन की संख्या भी उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक है। एक अनुमान के मुताबिक अगर इनकी कुल संख्या 2000 के आसपास है तो उत्तर प्रदेश में इनकी संख्या 1600 से 1700 तक हो सकती है।
ऐसे में इनके संरक्षण और संवर्धन की सर्वाधिक जिम्मेदारी भी उत्तर प्रदेश की ही बनती है। प्रधान मुख्य वन संरक्षक अंजनी आचार्य कहते हैं कि ये फ्रेश वाटर डॉल्फिन हैं। अभी भारत सरकार के साथ मिलकर गणना हुई है। इनकी संख्या काफी बढ़ी है। तकरीबन दो हजार से ज्यादा हैं। इन्हें राज्य का जीव घोषित होने के बाद इनके संरक्षण पर हमारा फोकस बढ़ जाता है।
हम अब नदी के किनारे रहने वाले लोगों को इसके संरक्षण और और सुरक्षा के प्रति जागरूक करेंगे। इसकी आधी से ज्यादा आबादी सिर्फ यूपी में ही पाई जाती है। इसलिए जिम्मेदारी बढ़ जाती है। उन्होंने बताया गेरुआ, चंबल, घाघरा में पाई जाती है। गंगा में इनकी संख्या सर्वाधिक है। आने वाले कुछ वर्षों में ये गंगा नदी के आकर्षण का केंद्र बनेंगी।
बीबीएयू के इनवायरमेंट साइंस विभाग के प्रोफेसर डॉ. वेंकटेश दत्ता ने बताया कि डॉल्फिन गंगा बेसिन में पाए जाते हैं। यह विलुप्तप्राय जीव हैं। मछली नहीं मैमल्स है। यह मछलियों की तरह अंडा नहीं देती। किसी भी स्तनधारी की तरह बच्चे पैदा करती हैं। इनकी प्रजनन क्षमता कम होती है। तीन चार साल के अंतराल पर एक मादा एक या दो बच्चे ही देती है। इसलिए भी इनका संरक्षण जरूरी है। प्रदूषण बढ़ने से इन्हें परेशानी होती है। शिप और क्रूज से परेशानी होती है। डाल्फिन की सक्रियता को नदी के जल के अपेक्षाकृत साफ होने का सूचक माना जाता है। प्रदूषित जल में यह जलीय जीव अपना निवास नहीं बनाता है। उन्होंने बताया कि डॉल्फिन एक तरह से बायोइंडिकेटर का भी काम करती हैं। ऐसे में इनकी उपलब्धता यह बताती है कि पानी की गुणवत्ता ठीक-ठाक है। ये देख नहीं पाती। शिकार के लिए ये आवाज निकालती हैं। अपने भोजन के शिकार के लिए ये जीव अल्ट्रासोनिक ध्वनि का उत्सर्जन करता है। प्रतिध्वनि श्रवण। उनकी आवाज शिकार से टकराकर जब वापस उन तक पहुंचती है तो उन्हें शिकार की लोकेशन का पता चल जाता है। इसे जलीय जीव घोषित करने पर इसका संरक्षण होगा।
मीठे जल में रहना अन्य जीवों के स्वस्थ्य रहने का संकेत माना जाता है। विशेषज्ञ बताते हैं कि डॉल्फिन अपेक्षाकृत बुद्धिमान होती है। इंसान से इसकी दोस्ती जगजाहिर है। दरअसल यह सांस लेने के लिए हर कुछ मिनट के अंतराल पर नदी की सतह पर आती है। इसीलिए यह अपेक्षाकृत कम गहरी नदियों में ही मिलती है। यमुना जो गंगा की सहायक नदी है उसकी गहराई के ही कारण उसमें डॉल्फिन का मिलना अपवाद है।
विशेषज्ञों के अनुसार, गंगा-डॉल्फिन को गंगा के साथ-साथ यमुना, केन-बेतवा, सोन, गंडक और अन्य सहयोगी नदियों में भी देखा जा सकता है। लेकिन अब यह विलुप्त होने के कगार पर है। दिसंबर 2019 को संसद में दिए जवाब में केन्द्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो से जब पूछा गया कि क्या केंद्र सरकार के पास गंगा-डॉल्फिन की संख्या का कोई अनुमान है। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि इस जीव के गणना की जिम्मेदारी राज्यों के वन विभाग की है। उन्होंने उत्तर प्रदेश और असम में क्रमशः 1,275 और 962 गंगा-डॉल्फिन होने की बात की। उसी साल बिहार में हुए एक सर्वेक्षण में पता चला कि इस राज्य की तीन नदियों में करीब 1,150 गंगा-डॉल्फिन मौजूद हैं। अनुमान के मुताबिक दुनिया में साफ पानी में या कहें नदियों में रहने वाले कुल डॉल्फिन की संख्या महज 3,700 के करीब है। इनमें से 3,200 डॉल्फिन भारत में मौजूद हैं।
गंगा नदी डॉल्फिन के लिए सबसे बड़े खतरे में से कुछ हैं - पानी से संबंधित ढांचा जैसे बांध, बैराज, अपवाहन और बंदोबस्त, जो प्रवाह नियंत्रण और आवास विखंडन का कारण बनते हैं, मछली पकड़ने के जालों में उलझने से मृत्यु, तेल के लिए डॉल्फिन का शिकार, घरेलू, औद्योगिक और कृषि स्रोतों से प्रदूषण, और नौका यातायात, खुदाई और जल शोर जैसी मानव गतिविधियों से परेशानी। बांध और बैराज डॉल्फिन के आवास को टुकड़े-टुकड़े करते हैं।
बांध और बैराज नदी के आकार पर भी प्रभाव डालते हैं, जिससे पानी की उपलब्धता और आवास की गुणवत्ता कम हो जाती है, और प्रवासी मछलियों के लिए मार्ग को रोक देते हैं। गंगा नदी डॉल्फिन, जैसे कि अन्य ज्यादातर शल्की, अक्सर मछली पकड़ने के जालों में फंस जाते हैं और फिर डूब जाते हैं। लंबे-जीवन शिखर शिकारी होने के कारण, वे भारी धातुओं, औद्योगिक प्रदूषण और कृषि अपशिष्ट से दूषित जलमार्गों में रहने से नकारात्मक स्वास्थ्य प्रभावों के लिए भी आशंकित हैं। नदी शल्की, जिनमें गंगा नदी डॉल्फिन भी शामिल है, नदी के स्वास्थ्य के संकेतक माने जाते हैं।
गंगा नदी डॉल्फिन के वास स्थान का लागातार क्षरण होता जा रहा है जो इनके लिए सबसे बड़ा खतरा है। ये जीव गंगा सागर से ऊपर तक तैरते हैं। इनके वास स्थान का लागातार क्षरण होने के कारण इन्हें अब बस ऊपरी भागों में ही देखा जा सकता है। गंगा के प्रवाह में कमी आ गई है जो सबसे बड़ा खतरा है। इस नदी में पानी की बहुत कमी हो गयी है। इस जीव को प्रवाह भी चाहिए और नदी की गहराई भी। हरिद्वार, बिजनौर, नरोरा, कानपुर, फरक्का इत्यादि में बैराज बन गए हैं। ये बैराज ऐसी बाधा हैं जिसको डॉल्फिन पार कर नदी के दूसरे हिस्से में नहीं जा सकती। बैराज बन जाने से डॉल्फिन छोटे छोटे कुनबे में बंट गए हैं। इससे इनके जीन का आदान-प्रदान नहीं हो पाता और ये आनुवंशिक तौर पर कमजोर होते जा रहे हैं।