पर्यावरण

मेरा प्रार्थनामय उपवास : सुन्दरलाल बहुगुणा

जाने सुन्दरलाल बहुगुणा ने भूख हड़ताल महात्मा गांधी की जयंती पर ही क्यों की

Author : सुन्दरलाल बहुगुणा

स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के वर्ष में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती के शुभ दिन पर राष्ट्र और करोड़ों लोगों के जीवन को असुरक्षित बनाने, आर्थिक दृष्टि से दिवालिया, सामाजिक दृष्टि से विषमता और विघटन बढ़ाने, पर्यावरणीय तबाही लाने और हमारी संस्कृति और आस्थाओं को कुचलने वाले टिहरी बांध के मौजूदा स्वरूप को कायम रखने की हठधर्मी को उजागर करने के लिए मैंने उपवास करने का निश्चय किया है।

मैं देश के राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन लोगों को, जो मेरे पूर्व उपवासों से चिंतित रहने के कारण, भूख हड़ताल, न करने का अनुरोध करते रहे हैं, यह विश्वास दिलाना चाहता हूं कि उपवास भूख हड़ताल से भिन्न है, भूख हड़ताल कैकेयी द्वारा अपनाया गया तामसिक तरीका है। मैं तो ध्रुव, प्रहलाद, गौतम बुद्ध और गांधी द्वारा बताये गये मार्ग का अनुसरण करते हुए देश की सोई हुई नैतिक शक्ति को जगाने के लिए इसका सहारा ले रहा हूं। यह अहिंसक तरीका है। इसकी हमारे देश को अपनी विषम परिस्थितियों से उबरने के लिए बड़ी आवश्यकता है। यह भारत के सदियों से अर्जित आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संदेश की अभिव्यक्ति है। गांधी जी की जन्म और प्रयोग

भूमि होने के नाते विश्व इसकी हमसे अपेक्षा रखता है। मेरे लिए यह प्रायश्चित स्वरूप भी है, क्योंकि सरकार के सर्वोच्च प्रतिनिधि प्रधानमंत्री श्री एच. डी. देवेगौड़ा ने 25 जून 1996 को राष्ट्रपिता की समाधि पर टिहरी बांध से संबंधित समस्याओं के समाधान का तीन महीने में स्वतंत्र जांच कर आवश्यक कदम उठाने का देश की कई प्रख्यात हस्तियों की उपस्थिति में मुझे वचन दिया था। मरणासन्न हिमालय के बारे में उन्होंने मेरी चिंताओं के साथ अपने को शामिल किया था। मैंने राष्ट्रीय सर्वानुमति सेएक हिमालय नीति बनाने का अनुरोध किया था। राष्ट्र को टिहरी बांध के संबंध में, जिसे राष्ट्र की महत्वाकांक्षी परियोजना के रूप में आगे धकेला जा रहा है, इतने लंबे अर्से तक निम्न प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर दिये बिना राष्ट्र को अंधकार में रखना और तरकारी प्रचार माध्यमों से निरंतर झूठा प्रचार कर इन प्रश्नों को दफना देना लोकतंत्र और न्याय का दिन दहाड़े गला घोंटने के समान है।

इसके अलावा बहुत से प्रश्न हैं, जो समय-समय पर उठाये जाते रहे हैं। गंगा भारत की माता है, आस्था और विश्वासों की नदी है। यह अब केवल उत्तराखण्ड में ही अपने प्राकृतिक स्वरूप में है और इसके जल की गुणवत्ता कायम है। इन सबको क्षणिक आर्थिक लाभ के लिए समाप्त कर लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता। महामना मालवीय जी ने हरि-की-पौड़ी में इसका अविरल प्रवाह जारी रखवाया था।

पहाड़ों को काटने, सुरंगे बनाने, दरारें पाटने के तकनीकी चमत्कारों से भूकंप की दृष्टि से सबसे खतरनाक माने गये स्थल पर एशिया का सबसे ऊँचा बांध बनाने के अहंकार की तुष्टि का भले ही कुछ लोगों पर जादुई असर हुआ हो और वे मूक प्रकृति और भागीरथी के क्रन्दन को सुनने की क्षमता खो बैठे हों, लेकिन पीड़ित मानवता की कराहों को भीमकाय मशीनों, बुलडोजरों और  विस्फोटकों के शोर से कब तक झूठे प्रचार, प्रलोभनों और संगीनी के बल पर दबाया जाता रहेगा। जो तकनीकी मानवीय नहीं है और हाशिये पर रहने वाले पर्वतीय लोगों की आंखों में आंसू लाती हो उसके बारे में तत्काल पुनः विचार करने की आवश्यकता है।

पिछले 32 वर्षों से न्याय पाने के हमारे सब ही प्रयास विफल कर दिये गये हैं। यहां तक कि उच्चतम न्यायलय में होने बाली सुनवाई को इस बहाने स्थगित कराया गया कि कमेटिया छानबीन कर रही हैं। संसदीय समिति को लोगों और परिस्थिति से दूर रखा गया। यह सारी परिस्थिति अत्यंत कष्टदायक है। हमारी हैसियत निर्माण कंपनियों और बांध बनाने वाले सरकारी प्रतिष्ठानों के गुलामों की जैसी कर दी गई, क्योंकि जिला स्तर पर सारा तंत्र और स्थानीय राजनीति पर वे हावी हैं। अधिक विस्तृत क्षेत्र में देखने पर मुझे स्पष्ट दिखाई देता है कि जन-कल्याण के लिए स्थापित हमारा तंत्र चार 'म' कारों-मनी (धन), मार्केट (बाजार), माइट् (भुजबल) और माफिया-की गिरफ्त में है। इसलिए बहुत से नेक इरादे वाले लोग भी लाचार हैं।

स्वतंत्रता सेनानी होने के नाते आजादी की स्वर्ण जयंती वर्ष में यह गंभीर चिंतन और हृदय टटोलने का विषय है। इसीलिए मुझे इस प्रार्थनामय उपवास की प्रेरणा हुई है। भ्रष्टाचार के मामले में तो प्रधानमंत्री सत्याग्रह का आ‌ह्वान कर सत्याग्रह को मान्यता दे चुके हैं। मैंने उसके स्वरूप के बारे में प्रयोगधर्मियों और चिंतको से विचार-विमर्श करने का उनसे निवेदन कर चुका हूं। हमारी प्रकृति और संस्कृति की, हमारे इतिहास और भूगोल की, हमारी विरासत और सामुदायिक जीवन की नृशंस हत्या हो रही है। मैं इसे चुपचाप नहीं देख सकता। मेरी अंतरात्मा सीधी कार्यवाही करने के लिए वाध्य करती है।

यद्यपि मैं पूर्व में किये गये उपवासों के दौरान दी गई शारीरिक और मानसिक यातनाओं को झेलने के लिए पूरी तरह तैयार हूं फिर भी मैं यह नम्र निवेदन करता हूं कि इस विशुद्ध सात्त्विक और आध्यात्मिक प्रवृति को मुझे मां भागीरथी के तट पर निर्विघ्न रूप से जारी रखने दिया जावे। मेरे मन में किसी के प्रति द्वेष और घृणा की भावना नहीं है। मैं तो सबके कल्याण के लिए प्रार्थना करता हूं। मां की गोद में निरंतर कल-कल, छल-छल करती हुई भागीरथी के प्रेरणादायी स्वरूप का दर्शन करने, उसमें स्नान करने और उसके अमृत समान जल का पान करने में मुझे अपूर्व आनन्द की अनुभूति होती है। मैं अंतिम सांस तक इसको भोगने का अभिलाषी हूं।

मैं उसके अनन्य भक्त और उसके तट पर यहां टिहरी मे रहे और समाधिस्थ हुए वेदांती संत स्वामी 'रामतीर्थ का यह गीत गुनगुनाते रहना चाहता हूं: गंगा माई! तेरी बलि जाऊँ। हाड़ मांस का फूल बताशा तुझको अर्पित कर जाऊँ - श्री सुन्दरलाल बहुगुणा

मेरे परम मित्रो, सहानुभूति रखने वालो और प्रसंशको, शरीर की शक्तियां सीमित होती हैं। यद्यपि आज अपने प्रार्थनामय उपवास के 30वें दिन में स्वस्थ और प्रसन्न हूं, फिर भी संभवतः मैं भविष्य में आपको न लिख सकूं, इसलिए आपके चरणों में यहां भागीरथी के तट से यह निवेदन भेज रहा हूं। 

कल दीपावली का-दीपों के त्योहार का पर्व था। मेरे लिए इसका महत्व प्रख्यात वेदांती संत रामतीर्थ जी के जन्म, सन्यास व महासमाधि लेने के पवित्र दिन के रूप में था। इसलिए मैं उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करने सिमलासू की उस गोलकोठी में गया था, जहां वे अंतिम समय तक रहे थे। उसी के निकट उनकी स्मृति की रक्षा के लिए प्रकाश स्तंभ बना है। इसके लिए मौत को उनकी चुनौती, जो उनकी अंतिम रचना थी इस प्रकार अंकित है:-

<p><h3><em>'ऐ मौत ! तुम चाहो तो इस नाशवान देह को खुशी से ले लो। मुझे इसकी परवाह नहीं। मैं किसी भी शरीर में प्रवेश कर सकता हूं। पर्वतीय क्षेत्र में, किसी भी जड़ चेतन में, स्वच्छन्दता- पूर्वक विचरण करता रहूंगा।ताकि कोई भी मुझे न पा सके। मेरे पास अपना कुछ भी नहीं है। ॐ !ॐ ! ॐ ! '</em></h3></p>

वेदांत की इससे श्रेष्ठ अभिव्यक्ति क्या हो सकती है? परन्तु आपको एक दुःख-जनक समाचार देना चाहता हूं। स्वामी रामतीर्थ जी का स्मारक टिहरी बांध बनाने वाली एक निर्माण कम्पनी के कब्जे और कैद में है तथा प्रकाश स्तंभ मल और गंदगी से घिरा हुआ है। अपने प्रेरणा स्रोतों की चिंता न करने वाला समाज पतनोन्मुखी हो जाता है। भोगवाद ने हमें कितना अंधा बना दिया है यह उसका उदाहरण है।

अपने प्रार्थनामय उपवास को प्रारंभ करते समय मैंने जो निवेदन किया है, उसमें अपनी हृदय की वेदना प्रकट कर दी है। टिहरी बांध परियोजना के संबंध में जो आठ प्रश्न मैंने उठाये हैं, यदि आज लीपा-पोती कर उन्हें दबाया गया तो भविष्य में कभी न कभी सत्य को प्रकट तो होना ही चाहिए। जहां तक सरकार द्वारा आश्वासनों को पूरा करने की बात है वह तो उसी दिन झूठी साबित हो चुकी है जब विशेषज्ञ समितियों द्वारा तीन महीनों में रिपोर्ट देने की समय सीमा समाप्त हो गई।

मैं धीरज के साथ प्रतीक्षा करता रहा, लेकिन जब 14 दिसम्बर, 1996 को पूर्व प्रधानमंत्री श्री देवगौड़ा पुर्नवास और पर्यावरण समीक्षा समिति को एक स्वतंत्र और निष्पक्ष समीक्षा समिति बनाने के वायदे से पीछे हट गये तो यहं धोखाधड़ी खुलकर सामने आ गई। इसी प्रकार बांध के ढांचे की जांच, परियोजना के सशुल्क सलाहकार रुड़की विश्वविद्यालय से भिन्न किसी स्वतंत्र एजेंसी से कराने की मांग पर सरकार मौन है। गंगा के प्रति भारतीय जन मन की आस्था कोसांप्रदायिक कहकर नहीं नकारा जा सकता। यदि ऐसी ही है तो सबसे बड़ा सांप्रदायिकतावादी पं. जवाहर लाल नेहरु को करार देना होगा। जिन्होंने अपने अंतिम वसीयतनामे में गंगा के प्रति अपने उद्‌गार प्रकट करते हुए कहा है: 'गंगा तो भारत की प्राचीन सभ्यता की प्रतीक रही है, निशानी रही है

यही गंगा मेरे लिए निशानी है प्राचीन सभ्यता की, यादगार की जो बहती आई है वर्तमान तक और बहती चली जा रही है भविष्य की ओर।' हम गंगा को प्रदूषण से मुक्त करने के लिए अरबों रुपया खर्च कर रहें हैं लेकिन उसके उद्‌गम प्रदेश में एक विशाल बांध जलाशय में गंदे बरसाती-पानी को जमा कर उसके जल में मौजूद कीटाणुनाशक गुणों और उसकी पवित्रता को नष्ट कर रहे हैं? यह कैसा वैज्ञानिक विकास है? मैं दरिद्रतम पर्वतीय प्रदेश में जन्मा हूं। इसी क़ी सेवा में मैंने अपना पूरा जीवन खपा दिया है। हिमालय को बचाना इस देश की आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत और आर्थिक समृद्धि के लिए अनिवार्य है यही 'हिमालय बचाओ' आन्दोलन के घोषणा- पत्र की आत्मा है जिसे मैंने अपने अंतिम वसीयतनामे के रूप में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव श्री हरिकिशन सिंह सुरजीत के समक्ष पूर्व प्रधान मंत्री को सब राजनैतिक पक्षों की सर्वानुमति प्राप्त कर एक हिमालयी नीति बनाने के लिए भेंट किया था।

यह कैसा सामाजिक न्याय है जो राष्ट्रहित के नाम पर हिमालय से निकलने वाली गंगा-भागीरथी के पानी का बांध बनाकर वंचित कर रहा है। मुझे आशा है कि आप इन प्रश्नों को उच्चतम न्यायलय, संसद और जनता की अदालत में ले जाकर सत्य के शोधन की एक सत्याग्रही की अंतिम अभिलाषा पूरी करेंगे।

स्रोत -

गंगा हिमालय कुटी, टिहरीविनीत 31-10-97

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