सुंदरबन के किसान साल दर साल बढ़ते खारे पानी और बदलते मौसम के बीच अपनी पारंपरिक खेती छोड़ने को मजबूर हैं। चित्र: roundglasssustain.com
पर्यावरण

सुंदरबन की मिट्टी में बढ़ता समुद्री नमक, खेती और किसान दोनों संकट में

सुंदरबन के किसान साल दर साल बढ़ते खारे पानी और बदलते मौसम के बीच अपनी पारंपरिक खेती छोड़ने को मजबूर हैं। यह लेख दिखाता है कि कैसे मिट्टी, पानी और जीवन के बदलते रिश्ते ने उनकी पहचान को नई दिशा दी है।

Author : डॉ. कुमारी रोहिणी

सुंदरबन भारत और बांग्लादेश के बीच फैला एक विशाल मैंग्रोव डेल्टा है, जहां पानी और ज़मीन का रिश्ता निरंतर बदलता रहता है। समुद्र, नदियां और मिट्टी हर मौसम में नया संतुलन तलाशते हैं, और इसी के साथ यहां के लोगों की ज़िंदगी और आजीविका भी बदलती रहती है।

कुछ दशक पहले तक सुंदरबन के गांवों में खेती केवल रोज़गार नहीं, बल्कि यहां की पहचान थी। यहां के किसान गेहूं, चावल, सब्ज़ियां और फ़ल उगाते थे। खेतों में ज़मीन की ख़ुशबू और मौसम की उम्मीदें हर घर में होती थीं। आज वही किसान साल दर साल खेती के विकल्प ढूंढने को मजबूर हो रहे हैं और उनकी पारंपरिक पहचान बदल रही है।

समुद्री नमक और मिट्टी का बदलता चेहरा

इलाक़े के किसानों का कहना है कि वह मिट्टी जिस पर पहले वे अनाज, सब्ज़ियां और फल उगाते थे, आज वही मिट्टी उनके लिए दुश्मन बन चुकी है।

सुंदरबन एक चक्रवात बहुल इलाक़ा है। वर्षों से समुद्र के पानी, चक्रवातों और बदलते मौसम की वजह से सुंदरबन के मिट्टी में नमक की मात्रा लगातार बढ़ रही है। उन इलाक़ों की स्थिति अधिक गंभीर है जहां नदियां समुद्र से मिलती हैं।

पहले जिन क्षेत्रों का पानी मीठा हुआ करता था, आज वही पानी इतना खारा हो गया है कि पारंपरिक फ़सलों की खेती और उत्पादन मुश्किल हो गया है।

उदाहरण के लिए बदलते मौसम, चक्रवात और बढ़ते खारेपन जैसी चुनौतियों का सामना करते हुए, सुंदरबन के भंगतुशखाली द्वीप के किसान खेती को जलवायु परिस्थितियों के हिसाब से ढालने के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं।

साल 2009 में ‘आइला’ नामक चक्रवात के बाद यहां की स्थिति और बदतर हो गई। जब समुद्री पानी नदियों के ज़रिए ज़मीन में घुसा, तो वहां की ज़मीन पर नमक का प्रभाव इतना बढ़ गया कि कई बार तो खेती असंभव सी लगने लगी।

रिपोर्ट बताती हैं कि इस घटना के बाद से मिट्टी की उर्वरता में लगातार गिरावट दर्ज की गई है, और साल दर साल खेतों की मिट्टी में खारापन बढ़ता जा रहा है। इलाक़े के किसानों का कहना है कि वह मिट्टी जिस पर पहले वे अनाज, सब्ज़ियां और फल उगाते थे, आज वही मिट्टी उनके लिए दुश्मन बन चुकी है।

भंगतुशखाली में ही खेती करने वाले अलीमुद्दीन का कहना है कि इस इलाके में पहले हरे-भरे खेत हुआ करते थे। लेकिन, हर साल चक्रवात आने के कारण पूर्वी इलाके में खारेपन का स्तर बढ़ता चला गया, जिससे ज़मीन की उपजाऊ शक्ति कम हो गई। एक समय ऐसा आया कि मजबूरन किसानों को खेती का कार्य बंद करना पड़ा।

खेती छोड़कर नई राह

बदलती मिट्टी की प्रकृति, खेतों की कम होती उत्पादन क्षमता के कारण सुंदरबन इलाक़े के किसानों को खेती का अपना पारंपरिक काम छोड़ने पर मजबूर होना पड़ रहा है। हालांकि तमाम कठिनाइयों के बावजूद भी इन किसानों ने खेती का काम पूरी तरह से तो नहीं छोड़ा है लेकिन इसके रूप में बदलाव ज़रूर देखा जा सकता है। अब यहां के किसान खेती के साथ-साथ मछली पालन जैसे काम भी करने लगे हैं। 

सुंदरबन के कई हिस्सों में अब ‘भेरी’ नामक स्थानीय मछली पालन प्रणाली अपनाई जाती है। इसमें खेतों या खाली ज़मीन को छोटे-छोटे तालाबों में बदलकर पानी और मछली का प्रबंधन किया जाता है।

इसी तरह की खेती करने वाले स्थानीय किसान अमिताश मंडल आईडीआर से अपनी बातचीत में कहते हैं, “मैंने अपने घर के आसपास की ज़मीन पर सब्जियां उगाई हैं। लेकिन द्वीप के पूर्वी इलाक़े की अपनी तीन बीघा ज़मीन पर मैं भी अब मछली पालन का काम ही करता हूं। मिट्टी में खारेपन के बढ़ते स्तर को देखते हुए मुझे यह फ़ैसला लेना पड़ा है। क्योंकि बची-खुची खेती से ज़्यादा आमदनी इसी तरीक़े से होती है।”

खारा पानी और किसानों की लड़ाई

वैज्ञानिक विश्लेषण बताते हैं कि समुद्र स्तर के बढ़ने और मीठे पानी की कमी के कारण कृषि भूमि में खारेपन में सतत वृद्धि हो रही है, जिससे पारंपरिक खेती कठिन होती जा रही है।

स्थानीय किसान और कृषि प्रशिक्षक बिप्लव मंडल ने आईडीआर के साथ की अपनी बातचीत में बताया कि “ऐसा नहीं है कि केवल सुंदरबन की मिट्टी का ही खारापन बढ़ा है। बल्कि हवा में भी नमक का असर साफ़-साफ़ महसूस होता है। स्थिति ऐसी हो चुकी है कि 7.5 फीट की ऊंचाई तक हवा में भी खारापन पाया जाता है। गर्मी के दिनों में स्थिति और बदतर हो जाती है।” 

बिप्लव जैसे विशेषज्ञ पॉली-मल्चिंग जैसी तकनीक अपनाने और उसके अनुसार काम शुरू करने की बात करते हैं। इसमें मिट्टी की सतह पर एक प्लास्टिक की फ़िल्म बिछाई जाती है ताकि उसका खारापन कम हो सके।

सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों ने कुछ एनुअल सॉल्ट-टॉलरेंट फ़सल वेरायटीज़ और सोल्यूशन-ओरिएंटेड तकनीकें अपनाने का सुझाव दिया है, लेकिन स्थानीय स्तर पर इन विकल्पों का असर सीमित और धीमा ही रहा है। वहीं कुछ किसान “लैंड-शेपिंग” तकनीक का प्रयोग कर रहे हैं जिससे बारिश का मीठा पानी जमा किया जा सके और खेती के लिए उपयोग किया जा सके। 

इस तकनीक में ज़मीन को ढाल कर छोटे तालाब/क्षेत्र बनाए जाते हैं। हालांकि यह तकनीक कोई स्थायी समाधान नहीं है लेकिन यह बताती है कि सुंदरबन के किसान अपने गुजर-बसर के लिए नई तकनीकें सीख रहे हैं, और अपने अनुभवों से स्थानीय समाधान विकसित कर रहे हैं।

खेतों से पलायन

पलायन केवल आर्थिक समस्या भर नहीं है। इसका संबंध यहां के परिवार, समाज, ज़मीन और भावना से भी है।

सुंदरबन इलाक़ों में जब खेती, मछली पालन और सूखे मौसम के मुकाबले जीवन कठिन हो गया, तब यहां के बहुत से किसानों को अपने राज्य और कभी-कभी तो देश के बाहर जाकर रोजगार ढूंढने पर मजबूर होना पड़ा। हालांकि वैकल्पिक रोज़गार की तलाश में निकले ये किसान खेती के अपने पारंपरिक पेशे को पूरी तरह नहीं छोड़ते हैं। बल्कि इस कोशिश से अपनी पहचान को एक नई परिभाषा देते हैं।

कुछ लोग मज़दूरी के लिए शहरों में चले जाते हैं, तो कई पुराने अनुभवों को लिए कारखानों, निर्माण स्थलों या सर्विस सेक्टर से जुड़ जाते हैं। साल 2011 के हाउसहोल्ड सर्वे के अनुसार, सुंदरबन के लगभग 30 प्रतिशत घरों का एक सदस्य रोज़गार के लिए बाहर चला गया था। 93 प्रतिशत लोगों ने कहा कि अगर उन्हें विकल्प मिलते तो वे जंगल के संसाधनों पर निर्भर नहीं रहते।

हालांकि हाल ही में कोई औपचारिक स्टडी नहीं की गई है, लेकिन अनुमान है कि भारतीय सुंदरबन में लगभग श्रमशक्ति में अपना योगदान देने वाले 60 फ़ीसद पुरुष दूसरे राज्यों और देशों में पलायन कर रहे हैं।
सुभाष आचार्य, सुंदरबन मामलों के विभाग के पूर्व प्रशासक, पश्चिम बंगाल

रिपोर्ट यह भी कहती है कि कोलकाता के समाजसेवी संगठन जयप्रकाश इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल चेंज के एक अध्ययन के अनुसार, 20 फ़ीसद घरों में बाल प्रवासी मज़दूर पाए गए हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यह पलायन केवल आर्थिक समस्या भर नहीं है। इसका संबंध यहां के परिवार, समाज, ज़मीन और भावना से भी है। खेतों को छोड़कर जाने वाले किसान अपनी मिट्टी, मौसम और वंशानुगत खेती-ज्ञान को भी पीछे छोड़ रहे हैं।

भारत में पश्चिम बंगाल राज्य के सुंदरबन मामलों के विभाग के पूर्व प्रशासक सुभाष आचार्य कहते हैं, “हालांकि हाल ही में कोई औपचारिक स्टडी नहीं की गई है, लेकिन अनुमान है कि भारतीय सुंदरबन में लगभग श्रमशक्ति में अपना योगदान देने वाले 60 फ़ीसद पुरुष दूसरे राज्यों और देशों में पलायन कर रहे हैं। उन्हें ऐसे अजीबोग़रीब काम भी करने पड़ते हैं जिनके बारे में पहले इस इलाक़े के लोगों ने कभी सुना भी नहीं होता है।”

सरकारी प्रयास और सफलता-असफलता की कहानी

सुंदरबन में किसानों की बदलती ज़िंदगी में सरकार का योगदान भी अहम है। पश्चिम बंगाल सरकार और स्थानीय विकास विभाग कुछ हिस्सों में मीठे पानी के तालाब और जलस्रोत बनाने की पहल कर रहे हैं, ताकि बारिश का पानी जमा करके खेतों में इस्तेमाल किया जा सके। 

उदाहरण के लिए पठार प्रतीमा ब्लॉक के कई गांवों में किसानों ने तालाब खुदवाकर और रेनवाटर हार्वेस्टिंग जैसे तरीक़ों को अपनाकर खेतों में नमक का प्रभाव कम किया है।

इसके अलावा कृषि विभाग ने किसानों को साल्ट-टॉलरेंट फ़सल वेरायटीज़ उपलब्ध कराई हैं, जैसे खारे पानी में उगने वाला चावल, गेहूं और सब्ज़ियां। इतना ही नहीं, कई जगहों पर किसानों को लैंड-शेपिंग, पॉली-मल्चिंग और मीठे पानी के संरक्षण तकनीक के प्रशिक्षण भी दिए जा रहे हैं, ताकि वे मिट्टी और पानी की बदलती परिस्थितियों में खेती कर सकें।

पश्चिम बंगाल सरकार और स्थानीय विकास विभाग कुछ हिस्सों में मीठे पानी के तालाब और जलस्रोत बनाने की पहल कर रहे हैं, ताकि बारिश का पानी जमा करके खेतों में इस्तेमाल किया जा सके।

दिगम्बरपुर और किशोर नगर जैसे इलाक़ों के उदाहरण बताते हैं कि तालाब आधारित खेती और नदी किनारों की संरक्षण तकनीक से जमीन की उपज बढ़ी है।

आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में भी राज्य सरकार ने तटबंध, चेतावनी प्रणाली और आपदा प्रतिक्रिया योजनाएं लागू की हैं। साइक्लोन ‘आइला’ के बाद प्रभावित किसानों को वित्तीय सहायता, बीज और उपकरण प्रदान किए गए।

हालांकि, तकनीक और योजनाओं का लाभ सीमित क्षेत्रों तक ही पहुंच पाता है। इसलिए लंबे समय तक चलने वाले टिकाऊ और स्थायी समाधान के लिए स्थानीय भागीदारी और सतत नीतियों की ज़रूरत अभी भी बनी हुई है।

जलवायु परिवर्तन और खेती

यह मामला केवल सुंदरबन तक ही सीमित नहीं है। वैश्विक तापमान में वृद्धि और समुद्र स्तर में बढ़ोतरी, बदलते मॉनसून पैटर्न, और तेजी से बढ़ती चरम मौसमी घटनाएं खाद्य सुरक्षा को प्रभावित कर रही हैं

शोध बताते हैं कि सुंदरबन जैसे संवेदनशील इलाके में भूमि, पानी और कृषि के बीच का संतुलन पहले जैसा नहीं रहा। अगर भूमध्यरेखीय बदलाव जारी रहे, तो भविष्य में न सिर्फ स्थानीय किसान बल्कि पूरे सेहतमंद खाने और कृषि की पहचान बदल सकती है।

स्थानीय समाधान और सीख

कुछ अग्रणी किसान और छोटी-बड़ी संगठन मिलकर ज़मीनी स्तर पर निकलने वाले समाधान पर काम कर रहे हैं। जैसे कि कुछ समूह मीठे पानी की वैकल्पिक मशरूम खेती, टैबलेट खेती (टब्स/बैग फॉर्म) और बारीक कृषि समाधान को बढ़ावा दे रहे हैं, ताकि खेतों में पानी की कमी या खारेपन के बावजूद कुछ उगाया जा सके।

इसके अलावा, मीठे पानी के संचयन और भंडारण, सतत खेती, और स्थानीय जल-इकाइयों के प्रबंधन के प्रयास से भी यह बात स्पष्ट होती है कि किसान अब केवल “जीवन रक्षा” के लिए नहीं, बल्कि स्थायी आजीविका के लिए अधिकारिक रूप से तैयार हो रहे हैं।

सुंदरबन इलाक़े के किसानों और खेतों की मौजूदा हालत देखकर लगता है कि यह एक क्षेत्रीय कहानी नहीं है। यह आने वाले समय में एक वैश्विक कहानी का रूप ले लेगी। क्योंकि विश्व स्तर पर जलवायु परिवर्तन के मामले सामने आ रहे हैं और जहां भी जलवायु परिवर्तन होगा वहां खेती का ढांचा भी बदलेगा।

किसान मजबूर हैं, लेकिन अपनी पहचान को नई दिशा दे रहे हैं। वे मिट्टी, पानी और नमक के बदलते रिश्तों से सीखकर, नए तरीके अपनाते हुए अपनी ज़िंदगी को संभाल रहे हैं और अपनी पहचान को भी नए सिरे से गढ़ रहे हैं।

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