चर्चा प्रारंभ करने के पूर्व मगध की सीमा एवं परंपरा के अर्थ को समझ लेने से चर्चा को आगे बढ़ाने में सुविधा होती है। परंपरा शब्द का प्रयोग करते ही अतीत से लेकर वर्तमान की कड़ियाँ सामने आने लगती हैं। मगध की सीमा कई बार घटती-बढ़ती रही है। वस्तुतः यह मगध साम्राज्य की सीमा का बढ़ना या घटना हुआ है। सांस्कृतिक दृष्टि से मगध की सीमा लगभग स्थिर रही है। मेरी दृष्टि में कर्मनाशा के पूरब से प्रारंभ कर किउल नदी तक का क्षेत्र मगध का क्षेत्र है। इसकी उत्तरी सीमा गंगा नदी है और दक्षिणी सीमा छोटानागपुर का पठारी भाग। कुछ लोग सोन के पश्चिमी भाग को मगध नहीं मानते हैं। वे उसे भोजपुरी क्षेत्र समझते हैं लेकिन थोड़ी ही गहराई में जाने के बाद यह पता चलने लगता है कि वस्तुतः कर्मनाशा तक का भाग मगध क्षेत्र ही है। फिलहाल इस बहस को यहीं स्थगित किया जा रहा है।
जहाँ तक परंपरा की बात है, मेरी दृष्टि मे बहुसंख्यक आबादी के द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी अपने अनुभव एवं ज्ञान को आगे बढ़ाने वाली जीवन शैली ही परंपरा है। इस प्रकार परंपरागत व्यवस्थाएँ एक ही साथ पुरानी, गतिशील तथा जीवन एवं परिस्थति के अनुकूल नए-नए रूप धारण करने वाली होती हैं। सिंचाई व्यवस्था के क्षेत्र में भी मगध का अपना पारंपरिक ज्ञान एवं अनुभव है।
मगध क्षेत्र कृषिप्रधान क्षेत्र है। यहाँ की अर्थव्यवस्था पूर्णतः कृषि पर आधारित है। शुद्ध बोया गया क्षेत्र 987 हजार हेक्टेयर है जिसके 90 प्रतिशत भाग पर धान की खेती होती है। सर्वप्रमुख फसल धान है। धान के सफलतापूर्वक उत्पादन के लिए नियमित पानी की जरुरत होती है। 'धान-पान नित्य स्नान"। धान की सफल खेती के लिए जून में 100 मि.मी., अगस्त में 300 मि.मी सितंबर में 200 मि.मी. और अक्टूबर में 100 मि.मी. वर्षा की आवश्यक्ता होती है। यहाँ वर्षा भली भाँति वितरित नहीं है। वर्षा अनियमित, अनिश्चित और परिवर्ती है। यह परिवर्तिता लगभग 25 प्रतिशत हैं। इस वितरण में व्यतिक्रम उत्पन्न होने पर धान की फसल के मारे जाने की आशंका पैदा हो जाती है। जून में वर्षा कम होने पर धान के बीज की बोआई नहीं हो पाती है, जुलाई-अगस्त में वर्षा कम होने पर धान की रोपनी नहीं हो पाती और सितंबर-अक्टूबर में नहीं होने पर उपजी हुई धान की फसल मारी जाती है। इस हालत में सिंचाई की आवश्यक्ता पड़ती है।
मगध की खेती ऐतिहासिक दौर में अग्रणी रही है। यहाँ खेती की प्रतिष्ठा रही है। बड़े-बड़े भिक्षु संघों और विश्वविद्यालयों का बोझ उठाना उन्नत खेती के बिना संभव नहीं था। उन्नत खेती और सिंचाई की व्यवस्था पर सभी राजा एवं जमींदार ध्यान देते थे। नए-नए जलाशय बनवाना और उसका रखरखाव तथा मरम्मत का काम सामाजिक और धार्मिक कार्य समझा जाता था। इससे जीवन में ही नहीं, मरने के बाद भी पुण्य की प्राप्ति होती है, ऐसा विश्वास रखा जाता था। नालंदा विश्वविद्यालय की दो सौ गांवों पर जमींदारी थी जहां से उसे दूध, दही, मक्खन, तेल आदि प्राप्त होता था।
आज भी मगध के ग्रामीण क्षेत्रों में परंपरागत सिंचाई की निम्न प्रणालियाँ मौजूद हैं- पइन, आहर, पोखर, कूप एवं अन्य। इनके साथ कई उपकरण एवं नई विधियाँ भी मगध ने विकसित की हैं। नलकूप निर्माण का कार्य भी मुख्य रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान की शैली में विकसित हो रहा है। अतः नलकूप प्रणाली को परंपरागत व्यवस्था के अंतर्गत सिंचाई की परंपरा की नई कड़ी के रूप में मैं ने स्वीकार किया है। सिंचाई की परंपरागत व्यवस्थाएँ यहाँ दीर्घ काल से अच्छी हैं। उनमें कुछ का आगे विकास हुआ तथा कुछास के क्रम में हैं जिनके बारे में आगे चर्चा होगी। इस क्षेत्र में प्रचलित सिंचाई व्यवस्थाएँ निम्नलिखित हैं।
आ (समन्तात्) अर्थात सामने से आने वाले, जल का जो हरण करे, रख सके वह आहर है। आहर की गहराई कम होती है और जल को शोधित करने वाली बड़ी मछलियाँ भी केवल ऋतुकालीन जल में विकसित नहीं हो पाती हैं। आहर के प्रति पवित्रता का भाव नहीं होता है। यह वर्षा के जल को संग्रह करने हेतु दो या तीन तरफ से बाँधकर बनाया गया जलाशय है। इन्हें अहरा भी कहा जाता है।
आहर आज भी गाँव-गाँव में देखने को मिलते हैं। दो पहाड़ियों के बीच के स्थान को भी एक तरफ से बाँध कर आहर बनाया जाता है। वास्तव में ये छोटी-छोटी झील जैसी संरचनाएँ होती हैं किंतु गाँव के लोग इन्हें भी टाल या आहर ही कहते हैं। ये अंग्रेजी के एल (स्) या यू (न्) आकृति में बने होते हैं। कम ढ़ाल का ऊपरी हिस्सा बंद कर दिया जाता है।
आहर सर्वत्र पाये जाते हैं। आहर को नदी या पहाड़ से निकलने वाली पइनों से भी जोड़ा जाता है जिससे आहर में वर्षा का जल इकट्ठा कर लिया जाता है। आहर से भी वितरण हेतु छोटी पइने निकाली जाती हैं। बिना अहरा के पइन का लाभ केवल वर्षा होते समय ही उठाया जा सकता है। पइन से आहर को भर लेने पर धान की खेती में लंबे समय तक उपयोग संभव होता है। आहर के पानी का उपयोग खरीफ की फसलों की सिंचाई में किया जाता है। बाद में उसका पानी निकालकर उसी अहरा में "रबी" की बुआई कर दी जाती है। आहर की जमीन एक फसली जमीन के रूप में प्रयुक्त होती है। औसतनहर वर्ग किलोमीटर पर एक आहर पाया जाता है।
पइन इस क्षेत्र में बहते पानी के सदुपयोग का सर्वोतम उदाहरण हैं। अधिकांश पइनें नदी-नालों में बाढ़ आने की स्थिति में चालू होती हैं और बाढ़ समाप्त होने पर बंद हो जाती है। इससे ऊपरी क्षेत्र के लोगों को अतिरिक्त जल का लाभ मिल जाता है और निचले क्षेत्र के लोग उसके नुकसान से बच जाते हैं। इस अतिरिक्त जल को आहरों में संचित करके सुविधा के अनुरूप उसका उपयोग इस क्षेत्र के लोग लंबे समय से करते आ रहे हैं।
अनेक पइनों के मुहाने अपने उद्गमस्थल पर स्थित नदी-नालों की तली से ऊँचे होते हैं। ऐसी स्थिति में जलस्तर को ऊंचा उठाने के लिए मुहाने के ठीक नीचे बहाव को रोकनाजरूरी हो जाता है। यह स्थिति उक्त उदाहरण जितनी अच्छी तो नहीं है लेकिन इन पइनों का चालू रहना भी उनके द्वारा लाभान्वित होने वाले लोगों के लिहाज से आवश्यक है। इस स्थिति में नदी-नाले में ऐसा अवरोध खड़ा किया जाना चाहिए जो उसके प्रवाह को आंशिक व अस्थायी तौर पर ही रोके।
स्थायी बाँध वाली पइनें और नहरें प्रवाहमान भूजल के सिंचाई हेतु उपयोग के बुरे उदाहरण हैं तथापि इनका निर्माण अगर हो चुका है तो उनमें जलप्रवाह जारी रखते हुए भी ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि उससे नीचे स्थित लोगों को भी पानी नियमित रूप से मिलता रहे और गाद की सफाई भी होती रहे। अतिरिक्त पानी नदी में वापस करने वाली निकासी पइनों के निर्माण को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
भूमि की स्वाभाविक ढाल पर सिंचाई के लिए सामान्यतः नदियों से निकाली गई पतली, सँकरी और लंबी वाहिकाओं को पइन कहते हैं। नदियों के अतिरिक्त अन्य स्रोतों से निकाले गए छोटे-छोटे नालों को भी 'पइन' कहा जाता है। ये नहरों के समतुल्य हैं। 'बहता पानी निर्मला' के सिद्धांत के अनुसार पइन का जल पवित्र माना जाता है। पानी और पैन समानार्थक हैं पैन से पइन का ध्वनिसाम्य प्रगट है। मैथिली में पानी को पाइन बोला जाता है। पाइन से भी पइन का ध्वनिसाम्य स्पष्ट है।
पइनें मुख्य रूप से दो प्रकार की होती हैं (क) नदियों को या वर्षा के जल को रोककर नहर की भाँति बनाई गई और (ख) बिना बाँधे हुए समानांतर या सीधी ढाल के आधार पर बनाई गई।
कहीं-कहीं नदियों को बाँधकर छोटे-छोटे बांधों का भी निर्माण किया गया है तथा उनसे छोटी नहरें एवं नाले निकाले गए हैं, जैसे घोड़ाघाट, तिलइया, निमसर का बाँध। नदियों को बिना बाँधे उसके ऊपरी भाग में ही नदी के समानांतर नाले का निर्माण किया जाता था औरउसे भी पइन कहा जाता है। पइन खेतों से ऊपर या बराबर में बहती हैं। इससे सिंचाई सुविधाजनक हो जाती है। आज भी इस प्रकार के पइनों की उत्तम व्यवस्था नदी किनारे के इलाकों में देखी जा सकती है।
मगध क्षेत्र दक्षिण एवं पूरब दो तरफ से पठारों एवं पहाड़ियों से घिरा हुआ है। अतः वर्षा ऋतु में पहाड़ियों से बहते हुए वर्षा के जल को एक बड़े तालाब या पोखर में इकट्ठा करके भी आगे पइनें निकाली जाती थीं, जिससे पानी इच्छित दिशा में नालों में बहता था। उससे खेतों को काफी आगे तक सिंचित किया जाता था तथा पहाड़ियों का पानी बिखरकर बरबाद नहीं हो पता था। वजीरगंज इलाके में आज भी इस प्रकार के पइनें देखने को मिलती हैं। गया में ब्रह्मयोनि पर्वत के नीचे बना पइन आज समाप्तप्राय है।
पइनों की प्रत्येक वर्ष उड़ाही (बालू/गाद निकालना) करनी पड़ती है। पइन से नदी द्वारा लाए गए कार्बनिक जैव पदार्थ सीधे खेतों को प्राप्त होते हैं। पहाड़ियों के ऊपर घाटी या छोटे मैदानी भागों के जलनिकासी वाले भागों में भी बाँध का निर्माण कर उससे पइनें निकाली जाती थी, जैसेऔरंगाबाद जिले की उमगा पहाड़ी से निकली पइन। कुछ ऊँचे मैदानी टीलों से भी पइनें निकाली गईं थीं। इसका बहुत अच्छा उदाहरण मगध विश्वविद्यालय के पइन का अवशेष है। इनका उपयोग मुख्य रूप से खरीफ की सिंचाई में होती है। लेकिन यमुने आदि एकाध नदियों से निकली पइनों में सालों भर पानी बहता रहता है।
उपर्युक्त के अतिरिक्त, मगध क्षेत्र के किसानों ने अपनी प्रज्ञा से अति प्राचीन काल से ही सिंचाई के लिए सोन जैसे बड़े नद से पइन का विकास किया है। आज से 4000 वर्ष पहले, जब मनुष्य ने यहाँ कृषि कार्य प्रारंभ किया था, तब वर्षा की कमी होने पर नदी जल का उपयोग वह सिंचाई के लिए करता था। नंद एवं मौर्य वंश के शासनकाल में भी तालाब, आहर और पइन से सिंचाई के उदाहरण मिलते हैं। बरसात में नदियों का जलस्तर काफी ऊँचा हो जाता है। नदी तट, जो कभी-कभी आस-पास के अन्य क्षेत्रों से ऊँचा होता है और उसके दोनों तरफ गहरी जमीन होती है। ऐसी संरचना सरिता निर्माण के क्रम में सहज बनती जाती है। इन निचले इलाकों में या कुछ कम गहरे इलाकों में आहर बनाकर सोन एवं पुनपुन की पइनों से बड़े-बड़े आहरों के भरने की व्यवस्था थी। ऐसे नालों एवं पुलियों के मौर्यकालीन अवशेष भरे पड़े हैं। नदी की ढाल के समानांतर चलने वाली पइनों की संख्या सबसे अधिक है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र संभवतः पहला लिखित ग्रंथ है जिसमें इसका विस्तृत विवरण मिलता है।
यहाँ भूमि की ढाल तीखी (प्रति किलोमीटर 1.5 मीटर) है जिस कारण नदी का पानी शीघ्र बहकर निकल जाता है। जिस भूभाग में सिंचाई करनी होती है, उससे ऊँचे स्थान से पइन निकाली जाती है। सामान्यतः पइन के निकलने की जगह से डेढ़-दो किलोमीटर नीचे से सिंचाई प्रारंभ होती है। नदियों के समानांतर चलने वाली पइन में नदी के जल-तल से अधिक ऊँचाई पर जल को चलते देखकर कौतूहल होता है। यह स्थिति पंचानपुर में देखी जा सकती है।
बड़ी पइन से सैंकड़ों गाँवों की और छोटी पइन से एक या कुछ गाँवों की सिंचाई होती है। बड़ी पइन में शाखाएँ होती हैं। जिस पइन में लगभग दस शाखाएँ होती हैं, उसे 'दसिअइन' कहते हैं। गया जिले में लोग इसे 'दसअइन' पइन कहते हैं। मोहनपुर की दसिअइन पइन, करपी का दसिअइन नाला, कुर्था का गंगहर नाला आदि इसके उदाहरण हैं।
पइनें गया और नवादा जिलों में अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। यहाँ पर हर जगह पइनें निकाली गई हैं। यहाँ की नदियाँ मोरहर, लिलाजन, मोहाने, फल्गू, ढाढर, मंगुरा, जकोरी, तिलैया, खूरी, धनार्जी, सकरी, नाटा, बघेल आदि छिछली हैं और वर्षा होने पर उफन पड़ती हैं। नदियों के उफनने के साथ पइन चालू हो जाती है। इन नदियों का लगभग पूरा पानी सिंचाई कार्य के लिए उपयुक्त होता है।
पइनें सिंचाई का कार्य केवल वर्षा काल (जुलाई-सितंबर) में करती हैं।
कुछ स्थानों पर वर्षा ऋतु के अंतिम चरण में उत्तरा और हथिया नक्षत्रों में पइन के मुहाने के नीचे कच्चा बाँध लगाकर पूरे जलप्रवाह को खेतों की ओर मोड़ दिया जाता है। मोहाने नदी से निकलने वाले मानपुर प्रखंड की मोराटाल पइन तथा पुनपुन नदी के नौरंगा और मोतेपुर बाँध से निकलने वाली पइन इसके उत्तम उदाहरण हैं। आज कच्चे बाँधों के स्थान पर नदियों में कुछेक जगहों में स्लुइस गेट, बैराज या वियर बना दिए गए हैं।
मगध में ऊँची, चौड़ी, पठारनुमा आकृति को ठाट कहते हैं। यह अनुर्वर भूमि होती है। इस पर होनेवाली वर्षा के जल को सीधे खेत में या आहर में भरने की बहुत अच्छी व्यवस्था रही है। वर्तमान मगध विश्व विद्यालय एवं उसके दक्षिण के इसी ठाट से कई आहर एवं पइनें निकाली गई थीं, जिनमें बने पक्के फाटकों के अवशेष अभी भी देखे जा सकते हैं।
इसके विपरीत दह होता है। दह संस्कृत के हृद शब्द का पर्यायवाची रूप में एवं झरने के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। पुरानी नदियों में सोन एवं पुनपुन ने बार-बार अपनी धाराएं बदली हैं। इनकी पुरानी धारा में भी बरसाती जल पर्याप्त मात्रा में यूं ही बहता रहता है। इसे दह कहते हैं। धान की खेती ऐसे इलाकों में खूब होती है और अब यह रबी से अधिक गर्मा सब्जी के लिए उपयोगी हो रहा है। दह क्षेत्र में अनेक स्थानीय तीर्थ हैं। देवकुंड उनमें से एक है।
सिंचाई विभाग के समानांतर लघु सिंचाई विभाग ने भी छोटे-छोटे वीयर और बराज बनाकर कई बरसाती नहरें बनाई हैं। ऐसेवीयर और बराज बटाने, मोरहर, निरंजना, सकरी, ढाढर आदि नदियों पर बने हुए हैं। चपरदह गाँव में यमुने पर बीयर बाँध है। बटाने, मोरहर, तिलैया आदि नदियों पर छोटे बराज हैं। इनसे बरसाती नहर एवं पइन निकाली गई हैं। नहर वाला निर्माण नया है किन्तु निमसर आदि स्थानों पर पहले जहाँ कच्चा बाँध लगता था, वहीं बैराज बनाया गया है।
बैराज के स्वयं सोने वाले फाटक इन बैराजों में दो प्रकार के फाटक लगे हैं। बड़े और चौड़े आकार के फाटक पुली एवं गियर से उठाये जाते हैं। छोटे आकार के फाटक पेंदी पर जल का दवाब रहने पर अवरोधक का काम करते हैं किंतु पइन एवं नदी की रक्षा के लिए पानी बढ़ने पर वे स्वयं सो जाते हैं। सुरक्षा की दृष्टि से इनका बहुत महत्त्व है। इन्हें पुनः खड़ा करना पड़ता है। आलसी किसान एवं लघु सिंचाई विभाग के कर्मचारी इन्हें बहुत कोसते हैं। इनकी बनावट अति सरल है। बड़े फाटकों की मरम्मत एवं देखभाल ठीक ढंग से न होने से इनमें अनेक खराब हो गए हैं और कुछ के सामने सिल्ट जमा हो गई है। सोने वाले छोटे फाटक कम खराब हुए हैं।
परंपरागत प्रबंधन की प्रथा एवं पंरपरागत कानून गोआमजलाशय निर्माण एवं उसकी सालाना मरम्मत के लिए आम आदमी का सम्मिलित प्रयास गोआम कहा जाता है। गोआम में श्रमदान एवं नगद या सामग्री सहयोग - सब सम्मिलित होते हैं। आज भी गोआम के प्रति विश्वास बना हुआ है किंतु अगुआई करने वाले बदल रहे हैं। जमींदारों की जगह सामाजिक कार्यकर्त्ता एवं स्थानीय रंगदार अगुआई करने लगे हैं। कुछ जगह नई बनी कमीटियाँ भी हैं। गोआम का मुख्य आधार आबपाशी रजिस्टर के वर्णन एवं स्मृति परंपरा में चली आ रही बातें होती हैं। इस रजिस्टर में निर्माण, देखरेख, बंटवारा आदि सभी जरूरी बातों पर अधिकार एवं कर्तब्य का स्पष्ट वर्णन रहता है।
गोआम एक प्रथा है। श्रमदान आधुनिक शब्द है। गोआम अपनों द्वारा अपने लिए है। श्रमदान में दान का अहंकार एवं झूठे परोपकार का पाखंड भी है। जब काम अपने लिए है तो केवल श्रम का ही दान क्यों और कैसे? गोआम में तन से श्रम, मन से संकल्प, योजना, सहभागिता के साथ अनुशासन एवं तन-मन से अर्जित धन का दान, तीनों सम्मिलित हैं। तन एवं मन से सहभागिता अनिवार्य है। धन सामर्थ्य एवं श्रद्धा पर निर्भर रहता है। गोआम मुख्य रूप से जल भंडारण हेतु बने आहर-पोखर-तालाब तथा उन्हें भरने एवं उनसे निकलने वाली छोटी-बड़ी पुरानी प्रवाह प्रणालियों अर्थात पइनों को दुरुस्त रखने के लिए प्रतिवर्ष नियमित रूप से किया जाने वाला कार्य है।
इसकी तिथियाँ या तो निश्चित रहती थीं या जमींदार आपसी परामर्श से तय करते थे। कुछ पइनें बड़ी एवं कई जमींदारों के इलाके से गुजरती थीं। वहाँ सबकी जिम्मेवारी की सीमा एवं स्वरूप, सब निश्चित थे और उसका उल्लेख आबपाशी दस्तावेजों तथा पइन के खतियान में होता है। खतियान में जलग्रहण क्षेत्र, प्रवाह पथ, पानी पर अधिकार, मात्रा एवं समय की दृष्टि से जरूरी सभी प्रकार की बातों का उल्लेख रहता है।
यह सब मिल-जुलकर सामुदायिक ढंग से होता था। इसका नेतृत्व कहीं जमींदार, तो कहीं जेठ रैयत करते थे। गांव के धनी या प्रमुख व्यक्ति को जेठ रैयत कहते थे। यह सब अंगरेजों के जमाने के पहले से चल रहा था, जिसे ब्रिटिश काल में कानून बनाकर और उसमें अफसरों की निर्णायक भूमिका तय कर उसे नया रूप दिया गया। कहीं-कहीं पक्कीकरण का काम भी किया गया। चूँकि यह सब विकेंद्रित रूप से चल रहा था और इन प्रणालियों के निर्माण, रखरखाव, मरम्मत, पानी के वितरण आदि का काम जनसहयोग पर आधारित था अतः मजदूरी, सामग्री और नगद या तीनों में से एक या अधिक आधार पर जिम्मेवारी तय थी। ऐसा न करने पर जुर्माना भी लगता था और किसी के आचरण से अगर किसी को हानि होती थी तो उसके लिए हरजाने का भी प्रावधान था।
ये सारी बातें अंगरेजी राज में विधिवत पुनः लिपिबद्ध की गईं, जिसकी व्यवस्था सम्राट शेरशाह एवं टोडरमल ने कर रखी थी। वैसे आहरों के कई दरवाजे तो गुप्तकालीन ईटों तक के मिले हैं।
इसका विस्तृत वर्णन बिहार प्राइवेट इरिगेशन ऐक्ट, 1932 एवं उसके आधार पर 1988 तक बनते-सुधरते कानून, जिला गजेटियर, फर्द आबपाशी रजिस्टर एवं खतियानों की पंजियों में भरा पड़ा है जो जिला मुख्यालय के रिकार्ड रूम में रखा रहता है। जमींदारों एवं जेठरैयतों के बीच आपसी मुकदमे एवं फैसलों से पुराने कानूनी रिपोर्टरों की जिल्दें भी भरी पड़ी हैं। इनमें पानी पर स्वामित्व संबंधी अनेक विवरण हैं।
इसके समानांतर सरकार द्वारा पूर्णतः नियमित, निर्मित एवं संचालित सिंचाई व्यवस्थाओं के लिए ब्रिटिश हुकुमत में संयुक्त प्रांतों की स्थिति में कानून बने। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी नहर, लिफ्ट नहर, जल नियंत्रण, ट्यूबवेल आधारित सिंचाई एवं सरकारी, गैर-सरकारी नलकूप और भूमिगत जल दोहन के लिए अनेक अधिनियम एवं उनके आधार पर नियमावलियाँ तैयार और लागू की गईं।
गोआम पहले जमींदार की अगुआई में होता था। सिंचाई व्यवस्था जमींदार की जिम्मेवारी थी। फसल की हिस्सेदारी के रूप में कर की जहाँ परंपरा थी, जिसे दानाबंदी कहते थे वहाँ कम फसल से कर प्रभावित होने का खतरा था। जमींदार गए। नई राज्य व्यवस्था में जिम्मेवारी-रहित स्वतंत्रता और स्वनिर्णय की स्वतंत्रता, दोनो मिली। आम आदमी की संपत्ति सरकार की मानी गई किंतु सरकारी कर्मचारी का वेतन फसल से जुड़ा नहीं रहा तो गोआम की पहल कौन करे?
इस स्थिति में कुछ गाँवों ने स्वनिर्णय की स्वतंत्रता का रास्ता पकड़कर और स्वायत्त समितियों बनाकर सामूहिक प्रयास के नमूने प्रस्तुत किये जो पहले से भी अच्छे हैं। केवल सरकार का मुहँ देखनेवाले कुछ गांव परावलंबी हो गये।पानी पर अलिखित परंपराओं का विस्तार बहुत अधिक है जिन्हें विभिन्न कालखंडों में मान्यता मिलती रही है और थोड़े-बहुत अंतर से अलिखित परंपराएं लिखित कानून का भी आधार बनती रही हैं।
दक्षिण बिहार जो प्राचीन काल में करुष, मगध, अंग आदि नामों से जाना जाता था. प्राचीन काल से ही विकसित क्षेत्र रहा है। अतः पानी संबंधी विवादों के समाधान एवं जल व्यवस्था को सरंक्षण देने के लिए राज्य, समाज एवं धर्म से संपोषित कानून तथा परंपराएँ यहां बनती सुधरती एवं स्थापित होती रहीं। कौटिल्य से पालवंशीय शासनकाल और उसके बाद शेरशाह के समय तक व्यवस्थित प्रावधान हुए। उसके बाद अंग्रेजों ने भी लगान वसूली को ध्यान में रखकर अनेक प्रकार के नए कानूनी प्रावधान किए। चूँकि बिहार जल जमाव एवं बाढ़ से भी ग्रस्त रहता था, अतः जल निकासी एवं तटबंधों की रक्षा, मरम्मत, नलकूपों के निर्माण, संचालन आदि के संबंध में भी कानून, नियमावलियां आदि बनाई गई। स्वतंत्र भारत में भी उसी तर्ज पर विधि-विधान की प्रक्रिया चल रही है।
गोहार आपातकालीन आमंत्रण पर जनसमुदाय का अचानक इकट्ठा होकर आग, पानी या जानवर या मनुष्य से उत्पन्न संकट को रोकने की सामाजिक प्रणाली का नाम है। गोहार के लिए समाज का कोई भी व्यक्ति आवाज उठा सकता है, जिसे संकट दिखाई पड़े। इसमें नेतृत्व या वर्चस्व का संकट नहीं होता और न ही कोई पूर्व योजना होती है।
दक्षिण बिहार की भौगोलिक सरंचना उत्तरी बिहार से भिन्न है। फिर भी, कुछ क्षेत्रों की सिंचाई व्यवस्था समान है, जैसे- गंडक नहर और सोन नहर क्षेत्र व कायदे कानून जो अँग्रेजी राज में बने।
आजादी के बाद सिंचाई के मामले में विदेशी एजेंसियों की सीधी दखल नहीं थी। 1993 के आसपास विश्व बैंक की अभिरुचि बढ़ने पर बिहार में नया कानून 1997 में अस्तित्व में आया। यह उदारीकरण का आरंभिक दौर था। बिहार ही नहीं पूरे भारतवर्ष में कानूनों को बदलने की मुहिम चलाई गई और निजी भागीदारी क अनिवार्य बनाया गया। आंध्र प्रदेश को आदर्श घोषित किया गया।
यह कानून 1997 में लागू तो हो गया जरूर, पर इसने जन सहभागिता आधारित पारंपरिक सिंचाई व्यवस्था को लगभग नजरअंदाज कर दिया। इसका प्रमाण 2003 में बनी नियमावली को देखने से मिल जाता है।
कुल मिलाकर नजारा यह है कि दक्षिण-बिहार के लगभग सभी जिलों में अभी भी अस्तित्व वाली एवं अनेक जिलों में सर्वप्रमुख सिंचाई प्रणाली के रूप में जनसहयोग आधारित आहर-पइन पद्धति के संचालन के लिए नियमावली ही नहीं बनाई गई। चाहिए यह था कि 1922 से 1988 तक बनी नियमावलियों, संशोधनों एवं अदालती फैसलों से प्राप्त डिक्री के आधार पर विस्तृत नियमावली बनाई जाती और सामान्य रैयत से लेकर सरकारी अधिकारियों तक की भूमिका तय कर दी जाती किंतु पता नहीं किन कारणों से ऐसा नहीं किया गया। 1997 के अधिनियम के अध्याय 7 में निजी सिंचाई अर्थात प्राइवेट इरिगेशन को कानूनी स्वीकृति दे दी गई इतना ही खैरियत है।
जइस अध्याय के प्रावधानों के साथ पूर्व के कानूनी निर्णयों को मान्य रखा कया जिन्हें जानना-ढूँढना पढ़े-लिखे किंतु कानूनी प्रक्रिया से अपरिचित आदमी के लिए भी संभव नहीं है। अधिनियम एवं नियमावली को पढ़ना, समझना, समझाना आसान था।
इस अधिनियम (1997) की मूल भावना है प्रबंधन में निजी भागीदारी को बढाना। नहरी क्षेत्रों में तो जल उपभोक्ता संघों (वाटर यूजर गोसिएशन) को मान्यता दे दी गई जहाँ पहले से निजी सहभागिता नहीं थी। थी। सिर्फ करहा या नाली (विलेज चैनल) पर सट्टेदार होते थे। उनकी जिम्मेदारी थी कि वे किसानों के आपसी सहयोग से सालाना सफाई, मरम्मत का काम कराएं। नए कानून में शाखा एवं वितरणियों जैसी हजारों हेक्टेयर कमांड क्षेत्र वाली संरचनाओं को जल उपभोक्ता संघों को देने का प्रावधान कर दिया गया है। इसके साथ ही साथ कंपनियों, फर्मों, एवं एजेंसी के नाम पर व्यक्ति विशेष तक को प्रबंधन सौंपे जाने का प्रावधान कर दिया गया है। बिहार सरकार के जल संसाधन विभागएवं वाल्मी की ओर से कार्यशालाएँ और प्रशिक्षण भी आयोजित किये गए हैं और सरकारी स्रोतों के अनुसार कुछ जगहों पर जल उपभोक्ता संघ गठित कराकर उन्हें काम भी सौंपे गए हैं।
इस मामले में आश्चर्यजनक रूप से दो मामले समझ के परे हैं-
क. जल उपभोक्ता संघ का चैरिटेबुल संगठन के रूप में पंजीकृत होने की अनिवार्यता ।
ख. सहकारी संगठन को प्रबंधन सौंपने योग्य न माना जाना।
वस्तुतः नहरी क्षेत्र में जल उपभोक्ता संघ पूर्णतः लाभार्थी समूह है। पूरा समूह मिलकर अपने लाभ का काम करता है न कि चैरिटी का। इसका मतलब होता है कि असली लाभार्थियों से भिन्न सदस्यों द्वारा कोई चेरिटेबुल संस्था बनाई जाय और वह जल उपभोक्ता संघ का काम करें या अगर असली किसानों का संगठन जल उपभोक्ता संघके रूप में पंजीकृत हो भी जाय तो सरकार जब चाहे जिस संघ को गैरकानूनी घोषित कराकर भंग कर दे। सहकारिता अधिनयम में संशोधन के बाद स्ववित्तपोषित सहकारी समिति के रूप में जल उपभोक्ता संघका निबंधन हो सकता था किंतु नीति-निर्माताओं ने इसे उचित नहीं माना।
दरअसल जल उपभोक्ता संघकी सदस्यता का आधार तय करना कठिन हैं। नए कानून के अनुसार जो व्यक्ति नहर के पानी से लाभान्वित होगा वह गाँव के स्तर की समिति का सदस्य हो सकता है। पहले नहर विभाग के साथ केवल भूमिधारी किसानों का समझौता होता था। बटाईदारों के मामले में यह कानून मौन है। साथ ही, पानी एवं नहर विभाग की संपत्ति तथा उत्पादों से लाभान्वित होने वाले भी सदस्य बन सकेंगे, ऐसी परोक्ष सहमति है क्योंकि ये सभी भी लाभान्वित होने वाले लोग हैं। चुनाव चूँकि मतदान पर आधारित होता है अतः सदस्यता, मतदान आदि पर स्पष्ट प्रावधान जरूरी था अन्यथा सही लाभार्थी किसान एवं अन्य में अंतर कर पाना कठिन हो जाएगा। किसानों में भी बड़े एवं छोटे किसानों के आधार पर सदस्यता हो, परिवार के आधार पर हो या वयस्क मताधिकार के आधार पर हो, यह भी निश्चय करना पड़ेगा। ये सभी मामले अत्यंत संवेदनशील हैं। इन सबों का आधार तय होना अभी भी बाकी हैं। इनके अभाव में तब तक सरकारी पदाधिकारियों की मर्जी ही कानून है।
लोक सहभागिता से सिंचाई के लिए पहले जो उपाय किए जाते थे, वे निर्माण, मरम्मत, सालाना निर्माण, व्यवस्था, प्रबंध या बँटवारे के ही क्यों न हो, उन पर जमींदारी लागू रहने तक पूर्वलिखित नियमवाली, रजिस्टर तथा आबपाशी कानूनों के आधार पर र्निणय होते थे। जमींदारी उन्मूलन के बाद आरंभिक प्रयास-पहल करने की जिम्मेवारी अनिश्चित हो गई कि कौन पहल करे और किसकी बात क्यों मानी जाय?
पइन-आहर की संरचनाएँ भौगालिक आधार पर होती हैं और उनकी बनावट के हिसाब से तो प्रशासनिक इकाइयाँ बनी नहीं हैं, चाहे वे पंचायती राज व्यवस्था की हों या शुद्ध सरकारी।
नहर, सड़क, टेलिफोन, आदि की व्यवस्था के लिए समनांतर प्रशासनिक इकाइयों एवं क्षेत्र विभाजन की तरह आवश्यकता तथा सुविधा के अनुसार क्षेत्र तथा व्यवस्था संचालन की इकाइया बनाई ही जाती हैं परंतु गैर-नहरी क्षेत्र के लिए यह समस्या जमींदारी के समय से बनी हुई है। नदियाँ भले ही कई रजवाड़ों के क्षेत्र से गुजरती हों, सिंचाई वाले जलाशय एवं पइन तो एक राजा के अधीन रहते थे। इसी कारण अंग्रेजी राज में फुटकर जमींदारों के अस्तित्व में आने के बाद पानी के लिए झगडा आम बात हो गई थी।आज भी समस्या बरकरार है। खैरियत इतनी ही है कि जिलाधिकारी की भूमिका निर्णायक होने से कुछ बड़ी पइनों को छोड़कर शेष के बारे में निर्णय करना एक जिलाधिकारी के लिए तो आसान हो ही जाएगा। उसके लिए क्षेत्राधिकार की समस्या नहीं होगी। जहाँ लोक सहभागिता पहले से ही हो, वहाँ के लिए व्यवस्थित प्रावधान बहुत जरूरी है, जो परंपरा पर आधारित भी हो और न्यायपूर्ण हो।