पर्यावरण

तकनीकी पर्यावरण का नया चेहरा

पिछले दो दशकों में हमारे देश में तकनीक आधारित डिजिटल सेवाओं का बड़ा विस्तार हुआ है। उसका सबसे बड़ा प्रभाव बैंकिंग और डिजिटल पेमेंट के क्षेत्र में देखने को मिलता है। सरकार द्वारा ऑनलाइन पेमेंट को बढ़ावा देने के कारण ऑनलाइन लेन-देन में आशातीत बढ़ोतरी हुई है। माना जाता है कि अब लगभग चालीस प्रतिशत लेन-देन ऑनलाइन माध्यमों से ही हो रहा है। देश में पंचायत स्तर तक नागरिक सुविधा केंद्र यानी कॉमन सर्विस सेंटर का जाल बिछाया गया है, जो कई तरह की सेवाएं प्रदान कर रहे है। किताबें हों, कपड़े हों या घरेलू उपयोग का कोई और सामान, घर बैठे मंगवाया जा सकता है। और अब तो राशन और सब्जियां आदि भी सीधे दुकान से घर पहुंचने की व्यवस्था की जा रही है। शिक्षा, आवागमन, यातायात, चिकित्सा, शोध और विकास जैसे सभी क्षेत्रों में सूचना तकनीक ने अपना हस्तक्षेप बढ़ा लिया है। यह प्रगति की दिशा में एक अच्छा सूचक है। भारत सूचना सेवाओं के लिए एक निर्यातक देश माना जाता है और हमें विश्व में सॉफ्ट पॉवर की तरह देखा जाता है।

Author : श्री संतोष चौबे, कुलाधिपति रविन्द्र नाथ टेगोर वि.वि., भोपाल

ऊपर से देखने पर लग सकता है कि हमारे देश में सूचना क्रांति बदस्तूर जारी है पर वर्तमान त्रासदी ने डिजिटल डिवाइड का एक नया चेहरा सामने ला दिया है। लॉकडाउन का पहला झटका झेलने के बाद अधिकतर शहरी मध्यवर्ग और उच्च वर्ग अपने घरों में बंद हो गया। उससे अपेक्षा भी यह की जा रही थी। उसके पास अन्य लोगों से बेहतर डिजिटल सुविधाएं थी। जिनसे यह वर्क फ्रॉम होम जैसी लग्जरी का लाभ उठा सकता था। उसके पास शायद घर में कम्प्यूटर और लैपटॉप थे, ब्राड बैंड कनेक्टिविटी थी और कम्प्यूटर का प्रारंभिक ज्ञान भी था। वह अपने काम को घर से करने की स्थिति में था। समय गुजारने के लिए उसके पास मनोरंजन के कई डिजिटल साधन थे। वह स्ट्रीमिंग कर सकता था, नेटफ्लिक्स, प्राइम और हॉटस्टार जैसे चैनलों पर फिल्म देख सकता था, संगीत सुन सकता था तथा दुनियाभर की गतिविधियों में ऑनलाइन कम्युनिटी बनाते हुए शामिल हो सकता था। उन्होंने तत्काल अपने ऑनलाइन समूह बना लिए और वैश्विक विमर्श में वेबिनार आदि के माध्यम से संलग्न हो गये।

अब इसकी तुलना सड़कों पर निकले उन लाखों मजदूरों से कीजिए जिन्हें अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा था और जो जीवन यापन के संसाधन ढूंढने के लिए वापस अपने गांवों की ओर पलायन कर रहे थे। उनके पास शायद एक मोबाइल फोन था जिसका प्रयोग वे शायद अपने घर पर या संबंधियों से बात करने के लिए कर रहे होंगे, वह भी तब जब सौभाग्य से उस फोन में कुछ चार्ज उपलब्ध हो। आप कह सकते हैं कि डिजिटल माध्यमों से सरकार उन तक दो हजार रूपए पहुंचाने की बात कर तो रही है और कई प्रदेशों में उन्हें वितरित भी किया जा चुका है। यह एक अच्छी बात है, लेकिन इन रुपयों को प्राप्त करने के लिए उनका किसी न किसी डाटाबेस में होना आवश्यक है, फिर उनका एक अकाउंट भी होना चाहिए और अकाउंट तक उसकी पहुंच भी बनी रहनी चाहिए। फिलहाल घर जैसी सुविधाओं की बात तो हम छोड़ ही देते है और मनोरंजन के उन साधनों की भी जो डिजिटल टेक्नोलॉजी के माध्यम से मध्यमवर्ग या उच्चवर्ग को प्राप्त है। उसे कभी दो हजार रूपए मिल ही गए तो उनका उपयोग वह परिवार के भोजन के लिए करेगा मनोरंजन के लिए नहीं। वह मोबाइल फोन का उपयोग भी शायद इसलिए कर पाता है कि वहां भाषा या इंटरफेस बाधक नहीं बनता। (और अपनी आवाज का उपयोग वह लंबे समय से करता रहा है)

एक दूसरा उदाहरण मैं स्कूली शिक्षा के क्षेत्र से देना चाहता हूं। फिलहाल स्कूल बंद है और बच्चे अपने -अपने घरों में हैं। ऐसी स्थिति में प्रत्येक स्कूल अपनी शाला में पढ़ने वाले बच्चों से संपर्क रखना चाहता है और ऑनलाइन माध्यमों से कुछ न कुछ कंटेंट उन तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा है। टेलीविजन चैनलों पर कुछ बड़ी कंपनियों के फिल्मी सितारों से जगमग विज्ञापन देखने मिलते हैं, जिसमें यह बताया जाता है कि अगर आप उस बड़ी कंपनी का एप डाउनलोड कर लें तो आपके बच्चे की सारी समस्याएं सुलझ जाएंगी। फिलहाल मैं टेक्नोलॉजी के माध्यम से स्कूली शिक्षा के औचित्य की बहस में नहीं जाना चाहता और न ही इस बात का जिक्र करना चाहता हूं। कुछ दिनों तक तो उन्हें इसमें आनंद आया क्योंकि यह एक नई तरह की चीज थी। लेकिन कुछ ही दिनों में स्पष्ट हो गया कि अधिकतर ग्रामीण बच्चों के पास एंड्रॉयड फोन नहीं है। अगर उनके परिवार में माता-पिता के पास एक फोन है भी तो वे उसका उपयोग बच्चों को करने नहीं देते और एक घंटे के लिए फोन उन्हें मिल भी जाए तो डाटा की स्पीड इतनी कम है कि पढ़ाई-लिखाई या शिक्षण ठीक से हो नहीं पाता फिर एक आध हफ्ते में डाटा समाप्त हो जाता है और रिचार्ज कराने में पैसा लगता है। इसके विरूद्ध शहरी क्षेत्रों के बच्चों में एंड्राइड फोन की उपलब्धता थोड़ी ज्यादा है, यहां बच्चों के पास लैपटॉप या टेबलेट भी हो सकता है और वे ऑनलाइन माध्यम से थोड़ा ज्यादा हासिल कर सकते है। लेकिन शहरी गरीब बच्चों की हालत अपने ग्रामीण दोस्तों से कोई बहुत अलग नहीं। बड़े पैमाने पर ग्रामीण और छोटे कस्बों के बच्चे, आदिवासी और समुद्री तथा पहाड़ी इलाकों के बच्चे शिक्षा में हो रही इस डिजिटल क्रांति के बहुत निकट नहीं पहुंच पाते।

डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम ने एक बार कहा था कि हमारे देश में डिजिटल डिवाइड कई रूपों में देखने को मिलता है। वह अमीर और गरीब के बीच टेक्नोलॉजी के उपयोग का डिवाइड तो है ही, लेकिन वह शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच तकनीकी खाई के रूप में, स्त्रियों और पुरुषों में टेक्नोलॉजी के उपयोग में असमानता के अर्थों में जेंडर डिवाइड के रूप में और अंग्रेजी तथा भारतीय भाषाओं के बीच लँग्वेज डिवाइड के रूप में भी नजर आता है। वर्तमान राष्ट्रीय आपदा ने इस डिवाइड के कुछ नए रूप हमें दिखाए हैं और शायद यह भी बताया है कि डिजिटल खाई को भरने के तमाम प्रयासों के बावजूद यह डिवाइड जो अलग-अलग रूपों में हमें हमारे सामने आता है। वह मूलतः अमीर और गरीब के बीच का डिवाइड ही है। इस स्थिति में टेक्नोलॉजी संपन्न लोगों के साथ खड़ी नजर आती है।

हमें यह ध्यान रखना होगा कि टैक्नोलॉजी साधन तो हो सकती है पर अपने आप में साध्य नहीं। अनाज को वितरित करने के लिए पहले उसे उगाना पड़ेगा। उत्पादों को ऑनलाईन उपलब्ध कराने के लिए उत्पादन करना पड़ेगा तथा डिजिटल पेमेंट को सुलभ बनाने के साथ-साथ धन भी उपलब्ध कराना होगा। यह शायद रोजगार और क्रियाशीलता के माध्यम से ही संभव हो सकेगा। डिजिटल क्रांति विकास का आभास तो जरूर देती है पर वास्तविक विकास जमीन से जुड़कर ही होगा।

इस डिवाइड का एक साहित्यिक पक्ष भी लें आजकल आभासी दुनिया में काफी साहित्यिक हलचल नजर आ रही है। सामाजिक मेल मुलाकातों पर रोक है, तो बहुत सारे वर्चुअल प्लेटफॉर्म पर मुलाकातें हो रही हैं। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कविता संगोष्ठियों, कहानी गोष्ठियों और परिचर्चाओं का दौर है। किताबें ऑनलाइन प्रकाशित की जा रही है तो पुस्तक समीक्षाएं भी अपनी जगह उपस्थित हैं। अचानक नये नेटवर्क्स उभरते दिख रहे हैं जो रचनात्मक की अभिव्यक्ति की आकांक्षा के कारण और आसपास फैली नेगेटिविटी के बीच, जीवन जीने की आकांक्षा से परिचालित हैं।

किसी ने नहीं सोचा था कि साहित्यिक परिदृश्य इतनी तेजी से बदलेगा गौर से देखें तो ज्ञात होगा कि साहित्यिक आकाश में इस समय सक्रिय लेखकों की एक श्रेणी तो वह है जिसे हम लेखक-पत्रकार कह सकते हैं। पत्रकारिता के अपने मूल व्यवसायिक दायित्व के कारण उन्हें तकनीक के निकट जाना ही पड़ा और अब वे अपने इस ज्ञान का उपयोग सोशल मीडिया पर साहित्यिक सक्रियता बनाये रखने के लिए भी कर रहे हैं। दूसरी श्रेणी युवा पीढ़ी के रचनाकारों की है जो सूचना तकनीक के आगमन के बाद पैदा हुए और उसके साथ-साथ बड़े हुये। यदि उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि और उनकी शिक्षा उन्हें तकनीकी सुविधा प्रदान कर सकती थी तो वे तकनीक की नैसर्गिक समझ के साथ बड़े हुए। तीसरी श्रेणी उन प्रवासी भारतीय लेखकों की हैं जिन्होंने विदेश में रहते भारत से संपर्क बनाये रखने के लिए वहां की सामाजिक आर्थिक परिस्थिति के अनुरूप अपने व्यवसाय में अग्रणी बने रहने के लिए तकनीक को अपना लिया था और अब वे अपनी साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए भी उसका अच्छा उपयोग कर रहे हैं। चौथी श्रेणी उन युवा लेखकों की है जो उठते-बैठते, जागते-सोते तकनीक के साथ ही रहते हैं। उन्हें उसके उपयोग में कहीं कोई दिक्कत नहीं। पर इस साहित्यिक परिदृश्य से वे बड़े नाम लगभग गायब हैं, जो सामान्य समय में पत्रिकाओं, संगोष्ठियों और साहित्यिक मंचों की शान हुआ करते थे। कहने की जरूरत नहीं कि इसका एक बड़ा कारण तकनीक से उनकी अनभिज्ञता है। मेरी पीढ़ी के कई रचनाकार और मुझसे ऊपर की पीढ़ी के लगभग सभी रचनाकार कम्प्यूटर से एक तरह की वितृष्णा रखते थे। एक समय था जब ये माना जाता था कि कम्प्यूटर तकनीक के आम जीवन में प्रवेश से बेरोजगारी बढ़ेगी और औद्योगिक तथा सेवा क्षेत्रों, जैसे बैंकिंग में प्रारंभ में उनका कड़ा विरोध हुआ। अस्सी और नब्बे के दशक में कई बार सिर्फ राजनौतिक पक्षधरता के कारण लेखकों द्वारा स्वयं तकनीक को बुरा मान लिया गया और उसके दूरगामी परिणामों पर, विशेष कर लेखन एवं प्रकाशन पर पड़ने वाले उसके प्रभावों पर लेखन प्रक्रिया और आस्वाद की दृष्टि से कोई विचार नहीं किया गया। लेखक धीरे-धीरे तकनीक से दूर होता गया।

तकनीक ने भी लेखक को साथ लेने की कोई कोशिश नहीं की विशेषकर हिंदी के लेखक को पहले तो पूरी बहस भाषा के मानकीकरण पर केंद्रित रही और उस पर कोई आम सहमति हिंदी विश्व में नहीं बनी। फिर इनपुट-आउटपुट के माध्यमों पर बहस चली जिसे स्थिर होते-होते एक दशक से भी अधिक लग गया। फाँट और उस पर आधारित कंटेंट के प्रवाह को भी फांट्स की विविधता बाधित करती थी। कम से कम थोड़ा कठिन तो बनाती ही था । यूनीकोड के आने के बाद तथा इनस्क्रिप्ट तथा अन्य की बोर्ड के उपलब्ध होने से यह दिक्कत काफी कम हुई है। ग्राफिकल इंटरफेस ने भी कई कामों को सरल बनाया है और अब तो स्पीच से टेक्स्ट जैसे सरल संसाधन उपलब्ध हैं जिन्होंने टाइपिंग की जरूरत को भी समाप्त कर दिया हैं अनुवाद के भी कई टूल्स हैं। हालांकि वे अभी औपचारिक अनुवाद ही कर पाते हैं पर शुद्ध और भावात्मक अनुवाद के लिए कृत्रिम बुद्धिमता के प्रयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है और जल्दी ही ये समस्या सुलझा ली जायेगी। तकनीक की दृष्टि से हिंदी में काम करना अब ज्यादा सरल और सुलभ हो गया है।

एक साहित्यकार की दृष्टि से उपरोक्त पैराग्राफ बहुत उबाऊ लग सकता है, पर एक उपयोगकर्ता की दृष्टि से नहीं। प्रसिद्ध सॉफ्टवेयर कंपनी माइक्रोसॉफ्ट के जनक बिल गेट्स ने एक दिलचस्प उदाहरण इस संदर्भ में दिया था। उन्होंने बताया कि उनके पिता की कम्प्यूटरों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे अकाउंट्स के क्षेत्र से आते थे पर एक बार बिल ने उन्हें कम्प्यूटर पर चल सकने वाले अकाउंटिंग सॉफ्टवेयर और अकाउंटिंग प्रक्रिया के बारे में बताया। वह अकाउंटिंग की कई जटिल तथा उबाऊ प्रक्रियाओं को सरलता से अंजाम दे सकता था। उनके पिता ने उस पर काम करके देखा और पाया कि उनका काफी समय और श्रम कम्प्यूटर के प्रयोग से बच रहा था जिसे वे दूसरे आनंददायक कामों में लगा सकते थे। फिर वे कम्प्यूटर के प्रशंसक और उपयोगकर्ता बन गए।

लेखक को भी कंप्यूटर को अपने काम की दृष्टि से देखना चाहिए। हालांकि हर लेखक की अपनी रचना प्रक्रिया होती है, पर कुछ काम वह जरूर करता है। जैसे लिखना यानी लेखन, संपादन और किताब के रूप में संग्रहण तथा प्रकाशक-यानी पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन तथा साहित्यिक मंचों पर अभिव्यक्ति। यह दोनों ही काम कम्प्यूटर पर अब आसानी से किये जा सकते हैं। उनमें से अधिकतर तो अब मोबाइल फोन पर भी संभव है। स्पीच टू टेक्स्ट के टूल्स लिखने को सरल बनाते हैं और स्वप्रकाशन के लिये कई माध्यम उपलब्ध हैं। लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं ने ऑनलाइन प्रकाशन शुरू किया है। जिनमें रचनाएँ प्रकाशित हो सकती हैं। ऑनलाइन मीटिंग टूल्स भी अब चलन में हैं जिन पर जाकर एक मंच जैसा आनंद लिया जा सकता है। लेखक एक तीसरा काम और भी करता है। वह है पढ़ना- हालांकि कई लेखक ये काम अब नहीं भी करते हैं तो उसके लिये भी डिजिटल पुस्तकालय, किंडल जैसे माध्यम तथा मैग्ज़टर जैसे पत्रिकाओं के समूह उपलब्ध हैं और ये संसाधन बढ़ते ही जायेंगे।
तो शुरूआत कहाँ से करें? इस प्रश्न का कोई निर्णयात्मक या निर्देशात्मक उत्तर नहीं हो सकता। रास्ते अलग-अलग हो सकते हैं। मगर ठिकाना एक ही होना चाहिये। एक संभावित रास्ता ये है सबसे पहले तो एक लैपटॉप या एक एंड्रायड फोन खरीदें अगर वह पहले से ही आपके पास नहीं है, और उस पर अपने काम के लायक सॉफ्टवेयर या एप्लीकेशन डाल लें। अब ये मत कहियेगा कि आपके पास इसके लिये संसाधन नहीं है. शहरी, मध्यमवर्गीय लेखक को इतना तो मैं जानता ही हूँ और कह सकता हूँ कि वह ये कर सकता है। कम्प्यूटर की कुछ मूल अवधारणाओं का ज्ञान प्राप्त कर लें जिसमें घर के बच्चे आपकी मदद कर सकते हैं। ज्यादा जरूरी है कि आप अपना पहला टास्क, जैसे कोई एक कविता या कोई आलेख कम्प्यूटर पर लिखें या बोल कर लिखें और उसे कहीं भेजें। कुछ ही दिनों में आपका आत्मविश्वास बढ़ जायेगा और आप आभासी विश्व में नये संसाधनों की तलाश करने लगेंगे। इंटरनेट के माध्यम से अपनी रूचि के विषयों पर जायें. आप पायेंगे कि संदर्भ ग्रंथों और ज्ञान का भंडार आपकी उंगलियों के पोरों पर है। फिर उसका उपयोग अपनी रचनात्मकता बढ़ाने में करें, धीरे-धीरे ये प्रक्रिया आनंददायक बनती जायेगी।

अक्सर मित्र पूछते हैं कि आभासी विश्व में लिखा क्या जा रहा है? वहाँ रचनात्मकता का स्तर क्या है ? मेरा मानना है कि यह सवाल पूछने के लिये भी आपको वहाँ जाना चाहिये। आप बाहर से इसका उत्तर नहीं दे सकते। कला और ज्ञान की दुनिया अगर डिजिटल होने की दिशा में आगे बढ़ रही है तो लेखक के लिये यह सवाल अब जीवन मरण का सवाल बन जाता है या तो वह इसमें प्रवेश करे या खारिज होने का खतरा उठाये। मेरा मानना है कि उसे इस आभासी दुनिया में प्रवेश करने की तैयारी करनी चाहिये ।

फिलहाल जब मैं डिजिटल समय में साहित्य और कलाओं की स्थिति पर विचार कर रहा हूँ तो बरबस ही चालीस के दशक में वॉल्टर बेंजामिन द्वारा लिखित लंबे आलेख 'आर्ट इन द इरा ऑफ मैकेनिकल रिप्रॉडक्शन', (यांत्रिक पुर्नउत्पादन के समय में कलाएं) की याद आ गई है प्रिंटिंग प्रेस तब तक व्यापक रूप से प्रचलन में आ गई थी जिसने पेंटिंग्स का बड़े पैमाने पर मुद्रण संभव बना दिया था। जिस कला का आस्वाद पहले संग्रहालयों में या चित्रकार के निवास पर जाकर घंटों उसे निहारते हुये किया जाता था, अब वह प्रिंटेड स्वरूप में आस्वादक के घर तक पहुंच गई थी और शायद उसके ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ा रही थी। वह उसे कभी भी देख सकता था, उसके आस्वाद का समय और तरीक अब निश्चित नहीं रहा था। बेंजामिन का मानना था कि इससे कलात्मक आस्वाद की जनतांत्रिकता तो बढ़ी थी लेकिन उसकी गुणवत्ता का ह्रास हुआ था।

आगे चलकर यही संगीत के साथ हुआ, ऑडियो टेक्नॉलॉजी के आने के बाद संगीत के आस्वाद का तरीका बदल गया, भारतीय शास्त्रीय संगीत के संदर्भ में कहा जाये तो लंबी लंबी बैठकों का प्रचनल धीरे-धीरे समाप्त हो गया, रिकॉर्ड्स जब तक डिस्क पर थे तब तक भी वे उच्च वर्ग की ही पहुंच में आते थे, पर फिर उनके कैसेट्स पर और वहां से सी. डी. पर और फिर वहां से पेन ड्राइव पर और उससे भी आगे बढ़कर अब क्लाउड पर आने के बाद संगीत की उपलब्धता सर्वसुलभ हो गई है, आप घर पर कमरे में अंधेरा करने के बाद आराम से पैर फैलाकर अपनी पसंद का संगीत सुन सकते हैं, कलाकार को सामने रहने की कोई जरूरत नहीं, समाज के लगभग सभी तबकों की अभिरूचियों के लिये संगीत आपको डिजिटल स्वरूप में मिल जायेगा, आपको बस चुनना भर हैं, पर फिर भी क्या आप संगीत का वैसा ही मजा ले पाते हैं जैसा रातभर चलने वाली किसी बैठक से आपको मिलता था?

विडियो टेक्नॉलॉजी के अत्याधिक विस्तार और सर्वसुलभता के कारण लिखे हुये शब्द की प्रभावशीलता और आस्वाद पर भी प्रभाव पड़ा है, पहले के तरह की चित्रात्मकता और दृश्यमयता अब कविताओं में देखने नहीं मिलती और अगर मिलती भी है, तो वैसा प्रभाव नहीं डालती कहानियों और उपन्यासों की गति में परिवर्तन हुआ है, वहां घटनाएँ अब तेजी से घटित होती हैं और फोटोग्राफिक चमक के साथ आपके सामने से गुजरती हैं। कैमरा किसी स्थान या घटना पर पैन होता है और पूरी डिटेलिंग के साथ आपको उस स्थान या घटना का विवरण देता है। कई छोटी-छोटी चीजें आपको बड़ी या विस्तारित नजर आती हैं और कई बड़ी चीजें या घटनाऐं अचानक तुच्छ लगने लगती हैं।

डिजिटल टेक्नॉलॉजी ने ऑडियो विडियो और टेक्स्ट को अभिसरित कराया, उसने प्रोसेसिंग और संप्रेषण की गतियां बदलीं, हमारे मानसिक ढांचे पर धीरे-धीरे प्रभाव डाला. उसे टुकड़ो-टुकड़ो में सोचने और आस्वाद लेने के लिये तैयार किया और इस तरह आस्वाद के धरातल को ही पूरी तरह बदल दिया, कलात्मक स्तर पर क्या इस प्रक्रिया के कुछ प्रभाव पहचाने जा सकते हैं और वे मनुष्य के आंतरिक विश्व को प्रकाशित करने और उसका विस्तार करने में सक्षम हैं? आइये देखते हैं।

डिजिटल टेक्नॉलॉजी, जिसमें ऑडियो और विडियो टेक्नोलॉजी शामिल है, का कलाओं पर पहला प्रभाव ये पड़ा है कि उनमें एक सतही फोटोग्राफिक चमक पैदा हुई है लेकिन उनमें से गहराई का लोप होता जा रहा है. दूसरे शब्दों में गति और चमक तो है पर गहराई, जो गहरे मानवीय गुणों जैसे करुणा, दया या सहानुभूति से प्राप्त होती थी, गायब है, हम दृश्य देखते हैं पर दिल में कोई हरकत नहीं होती. एक सपाट गियाबान की तरह रचना निकल जाती है जिसमें कहीं भी करूणा या किसी उच्चतर मानवीय गुण का सोता बहता नहीं दिखाई पड़ता इसका दूसरा प्रभाव यह पड़ा है कि रचना या नरेटिव जिसमें पेंटिंग तथा संगीत के नरेटिव भी शामिल है. की गति बढ़ गयी है। कलायें जो एक शीतल छांव की तरह हुआ करती थी जहां ठहर कर थोड़ा विश्राम किया जा सकता था. अब एक अनवरत गति में बदल गयी हैं जो या तो मनुष्य के मानस से मेल नहीं खाती या उसे अवांछित रूप से बदले दे रही हैं, गति का ही एक और पक्ष है तापक्रम क्योंकि सामान्य और सहज तापक्रम पर रहते हुये वह गतिशीलता प्राप्त नहीं की जा सकती, तो रचनाऐं एक ऊंचे लेकिन कृत्रिम तापक्रम पर जाकर लिखी जा रही हैं, जहां मनुष्य अपने आपको भागते हुये भाप के कमरे में पाता है. वहाँ उसे आश्रय तो क्या मिलेगा?

तो क्या ये सब मनुष्य के लिये उचित है? हम सब ये बात अनुभव से और अवलोकन से भी जानते हैं कि प्रत्येक जीवित वस्तु (अस्तित्व) त्रिआयामी होती है। लंबाई, चौड़ाई के अलावा उसमें एक गहराई भी होती है, जो उसके आंतरिक विश्व का निर्धारण करती है। जबकि जड़ पदार्थ अधिकार एक आयामी या द्विआयामी होता है। कितना भी प्रयास करें, बिंदु बिंदु ही रहेगा या रेखा एक आयामी रेखा ही रहेगी। सतह का निर्माण रेखाओं के माध्यम से हो सकता है पर उसमें कोई गहराई, कोई भीतरी पक्ष, कोई आंतरिक तल नहीं होगा। वह समतल ही रहेंगी। यदि हमें जड़ पदार्थ, या बाहरी दिखने वाले विश्व के विवरण से आगे बढ़कर जीवित वस्तुओं के बारे में लिखना है या कलात्मक निर्माण करना है तो हमें तीसरे आयाम का प्रवेश कराना ही होगा, जो उसमें गहराई लाने से संभव होगा। मानवीय संदर्भ में ये गहराई मानवीय गुणों से आती है जिनका जिक्र मैंने ऊपर किया है।

डिजिटल समय में साहित्य और कलाओं की बहस को सिर्फ टेक्नॉलॉजी के संदर्भों से आगे बढ़कर, प्रभावशीलता और आस्वाद के धरातल तथा मानवीय गुणों के विकास तक आना होगा, जो साहित्य तथा कलाओं का मूल काम था। उपरोक्त आधारों पर इस समय की कला आलोचना भी विकसित की जा सकती है।
 

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