मेरा, 74 दिनों का उपवास, जो मैंने भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री नरसिम्हा राव द्वारा मुझको दिये हुए वचन से मुकरने के विरोध में रखा था, श्री एच. डी. देवेगौड़ा की ओर से टिहरी डैम की सुरक्षिता, पर्यावरण सम्बन्धी और डैम के कारण उजड़े लोगों के स्थाई आवास के सम्बन्ध में पुनर्समीक्षा करवाने के लिए विशेषज्ञों का एक संगठन नियुक्त करने की स्वीकृति के परिणामस्वरूप 25 जून 1997 को समाप्त हुआ। प्रधानमन्त्री जी ने इस स्वीकृति की घोषणा महात्मा गांधी जी की समाधि, राजघाट में की। हमारा उद्देश्य यह था कि टिहरी बांध का निर्माण एक आम विचारधारा से न लिया जाए बल्कि इसे समूचे हिमालय क्षेत्र की सुरक्षा के प्रति उठाए दूसरे विभिन्न मुद्दों में शामिल करके इस पर विचार किया जाए। श्री देवेगौड़ा जी ने अपने कन्नड़ भाषण में, जिसका अनुवाद भी सुभाष राव ने किया, कहा, "हिमालय केवल मिट्टी और चट्टानों के ढेर का नाम नहीं।
यह भारतीयों के लिए उनके सभ्याचार, संस्कृति और पर्यावरण की ओर से विशेष महत्त्व रखता है।** उन्होंने जन साधारण में हिमालय की सुरक्षा और इसको सजीव रखने की जागृति पैदा करने के सम्बन्ध में किये गये मेरे प्रयत्नों के लिए मेरा धन्यवाद किया। मैंने उनको अपनी ओर से चलाए जा रहे हिमालय बचाओ आन्दोलन का ज्ञापन भी दिया तथा विनती की कि इस गम्भीर मामले की राष्ट्रीय स्तर पर सर्व-सम्मति से जांच कराई जाए और हिमालय से सम्बन्धित एक नीति अपनाई जाए जिसके अन्तगर्त हिमालय की रक्षा तथा उसकी भूमि, जल और वनों के साधनों का प्रयोग उच्च प्राथमिकता के आधार पर क्षेत्रीय विकास और उसकी बेहतरी के लिए हो।
इसकी सुरक्षा के सम्बन्ध में विशेषज्ञों की एक समिति शीघ्र ही नियुक्त की गई और यह आशा की जाती रही कि इस समिति द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट 2-3 महीनों के अन्दर उपलब्ध हो जाएगी। चूंकि मानसून शुरू हो गई और वर्षा के कारण निर्माण-कार्य रोक लिया जाता है, इसलिए मैंने डैम के निर्माण-कार्य को रोकने के लिए जोर भी न डाला। सरकार को पर्यावरण और डैम के कारण उजड़े हुए लोगों के पुनर्वास की समीक्षा करवाने के सम्बन्ध में एक समिति बनांने के लिए लगभग तीन महीने का समय लगा। मैंने इस कमेटी में THDC के चेयरमैन और यू. पी. सरकार के अधिकारियों की शामिलता का विरोध भी किया था और यह मांग भी की थी कि शर्तों में परिवर्तन किया जाए। परन्तु मेरी यह माँग स्वीकार नहीं की गई। विशेषज्ञों की इस समिति द्वारा यह रिपोर्ट तीन महीने के अन्दर दी जानी थी परन्तु एक वर्ष से भी ज्यादा समय बीत जाने पर यह रिपोर्ट तैयार होकर नहीं आई।
भीमकाय बाँध का निर्माण-कार्य युद्ध-स्तर पर चल रहा है और रिपोर्ट सार्वजनिक करने में जान-बूझ कर विलम्ब किया जा रहा है। ऐसी परिस्थितियों में इन समितियों का अस्तित्व ही क्या रह जाता है। बाँध का निर्माण कार्य प्रारम्भ करने से पहले यह यकीनी बना लेना अति आवश्यक था कि बाँध बनाए जाने से कोई खतरा या तबाही होने का डर तो नहीं। प्रारम्भ में बाँध का डिजाइन 0.15g के आधार पर बनाया गया था। उसके बाद g के अंश को 0.25 तक बढ़ा दिया गया। भूकम्प वैज्ञानिकों की राय के अनुसार यह 1g का होना चाहिए जबकि प्रोफेसर आर. एन. आइएंगर के अनुसार यह 0.70 का होना चाहिए। 1g तो एक तरफ, बाँध का 0.7g पर भी परीक्षण नहीं किया गया। बाँध के डिजाइन को ठीक साबित करने के लिए इसके परीक्षण का काम किसी विश्वासनीय प्रयोगशाला से करवाना चाहिए; न कि रुड़की विश्वविद्यालय के भूकम्प इंजिनियरिंग विभाग से जो टिहरी बाँध प्रोजैक्ट के सम्बन्ध में सरकार का वेतनभोगी विशेषज्ञ परामर्शदाता है।
(2 ) गंगा का पानी हरिद्वार तक तो स्वच्छ है परन्तु इसमें आगे यह गन्दगी और दिशा परिवर्तन के कारण एक गन्दा नाला बन कर रह गया है। इसलिए इसके निर्मल जल की अविरल धारा को बिना रुकावट के बहने देना चाहिए। इस अविरल धारा को प्रतिबन्धक कर झील में परिवर्तन करने के बाद इसकी गुणवत्ता क्या होगी इस सम्बन्ध में कोई विश्वासनीय रिपोर्ट नहीं है। हरिद्वार तक गंगा का पानी निर्मलता और पवित्रता के लिए प्रसिद्ध है। यदि इसकी निर्मलता और पवित्रता खतरे में पड़ती है तो यह देशवासियों की धार्मिक भावनाओं पर एक बहुत बड़ा प्रहार होगा। NEERI जो ऐसे कार्यों के निरीक्षण के लिए इस देश की एक विश्वासनीय वैज्ञानिक संस्था है, को इस कार्य के लिए दूर रखा गया जबकि इस संस्था से ऐसा करवाना अति आवश्यक है।
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इस भयंकर खतरे वाले कार्य को आगे बढ़ाने से पहले इन ऊपर लिखित विषयों का समाधान हो जाना चाहिए। इस परियोजना के सम्बन्ध में एक स्व-निर्भर आर्थिक मूल्यांकन होना अति आवश्यक है। जितना भी धन इस परियोजना पर खर्च किया जा चुका है तथा कार्य किया जा चुका है, कहीं अधिक लाभप्रद होता यदि यह धन तथा कार्य किसी ऐसी योजना पर खर्च होता जो नदी की अविरल धारा को निर्विघ्न बहने के लिए बनी होती जिसमें न कोई जोखिम होता और न कोई विनाश का खतरा; न विस्थापन की समस्या का डर ही होता और न ही मानवीय त्रासदी की गम्भीर समस्या की चिन्ता ।
9 जून, 1997 को एक प्रतिनिधि मन्डल प्रधानमन्त्री श्री आई. के. गुजराल को मिला जिसमें मेरे अतिरिक्त श्री ऐन. डी. जैयाल और श्री विद्या सागर नौटियाल भी शामिल थे, इस स्थिति के सम्बन्ध में उन्हें जानकारी दी। उन्होंने हमारी समस्याओं को बड़े ही ध्यान से सुना और यह मामला ऊर्जा मन्त्री डॉ. अलाघ जी को सौंप दिया। प्रतिनिधि मंडल ने सारे जरूरी दस्तावेज ऊर्जा मन्त्री को सौंप दिए तथा बाँध निर्माण से उत्पन्न होने वाले खतरों के बारे में विचार-विमर्श किया। हमने मन्त्री जी से बाँध निर्माण कार्य को तब तक रोक रखने के लिए विनती की जब तक कि पर्यावरण तथा बाँध की सुरक्षा सम्बन्धी समस्याओं का कोई समाधान न निकल जाये।