आज पर्यावरण प्रदूषण एक वैश्विक चुनौती बन चुका है, जो मानव के साथ-साथ पशु-पक्षी और पौधों तक के स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है। हालांकि, औद्योगीकरण और शहरीकरण ने हमारे जीवन को सुगम बनाया है, पर इनके दुष्परिणाम वायु, जल, मृदा और ध्वनि प्रदूषण के रूप में सामने आए हैं। माइक्रोप्लास्टिक और पीएम 2.5 जैसे प्रदूषक श्वसन और हृदय रोगों से लेकर प्रजनन क्षमता और मानसिक स्वास्थ्य तक को नुकसान पहुंचा रहे हैं। हम और हमारा संपूर्ण पर्यावरण असंतुलित विकास के दंश को झेल रहे हैं।
कल-कारखानों और परिवहन में जीवाश्म ईंधन (फॉसिल फ्यूल) के अत्यधिक उपयोग ने हमारी हवा को जानलेवा बना दिया है। पबमेड सेंट्रल (PMC) में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, वायु प्रदूषण से अस्थमा और क्रॉनिक ऑब्स्ट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (COPD) जैसी श्वसन संबंधी बीमारियां लगातार बढ़ रही हैं। इसके अतिरिक्त, फेफड़ों के कैंसर, दिल के दौरे और ब्रेन स्ट्रोक जैसी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं में भी वायु प्रदूषण की महत्वपूर्ण भूमिका पाई गई है। यह पार्किंसन और अल्ज़ाइमर जैसी न्यूरोलॉजिकल समस्याओं का भी कारण बनता है।
प्रतिष्ठित साइंस जर्नल 'नेचर' में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि हवा में मौजूद जहरीले कणों के कारण महिलाओं में अनियमित मासिक चक्र, बांझपन, गर्भपात और स्तन कैंसर जैसी समस्याएँ बढ़ी हैं। पीएम 2.5, नाइट्रोजन ऑक्साइड्स और सल्फर डाइऑक्साइड जैसे प्रदूषक हार्मोन असंतुलन पैदा करते हैं, जो डिंब परिपक्वता और भ्रूण विकास को प्रभावित करते हैं।
इनके कारण गर्भवती महिलाओं में गर्भपात का जोखिम 20% तक बढ़ सकता है। बिस्फिनॉल ए, थैलेट्स और कीटनाशक जैसे रसायन अंतःस्रावी तंत्र को बाधित करते हैं। वहीं, पुरुषों में भी वायु प्रदूषण के कारण शुक्राणुओं की संख्या और गुणवत्ता में कमी जैसी प्रजनन संबंधी समस्याएँ और टेस्टीकुलर कैंसर का जोखिम बढ़ता है।
वायु प्रदूषण के कारण हवा में पीएम 2.5 और पीएम 10 नामक अतिसूक्ष्म कणों (पार्टीकुलेट मैटर) का स्तर बहुत अधिक बढ़ जाता है। 2.5 और 10 माइक्रॉन से भी कम व्यास के ये कण बच्चों, गर्भवती महिलाओं और वृद्ध लोगों सहित सभी के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। पहले से रोगग्रस्त व्यक्तियों पर इसका और भी गहरा असर पड़ता है।
पीएम 2.5 के सूक्ष्म कण फेफड़ों और रक्त में पहुंचकर खांसी, सांस फूलने और फेफड़ों की क्षमता में कमी जैसे लक्षण पैदा करते हैं। इसके दीर्घकालिक जोखिमों में अस्थमा, हृदय रोग, स्ट्रोक, श्वसन संक्रमण से लेकर फेफड़ों के कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी का खतरा शामिल है। द लांसेट प्लैनेटरी हेल्थ (The Lancet Planetary Health) में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, 2017 में भारत में वायु प्रदूषण से प्रतिवर्ष होने वाली असामयिक मौतों का आंकड़ा 6 लाख से अधिक था, जिनमें से 51% मौतें 70 वर्ष से कम आयु के लोगों की थीं।
हमारी नदियां, झीलें और भूजल जैसे महत्वपूर्ण जल स्रोत पिछले दशकों गंभीर रूप से प्रदूषित हुए हैं। बड़े शहरों से निकलने वाले दूषित जल के उचित निपटान के बजाय इसे सीधे नदियों में डाला जा रहा है। इसका परिणाम आज गंगा, यमुना जैसी नदियों की दयनीय स्थिति के रूप में दिख रहा है। इन नदियों की सफाई पर केंद्र और राज्य सरकारों को करोड़ों-अरबों रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं। यदि हमारे जल स्रोत इस हद तक प्रदूषित न हुए होते, तो इस पैसे का उपयोग देश की तरक्की के अन्य महत्वपूर्ण कार्यों में किया जा सकता था।
भारत की एक बड़ी आबादी में नदियों में स्नान करने की परंपरा रही है, परंतु आज अनेक नदियों का जल स्नान के लिए भी उपयुक्त नहीं रह गया है। फिर भी आस्था और धार्मिक परंपराओं के निर्वहन के लिए लोग प्रदूषित जल में स्नान कर रहे हैं, जिससे उनमें गंभीर त्वचा रोगों का संक्रमण एक आम समस्या हो गई है। इसके अतिरिक्त, प्रदूषित जल से होने वाले हैजा और टाइफाइड जैसे रोग न केवल रोगी के शरीर को प्रभावित करते हैं, बल्कि इसका प्रतिकूल असर परिवार के सदस्यों की आय और देश की उत्पादकता पर भी पड़ता है।
द इकोनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित भारतीय मौसम विज्ञान विभाग और भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के एक दीर्घकालिक अध्ययन से पता चला है कि भारत के कई हिस्सों में अब वर्षा का जल तेजी से अम्लीय यानी एसिडिक हो रहा है। आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम, उत्तर प्रदेश के प्रयागराज और असम के मोदनबाड़ी जैसे शहरों में यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक है।
वर्ष 1987 से 2021 के बीच, लगभग 34 वर्षों के दौरान, देश के प्रमुख 10 स्थानों पर किए गए अध्ययनों से चौंकाने वाले परिणाम मिले हैं। आईएमडी पुणे (IMD Pune) द्वारा प्रकाशित इस रिपोर्ट के मुताबिक, श्रीनगर, जोधपुर, प्रयागराज, मोहनवाड़ी, पुणे, नागपुर, विशाखापट्टनम, कोडाईकनाल, मिनिकॉय और पोर्ट ब्लेयर में वर्षा के पानी में रसायनों की मात्रा और पीएच स्तर की निगरानी की गई। इस संयुक्त अध्ययन के अनुसार, प्रयागराज में प्रत्येक दशक में पीएच के स्तर में 0.74 यूनिट की गिरावट दर्ज की गई है, जबकि पुणे में प्रत्येक दशक में यह गिरावट 0.15 यूनिट देखी गई है।
बरसात के पानी का सामान्य पीएच स्तर लगभग 5.6 होता है। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मौजूदगी में वर्षा के पानी का थोड़ा अम्लीय होना स्वाभाविक है, परंतु जब यह स्तर 5.65 से नीचे जाता है, तो इसे अम्लीय वर्षा की श्रेणी में रखा जाता है। इस अध्ययन से पता चलता है कि पिछले तीन दशकों में कई शहरों में वर्षा के पीएच में निरंतर गिरावट देखी जा रही है, जो पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए एक चिंताजनक स्थिति है।
विशाखापट्टनम में वर्षा के पानी में अम्लीयता के पीछे तेल रिफाइनरी, उर्वरक संयंत्र और शिपिंग यार्ड से निकलने वाले प्रदूषकों की भूमिका होने की आशंका जताई गई है। यह अध्ययन यह भी बताता है कि वाहनों, उद्योगों और कृषि संबंधी कार्यों से निकलने वाले नाइट्रेट और सल्फर डाइऑक्साइड जैसे प्रदूषक अम्लीय वर्षा के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं।
साथ ही, प्राकृतिक न्यूट्रलाइजर्स की मात्रा में गिरावट और अमोनियम की वृद्धि वर्षा जल के प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ रही है। यद्यपि वर्षा जल का वर्तमान पीएच स्तर अभी अत्यधिक खतरनाक नहीं हुआ है। पर यही स्थिति बनी रही, तो यह अम्लीय वर्षा ऐतिहासिक भवनों, कृषि भूमि, जल स्रोतों और संपूर्ण खाद्य शृंखला (फूड चेन) को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकती है।
खाद्य पदार्थों में प्रदूषकों की उपस्थिति: वर्तमान दौर में, हमारे द्वारा खाए जाने वाले अधिकांश खाद्य पदार्थों में सूक्ष्म मात्रा में रासायनिक अथवा अन्य तत्व पाए जाते हैं। इसका मुख्य कारण कृषि उपज बढ़ाने के लिए रसायनों और कीटनाशकों का अंधाधुंध उपयोग है। इसके अतिरिक्त, खाद्य पदार्थों को सुरक्षित रखने में भी कुछ रसायनों का उपयोग किया जाता है।
सब्जियों और अन्य खाद्य पदार्थों को प्लास्टिक निर्मित थैलियों या डिब्बों में लाने का चलन भी सेहत के लिए खतरनाक साबित हो रहा है। प्लास्टिक में मौजूद हानिकारक रसायन धीरे-धीरे उन खाद्य वस्तुओं में अवशोषित हो जाते हैं, जिससे स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं पैदा होती हैं, यहाँ तक कि प्रजनन स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है। पेय पदार्थों में भी हानिकारक रसायनों की मौजूदगी स्वास्थ्य और प्रजनन क्षमता को प्रभावित कर रही है।
मृदा प्रदूषण का खाद्यान्न पर प्रभाव: बढ़ते औद्योगीकरण और शहरीकरण के चलते कृषि योग्य भूमि का रकबा दिन-ब-दिन घटता जा रहा है। ऐसे में, सीमित होती कृषि भूमि से बढ़ती आबादी की खाद्य जरूरतें पूरी करने के लिए खाद्यान्नों के अधिकतम उत्पादन की होड़ लग गई है। मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए सरकार और वैज्ञानिकों द्वारा निर्धारित मानकों से कहीं अधिक रासायनिक उर्वरकों, इंसेक्टीसाइड्स और पेस्टीसाइड्स के अंधाधुंध प्रयोग से कृषि भूमि की मिट्टी भी प्रदूषित हो गई है।
प्रदूषित मृदा में उगाई गई फसलों से प्राप्त खाद्यान्न खाने से शरीर में जहरीले पदार्थों का प्रवेश हो रहा है, जिससे तरह-तरह की स्वास्थ्य समस्याओं सहित कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियां लोगों को हो रही हैं। हालांकि, इन खतरों को देखते हुए भारत सरकार द्वारा परंपरागत कार्बनिक खेती को बढ़ावा देने के लिए जागरूकता उत्पन्न करने के प्रयास किए जा रहे हैं।
प्लास्टिक, तेल अथवा गैस से निष्कर्षित मोनोमर्स की पॉलीमराइज़ेशन प्रक्रिया से सिंथेटिक पॉलीमर प्राप्त होते हैं। लैंसेट प्लैनेटरी हेल्थ (Lancet Planetary Health) के अक्टूबर 2017 अंक में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, वर्ष 2015 में विश्व में 6,300 मिलियन टन प्लास्टिक कचरे का उत्पादन हुआ, जिसमें से केवल 9% कचरे की रीसाइक्लिंग की गई, 12% का दहन किया गया, जबकि शेष 79% प्लास्टिक कचरे का निपटान लैंडफिल (खुले में) कर दिया गया।
प्लास्टिक यूरोप (Plastics Europe) द्वारा प्रकाशित “Plastics – the Facts 2022” रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2021 में विश्व में प्लास्टिक का उत्पादन 390 मिलियन टन से अधिक तक पहुंच गया था और अनुमान है कि वर्ष 2050 तक यह 33 बिलियन टन तक पहुंच जाएगा।
माइक्रोप्लास्टिक व नैनोप्लास्टिक के दुष्प्रभाव: प्लास्टिक के अत्यंत सूक्ष्म कणों में खंडित होने से माइक्रोप्लास्टिक बनते हैं। आज माउंट एवरेस्ट की चोटी से लेकर समुद्र की गहरी तलहटी तक 5 मिलीमीटर (1 इंच का चौथा हिस्सा) से लेकर एक माइक्रोमीटर (एक मीटर का एक लाखवां हिस्सा) के आकार के प्लास्टिक कणों की मौजूदगी देखने को मिल रही है।
मानव स्वास्थ्य और पारिस्थितिकी तंत्र (ईकोसिस्टम) पर इसके प्रभावों पर स्पष्ट जानकारी का अभी भी अभाव है। हालांकि, पूर्व अध्ययनों से पता चला है कि 1 लीटर बोतल बंद पानी में लगभग 10,000 से अधिक प्लास्टिक के सूक्ष्म कण मौजूद हो सकते हैं, जिनकी पहचान माइक्रोस्कोप के बिना संभव नहीं है।
माइक्रो से भी छोटे नैनोप्लास्टिक के कण होते हैं, जो आकार में 100 नैनोमीटर के होते हैं। ये सांस, पेयजल, सीफूड, नमक और शहद जैसे खाद्य-पदार्थों के माध्यम से मानव शरीर में प्रवेश करते हैं। ये ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस, सूजन, विषाक्तता, प्रतिरक्षा तंत्र की कमजोरी, कैंसर, तंत्रिका रोग और प्रजनन से जुड़ी समस्याएं पैदा कर सकते हैं।
सांस के ज़रिए नैनोप्लास्टिक फेफड़ों में जमा होकर श्वसन रोगों का जोखिम बढ़ाते हैं, खासकर कारखाना मजदूरों में। प्लास्टिक निर्माण में प्रयुक्त बिस्फिनॉल ए और थैलेट्स जैसे रसायन अंतःस्रावी तंत्र को बाधित करते हैं। माइक्रो और नैनोप्लास्टिक पर अवशोषित प्रदूषक इनकी विषाक्तता को और बढ़ाते हैं, जिससे प्रजनन विषाक्तता और कैंसर का खतरा बढ़ता है।
अनावश्यक और अनुपयोगी शोर को ध्वनि प्रदूषण कहा जाता है, जो प्राकृतिक आपदाओं (जैसे बिजली कड़कना या तूफान) और मानवीय गतिविधियों (जैसे वाहनों, कारखानों, विमानों, लाउडस्पीकरों और तेज संगीत) से उत्पन्न हो सकता है। यह प्रदूषण विशेष रूप से बच्चों, बुजुर्गों और अस्पताल के मरीजों में सुनने की समस्या पैदा कर सकता है।
यह न केवल हमारे स्वास्थ्य, आराम और कार्यक्षमता को प्रभावित करता है, बल्कि अत्यधिक शोर के कारण रक्त वाहिकाएं सिकुड़ सकती हैं, एड्रेनल हार्मोन का स्राव बढ़ सकता है और तंत्रिकाओं को क्षति पहुँच सकती है। अचानक तेज़ धमाके या गर्जना से मस्तिष्क में विकृतियाँ भी आ सकती हैं, जिससे शारीरिक और मानसिक दोनों तरह की समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने 45 डेसिबल तक की ध्वनि को सुरक्षित माना है, जबकि 50 से 55 डेसिबल की ध्वनि नींद में खलल डाल सकती है। 150 से 160 डेसिबल की ध्वनि तो जानलेवा हो सकती है। बड़े शहरों में ध्वनि का स्तर अक्सर 90 डेसिबल से अधिक हो जाता है, जो खतरनाक है।
विशेषज्ञों के अनुसार, 150 डेसिबल की ध्वनि एक ही बार में व्यक्ति को बहरा बना सकती है, और 185 डेसिबल की ध्वनि से मृत्यु की संभावना भी बढ़ जाती है। स्पष्ट है कि ध्वनि प्रदूषण एक गंभीर समस्या है जिसके दीर्घकालिक और गंभीर स्वास्थ्य परिणाम हो सकते हैं।
प्रदूषण के कारण उत्पन्न हो रही स्वास्थ्य समस्याओं पर नियंत्रण के लिए पर्यावरण का संरक्षण अनिवार्य है। स्वच्छ वायु की उपलब्धता सुनिश्चित होने से श्वसन समस्याओं को कम करने में मदद मिलती है। इसी तरह, स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति से जलजनित रोगों से बचा जा सकता है। मृदा संरक्षण से मिट्टी की उर्वरता सुनिश्चित होती है, जिससे फसलों की गुणवत्ता और पैदावार भी बढ़ती है। पर्यावरण संरक्षण से जैव विविधता (बायोडायवर्सिटी) को बढ़ावा मिलने से पारिस्थितिकी तंत्र (इकोलॉजिकल सिस्टम) सुदृढ़ होता है।
बढ़ता शहरीकरण और जंगलों की अंधाधुंध कटाई पर्यावरण को असंतुलित कर रही है। वृक्षारोपण, जैविक खेती और ऊर्जा संचयन जैसे उपायों को अपनाकर प्रदूषण को कम किया जा सकता है। प्लास्टिक उपयोग में कमी और बायोडिग्रेडेबल विकल्पों को अपनाना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण स्वास्थ्य समस्याएं पैदा करता है, इसलिए इसके स्रोत पर नियंत्रण, कुशल रीसाइक्लिंग और कड़े कानूनी प्रावधान आवश्यक हैं। माइक्रोप्लास्टिक के प्रभावों पर और अधिक अध्ययन की भी ज़रूरत है। पर्यावरण संरक्षण के लिए शिक्षा और जन-जागरूकता के साथ ही इसमें लोगों की सक्रिय सहभागिता बेहद जरूरी है।