शहरी 'कंक्रीट के जंगल' सुकून की ठंडी बयार जैसे होते हैं अर्बन ग्रीन स्‍पेस। गर्मी कम करने के साथ ही सेहत के लिए भी होते हैं फायदेमंद।  wikimedia
पर्यावरण

‘एमिनिटी’ नहीं, ‘नेसेसिटी’ हैं अर्बन ग्रीन स्पेस, शारीरिक-मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य में लाते हैं सुधार

‘द लैंसेट प्लैनेटरी हेल्थ’ में प्रकाशित रिसर्च के मुताबिक पार्क, बगीचे या ग्रीन बेल्‍ट जैसे ग्रीन स्‍पेस के आसपास रहने वाले लोगों में कम होता है असमय मृत्यु का जोखिम।

Author : कौस्‍तुभ उपाध्‍याय

साइंस जर्नल द लैंसेट प्लैनेटरी हेल्थ में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक शहरों में मौजूद पार्क, जॉगिंग ट्रैक, ग्रीन बेल्‍ट, वॉकिंग ट्रेल्स, खेल के मैदान और वाटरफ़्रंट जैसे ग्रीन स्पेस के प्राकृतिक वातावरण में सप्ताह में सिर्फ़ दो घंटे बिताना भी मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य में उल्लेखनीय सुधार लाता है। इस स्‍टडी ने यह साबित किया है कि अर्बन ग्रीन स्पेस अब शहरी जीवन के लिए एक सुविधा (एमिनिटी) नहीं, बल्कि एक ज़रूरत (नेसेसिटी) बन गए हैं। 

हालांकि, भारत सहित दुनिया भर के देशों में शहरीकरण के साथ अकसर हरियाली की कमी की समस्‍या देखने को मिलती है। हरियाली के अभाव में शहर अक्सर ‘कंक्रीट का जंगल' बनकर रह जाते हैं। यह स्थिति शहरी नियोजन और पर्यावरण के लिए तो हानिकारक है ही, इस अध्ययन के मुताबिक शहरवासियों के शारीरिक और मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य के लिए भी यह नुकसानदायक है।

हरियाली और सेहत के बीच गहरा रिश्ता

अध्ययन में पाया गया कि पार्क, बगीचे  या ग्रीन बेल्‍ट के पास रहने वाले शहरी लोगों में असमय मृत्यु का जोखिम कम होता है। इसका लाभ महिलाओं, पुरुषों, अमीरों, गरीबों, और विभिन्न आयु-वर्ग के लोगों में समान रूप से देखा गया। यूनाइटेड किंगडम (यूके) में किए गए इस अध्ययन के मुताबिक जिन लोगों की दिनचर्या में पार्क या प्राकृतिक स्थल शामिल थे, उनमें अवसाद, तनाव और अनिद्रा की समस्या कम देखी गई। उनके भीतर संतोष और खुशी के भाव अपेक्षाकृत अधिक प्रबल थे।

शहरी हरित स्थानों की उपयोगिता, स्वास्थ्य पर उनके प्रभाव, और इनके समावेशी विकास की चुनौतियों पर केंद्रित इस स्‍टडी में बताया गया कि शहरी हरित स्थान अब सिर्फ पिकनिक या वीकेंड की तफ़रीह की जगह नहीं रह गए हैं, बल्कि मानसिक, शारीरिक और सामाजिक स्वास्थ्य का आधार बनते जा रहे हैं। 

रिपोर्ट के मुताबिक ग्रीन स्‍पेस के नज़दीक रहना केवल जीवन की लंबाई (जीवनकाल) ही नहीं, बल्कि जीवन की गुणवत्ता में भी सुधार लाता है।

अध्ययन यह भी इंगित करता है कि जो लोग नियमित रूप से प्रकृति के बीच समय बिताते हैं, फिर वह चाहे केवल टहलना हो या केवल बेंच पर बैठे रहना या सिर्फ पेड़ों को निहारना, वे बेहतर मानसिक स्वास्थ्य, बेहतर नींद, और अधिक खुशी का अनुभव करते हैं। हरियाली के करीब रहना उन लोगों के लिए भी लाभकारी होता है जो बाहर समय बिताने के इच्छुक नहीं होते। प्रकृति की उपस्थिति मात्र भी सकारात्मक संज्ञानात्मक असर डालती है।

सप्ताह में कम से कम दो घंटे प्राकृतिक ग्रीन स्पेस में बिताने वाले लोगों की सेहत और मनोदशा उल्लेखनीय रूप से बेहतर पाई गई, जबकि इससे कम समय बिताने वालों में ऐसा प्रभाव नहीं दिखा।
दौड-भाग भरी जिंदगी के बीच पार्क की हरियाली में बिताए कुछ सुकून भरे पल लोगों को नई ऊर्जा से भर देते हैं।

महामारी के दौर में पार्कों की भूमिका

अमेरिका की नेशनल लाइब्रेरी ऑफ़ मेडिसिन का एक अध्‍ययन बताता है कि कोविड-19 महामारी के दिनों में लॉकडाउन के दौरान पार्क और खुले ग्रीन स्पेस लोगों के लिए सुरक्षित ‘ओपन एयर’ राहत स्थल बन गए थे। इस अध्‍ययन के तहत किए गए सर्वे ने पुष्टि की कि जिन शहरवासियों के आस-पास अधिक पार्क थे, उनमें अवसाद, चिंता, और अकेलेपन की शिकायतें कम थीं। 

थीम आधारित साक्षात्कारों से यह स्पष्ट हुआ कि पार्क में बिताया गया समय मानसिक, सामाजिक और शारीरिक कल्याण (well being) को बढ़ावा देता है। इसी अध्‍ययन में गूगल कम्युनिटी मोबिलिटी एंड ऑक्सफ़ोर्ड ट्रैकर के ज़रिये वैश्विक स्तर पर किए गए विश्लेषण ने दिखाया कि मार्च  2020 में सामाजिक प्रतिबंधों के बावजूद पार्कों में लोगों की उपस्थिति में वृद्धि हुई, जिसने लोगों में मानसिक स्वास्थ्य, शारीरिक गतिविधि और सामुदायिक जुड़ाव को पोषित किया।

सर्वे में इस बात के स्पष्ट संकेत मिले कि लॉकडाउन में पार्क केवल ‘विकल्प’ नहीं बल्कि मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक स्थिरता के लिए ‘आवश्यक संसाधन’ बनकर उभरे। कोविड-19 के समय जब ज़्यादातर लोग महीनों तक घरों में कैद थे, तब पार्कों ने लोगों को प्राकृतिक वातावरण, हल्की गतिविधि, और सुरक्षित सामाजिक मेलजोल का अवसर उपलब्ध कराकर जीवन की कठिनाइयों से निपटने में मदद की। यह अनुभव काफी लोगों के लिए आंखें खोलने वाला था। जो लोग पहले पार्कों को गैरज़रूरी समझते थे, उन्होंने अब उन्हें ज़रूरी समझना शुरू कर दिया। 

हरी-भरी जगहों का मस्तिष्क पर प्रभाव

विज्ञान बताता है कि प्रकृति का असर केवल भावनाओं पर नहीं, बल्कि मस्तिष्क की संरचना और उसकी कार्यप्रणाली पर भी पड़ता है। ध्यान पुनर्स्थापन सिद्धांत (Attention restoration theory : ART), जिसे रेचल और स्टीफ़न कैप्लन ने विकसित किया था, बताता है कि शहरी जीवन की भागदौड़, ट्रैफिक, शोर और डिजिटल ओवरलोड और मोबाइल, कंप्‍यूटर, टीवी की स्क्रीन से लगातार चिपके रहने जैसी चीजें हमारे निर्दिष्ट ध्यान (directed attention) को थका देती हैं।

यह थकान हमारे मूड को बिगाड़ती है, एकाग्रता को घटाती है और रचनात्मकता को बाधित करती हैं। इसके विपरीत, प्रकृति से जुड़ाव इन प्रभावों को उलटने में मदद करता है। प्राकृतिक वातावरण में जब हम आरामदायक समय बिताते हैं, तो हमारा मस्तिष्क "नर्म आकर्षण" वाली चीज़ों, जैसे पेड़ों की हलचल और पानी की आवाज़ की ओर सहज रूप से खिंच जाता है। इससे मस्तिष्क का नियंत्रित ध्यान आराम पाता है और उसकी कार्यक्षमता फिर से स्फूर्त हो जाती है। 

साइंस जर्नल नेचर के एक हालिया अध्ययन में इलेक्ट्रोएन्सेफलोग्राफ़ी (EEG) का उपयोग करते हुए यह पाया गया कि 40‑मिनट की प्रकृति यात्रा से कार्यकारी नियंत्रण (लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मस्तिष्क द्वारा विचारों, व्यवहार और भावनाओं को नियंत्रित करने की प्रक्रिया) में उल्लेखनीय सुधार हुआ। जबकि, ऐसा सुधार सर्वे में शामिल शहरी मार्ग पर पैदल चलने वाले लोगों में नहीं पाया गया। 

व्यवहार के स्तर पर दोनों समूहों ने ध्यान (concentration) में सुधार दिखाया, लेकिन मस्तिष्क को गहरे स्तर पर थकान से राहत और उसकी कार्य प्रणाली में सुधार केवल प्रकृति के साथ समय बिताने वाले समूह में ही देखने को मिला। 

गर्मी और "अर्बन हीट आइलैंड इफ़ेक्ट" से बचाती है हरियाली 

तेज़ी से गर्म होते शहरी वातावरण में हरित स्थानों की भूमिका और भी अहम हो जाती है। शहरों में इमारतों, सड़कों और कंक्रीट के पक्के निर्माणों की अधिकता के कारण अर्बन हीट आइलैंड इफ़ेक्ट देखने को मिलता है। इसमें बाहरी ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरों का तापमान कई डिग्री अधिक हो जाता है। इससे हीट स्ट्रोक, सांस संबंधी बीमारियाँ और अन्य स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ जाती हैं। 

कंक्रीट के ढांचों के चलते तापमान में यह अंतर रात में भी बना रहता है। ऐसे में, शहरी इलाकों में पेड़-पौधों वाली ग्रीन बेल्‍ट और पार्कों जैसे ग्रीन स्‍पेस तापमान को संतुलित करने, हवा को साफ करने और धूल-धुएं को सोखने में मदद करते हैं। 

शोध और विश्लेषण साबित करते हैं कि पार्क, बगीचे और हरियाली भरी सड़कों जैसे शहरी ग्रीन स्पेस तापमान को औसतन 1°C–2°C तक घटा कर अर्बन हीट आइलैंड इफ़ेक्ट को दूर करने में मददगार साबित होते हैं। पेड़ छाया देने के साथ ही वाष्पोत्सर्जन के माध्यम से वातावरण को ज़्यादा गर्म होने से रोकने में मदद करते हैं। 

एक अध्‍ययन में शहरी इलाकों में बड़े पार्कों (10 हेक्टेयर से अधिक) के आसपास की जगहों में 1–6°C तक सतही तापमान में गिरावट होने की बात सामने आई है। एक और अध्ययन के मुताबिक बेंगलुरु में पेड़-पौधों के कारण आसपास की हवा के तापमान में उल्लेखनीय कमी पाई गई, जो सांस, स्वास्थ्य के अलावा बिजली की खपत पर सकारात्मक प्रभाव डालती है।

मानकों के आधार पर नगर नियोजन हो, तो कंक्रीट के ढांचों के बीच भी हरियाली पैदा की जा सकती है। हैदराबाद के जुबिली हिल्‍स इलाके की एक तस्‍वीर।

क्‍या हैं शहरी ग्रीन स्‍पेस के मानक, क्‍या है स्थिति 

चिंताजनक बात यह है कि ज़्यादातर भारतीय शहरों में ग्रीन स्‍पेस की उपलब्धता वैश्विक मानकों से काफी पीछे है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार किसी भी शहर में प्रति व्यक्ति 9 वर्ग मीटर शहरी हरित क्षेत्र होना चाहिए। शहरी विकास मंत्रालय (MoHUA) के शहरी और क्षेत्रीय विकास योजना निर्माण और कार्यान्वयन दिशानिर्देश यानी URDPFI Guidelines के मुताबिक प्रति व्यक्ति कम से कम 10–12 वर्ग मीटर शहरी हरित क्षेत्र होना चाहिए। 

इसके बावजूद, भारतीय शहरों का औसत महज़ 3 वर्ग मीटर प्रति व्यक्ति के आसपास है। कुछ महानगरों में तो यह अनुपात 1 वर्ग मीटर से भी कम है। साइंस जर्नल MDPI पर प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक देश के कुछ प्रमुख महानगरों में अर्बन ग्रीन स्‍पेस की स्थिति इस प्रकार पाई गई-  

दिल्ली - 10.4 m² प्रति व्यक्ति

कोलकाता - 6.6 m² प्रति व्यक्ति

बेंगलुरु - 3.3 m² प्रति व्यक्ति 

हैदराबाद - 0.93 m² प्रति व्यक्ति

अहमदाबाद - 1.52 m² प्रति व्यक्ति 

जयपुर6.67 m² प्रति व्यक्ति

मैसूर15.25 m² प्रति व्यक्ति

नागपुर17.49 m² प्रति व्यक्ति

चंडीगढ़38 m² प्रति व्यक्ति 

इन आंकड़ों से स्‍पष्‍ट है कि तेज़ी से बढ़ती आबादी और बेतरतीब शहरीकरण के कारण बड़े शहरों में पार्क और खुले स्थानों की उपलब्‍धता ज़रूरत से बहुत कम है। 

सबको नहीं मिल रहा हरियाली का लाभ

देश में शहरों के अनियोजित और अव्‍यवस्थित विस्‍तार के चलते आज शहरी इलाकों में लाखों लोग ऐसी जगहों पर रह रहे हैं, जहां हरियाली का घनत्व न के बराबर है। विशेषकर, शहरी झुग्‍गी बस्तियों में बसे निम्न-आय वर्ग के लोग ऐसे इलाकों में जीवन बिता रहे हैं जहां न तो पर्याप्त संख्‍या में पार्क हैं और न ही पेड़-पौधे। इससे स्वास्थ्य संबंधी विषमताएं और पर्यावरणीय असमानता पैदा हो रही हैं। 

शहरी ग्रीन स्‍पेस को लेकर एक समस्‍या यह भी है कि शहरी इलाकों में जब हरियाली विकसित करने की कोशिश होती है, तो हरित विकास के कारण संपत्ति की कीमत बढ़ने लगती है। इसके चलते, कम-आय वर्ग वाले पुराने निवासी वहां से विस्थापित होने लगते हैं। नतीजा यह होता है कि हरियाली का लाभ भी उन्हीं को मिल पाता है जो संपन्न हैं। 

इसे पर्यावरणीय जेंट्रीफिकेशन (Environmental Gentrification) कहा जाता है, जिसका मतलब है पर्यावरणीय सुंदरीकरण के कारण होने वाला विस्थापन। यह शब्द सिटी यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूयॉर्क (CUNY) की प्रोफेसर मेलिसा चेकर द्वारा गढ़ा गया है। इसका इस्‍तेमाल उन्‍होंने अपने शोध निबंध ‘वाइप्ड आउट बाय द ग्रीन वेव’ में किया है।

शहरी योजनाओं में हरियाली को देनी होगी जगह

शहर में रहने वाले लोगों को ग्रीन स्‍पेस मुहैया कराने के लिए नीतिगत स्‍तर पर काम होना ज़रूरी है, ताकि किसी भी आर्थिक-सामाजिक स्थिति के शहरी को ग्रीन स्‍पेस मिल सके। शहरी हरियाली को बढ़ाने के लिए सामुदायिक भागीदारी सुनिश्चित करना भी आवश्यक है, ताकि पार्क और ग्रीन बेल्‍ट जैसे स्‍थानों की देखरेख की जा सके और लोगों का उनसे जुड़ाव भी बना रहे। 

शहरों का मास्‍टर प्‍लान तैयार करने वालों को इस बात को समझना होगा कि शहरों में ग्रीन स्‍पेस की हरियाली अब केवल सौंदर्य का विषय नहीं, बल्कि यह शहरवासियों के शारीरिक और मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य को बेहतर बनाए रखने के लिए भी ज़रूरी है है। नीति निर्माताओं के लिए यह ज़रूरी है कि वे शहरी ग्रीन स्‍पेस को महज़ ‘एमिनिटी’ समझने के बजाय ‘नेसिसिटी' समझें।

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