पहाड़ों में एक कहावत है कि ‘पहाड़ का पानी और जवानी कभी पहाड़ के काम नहीं’आते. सुनने पर इसका सरल और सीधा मतलब लगता है कि पहाड़ों के युवा नौकरी के अवसर लिए और पहाड़ों का पानी नदियों के रास्ते यहां से मैदानी इलाकों चला जाता है – दोनों की ऊर्जा और उर्वरकता का फायदा किसी और को होता है. पर इस एक वाक्य में एक कहानी छुपी है – कुछ अपना खो जाने की, एक प्राकृतिक संसाधन और दूसरा मानव संसाधन. इसका सन्दर्भ आज़ाद भारत, विकासशील भारत भी है, जिसमें पहाड़ी क्षेत्रों की अनदेखी हुई है और शोषण भी और इसीलिए भारत के पहाड़ी क्षेत्रों के इतिहास में अलग राज्य और अलग पहचान संघर्ष भी शामिल हैं. इन संघर्षों में, जिनमें पहाड़ी युवा भी शामिल थे, केवल राजनीतिक पहचान का नहीं बल्कि आर्थिक, सामाजिक सांस्कृतिक अस्मिता का सवाल जुड़ा है.
परन्तु पिछले दो दशकों में कुछ नई और विकट समस्याएं पूरे हिमालयी क्षेत्रों में नज़र आने लगीं हैं – उत्तराखंड के वीरान गाँव से लेकर मरती हुई नदियाँ; हिमाचल प्रदेश के सिकुड़ते हुए ग्लेशियर और कश्मीर में राज्य के दमन तक. जहां एक तरफ तो यह इलाका अनोखी जैव विविधता, संस्कृति और राजनीति की जन्म स्थली रहा है, वहीं दूसरी तरफ आज के दौर में यहां के युवाओं का अपनी भूमि से अलगाव बढ़ रहा है. क्या हिमालय का इतिहास आज के पहाड़ी युवाओं द्वारा पूरी तरह से समझा गया है ? या वे भी आर्थिक दौड में फंस कर इस इलाके के स्वरूप के बदल जाने से अलग-थलग हो जाते हैं ?
▪ हमारा इतिहास, सांझी विरासत और पहचान
▪ पहाड़ का भूगोल और पारिस्थितिकी - जल, जंगल, ज़मीन की दशा
▪ विकास की राजनीति
▪ पहाड़ी अर्थव्यवस्था और समाज की पुनर्कल्पना
▪ हिमालय के दमन और राजनीतिक संघर्ष
अगर आप हिमालयी क्षेत्र में रहने, काम करने वाले साथी हैं और यह सवाल आपके लिए महत्वपूर्ण हैं तो आइये, पहाड़ और हम कार्यक्रम में भाग लीजिये. यह कार्यक्रम एक मौक़ा है, पहाड़ के आज के सवालों पर समझ बनाने का और अपनी पहाड़ी पहचान को एक सांझा संवाद के माध्यम से खोजने का.
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