होली का उमंग भरा त्योहार हमारे लिए सामाजिक समरसता, प्रेम और आपसी भाईचारे को बढ़ाने का एक बेहतरीन मौका होता है। होली पर रंग खेलना दरअसल, दूसरों के जीवन में रंग भरने का ही प्रतीक है। लेकिन, खुराफाती सोच रखने वाले चंद लोगों ने होली के रंग और उमंग को हुड़दंग में बदल दिया है। आपसी प्रेम बढ़ाने के इस त्योहार को वह लोगों को परेशान करने के मौके की तरह देखते हैं। होली में प्लास्टिक की चीजें, पॉलिथिन और रबर के टायर जलाने, पटाखे फोड़ने से लेकर लोगों को जबर्दस्ती नुकसानदेह कैमिकल्स वाले रासायनिक रंग लगाने जैसी हरकतों ने काफी हद तक होली के रंग को बदरंग कर दिया है। होली मनाने के इन बिगड़े हुए तरीकों ने इस त्योहार के स्वरूप को खराब करने के साथ ही लोगों की सेहत और पर्यावरण पर नकारात्मक असर दिखाना भी शुरू कर दिया है।
प्राकृतिक संसाधनों, पानी की बर्बादी, प्रदूषण बढ़ने और लोगों को स्किन डिजीज यानी त्वचा संबंधी समस्याएं जैसे कई नकारात्मक व अनचाहे पहलू आज होली के त्योहार के साथ जुड़ गए हैं। ऐसे में होली को उसके पुराने आनंदमय और निर्मल स्वरूप में वापस लाने के लिए हमें एक जिम्मेदारी भरे और इको फ्रेंडली तरीके से होली मनाने की जरूरत है। ‘ग्रीन होली’ के कॉन्सेप्ट को अपना कर हम ऐसा कर सकते हैं।
होली रंग खेलने और फिर इस को छुटाने या साफ करने में के लिए अकसर सैकड़ों-हजारों लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। देश के जल संकट वाले इलाकों में पानी की यह भारी खपत महिलाओं के लिए परेशानी खड़ी कर देती है, क्योकि इन इलाकों में घरेलू इस्तेमाल के लिए पानी लाने की जिम्मेदारी अकसर महिलाओं की ही होती है, जिसके लिए कई बार उन्हें काफी दूर से पानी ढोकर लाना पड़ता है। ग्रामीण इलाकों के साथ ही हाल के वर्षो में देश के दिल्ली, मुंबई, बंगलुरु जैसे महानगरों में भी जल संकट काफी बढ़ चुका है। ऐसे में हम 'ग्रीन होली' मना कर एक हद तक इसके समाधान में योगदान दे सकते हैं।
अपनी होली को 'ग्रीन' बनाने के लिए सबसे पहले हमें हानिकारक रासायनिक रंगों से किनारा करने की जरूरत है। सिंथेटिक और रासायनिक रंगों में लेड, मरकरी (पारा) सहित कई जहरीले तत्व होते हैं। इसलिए ये रंग न केवल हमारी त्वचा और आंखों को नुकसान पहुंचाते हैं, बल्कि हमारे जलाशयों और मिट्टी को भी प्रदूषित करते हैं। हम पानी वाले पक्के रासायनिक रंगों के बजाय अबीर-गुलाल जैसे आसानी से सूखने वाले रंगों का इस्तेमाल कर सकते हैं। इसमें भी हम केमिकल-फ्री गुलाल को तरजीह दे सकते हैं, जो त्वचा को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता। हर्बल या इको-फ्रेंडली कलर्स आज बाजार में आसानी से उपलब्ध है। कीमत ज्यादा लगे, तो हम इसे घर में भी आसानी से बना सकते हैं। यूट्यूब, फेसबुक, ब्लॉग्स जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर हर्बल कलर बनाने की जानकारी ली जा सकती है। हल्दी, सूखे फूलों और सब्जियों से हम जैविक रंग बना सकते हैं। इसके लिए चुकंदर, पालक, टेसू के फूल जैसी प्राकृतिक चीजों को इस्तेमाल किया जा सकता है।
होली पर रंग खेलने से एक दिन पहले होली जलाने यानी होलिका दहन की परंपरा है। भक्त प्रहलाद और होलिका के दहन की कथा इससे जुड़ा एक धार्मिक पहलू है। पर, बहुत से विद्वानों का मानना है कि यह परंपरा संभवत: कृषि अवशेष, खेतों से उखाड़ी गई जंगली घास और खरपतवार और हमारे घरों व आसपास मौजूद बेकार की लकड़ियों आदि को जलाकर इन अनावश्यक चीजों का निपटान करने के लिए शुरू की गई थी। यह स्वस्थ परंपरा भी धीरे-धीरे एक प्रतिस्पर्धा में बदलती गई और लोगों में आसपास के मोहल्लों से बड़ी होली जलाने की होड़ मचने लगी। इसके चलते होली जलाने के लिए पेड़ों की कटाई या बाजार से लकड़ी खरीद कर जलाने जैसी गलत चीजों का चलन चल पड़ा। होली में डाले गए पेड़ों के मोटे तनों और कुंदों को जलाने के लिए लोग प्लास्टिक, पॉलिथिन और टायर को भी होलिका में डालने लगे। इससे होली पर प्रदूषण बढ़ने लगा है। इसलिए आज इस बात की जरूरत है कि हम इको-फ्रेंडली होलिका दहन करें। बड़ी-बड़ी लकड़ियों के बजाय गोबर के उपले (कंडे), सूखे पत्ते और अन्य जैविक सामग्री का उपयोग करें। हर गली-मोहल्ले में अलग-अलग होलिका जलाने के बजाय आसपास के मोहल्ले मिलकर एक जगह सामूहिक रूप से होलिका दहन करें। इसके साथ ही होली के मौके पर अपने आसपास के इलाके में पौध-रोपण करके भी एक सकारात्मक पहल की जा सकती है, ताकि पर्यावरण को होने वाले नुकसान की भरपाई हो सके।
होली मनाने के बाद हमारे, गली-मोहल्लों और सड़कों पर रंगों की थैलियां, प्लास्टिक पाउच, टूटी पिचकारियां और गुब्बारे का काफी कचरा बिखरा दिखाई देता है। इस प्लास्टिक कचरे को अकसर नालियों में डाल दिए जाने के कारण जल निकासी व्यवस्था बाधित होती है। होली के कचरे से नदियों व तालाबों में प्लास्टिक प्रदूषण भी बढ़ता है। इस समस्या के समाधान के लिए हमें प्लास्टिक बैलून, रंग की पन्नियों और अन्य प्लास्टिक उत्पादों के उपयोग से बचना चाहिए और सामूहिक रूप से इनको इनको इकट्ठा करके रीसाइक्लिंग के लिए कबाड़ में बेचा जा सकता है। होली के बाद अपने घर और आसपास सफाई करें और स्थानीय निकायों को वेस्ट मैनेजमेंट में सहयोग दें, ताकि उमंगों भरे इस त्योहार के बाद हमें गंदगी से फैलने वाली संक्रामक बीमारियों की चपेट में न आना पड़े।
हाल के वर्षों में लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ने के चलते देश के कई हिस्सों में 'ग्रीन होली' और 'इको-फ्रेंडली होली' का चलन बढ़ा है। यहां हम आपको ऐसी ही कुछ बेहतरीन मिसालों से रूबरू कराने जा रहे हैं, ताकि आप भी इससे प्रेरणा लेकर बेहतर तरीके से होली मनाना शुरू कर सकें।
मथुरा-वृंदावन (यूपी) : भगवान कृष्ण की लीलाओं की स्थ्ली अपनी अनूठी होली के लिए दुनिया भर में मशहूर है। अच्छी बात यह है कि यहां के कई मंदिरों और संगठनों ने हाल के वर्षों में होली पर प्राकृतिक फूलों से बने रंगों का इस्तेमाल शुरू किया है, जिससे पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचता। कई मोहल्लों में रंगों के बजाय फूलों की होली खेलने का चलन भी शुरू हुआ है। 'द ब्रज फाउंडेशन' और 'फ्रेंड्स ऑफ वृंदावन' जैसी स्थानीय संस्थाएं प्राकृतिक फूलों से बने रंगों के उपयोग को प्रोत्साहित कर रही हैं, जिससे पर्यावरण को नुकसान न हो।
शांति निकेतन (पश्चिम बंगाल) : पश्चिम बंगाल में रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित शांति निकेतन में होली 'बसंत उत्सव' के रूप में मनाई जाती है। विश्व-भारती विश्वविद्यालय इस उत्सव का आयोजन करता है, जहां छात्र और शिक्षक मिलकर प्राकृतिक रंगों से होली खेलते हैं। इस मौके पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिये पर्यावरण संरक्षण का संदेश भी दिया जाता है।
पुणे (महाराष्ट्र) : पुणे में कई सामाजिक संगठन और रेजिडेंशियल सोसाइटीज 'ग्रीन होली' का आयोजन करते हैं, जहां हर्बल रंगों का इस्तेमाल, पानी की बचत, और प्लास्टिक-मुक्त उत्सव पर जोर दिया जाता है। 'इको-एक्सप्लोरर्स' और 'ग्रीन पुणे मूवमेंट' जैसी संस्थाएं हर्बल रंगों के उपयोग और कैमिकल व प्लास्टिक-मुक्त होली को बढ़ावा दे रही हैं।
बेंगलुरु (कर्नाटक) : यहां कई रेजिडेंशियल सोसाइटीज ने प्राकृतिक रंगों के साथ सूखी होली खेलने के तरीके को अपनाया है। इससे पानी की बचत होती है और पर्यावरण संरक्षित रहता है। 'सयार्थ' और 'इको वॉच' जैसे एनजीओ इसमें अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं।
दिल्ली : देश की राजधानी में कई NGOs और रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन्स (RWAs) इको-फ्रेंडली होली मनाने के लिए जागरूकता अभियान चलाते हैं। इनमें होली खेलने में प्राकृतिक रंगों के इस्तेमाल और पानी की कम से कम खपत को तरजीह दी जाती है। ‘दिल्ली ग्रीन्स' और 'स्वच्छ दिल्ली अभियान' जैसी संस्थाएं कई वर्षों से ऐसे आयोजन कर रही हैं।