सूर्य ढलते ही घाट जीवंत हो उठते हैं। महिलाएं गीत गाती हैं, बच्चे खेलते हैं और पानी में दीप झिलमिलाते हैं। नदी का किनारा आस्था और आनंद का संगम बन जाता है। चित्र: शरत चंद्र प्रसाद
लोक संस्कृति

छठ पर्व: जब बिहार की नदियां आस्था और प्रकाश का प्रतीक बन जाती हैं

बिहार के बागमती नदी के किनारे बसे सझौती गांव से, छठ पूजा की एक अंतरंग झलक - जहां लाखों प्रवासी अपने घर लौटते हैं, युवा घाट तैयार करते हैं, और परिवार सांझ और भोर दोनों ही समयों में नदी किनारे इकट्ठा होकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं। यह एक ऐसे त्योहार की कहानी है जो प्रकृति, परंपरा और पुनर्मिलन का उत्सव तो है, लेकिन साथ ही आधुनिकता, प्रदूषण और जाति विभाजन जैसी चुनौतियों से भी जूझ रहा है।

Author : शरत चंद्र प्रसाद

अक्टूबर-नवम्बर का महीना बिहार और झारखंड दोनों ही राज्यों को एक खास तरह की ऊर्जा से भर देता है। पहले दुर्गा पूजा, फिर दिवाली, और फिर वह त्योहार जिसका सभी बेसब्री से इंतजार करते हैं यानी छठ पूजा। खरीफ फसलों की कटाई अभी-अभी समाप्त हुई होती है। स्कूलों में छुट्टियां कर दी जाती हैं और वे बंद हो जाते हैं। महिलाएं हफ्तों पहले से तैयारियों में जुट जाती हैं। और कल्पना से परे भारी संख्या में लोग ट्रेनों में भरकर घर लौटना शुरू कर देते हैं।

बिहार के दरभंगा जिले के सझौती गांव में, जो नेपाल के हिमालय से बहकर आने वाली बागमती नदी के किनारे बसा है, इस घर वापसी को महसूस किया जा सकता है। मानसून की बाढ़ के बाद तबाही मचाकर जीवन को और भी मुश्किल बना देने वाली यह नदी, छठ का महीना आते-आते एक बार फिर से शांत हो जाती है। इस गांव के लिए यह नदी ही जीवनरेखा है।

भक्ति से पहले महत्व है सेवा का, अभिषेक और उसके साथी खरपतवारों से भरे तालाब की सफ़ाई करते हैं। उनके लिए यही असली पूजा है।
कोने में बांस से कहानी बुनता एक कारीगर। उसके हाथ उन टोकरियों को बुन रहे हैं जो जल्द ही सूर्य को अर्पित होंगी। परंपरा यहीं सांस लेती है।

घाट आकार लेते हैं

भक्ति से पहले महत्व है सेवा का, अभिषेक और उसके साथी खरपतवारों से भरे तालाब की सफ़ाई करते हैं। उनके लिए यही असली पूजा है।

छठ से एक सप्ताह पहले, गांव के युवा नदी किनारे दिखने शुरू हो जाते हैं। दरअसल उन्हें घाट के लिए जगह की तलाश करनी होती है। जगह के चुनाव के बाद उस हिस्से की सफाई शुरू होती है और प्लास्टिक, गंदगी और खरपतवार हटाए जाते हैं। खासकर किनारों पर उगने वाली जलकुंभी को जड़ से साफ़ किया जाता है।

20 साल के अभिषेक कुमार पटना में रहकर सरकारी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं लेकिन अभी अपने गांव आए हुए हैं। वे हमें इस काम के व्यापक पैमाने और महत्व के बारे में समझाते हुए कहते हैं, “हमारे यहां लगभग छठ मनाने वाले परिवारों की संख्या लगभग 100 है, तो इसके लिए कम से कम किनारे पर 300 मीटर का हिस्सा चाहिए। इसलिए सही जगह की खोज और उसकी साफ़-सफ़ाई एक अहम काम है। चूंकि कई जगहें दलदली होती हैं इसलिए वहां लोगों के घायल होने का ख़तरा रहता है। एक समूह में लगभग 10 या उससे ज्यादा लोग होते हैं, फिर किनारे के आखिर तक दूसरे लोग भी आते हैं। ऐसे में घाट के किनारे पर्याप्त जगह चाहिए होती है।”

सभी युवा एक सप्ताह पहले से अपनी भूमिका के अनुसार काम शुरू कर देते हैं - सफाई, फिर घाट की तैयारी। फावड़े, कुदाल और हंसिये से वे रास्ते को समतल बनाते हैं क्योंकि किनारे असमान होते हैं। वे लोगों के बैठने के लिए जगह बनाते हैं और फिर नदी तक पहुंचने वाली सीढ़ियां बनती हैं। अंत में स्थानीय फूलों और केले के पौधों की सजावट से घाट को सुंदर बनाया जाता है।

सझौती गांव के पास बागमती नदी तीन ओर से ज़मीन को घेरती है। जैसे धरती को अपनी बांहों में समेटे हुए एक जीवंत टापू हो।

पुनर्मिलन का उत्सव

छठ में खासतौर पर, केंद्र सरकार द्वारा विशेष ट्रेनों की घोषणा के बावजूद, कई लोग अब भी बिना सीट के भीड़भाड़ वाली ट्रेनों से बिहार तक की यात्रा करते हैं। लोग परिवारों के साथ वापस लौटते हैं। वे छठ पूजा के लिए लौटने में अपना सब कुछ लगा देते हैं। यह लोगों, परिवारों और उन यादों का पुनर्मिलन है जिनका बचपन यहां बीता है। प्रवासी जो राज्य के बाहर रहते हैं, अपने परिवारों के लिए तरह-तरह के सामान, कपड़े, मिठाइयां लेकर लौटते हैं।

अरुण कुमार, जो हर साल कोलकाता से लौटते हैं और जहां उनकी एक टैक्सी है, अपनी प्राथमिकताओं को लेकर स्पष्ट हैं। "मुझे परवाह नहीं कि ट्रेन में कितनी भीड़ होगी, मैं अपने गांव लौटूंगा। मैं 10 दिन की छुट्टी लेता हूं। हमारे लिए यह सबसे बड़ा त्योहार है। मेरे साथ मेरे भाई और चचेरे भाई भी आए हैं। वे भी वहां एक फूड ट्रक चलाते हैं।" वे हंसते हुए जोड़ते हैं, "कई लोगों ने कहा कि स्पेशल ट्रेन में भीड़ नहीं थी। मेरे लिए तो बहुत भीड़ थी। लेकिन मैं वापस आने में कामयाब रहा। आम तौर पर, छठ पूजा के आसपास लाखों की संख्या में लोग बिहार लौटते हैं। छठ पूजा के दौरान परिवारों के लिए पुनर्मिलन सबसे महत्वपूर्ण पहलू है।

छठ पूजा के आसपास लाखों की संख्या में लोग बिहार लौटते हैं और इस दौरान परिवारों के लिए पुनर्मिलन सबसे महत्वपूर्ण पहलू है।

चार दिन शुरू होते हैं

छठ पूजा का पहला दिन नहाय खाय से शुरू होता है, फिर दूसरे दिन खरना, तीसरे दिन संध्या अर्घ्य और चौथे दिन उषा अर्घ्य यानी भोर के अर्घ्य के साथ पूजा का समापन होता है। तीसरा और चौथा दिन नदी के किनारे मनाया जाता है और ये दोनों ही दिन सबसे अधिक महत्वपूर्ण होते हैं।

साफ़-सफ़ाई के बाद इन चार दिनों में नदी के किनारे चमक उठते हैं। नदी ही नहीं बल्कि गांव के तालाब और अन्य जलाशय साफ करके वहां भी घाट तैयार किए जाते हैं। महिलाएं समूहों में लोकगीत गाती दिखती हैं। स्थानीय कारीगरों, कुम्हारों और मखाना किसानों के लिए यह सबसे धन्य महीना है क्योंकि उन्हें हजारों ऑर्डर मिलते हैं - बांस से बनी टोकरियां, बर्तन, मिट्टी से बने हाथी और घोड़े, और मखाना।

मछुआरे भी घाट के आसपास रहते हैं और भक्तों को सफाई रखने में और सुरक्षित रूप से इस पर्व को मनाने में हाथ बंटाते हैं। वे हमेशा अपनी एक नाव पास में ही बांध कर रखते हैं। इसके अलावा गांव की दूसरी सड़कों और रास्तों की भी साफ़-सफ़ाई की जाती है।

कुम्हार रामेश्वर पंडित कहते हैं, "हमारे लिए यह सबसे बड़ा महीना है। मुझे इस महीने 1000 ऑर्डर मिले। मैं नदी से मिट्टी लाता हूं - यह मुश्किल काम है।" इस बीच, उसी गांव के स्थानीय कारीगर कमलू बांस से टोकरियां तैयार करते हैं। वे भी काफ़ी व्यस्त दिखाई पड़ते हैं। कुल मिलाकर, स्थानीय कारीगरों को इस त्योहार से बहुत फायदा होता है। इसलिए छठ को सबके उत्सव के रूप में देखा जाता है।

कृष्णा देवी नदी की मिट्टी से चूल्हा बनाती हैं। मिट्टी के इसी चूल्हे पर अगले दिन का प्रसाद पकेगा। उनके लिए मिट्टी का हर कण पवित्र है।
जब बाढ़ का पानी उतरता है तो गांव वाले उन्हीं जगहों पर घाट बनाते हैं। जहां नदी अपने पीछे पानी छोड़ जाती है वहीं पूजा का स्थान बन जाता है।

उत्सव का बदलता चेहरा

छठ पूजा नजदीकी जलाशयों, तालाबों, झीलों या बाढ़ से बचे पानी में भी मनाया जाता है। अलग-अलग गांवों के लिए उत्सव की जगहें अलग होती हैं - कुछ पास के तालाबों, नदियों या झीलों में इस पर्व को मनाते हैं तो वहीं कुछ लोग घर पर अपने परिवारों के साथ कृत्रिम तालाब बनाकर मनाते दिखते हैं। उत्सव में आया यह बदलाव त्योहार की समुदाय से व्यक्तिवाद की ओर की यात्रा को भी दिखाता है।

गणेश प्रसाद यादव अपने गांव में बागमती एजुकेशनल एंड सोशल वेलफेयर ट्रस्ट के नाम से एक संगठन चलाते हैं। गांव में उनका काफ़ी नाम है और उनके पास दशकों का अनुभव है। अपने नज़रिए को रखते हुए वे कहते हैं, "छठ उत्सव के बारे में बहुत कम लिखा गया है। मेरी मां बताती हैं कि आजादी से पहले भी वे इसी जगह, इसी घाट पर छठ मनाया करती थीं।"

स्थानीय कारीगर शंभू मांझी अपने आंगन में टोकरी बुन रहे हैं। इस महीने में इनकी खूब मांग रहती है, जब हर घर छठ की तैयारी में जुटा होता है।
जैसे-जैसे त्योहार नज़दीक आता है घाट जगमगाने लगते हैं। बांस के ढांचे बनते हैं, रोशनी फैलती है और हवा में भक्ति के गीत गूंजने लगते हैं।

वे आगे कहते हैं, “बदलते समय के साथ लोग साधन-संपन्न हुए हैं। जिसके कारण उत्सव का रूप-स्वरूप भी बदलने लगा है। मुझे 70 के दशक का उत्सव याद है, मैं तब जवान था। सब साथ आते थे। सभी लोगों के पास बांस से बनी एक जैसी टोकरी होती थी। सभी व्यंजन घर पर बनाए जाते थे। न पटाखे न प्लास्टिक। यहां तक कि घाट की सजावट भी साधारण ही हुआ करती थी - बस कुछ बांस और केला, कोई लाइट नहीं। जब हम वापस लौटते थे, तो घाट पर कुछ भी नहीं बचता था, बस केला के पत्ते जो अंततः हमारी भैंसें खा जाती थीं।"

"आजकल, लोग प्रगति कर रहे हैं। इस गांव के ज्यादातर लोग प्रवासी हैं। हर घर में एक ऐसा व्यक्ति है जो राज्य के बाहर रहता है, ज्यादातर दिल्ली, हरियाणा, कोलकाता और पंजाब में। उनके लिए यह एकमात्र त्योहार है जिसमें वे एक साथ होते हैं।"

उनकी आवाज में चिंता झलकती है। "अब त्योहार में बहुत ज्यादा बदलाव आ गया है। सजावट के लिए थर्मोकोल और प्लास्टिक से बनी कृत्रिम चीजों का इस्तेमाल होने लगा है, जो इस पर्व की भावना के खिलाफ है। पटाखे - मैं व्यक्तिगत रूप से इसके खिलाफ हूं। इसके कारण ही मेरे एक रिश्तेदार ने अपनी एक आंख की रोशनी खो दी। इससे प्रदूषण और कचरा पैदा होता है। कई चीजें प्लास्टिक में लपेटी होती हैं। साफ करना मुश्किल हो जाता है। गांव की अर्थव्यवस्था पशुधन पर आधारित है - भैंस, गाय और बकरी। उत्सव के बाद वे इधर चरने आते हैं। गायें सचमुच प्लास्टिक खाती हैं। मैंने इसे देखा है।"

"छठ पूजा का संबंध केवल मनोरंजन से नहीं है। यह युवाओं और बच्चों दोनों के लिए एक सीख है। आप ध्यान दें - नवजात शिशुओं से लेकर हम जैसे बुजुर्ग तक, यहां आते हैं, नदी के किनारे बैठते हैं। हम पर्यावरण, नदी और जलाशयों के बारे में सीखते हैं। अगर उनके सामने हम पटाखे फोड़ते हैं या प्रदूषण करते हैं, तो वे बच्चे हमसे क्या सीखेंगे? शाम के उत्सव में बच्चे केले के पौधों और नदी के पास घूमते हैं। सुबह के घाट पर, वे अपने सामने झुंड बनाकर आने वाले पक्षियों को देखते और उनके बारे में सोचते हैं। यह सीखने का एक प्राकृतिक तरीका है।"

सुबह होते ही नदी में आस्था झलकती है। ठेकुआ, गन्ने और दीयों से सजी टोकरियां सूर्य और बागमती को समर्पित होती हैं। यह प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक हैं।
बच्चों के लिए छठ पूजा सिर्फ़ पूजा नहीं खुशियों का त्योहार है। पटाखों की आवाज़ और उनकी खिलखिलाहट नदी की लहरों पर तैरती है।

वे परेशान तो हैं लेकिन अब भी उन्हें उम्मीद है। अपनी उम्मीद को आंखों में भर वे आगे कहते हैं, "हमें विकल्प देने चाहिए। शुरुआती दिनों में हम घाट पर खेलते थे, वहां कई तरह के खेल होते थे। महिलाएं गाती थीं, नृत्य करती थीं और बच्चे भी खेल-कूद और नाच-गान करते थे। अब जैसे-जैसे नृत्य गायब हो रहा है, बच्चों ने पटाखों और फोन को थामना शुरू कर दिया है। चित्र बनाने की कला, कढ़ाई, मधुबनी पेंटिंग, सिकी कला जैसी गतिविधियां घाट से लगभग गायब हो चुकी हैं। घरों और दीवारों के लिए थोड़ी-बहुत मंजूषा पेंटिंग बची हैं। वे सूरज, पेड़, गाय, भैंस चित्रित करते थे और उनकी पेंटिंग आगंतुकों को आकर्षित करती थी। वे अपने चित्रों में प्रकृति को उतारते थे। इन चीजों के ग़ायब होने से पैदा हुआ खालीपन उत्सव के अन्य रूपों जैसे डीजे, मोबाइल, पटाखे से भरने लगा है। फिर भी, मैं बदलाव को लेकर आशावान हूं। मुझे उम्मीद है कि हम छठ को इसके मूल रूप में लौटा लाएंगे।"

घाटों के भीतर घाट

छठ पूजा का संबंध नदी, सूर्य, जलाशयों से होने के साथ ही प्रवासी पक्षियों से भी है। यह कटाई का मौसम होता है जिसके कारण प्रवासी पक्षी आते हैं। गांव में घाट लोगों के लिए मुख्य आकर्षण हैं। लोग अलग-अलग विषयों के अनुसार अपने घाटों को सजाते हैं। कुछ लोग बेकार की चीजों से अपने घाट तैयार करते हैं, तो कुछ कटी हुई फसलों के साथ, और कुछ घाट पर नाटक आयोजित करते हैं।

लेकिन छठ पूजा के कुछ पहलू ऐसे भी हैं जिन्हें नहीं होना चाहिए था। एक घाट से सझौती तक के हिस्से में, हर जाति के अलग-अलग घाट होते हैं। साथ दिखते हुए भी वे इस पर्व को अलग-अलग मनाते हैं - ऊंची जाति, ओबीसी और एससी के अलग घाट हैं। एक उत्सव जो प्रकृति के साथ एकता का पाठ पढ़ाता है, अंततः लोगों के बीच एकता का भाव लाने में विफल हो जाता है। यहां भी जाति का स्वरूप अपने उसी रूप में बना रहता है।

बहुजन चेतना मंच के संजीत यादव और अमरीत कुमार इसे स्पष्ट शब्दों में बताते हैं। "छठ एक गैर-सांस्कृतिक त्योहार है। लोग बिना किसी रीति-रिवाज या नियम के प्रकृति को सब कुछ अर्पित करते हैं। कोई पुजारी नहीं होता है। परिवार अपनी समझ के अनुसार प्रार्थना करते हैं। बहुत कुछ अच्छा है, लेकिन कुछ ऐसी चीजें भी हैं जो नहीं होनी चाहिए, जैसे जाति विभाजन। इस पर्व में कम से कम गांव के हर व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के एक साथ आना चाहिए।"

लोग इसे बदलने का प्रयास कर रहे हैं। सुनील कुमार अपने साथी ग्रामीणों के साथ मिलकर इन दूरियों को तोड़ने के लिए छठ पूजा से पहले कार्यक्रम आयोजित करते हैं।

सझौती का लगभग एक किलोमीटर लंबा घाट। हजारों लोग बागमती किनारे एक साथ, हर चेहरे पर आस्था की चमक और नदी की रोशनी।
सिर पर प्रसाद से सजी टोकरियों को लिए सूर्य को अर्घ्य देने के लिए जाते लोग।

घाटों से: संध्या अर्घ्य की शाम

तीसरे दिन सूर्यास्त के समय सूर्य की पूजा की जाती है। लोग कम से कम तीन घंटे तक घाट पर बैठते हैं। गांव में हर कोई सुबह से तैयारी में लग जाता है। प्रत्येक परिवार की अपनी टोकरी होती है, और टोकरी के भीतर एक सूप (सपाट टोकरी) होता है जो प्रत्येक व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। वे सभी प्राकृतिक वस्तुओं और अपनी फसल - कद्दू, गन्ना, नारियल और ठेकुआ अर्पित करते हैं। सब कुछ अपने हाथों से तैयार किया जाता है।

यहां पैठिया बहुत प्रचलित है - पैठिया मतलब स्थानीय बाजार जहां किसान खुद उगाई गई ताजी उपज बेचते हैं, और यह बाजार से सस्ता होता है।

कृष्णा देवी 50 सालों से छठ मना रही हैं, जैसा कि उन्हें याद है। "मेरे परिवार में, त्योहार का नेतृत्व मैं ही करती हूं। सारी ख़रीददारी और तैयारी - हमारे परिवार में 20 लोग हैं, हम एक बड़ा संयुक्त परिवार हैं। हम यह पर्व साथ मनाते हैं। मैं युवाओं को सभी रीति-रिवाज सिखाती हूं, जैसे कि भोग के लिए प्रसाद कैसे तैयार करना है, या फिर पूजा के लिए क्या-क्या चाहिए। मैं बच्चों को लोकगीत भी सिखाती हूं। उन्हें यह सब पता हो।"

कभी छठ की शान रहे कढ़ाईदार टोकरे अब धीरे धीरे गायब हो रहे हैं। कभी हर कढ़ाई में आस्था और कला की कहानी छिपी होती थी।

इन परिवारों के लिए यह शाम खास है क्योंकि वे तीन घंटे घाट पर ही बिताएंगे। नदी तक पहुंचने के लिए उन्हें एक किलोमीटर चलना पड़ता है। ऐसा लगता है जैसे सब के पास नए कपड़े हैं - लाल, पीले, रंग-बिरंगे कपड़े। लोग घाट पहुंच रहे हैं। हर टोकरी पर सिकी कढ़ाई कला की छाप है जिस पर मछली, पक्षी और पेड़ बने है। कुछ बच्चे पहली बार नदी देख रहे हैं। वे चकित हैं, पहली बार इतने करीब जा रहे हैं। अब वे सूरज डूबने तक वहीं बैठेंगे।

इस बीच, महिलाओं का एक समूह गीत गाता हुआ नदी की तरफ़ आ रहा है: बारीक बुनी बांस की टोकरी लेकर, मैं अपना अर्पण लेकर चलती हूं, मां गंगा के किनारे पर, मैं उगते सूर्य को जल चढ़ाती हूं। हे सूर्य देव, यह विनम्र अर्पण स्वीकार करो, नदी के किनारे, तुम्हारी सुनहरी किरणें फिर से उगती हैं।

धीरे-धीरे सूर्य डूब रहा है। बच्चे मस्ती कर रहे हैं। गीतों की आवाज़ तेज हो रही है। महिलाएं और पुरुष पानी में उतरते हैं, प्रार्थना करते हैं, सूर्य को नारियल, केले और टोकरियां अर्पित करते हैं। जैसे ही सूरज डूबता है, वे घर लौट आते हैं।

कई बच्चे सालों बाद घाट पर मिलते हैं। मिठाइयां बांटते हैं, गप्पे मारते हैं और नदी किनारे गूंजती है उनकी हंसी।
सुबह के उजाले में आकाश में उड़ते कंदील। बच्चे और बड़े दोनों अपनी यादें और रोशनी आसमान की ओर भेजते हैं।
टहनियों और नदी की मिट्टी से बने छोटे दीप उसी नदी में बहते हैं। यह उस बागमती नदी को धन्यवाद देने का तरीक़ा है जो उन्हें जीवन देती है।

भोर फिर लौटती है: उषा अर्घ्य

आज उनकी सुबह भोर 3 बजे ही हो जाती है। इस पुनर्मिलन के लिए लौटने वाले प्रवासी एक दूसरे से अपनी अच्छी और बुरी यादें साझा करते हैं। ढोल की थाप के साथ सब कुछ जगमग हो उठता है। घाट पर एक बार फिर से लौटने का समय। सुबह के 3 बजे हैं। नदी से ठंडी हवा आ रही है। लोग अपने हाथों में लालटेन, मोमबत्तियां और दिये लेकर सूर्य को सुबह का अर्घ्य देने की तैयारी कर रहे हैं। सभी परिवार चलना शुरू करते हैं और धीरे-धीरे घाट पर पहुंचते हैं। एक बार फिर से अर्पित की जाने वाली सारी चीजें नदी के किनारे तैयार किए घाट पर फैला दी जाती हैं। एक बार फिर से, सूर्योदय तक गायन जारी रहता है।

सूर्यास्त होते ही लोग घाट से लौट रहे हैं, सिर पर बाँस की डलिया, हाथों में पूजा की थालियां, होंठों पर छठ माता के गीत और स्तुति। संकरी पगडंडियों पर ढलती शाम की रोशनी उनके कदमों को सुनहरी बना रही है।
सूर्योदय का इंतज़ार करती हुई कृष्णा देवी और साथ में है उनका परिवार। तीन घंटे तक मन की शांति, लोकगीतों की गूंज और पीढ़ियों को जोड़ने वाली यादें।

साक्षी बिहार एनजीओ की सुमन कुमारी नज़ारे को देखते हुए कहती हैं, "नदी किनारों पर चलते हुए बच्चे, बहती हुई नदी और उसके साफ घाट, पक्षियों के झुंड - इन सब को एक साथ देखना सुखद है। यह सबसे अच्छी सीख है। छठ पूजा ही ऐसा अवसर है जिसमें सब एक ही जगह पर एक साथ बैठते हैं। बहती पानी में तैरती मछलियां, घास, ठंडी हवा - सब कुछ प्राकृतिक हैं। वे प्रकृति के बारे में सीखेंगे। छठ सबसे अधिक प्रकृति के अनुकूल त्योहार है।"

वे आगे जोड़ती हैं, "कुछ चीजों में सुधार होना चाहिए। अगर लोग प्रयास करें, तो छठ पूजा के बाद भी नदी साफ होनी चाहिए। छठ पूजा के कारण लोगों आपसी संबंध मजबूत होते हैं। इससे नदियों को साफ़ करने और व्यवस्था में सुधार लाने में मदद मिल सकती है। यह अपने तरीके से प्रकृति की पूजा है।"

घाट के रास्ते में उगी सिक्की घास चमकती सुनहरी धूप और हवा में धीरे-धीरे लहरा रही है। पास ही गांव की महिलाएं सिक्की से बनी टोकरी, डलिया, पूजा के सूप, और छोटे-छोटे शोपीस बेचती नज़र आती हैं।
छठ के समापन के अगले दिन सामा चकेवा शुरू होता है। मिथिला क्षेत्र का लोक पर्व जो भाई बहन के स्नेह और लोकगीतों की परंपरा को जीवित रखता है।

आंखों देखी

जब आखिरी दीपक नदी के किनारे टिमटिमाता है, तो चारों ओर एक शांत सन्नाटा फैल जाता है और उसी सन्नाटे में आत्मचिंतन जन्म लेता है। यह पर्व आतिशबाजी या दावतों के साथ नहीं, बल्कि सफाई और समेटने के साथ समाप्त होता है। परिवार अपने अपने दौरों (टोकरियों) को समेटते हैं, बांस के आसन हटाते हैं, और जो बचता है उसे इकट्ठा कर अपने घर ले जाते हैं। चार दिनों तक जो घाट मंदिर बन गया था, वह धीरे धीरे अपनी प्राकृतिक अवस्था में लौट आता है।

पर इस अनुभव के बाद कुछ न कुछ भीतर रह जाता है। यह समझ कि आस्था और पर्यावरण कितनी गहराई से एक दूसरे से जुड़े हैं। छठ में पूजा और जिम्मेदारी अलग नहीं हैं। जब हम सूर्य को अर्घ्य देते हैं, तो उसी के साथ हम जल, मिट्टी और हवा की रक्षा का वचन भी देते हैं। उस पारिस्थितिकी की सुरक्षा के प्रति वचनबद्ध होते हैं जो हमारे जीवन और आजीविका दोनों की आधारशिला है।

जब ज्यादातर पर्व घरों और मंडपों के भीतर सिमटते जा रहे हैं, छठ अब भी खुले आसमान के नीचे, नदी को साक्षी बनाकर मनाया जाता है। यह हमें याद दिलाता है कि सच्ची श्रद्धा का अर्थ प्रकृति के साथ तालमेल बैठाना है। स्वच्छ नदी, निर्मल हवा और टिकाऊ जीवनशैली ही सबसे सुंदर प्रार्थना हैं।

और जब भोर की सुनहरी रोशनी मिटती जाती है, तब बागमती अपने साथ फूलों और दीपों को साथ लेकर हुई आगे बढ़ती हुई पीछे छोड़ जाती है एक हल्की रोशनी, उजाला, एक आभार की छाप, और यह सरल संदेश कि टिकाऊ भविष्य की शुरुआत हमेशा स्वच्छ जल से होती है।

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