घाटी में सूरज की पहली किरण पड़ने के साथ ही कश्मीर के 57 वर्षीय किसान महीउद्दीन मगरे और उनके बेटे मंज़ूर अहमद अपने खुले खेत में एक सफ़ेद चादर बिछाते हैं। यह धान की कटाई का समय होने का संकेत है। इस चादर पर जल्द ही धान के गट्ठर फैला दिए जाएंगे और धूप में सुखाने के बाद उन्हें कूटा जाएगा। हर साल जब शरद ऋतु की ठंडक घाटी पर दस्तक देना शुरू करती है, यहां के धान के विशाल खेतों का रंग सुनहरा होने लगता है। यह इशारा है कि कटाई का मौसम, हरुद आ गया है।
कश्मीरी भाषा में हरुद शब्द का मतलब शरद या पतझड़ होता है, लेकिन कश्मीरियों के लिए इसका मतलब केवल मौसम के बदलाव तक सीमित न होकर उससे कहीं ज़्यादा है। यह घाटी की जीवनशैली का एक खास हिस्सा है। सितंबर से मध्य-अक्टूबर तक, खेती-किसानी करने वाले परिवार, आस-पड़ोस के लोग और स्थानीय मज़दूर, सब एक साथ जुटते हैं और मिलकर उस साल की धान की फसल की कटाई, ढुलाई, ओसाई और कुटाई का काम करते हैं। काम और समुदाय के बीच की इसी लय ने कश्मीर की कृषि परंपराओं को कई पीढ़ियों से जीवित रखा है।
कश्मीर के लिए चावल केवल खाना नहीं है। यह घाटी की जीवनधारा और यहां की खेती की रीढ़ है। यह राज्य की 44 फीसद से ज़्यादा ज़मीन पर उगाया जाता है। चावल के बिना कश्मीरियों की थाली पूरी नहीं होती है। काम भले ही कठिन होता है, लेकिन कटाई का समय यहां लोगों के लिए किसी उत्सव से कम नहीं होता। पड़ोसी एक दूसरे का हाथ बंटाते हैं, साथ मिलकर खाना खाते हैं और कश्मीरी गीतों की गूंज खेतों के पार तक सुनाई देने लगती है।
कटाई का समय यहां लोगों के लिए किसी उत्सव से कम नहीं होता। पड़ोसी एक दूसरे का हाथ बंटाते हैं, साथ मिलकर खाना खाते हैं और कश्मीरी गीतों की गूंज खेतों के पार तक सुनाई देने लगती है।
कटाई का हुनर हाथों में ही है
कटाई का काम अब भी पुराने तरीके से ही किया जाता है। कटाई शुरू होते ही खेतों में हंसिए की आवाज़ और सूखी फसलों की सरसराहट गूंजने लगती है। काटी गई फसल के गट्ठर तैयार किए जाते हैं, ताकि उन्हें धूप में सुखाया जा सके। भूसे की खुशबू हवा में फैल जाती है और आसपास सब कुछ सुनहरा हो जाता है। इन सब के बीच बच्चे खेत में काम कर रहे अपने बड़ों के लिए घरों से रोटी-पानी लेकर आते हैं। उनकी हंसी, बड़ों की मेहनत और खेतों का बदलता रंग मौसम को और खुशगवार बना देता है।
बाद में, सूख गए गट्ठरों को हाथों से पीटा जाता है। इसके लिए कुछ लोग जहां ड्रम का इस्तेमाल करते हैं, वहीं दूसरे अपने मवेशियों के खुरों तले कुचलकर धान निकालते हैं। देखने में जो काम आसान लगता है, दरअसल वह धीरे-धीरे, बार-बार और बहुत मेहनत से किया जाने वाला काम है। इस समय की मेहनत और सावधानी ही इस अनाज को बचाती है जो सर्दियों में इन परिवारों का पेट भरता है। हालांकि, जलवायु परिवर्तन के कारण कटाई की यह पुरानी धुन बदलने लगी है। कश्मीर घाटी में, धान की खेती पारंपरिक रूप से ज़मपों और खुलों, यानी हिमनदों और बर्फ़-पिघलने से भरने वाली नहरों पर निर्भर है।
सुनहरे चमकते खेतों में बांस से बनी टोकरी में चावल को भरकर हवा में उछाला जाता है, इस प्रक्रिया को फटकन कहते हैं। इसमें अनाज के दाने नीचे बिछी चादर पर गिरते हैं और उसका भूसा हवा में उड़कर दूसरी तरफ़ चला जाता है। ताजे कूटे गए चावल के दानों को बड़ी ही सावधानी से चादर पर फैलाया जाता है। चावल के ये दाने खेतों में कई हफ़्तों तक धैर्य और निष्ठा से की गई मेहनत के प्रतीक हैं। महीउद्दीन मगरे जैसे परिवारों के लिए अनाज का एक-एक दाना कीमती है।
आसान सा दिखने वाला यह तरीका धीमा ज़रूर है, लेकिन लोगों को इसपर भरोसा है। कश्मीर में सदियों से यही तरीका इस्तेमाल होता आया हैं। यह परंपरा उतनी ही खास है, जितनी कि यह फसल। अपने पिता के बगल में काम कर रहे मंज़ूर अहमद कहते हैं, “यह थकाने वाला काम है, लेकिन साथ मिलकर करने से आसान हो जाता है।”
कटाई कई पीढ़ियों को साथ ले आती है
शरद ऋतु में धान की कटाई के बहाने घाटी के परिवारों में लोग एक साथ इकट्ठा होते हैं। मध्य कश्मीर में, खासकर गांदरबल, श्रीनगर और बडगाम के ग्रामीण इलाकों का नज़ारा कटाई के इस मौसम में देखते ही बनता है। सीढ़ीनुमा खेतों की आभा सुनहरी हो जाती है और खेतों की पगडंडियां, कंधे पर धान का गट्ठर लेकर जा रहे किसानों से भरी होती हैं।
शरद ऋतु में चावल की कटाई के बहाने घाटी के परिवारों में लोग एक साथ इकट्ठा होते हैं।
गांव के बुज़ुर्ग किसान अगली पीढ़ी के किसानों को काम के इन तरीकों के बारे में सिखाते-बताते हैं। कटाई के हर चरण में सामाजिक गठजोड़ मज़बूत होता है और सदियों से चली आ रही परंपराएं जीवित बनी रहती हैं। हरुद को जितना अनाज के लिए याद किया जाता है, उतना ही लोगों के साथ आने के लिए भी।
कटाई के हर चरण में सामाजिक गठजोड़ मज़बूत होता है और सदियों से चली आ रही परंपराएं जीवित बनी रहती हैं।
किसानों का कहना है कि बर्फ़ के पिघलने और बारिश के पैटर्न में आए बदलाव के साथ पानी का बहाव अनियमित हो गया है। कभी स्थिर रहने वाली हरुद की लय अब पूरी तरह से बारिश के बर्ताव पर निर्भर हो गई है। हरुद का रिश्ता केवल मेहनत से नहीं है, यह एक ऐसे मौसम की याद है जिसमें आपकी हर इंद्रिय काम करती है, जिसमें निरंतरता का भाव है, और पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ाए जा रहे पुश्तैनी ज्ञान और अनुभव के लिए सम्मान भी।
चेरवान गांव के मुहम्मद शबन मीर कहते हैं, “कटाई में बहुत ज़्यादा समय तो लगता ही है, इसमें कई लोगों की ज़रूरत भी पड़ती है। अकेले कोई भी इस काम को पूरा नहीं कर सकता। एक साथ मिलकर हम इस असंभव से दिखने वाले काम को भी संभव कर लेते हैं।” हरुद का ज़िक्र गांव की कहानियों, लोककथाओं और मौखिक परंपराओं में भी मिलता है, जिससे पता चलता है कि यहां लोगों के लिए इस मौसम का संबंध जितना से खेती है उतना ही संस्कृति से भी।
हरुद का ज़िक्र गांव की कहानियों, लोककथाओं और मौखिक परंपराओं में भी मिलता है, जिससे पता चलता है कि यहां लोगों के लिए इस मौसम का संबंध जितना से खेती है उतना ही संस्कृति से भी।
किसानों का कहना है कि पिछले कुछ सालों में धान की कटाई का पूरा काम अप्रत्याशित हो गया है। क्षेत्रीय अध्ययन बताते हैं कि 1980 के दशक से ही इलाके का तापमान बढ़ने लगा था। बारिश अनियमित हो गई है। पतझड़ के मौसम में अचानक हो जाने वाली बारिश और सूखे के कारण कटाई में देरी हो जाती है। नतीजतन धान की फसल को नुकसान पहुंचता है।
मौसम में आए इस बदलाव के कारण अनाजों की गुणवत्ता भी कम होने लगी है और कटाई के बाद होने वाला नुकसान बढ़ा है। कई किसान अब कम-अंतराल में पैदा होने वाले किस्मों की खेती कर रहे हैं या फिर बाद की बारिश से बचने के लिए बुआई का समय बदल देते हैं। हरुद अब फसल की कटाई का ही नहीं, जलवायु जोखिम का भी समय माना जाने लगा है।
हरुद अब फसल की कटाई का ही नहीं, जलवायु जोखिम का भी समय माना जाने लगा है।
यह पूरी प्रक्रिया केवल खाने या अनाज से जुड़ी नहीं है। महीउद्दीन मगरे जैसे परिवारों के लिए कटाई के समय का मतलब है एक साथ मिलकर काम करना। वे कहते हैं, “ये सब हमने अपने बुज़ुर्गों से सीखा है। आज भी परिवार एक दूसरे के भरोसे रहते हैं। ये काम ऐसे ही पूरा हो सकता है।” यह मौसम कई पीढ़ियों को जोड़ने, ज्ञान और अनुभव की निरंतरता को बनाए रखने का काम करता है।
कश्मीर के खेत बदल रहे हैं
लेकिन बदलाव को आसानी से देखा जा सकता है। शहरी विस्तार ने खेतों को निगल लिया है और नई पीढ़ी के ज़्यादातर लोग अब खेती के बदले शहर में जाकर नौकरियां करने को तरजीह दे रहे हैं। बढ़ता खर्च और बाहरी मदद की ज़रूरत का बोझ बुजुर्ग किसानों पर भारी पड़ रहा है। अनुमान के मुताबिक, बिहार और उत्तर प्रदेश से हज़ारों प्रवासी मज़दूर हर साल कटाई में मदद के लिए घाटी आते हैं।
उनकी मौजूदगी ज़रूरी है, लेकिन इसने हरुद की उस सामाजिक लय को बदल दिया है जो कभी ग्रामीण श्रम की सामूहिकता का पर्याय होती थी। खेतों में धान के गट्ठर छोटे-छोटे पहाड़ों की तरह ऊपर उठते दिखते हैं। वे केवल अनाज के भंडारण का नहीं बल्कि प्रचुरता और लचीलेपन का प्रतीक हैं। किसान धूप में सुखाने के लिए उन्हें बड़ी सावधानी से सजाते हैं।
कश्मीर में धान की कहानी को पानी की कहानी से अलग नहीं किया जा सकता है। हिमनद से लेकर धान के खेतों तक इस प्रवाह ने यहां की कई पीढ़ियों की आजीविका और आस्था को आकार दिया है। जलवायु के बदलने और परंपराओं के विकसित होने के बीच हरुद अब भी लचीलेपन के साथ ही लोगों, धरती और पानी के बीच के गहरे बंधन के प्रतीक के रूप में कायम है।
यह लेख इंडिया वाटर पोर्टल क्षेत्रीय पत्रकारिता फ़ैलोशिप 2025 के तहत लिखा गया है।