लोक संस्कृति

इतिहास के पन्नों से हमारे जल-योद्धा

77 वें स्वतंत्रता दिवस पर औपनिवेशिक काल (1800-1947) की जल गाथा 

Author : वरुण गोयल


देश 200 वर्ष तक ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अधीन रहा, लेकिन इस कठिन दौर से लड़ने की उसकी भावना कभी कमजोर नहीं हुई। आज देश, विश्व पटल पर एक उभरती महाशक्ति है। इस चमकती महाशक्ति को बनाने में न जाने कितने ही स्वतंत्रता सेनानी अंधेरी रातों में आजादी की अलख जगाने के लिए संघर्ष करते-करते हमेशा के लिए गहरे अंधकार में खो गए। ऐसे कुछ स्वतंत्रता सेनानी हैं, जिनके योगदान को आज भी स्वाधीनता दिवस पर याद किया जाता है, किन्तु भारत माता के अनगिनत ऐसे सपूत भी हैं जो इतिहास के पन्नों में कहीं खो गए हैं।औपनिवेशिक काल के इतिहास की बात की जाए तो षड्यंत्र पूर्वक देश के विनिर्माण, स्थापत्यकला आदि कई क्षेत्रों में अंग्रेज अधिकारियों का नाम बहुतायत से लिया जाता है, ऐसा नहीं है कि अंग्रेज़ों ने इन क्षेत्रों में कुछ काम नहीं किया, बस भारतीयों के योगदान को अंग्रेजी इतिहासकारों ने उतना स्थान नहीं दिया, जिसके वह हकदार थे।
भारतीयों द्वारा न केवल प्राचीन वैदिक और मध्यकाल में, बल्कि उत्तर-मध्ययुग में भी जल संसाधनों के विकास और संरक्षण पर अग्रणी कार्य किए हैं। भारतीय इंजीनियरों, स्वतंत्रता सेनानियों, रियासतों के शासकों और अन्य अज्ञात नायकों द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समानांतर कई जल से संबंधित विकास कार्य किए गए हैं, जिनकी झलक आज के भारत में भी दिखाई देती है।

हमारे पूर्वजों को जल संरक्षण और प्रबंधन का समृद्ध ज्ञान था। उदाहरण के लिए, नहर सिंचाई की बात की जाए तो भारत के लिए नई नहीं थी, जैसा कि यूनानी यात्रियों ने अपने प्रसंग में उल्लेख किया है और शास्त्रों में भी अभिलेखों में वर्णित है। आश्चर्य की बात नहीं है कि उस काल में प्रचलित आहर-पाइन प्रणाली आज भी दक्षिण बिहार में प्रयोग में आती है। इसके अलावा, कई रियासतों ने सिंचाई और घरेलू उद्देश्यों के लिए नहरों, झीलों, जलाशयों, बांधों और अन्य जल सुविधाओं और सेवाओं का निर्माण किया। इतिहास में कई सक्षम भारतीय इंजीनियरों, जल योद्धाओं, व अज्ञात जल नायकों के अनगिनत योगदान हैं जिन्होंने औपनिवेशिक काल की विपरीत परिस्थितियों में अपने कार्यों का लोहा मनवाया, न केवल नदियों की खोज की, योजनाएं बनाई, रूपरेखा तैयार की, बल्कि विभिन्न जल संरचनाओं को मूर्त रूप भी दिया। जिनमें से कुछ आज भी उपयोग में आ रहे हैं।
औपनिवेशिक काल के दौरान, भारतीय जल योद्धाओं के योगदान को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है: जल-सत्याग्रह, जल सेवा, और जल-संरचना।

ब्रिटिश काल में, देश में सभी वर्गों के लिए पानी की पहुँच को लेकर कई विरोध प्रदर्शन हुए, जो अधिकांश ब्रिटिश सरकार के अनुचित कदमों और उसके नियंत्रण के खिलाफ थे। चूंकि भूमि और जंगल आंतरिक रूप से जल से जुड़े होते हैं, इसलिए सबसे पहले विरोध प्रदर्शनों में देश के आदिवासियों ने जमकर अंग्रेज सरकारों से लोहा लिया और अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष किया।

कोया विद्रोह (1862) की शुरुआत हुई, विरोध उन जमींदारों (मुत्तादार ) के खिलाफ था जिन्होंने अंग्रेजी शासकों के लिए कर वसूल करने हेतु एक श्रृंखला का निर्माण करवाया था। आदिवासियों ने (1879) में तमन्ना डोरा के नेतृत्व में अधिकारियों पर हमला किया। आगे जाकर यह आंदोलन  (1922-24) में पश्चिमी गोदावरी जिले में अल्लूरी सीतारमा राजू के नेतृत्व में असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलन के साथ समन्वित हो गया। वहीं, हैदराबाद राज्य में गौंड जनजाति के क्रांतिकारी नेता कोमाराम भीम (1901-40) को जल, जंगल, जमीन का नारा देने का श्रेय दिया जाता है, जो अतिक्रमण और शोषण के खिलाफ एक भावना के प्रतीक थे।

जहाँ एक और जल पर एकाधिकार और नियंत्रण से संबंधित विरोध प्रदर्शन हो रहे थे। वहीं दूसरी ओर, हमारे जल योद्धाओं और अनजाने नायकों द्वारा नए जल स्रोतों की पहचान की जा रही थी। वर्तमान जल आपूर्ति मिशन के समकक्ष रूप में, 1860 से 1920 के दौरान, कांगड़ा क्षेत्र के मुहिन, गरली और गढ़ गांवों, और विभाजित पंजाब के आस-पास के क्षेत्रों में विभिन्न पाइप-जलापूर्ति योजनाएं लागू की गई थीं। महाराजा रणजीत सिंह, पंजाब के पहले शासक थे, जिन्होंने फसलों की सिंचाई के लिए नहर के पानी के बड़े पैमाने पर उपयोग के बारे में सोचा, उन्होंने उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में बारहमासी और मौसमी नहरों की खुदाई और विस्तार किया। लाहौर साम्राज्य के तहत, विशेष रूप से दक्षिण-पश्चिम में मुल्तान और डेराजात में मौसमी नहरों की खुदाई की गई और उनकी आपूर्ति सतलुज, चिनाब और सिंधु नदियों से ली गई थी।

नैन सिंह रावत (1830-82) को 'सर्वे ऑफ इंडिया' में ‘पंडित ’ के रूप में भी जाना जाता है। उस समय में आधुनिक जीपीएस जैसी तकनीकों के अभाव में ‘पंडित ’ एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी और दिशा जानने के लिए अपने कदमों से दूरी और दिशा की जानकारी प्राप्त करते थे । नैन सिंह रावत ने भारत के हिमालयी क्षेत्र की खोज की, उन्होंने तिब्बत के ल्हासा को मानचित्र पर दिखाने का काम किया, और ब्रह्मपुत्र नदी के उद्गम स्थल की पहचान की। इसके अलावा, थॉमसन कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, जिसे अब आईआईटी रुड़की के नाम से भी जाना जाता है, के एक अन्य पूर्व छात्र अजुधिया नाथ खोसला थे। उन्होंने पंजाब प्रांत के झांग जिले में चिनाब नदी पर भाखड़ा बांध परियोजना के लिए सर्वेक्षण और जांच काम किया। उन्होंने खास इंजीनियरिंग कौशल से त्रिम्मु बैराज का डिज़ाइन तैयार किया, जिससे उच्च बाढ़ के दौरान अतिरिक्त प्रवाह को निकाला जा सके। इसका निर्माण मात्र दो साल (1937-39) में पूरा किया गया।

कवर सैन गुप्ता, जिन्हें इंदिरा गांधी नहर (आईजीसी) के जनक के रूप में भी जाना जाता है, ने 1940 में हिमालय के पानी को रेगिस्तानी इलाके में सिंचाई के लिए का काम में लिए जाने हेतु रूपरेखा तैयार की। आईजीसी भारत की सबसे लंबी नहर है और यह दुनिया की सबसे बड़ी सिंचाई परियोजना में से एक है।राजा ज्वाला प्रसाद, थॉमसन कॉलेज के प्रसिद्ध पूर्व छात्र, ने 1924 में गंगा नहर ग्रिड योजना को तैयार किया।

रियासतों के शासकों द्वारा कई जल संचयन संरचनाएँ बनाई गईं। उन्नीसवीं सदी के बाद से देश में आर्थिक और जनसंख्या संबंधित बदलाव बड़े पैमाने पर हुए। यह ऐसा समय भी था जब देश ने भयंकर अकाल का सामना भी किया। अकाल और बार-बार पड़ने वाले सूखे से बचने के लिए बड़े पैमाने पर नहरों और कुओं का निर्माण भी किया गया, मुख्य रूप से दक्षिण भारत में कृत्रिम झीलों और टांकों का निर्माण वर्ष-जल को एकत्रित करने के लिए किया गया। आजादी से पूर्व भी बड़े पैमाने पर जल हेतु बहुउद्देशीय परियोजनाओं पर काम हुआ।रानिया कुहल का पुनर्निर्माण 1800 में कांगड़ा की रानी द्वारा किया गया था। सिंचाई के पानी को उपलब्ध कराने के अलावा, कुहल उन ग्रामीणों की पानी की जरूरतों को पूरा करते थे, जो एक स्थान से दूसरे स्थान तक आवागमन करते थे। वहीं, इंदौर की सरकारी बगीचे की बावड़ी का निर्माण 1835 में अहिल्याबाई होल्कर ने बागोश्वर मंदिर के निर्माण के समय करवाया था।

कर्नाटक के शेषाद्रि अय्यर ने मांड्या जिले के शिवनसमुद्रम् में एशिया की पहली जल-विद्युत परियोजना शुरू की, जिसने 1902  में कोलार के सोने की खदानों के लिए और 1905 में बैंगलोर के लिए बिजली पैदा करना शुरू किया। बड़ौदा (वडोदरा) के शासक संयाजीराव गायकवाड़ द्वारा अहमदाबाद के पास थोल झील नाम का जलाशय अभ्यारण वर्ष 1912 में बनवाया गया था। वहीं, छत्रपति साहू महाराज द्वारा वर्ष 1890 में रानकला झील कोल्हापुर शहर के पास बनाई थी। वहीं, जमशेद जी टाटा द्वारा परिकल्पित वलवन बांध का निर्माण कार्य पुणे शहर के निकट वर्ष 1996 में खोपोली जलविद्युत संयंत्र के लिए किया गया था और यह आज भी लोनावला, खंडाला और आसपास के गांवों के लिए पानी की आपूर्ति का एक स्रोत है।

निजाम सागर, तेलंगाना का सबसे पुराना बांध है, जिसे हैदराबाद के सातवें निजाम, मीर उस्मान अली खान ने बनवाया था और प्रसिद्ध इंजीनियर अलीनवाज जंग बहादुर ने डिजाइन किया था। इसका निर्माण 1931 में मंजीरा नदी पर किया गया था, जो गोदावरी नदी की सहायक नदी है और तेलंगाना में कामारेड्डी जिले के अचंमपेट व बांजापाली गांवों के बीच बहती है। पुणे जिले के ही मुलशी तहसील में मुला नदी पर मुलशी बांध का निर्माण 1927 में जल-विद्युत उत्पादन के लिए टाटा इंडस्ट्रीज द्वारा किया गया था। जलाशय में संग्रहित पानी का उपयोग सिंचाई के लिए किया जाता है और पावर कंपनी द्वारा संचालित भीरा जलविद्युत परियोजना को भी प्रदान किया जाता है। यह परियोजना मुलशी सत्याग्रह का मुख्य विषय भी रही थी, जो सेना बाती बापत नाम के एक प्रसिद्ध गांधीवादी क्रांतिकारी थे। वहीं, राजस्थान में महाराजा गंगा सिंह द्वारा फिरोजपुर में कैनाल हैड-वर्क्स की आधारशिला 5 दिसम्बर 1925 को रखी गई और बीकानेर के क्षेत्र को सतलुज नदी के माध्यम से 89 मील लम्बी नहर के माध्यम से जल मिला, इसका निर्माण कार्य 1927 में पूरा हुआ।

वहीं, मैसूर के राजा चामराजा वोडेयार द्वारा अर्कावती और कुमुदवती नदियों के संगम पर थिप्पगोंडानहल्ली जलाशय 1930-34 का निर्माण करवाया गया, जिसका उपयोग बैंगलोर जल आपूर्ति और सीवरेज बोर्ड द्वारा पीने के पानी के एक प्रमुख स्रोत के रूप में किया जाता है।

केरल में पहली जल-विद्युत परियोजना महाराजा श्री चिथिरा तिरुनल बलराम वर्मा के शासनकाल के दौरान पल्लीवासल में स्थापित की गई थी। इसे 1940-42 के दौरान तीन चरणों में चालू किया गया था। भाखड़ा बांध हिमाचल प्रदेश में बिलासपुर के पास भाखड़ा गाँव में सतलज नदी पर बनाया गया था। इस परियोजना के लिए समझौते पर नवंबर 1944 में पंजाब के तत्कालीन राजस्व मंत्री सर छोटूराम ने बिलासपुर के राजा के साथ हस्ताक्षर किए थे और जनवरी 1945 को परियोजना को अंतिम रूप दिया गया था। बांध का निर्माण 1948 में शुरू हुआ और इसका निर्माण कार्य भी ई. कुवर सेन के कुशल मार्गदर्शन में पूरा किया गया।

आज, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के 77वें शुभ अवसर पर हमें यह जानकर गर्व होना चाहिए कि कैसे निष्कलंक समर्पण वाले राजाओं, बहादुर रानियों, अद्भुत प्रतिभाशालियों, अद्वितीय इंजीनियरों, निर्भीक स्वतंत्रता सेनानियों और वीर गुमनाम योद्धाओं ने अपने प्राणों की कुर्बानी देते हुए भारतीय स्वतंत्रता के प्रति अपना अद्वितीय संकल्प दिखाया।
 

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वरुण गोयल

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