यह तो सर्वविदित है कि जल मानव की मूलभूत आवश्यकता है। प्रकृति ने वर्षा के माध्यम से जल प्रदान कर जनमानस पर बहुत उपकार किया है। प्रकृति बारह महीने मेहरबान नहीं रहती, अपितु मानसून के मौसम में ही अपनी कृपा प्रदान करती है। यदि जल को हमने संजोकर नहीं रखा, तो यह व्यर्थ ही वह जाएगा और फिर कुछ ही समय बाद भूजल के स्रोत भी सूखने लगेंगे। नतीजा यह होगा कि हमें ग्रीष्मकाल में जल की एक-एक बूंद के लिए तरसना पड़ेगा।
भूजल से अभिप्राय जमीन के भीतर एकत्रित जल से है। नदी, तालाब आदि के निकट स्थित कुँओं, बावड़ी, तालाब, नलकूप या बोरिंग से भले ही वर्ष के अधिकांश माह जल प्राप्त होता हो, लेकिन अन्य इलाकों के भूजल के स्रोत चार महीने पश्चात ही सूख जाते हैं। ऐसा इसलिए कि भूजल संचयन के लिए हम सचेत नहीं हैं या हमारी योजनाएं पूर्णतः कारगर नहीं हो पा रही हैं।
जल संकट का स्थायी समाधान भूजल ही है। इसी से हमारा कल यानि भविष्य संवर सकता है। अन्यथा जल के लिए संघर्ष होता रहेगा। खासतौर पर दूरस्थ ग्रामीण अंचलों में पीने के जल का गंभीर संकट उत्पन्न हो जाता है। महिलाओं को कई किलोमीटर दूर जाकर जल लाना पड़ता है। क्योंकि उनके अपने गांव-कस्वे या क्षेत्र में भूमिगत जल स्रोत पूर्णतः सूख गए होते हैं।
संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय के अंतर्गत पर्यावरण और मानव सुरक्षा संस्थान (UNE-EHS) द्वारा प्रकाशित सहसम्बद्ध आपदा जोखिम रिपोर्ट (Inter-connected disaster risk report 2023) में चेतावनी दी गई है कि अगले दो साल में भारत में भूजल के स्तर में बेहद कमी हो सकती है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में सिंधु-गंगा मैदानी क्षेत्रों के कुछ भाग पहले ही भूजल की कमी के गंभीर स्तर को पार कर चुके हैं। उत्तर-पश्चिमी भारत में 2025 तक भूजल के गंभीर संकट का खतरा है। भारत दुनिया में भूजल का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता है। वह अमेरिका व चीन द्वारा उपयोग किये जाने वाले कुल जल से अधिक भूजल का उपयोग करता है। भारत का उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र देश की बढ़ती आबादी के लिए 'रोटी की टोकरी' के रूप में काम करता है। देश में चावल उत्पादन का 50 प्रतिशत और गेहूं उत्पादन का 85 प्रतिशत हिस्सा पंजाब, हरियाणा में पैदा होता है। पंजाब में 78 प्रतिशत कुंओं के जल का सिंचाई के लिए बहुत ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है। सऊदी अरब जैसे देश पहले से भूजल की कमी से जूझ रहे हैं। भारत समेत अन्य देश इस संकट से दूर नहीं हैं। पानी की कमी होने पर कृषि के लिए करीब 70 प्रतिशत भूजल का निष्कर्षण किया जाता है। कृषि को सूखे के कारण होने वाले नुकसान को कम करने में भूमिगत जल महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जलवायु परिवर्तन से भूजल स्तर की स्थिति और भी निकृष्ट भी होने की आशंका है।
दुनिया में भूमिगत जल स्रोत समाप्त होने की कगार पर पहुंच रहे हैं। दुनिया के आधे से ज्यादा प्रमुख भूमिगत जल स्रोत प्राकृतिक रूप से पुनःपूरित होने के स्थान पर तेजी से कम हो रहे हैं। कुँओं में जिस भूमिगत जलस्तर से जल आला है, अगर जल उससे नीचे चला गया, तो किसान जल तक अपनी पहुंच खो सकते हैं। इससे खाद्य उत्पादन पर खतरे की आशंका है।
पृथ्वी के 70 प्रतिशत भाग में जल उपलब्ध होने के बावजूद आज विश्व में भूमिगत जल निरंतर कम हो रहा है। इसका कारण है भूगर्भीय जल का अत्यधिक दोहन, जिसके दुष्परिणाम अब सामने आने लगे हैं। अमेरिका के दक्षिणी-पश्चिमी एरिजोना, यूटा और कैलिफोर्निया प्रांतों में कई जगह मीलों लंबी दरारें उभर आईं हैं। एरिजोना में वर्ष 2002 से इसकी निगरानी कर रहे भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के मुताबिक अब तक 169 मील लंबी दरारें या खाइयां बन चुकी हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में हजारों भूजल स्रोतों की जांच में सामने आया है कि इनका जल स्तर तेजी से घट रहा है। पिछले एक दशक में हर 10 में से 4 जोन में भूजल का इतना अधिक दोहन किया गया है कि अब इसकी भरपाई की संभावना भी नहीं है। और यदि थोड़ी-बहुत संभावना है भी तो इसमें सदियां लग जाएंगी। एरिजोना भूगर्भीय सर्वेक्षण के वैज्ञानिक जोसेफ कुक कहते हैं कि भूजल की लगातार पंपिंग की जा रही है जिसके कारण वर्षाकाल के जल से इसे पुनःपूरित होने का समय नहीं मिल पा रहा है। उन्होंने कहा कि इसके लिए उपयोगकर्ताओं से ज्यादा दोषी सरकार है, जो भूजल दोहन को लेकर कोई कारगर नियम नहीं बना पाई है।
जब भूमिगत प्राकृतिक जलस्रोतों से भूजल की अत्यधिक निकासी की जाती है तो इससे भूमि ढीली हो जाती है और दरारें उभरने लगती हैं। क्योंकि जल मिट्टी को बांधे रखता है। इन दरारों को प्राकृतिक रूप से बनने वाली दरारें नहीं कह सकते। क्योंकि इसके लिए सिर्फ इंसान दोषी है। दरारें उभरना पृथ्वी में तनाव का संकेत है।
जोसेफ कुक के अनुसार, ये दरारें आमतौर पर पहाड़ों के बीच घाटी क्षेत्रों में विकसित होती हैं, जो मकानों, सड़कों, नहरों और बाँधों को नुकसान पहुंचा सकती हैं। ये बड़ी आपदा का कारण बन सकती हैं, जिससे जनमानस, और पशुधन के साथ-साथ अत्यधिक आर्थिक हानि की भी संभावना रहती है।
मध्य प्रदेश में भूमिगत जल की मात्रा को बढ़ाने के लिए अब कृत्रिम तकनीक अपनाई जाएगी। नगरीय प्रशासन विभाग इसके लिए नगरीय जलदायक प्रबंधन योजना तैयार कर रहा है। एक लाख से ज्यादा आबादी वाले 33 शहरों को इसके लिए चयनित किया गया है। केन्द्रीय भूजल बोर्ड के साथ मिलकर इन शहरी क्षेत्रों की मैपिंग की जाएगी। ऐसे स्थान खोजे जाएंगे, जहां वर्षा जल को एकत्रित कर उसे जमीन के अंदर पहुंचाया जा सके। बड़े पार्क, मैदान से लेकर ऐसी जल संरचनाओं को शामिल किया जाएगा, जहां चैकडेम बनाकर जल को जमीन के अन्दर पहुंचाया जा सके।
पर्कुलेशन टैंक, चैक डेम तथा नालों के जल को उपचारित कर जमीन के अन्दर पहुंचाया जाएगा। वहीं, कुँएं और बावड़ी में वर्षा के साफ जल को संचयित करके भी भूजल को पुनः पूरित किया जाएगा। ऐसे क्षेत्र जहां जल का स्तर बहुत नीचे पहुंच गया है, या बोरिंग सूख चुके हैं, वहां बोरिंग द्वारा जल को जमीन के अन्दर पहुंचाया जाएगा। अभी नगरीय निकाय पीने के जल की आपूर्ति करने के लिए जलाशय, नदियों के साथ-साथ बड़ी मात्रा में भूमिगत जल का उपयोग करता है। परंतु जितना जल जमीन से लिया जाता है, उतना जल वापस जमीन में पहुँचाया नहीं जाता।
केन्द्रीय भूजल बोर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार, मध्य प्रदेश में धरती के नीचे 7 लाख 58 हजार 453 एमसीएम जलभंडारण क्षमता वाला जलाशय मौजूद है। इसमें 24 हजार 957 एमसीएम जल भंडारण क्षमता को कृत्रिम पुनः पूरण से भरा जा सकता है। इसकी सबसे ज्यादा संभावना मालवा, बुंदेलखांड, ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में है। बोर्ड इसके तहत ग्रामीण क्षेत्रों का मास्टर प्लान तैयार कर वहां कृत्रिम तरीके से भूजल स्तर बढ़ाने पर कार्य कर रहा है। प्रदेश की बात करें, तो यहां पुनः पूरण करने योग्य 9188 एमसीएम जल उपलब्ध है। वहीं, कृत्रिम भंडारण के लिए 24957 एमसीएम जल के लिए खाली जगह पहले से उपलब्ध है।
प्रदेश के चार बड़े शहर भोपाल, इंदौर, जबलपुर और ग्वालियर में 4 लाख 8 हजार 938 ऐसे भवन हैं, जहां छत पर जल संग्रहण तंत्र लगाना कारगर हो सकता है। ये भवन औसतन 50 वर्गमीटर के हैं। 20.54 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल वाले इन मकानों पर औसतन 17.41 एम.सी.एम. जल वर्षा से प्राप्त होता है, यदि चारों महानगरों में जल संग्रहण अनिवार्य कर दिया जाए, तो केरवा डैम के बराबर जल जमीन के अंदर पहुंचा सकते हैं। इस पर 850 करोड़ रूपए का खर्च संभावित है।
भोपाल का कुल क्षेत्रफल 2772 वर्ग किलोमीटर है। शहर के नीचे 3195 एमसीएम जल भंडारण क्षमता का क्षेत्र है, जहां रिक्त जलाशय स्थल उपलब्ध है। फंदा ब्लॉक का 1284 वर्ग कि.मी. क्षेत्र भूजल पुनःपूरण के लिए बेहतर है। राजधानी में 1.19 लाख मकानों की छत पर जल संग्रहण तंत्र लगाए जा सकते हैं। इनका क्षेत्रफल 5.95 वर्ग कि.मी. होगा।
इनसे सालाना 7 एमसीएम वर्षा जल को बचाया जा सकेगा। जिससे 18 दिन तक शहर में जल आपूर्ति की जा सकती है। मध्य प्रदेश की भांति देश के सभी राज्यों में आधुनिक तकनीक से भूजल स्तर बढ़ाने के उपाय किए जाने चाहिए, ताकि वर्षभर पेयजल उपलब्ध हो सके।
भूजल के अंधाधुंध दोहन के फलस्वरूप हर साल भूजल स्तर गिरता जा रहा है। अविवेकपूर्ण नीति, लगातार सूखा तथा अल्पवर्षा के कारण भूजल निम्नतम स्तर तक पहुंच गया है। यदि भूजल दोहन की रफ्तार यही रही तो भविष्य में पृथ्वी जलविहीन हो जाएगी। भारत में जल का भविष्य चिंताजनक है। जल की मांग और आपूर्ति में अंतर बढ़ता जा रहा है। सन् 2050 तक यह अंतर 50 प्रतिशत से अधिक हो सकता है। वर्तमान में 7 खरब घनमीटर जल की मांग है जो बुढ़कर 15 खरब घनमीटर तक हो जाएगी। भूमिगत जल का यदि अनावश्यक रूप से दोहन किया जाएगा तो आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ भी जल शेष नहीं रहेगा। देश के पर्वतीय प्रदेशों में भूजल स्तर तेजी से घट रहा है और वहां जल संकट से त्रस्त लोग अपने गांव छोड़-छोड़कर अन्यत्र जा रहे हैं। भूजल का दोहन तो हर कोई करना चाहता है, लेकिन कितने लोग पुनर्भरण का प्रयास करते हैं या उस दिशा में सोचते हैं?