घर के दैनिक कामकाज हों या खेती और पशुपालन या फिर औद्योगिक कारखानों में उत्पादन की प्रक्रिया, इन सभी के लिए पानी एक मूलभूत ज़रूरत है। आज के दौर में पानी की यह आवश्यकता ज़्यादातर भूजल से ही पूरी हो रही है। नतीजतन, भूजल का दोहन बहुत बड़े पैमाने पर किया जा रहा है।
ऐसे में, भूजल के स्तर और स्थिति का पता लगाने में जियोइन्फ़ॉर्मेटिक्स तकनीक काफी महत्वपूर्ण साबित हो रही है। इस लेख में हम इस वैज्ञानिक तकनीक के बारे में विस्तार से बताने जा रहे हैं, ताकि आप इसके उपयोग और तकनीकी पहलुओं के बारे में जान-समझ सकें।
जियोइन्फ़ॉर्मेटिक्स की आवश्यकता और उपयोगिता
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया में सबसे अधिक भूजल दोहन करने वाला देश है। वैश्विक भूजल निकासी का करीब 26% भारत में निकाला जाता है। केंद्रीय भूजल बोर्ड (CGWB) की रिपोर्ट बताती है कि साल 2022 में भारत में निकासी योग्य भूजल की उपलब्धता 398 BCM थी जबकि वार्षिक भूजल निकासी 245 BCM की हुई। यानी निकासी के लिए उपलब्ध भूजल का करीब 62% हिस्सा निकाल लिया गया और 38 फीसदी ही बचा।
पंजाब जैसे कुछ राज्यों में सालान भूलज पुनर्भरण की दर से कहीं अधिक निकासी की जा रही है। साल 2022 में यहां सालाना भूजल निकासी जहां 27.8 BCM रही, जबकि पुनर्भरण महज़ 18.84 BCM ही हुआ। यानी पुनर्भरण से लगभग 64% अधिक भूजल की निकासी की गई। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि देश में भूजल का भंडार काफी चिंताजनक स्थिति में पहुंच चुका है।
बीते कुछ दशकों में भारत में सिंचाई के लिए भूजल पर निर्भरता काफी बढ़ गई है। राष्ट्रीय कृषि अर्थशास्त्र और नीति अनुसंधान संस्थान (NIScPR) के आंकड़ों के मुताबिक 1950–51 में भारत में कुल सिंचित क्षेत्र का लगभग 29% भूजल से सिंचित होता था। वहीं, 2022–23 तक यह हिस्सा बढ़कर 63% हो गया। यानी भूजल पर कृषि की निर्भरता लगभग दोगुनी हो गई।
इसका प्रमुख कारण कुओं, तालाब, पोखर, नदी-नहर जैसे सतही जल स्रोतों से पानी की उपलब्धता का लगातार कम होना है। बढ़ती आबादी के चलते जल स्रोतों पर बढ़ते दबाव के साथ ही जलवायु परिवर्तन के कारण एक ही क्षेत्र के अलग-अलग भागों में वर्षा में असमानता होना भी जलस्तर को प्रभावित कर रहा है। इसका असर सतही और भूजल, दोनों प्रकार के जल स्रोतों पर देखने को मिल रहा है।
हालांकि, हर साल बारिश में भूजल स्रोतों में जल पहुंचता है, पर यह पुनः पूर्ति (रीचार्जिंग) हर साल और हर जगह एक जैसी नहीं होती। इसलिए देश के कई इलाकों में भूजल के स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। ऐसे में भूजल का सतत और दीर्घकालिक उपयोग करने के लिए हमें सटीक ढंग से यह जानने की ज़रूरत होती है कि हमारे इलाके में भूजल का स्तर कितना है यानी कितना भूजल उपलब्ध है।
भूजल भंडार का यह आकलन जियोइन्फ़ॉर्मेटिक्स तकनीक के ज़रिये किया जा सकता है। साथ ही यह तकनीक भूजल की गुणवत्ता और प्रवाह की स्थिति का आकलन करने में भी सक्षम होती है। अच्छी बात यह है कि आजकल जियोइन्फ़ॉर्मेटिक्स में यह काम रिमोट सेंसिंग और भौगोलिक सूचना प्रणाली (Geographic Information System : GIS) जैसी उन्नत तकनीकों के जरिये किया जाने लगा है। इससे अब भूजल के काफी सटीक आंकड़े मिलने लगे हैं।
ऐसे तैयार होता है भूजल संभावित क्षेत्रों का नक्शा
भूजल की संभावना वाले क्षेत्रों की पहचान करने के लिए वेटेज ओवरले मॉडल एक बेहद कारगर तकनीक है। इसमें भूजल को प्रभावित करने वाले कई कारकों, जैसे वर्षा, मिट्टी का प्रकार, ज़मीन की ढलान, भूमि उपयोग और सतही जल स्रोतों की दूरी जैसे आंकड़ों को अलग-अलग डिजिटल नक्शों की परत के रूप में कंप्यूटर पर डाला जाता है।
फिर हर कारक को उसके महत्व के हिसाब से वज़न (weight) दिया जाता है। उदाहरण के लिए – वर्षा को 40%, मिट्टी को 30%, ढलान को 15%, और बाकी कारकों को 15% तक वेटेज दिया जा सकता है। इसके बाद इन सभी लेयरों को GIS सॉफ्टवेयर की मदद से आपस में मिलाकर एक संयुक्त नक्शा तैयार किया जाता है, जिसमें यह दिखाया जाता है कि किस इलाके में भूजल मिलने की संभावना सबसे अधिक है।
इस विश्लेषण में सभी परतों को वैज्ञानिक समीकरणों के आधार पर एक-दूसरे से जोड़ा जाता है, जिससे एक समग्र सूचकांक (Groundwater Potential Index) तैयार होता है। इस इंडेक्स को रंग-कोड वाले नक्शे में तब्दील कर यह दिखाया जाता है कि क्षेत्र के कौन से हिस्से में भूजल की उच्च, मध्यम या निम्न संभावना है।
सभी कारकों का विश्लेषण कर जो नक्शा बनता है, उसे पांच श्रेणियों में बांटा जाता है, अति उत्तम, उत्तम, मध्यम, निम्न और अति निम्न।
इसके लिए अक्सर हाई-रेजोल्यूशन सैटेलाइट इमेजरी, डिजिटल एलिवेशन मॉडल (DEM) और वर्षा वितरण के आंकड़ों का सहारा लिया जाता है। अंतिम नक्शा न केवल वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित होता है, बल्कि उसे ज़मीनी सर्वेक्षण और मौजूदा जलस्तर डेटा से भी सत्यापित किया जाता है। इससे यह सुनिश्चित किया जाता है कि नक्शा केवल अनुमान नहीं, बल्कि निर्णय लेने के लिए एक भरोसेमंद उपकरण हो।
डेटा संग्रहण: भूजल मानचित्र बनाने की पहली ज़रूरत
भूजल मानचित्र बनाने की शुरुआत उस क्षेत्र से जुड़े डेटा के संग्रहण से होती है। इसके लिए वैज्ञानिक भारतीय सर्वेक्षण विभाग से प्रमाणित टोपोशीट या डिजिटल शेपफाइल का इस्तेमाल करते हैं। डिजिटल शेपफाइल एक ऐसा फ़ॉर्मेट होता है, जिसमें किसी क्षेत्र की सीमाओं, नदियों, सड़कों, खेतों और जंगलों आदि की जानकारी बिंदु, रेखा और बहुभुज जैसी आकृतियों के ज़रिये डिजिटल रूप में दर्ज होती है।
इनके आधार पर भूवैज्ञानिक (Geological) और भूआकृतिक (Geomorphological) मानचित्र बनाए जाते हैं। इसके लिए, आमतौर पर 1:50,000 के पैमाने का इस्तेमाल किया जाता है। यानी नक्शे पर एक सेमी की लंबाई धरती के 500 मीटर को दर्शाती है। इस काम में ISRO का भुवन पोर्टल बहुत मददगार होता है, जहां से रेखावस्था (Lineament) नक्शे आसानी से डाउनलोड किए जा सकते हैं।
इसके बाद, ज़मीन के उपयोग और ढकाव (जैसे खेत, जंगल या बंजर ज़मीन) का नक्शा तैयार किया जाता है। इसके लिए वैज्ञानिक Sentinel-2B नामक उपग्रह की 10 मीटर रिज़ॉल्यूशन वाली तस्वीरें इस्तेमाल करते हैं, जिन्हें अमेरिकी भू-सर्वेक्षण विभाग (USGS) के अर्थ एक्सप्लोरर पोर्टल से डाउनलोड किया जाता है।
मिट्टी की बनावट को जानने के लिए राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण एवं भूमि उपयोग नियोजन केंद्र, नागपुर से डेटा लिया जाता है। बारिश के आंकड़े भारतीय मौसम विभाग, पुणे से ग्रिड फॉर्मेट में लिए जाते हैं, जिससे मानसून वर्षा का नक्शा तैयार होता है। ज़मीन की ऊँचाई-नीचाई और ढलान को मापने के लिए शटल रडार टोपोग्राफ़ी मिशनShuttle (SRTM) से प्राप्त 30 मीटर रिज़ॉल्यूशन वाले डिजिटल एलिवेशन मॉडल (DEM) का इस्तेमाल किया जाता है। इससे यह जाना जाता है कि ज़मीन के नीचे पानी किस दिशा में बहता है और कहां रुक सकता है।
नक्शे को अंतिम रूप देने के लिए राज्य या ज़िले के खास इलाके का जलस्तर और उपज का आंकड़ा जल डेटा केंद्र (Water Data Centre) से जुटाया जाता है। इन सभी आंकड़ों को एक साथ जोड़कर भूजल के नक्शे की नींव रखी जाती है, ताकि यह जाना जा सके कि ज़मीन के नीचे पानी कितनी गहराई पर, किस हालत में और किस मात्रा में मौजूद है।
पंपिंग टेस्ट से होती है विश्वसनीयता की जांच
भूजल का नक्शा बनाने के बाद यह जांचना भी ज़रूरी होता है कि तैयार नक्शा वास्तविक ज़मीनी हालात से कितना मेल खाता है। इसके लिए, पुराने कुओं के पंपिंग टेस्ट, भूजल स्तर के आंकड़े और उपज डेटा की मदद ली जाती है।
यह डेटा हर गांव या ब्लॉक स्तर पर उपलब्ध नहीं होता। इसलिए वैज्ञानिक इसे सरकारी एजेंसियों से इकट्ठा करते हैं। इस सबके बाद अंत में यह सुनिश्चित किया जाता है कि तैयार नक्शा कम से कम 75% सटीकता के साथ असल ज़मीनी हालात को दर्शा रहा हो। ऐसा होने पर ही उसे वैज्ञानिक रूप से भरोसेमंद और इस्तेमाल लायक माना जाता है।
बिना खोदे पता चल जाता है ज़मीन के नीचे पानी का स्तर
जियोइन्फ़ॉर्मेटिक्स तकनीक की बदौलत अब भूजल नक्शे केवल एक वैज्ञानिक दस्तावेज नहीं रह गए। आज खेती से लेकर सरकारी नीतियों के निर्माण तक में इनका सहारा लिया जा रहा है। इन नक्शों में रंगों और चिन्हों के ज़रिये बताया जाता है कि किसी इलाके में भूजल मिलने की संभावना कितनी है, यानी कहां बोरवेल खोदना फायदेमंद होगा और कहां नहीं।
पहले यह काम जमीन पर गड्ढे करके, परीक्षण बोरिंग या स्थानीय अनुभव के आधार पर किया जाता था। लेकिन, अब जियोइन्फ़ॉर्मेटिक्स तकनीक की मदद से यह काम ज़्यादा सटीक, तेज और कम लागत में होने लगा है।
हाल के वर्षों में वैज्ञानिकों ने भूजल नक्शों को और ज़्यादा विश्वसनीय बनाने के लिए बहु-मापदंडीय विश्लेषण पद्धतियों (Multi-Criteria Decision Making Techniques) का उपयोग शुरू किया है। इनमें एनालिटिकल हाइरार्की प्रोसेस (AHP), फ़्रीक्वेंसी रेशियो और मशीन लर्निंग जैसे आधुनिक टूल शामिल किए गए हैं।
पिछले कुछ वर्षों में जियोइन्फ़ॉर्मेटिक्स के ज़रिये भूजल संभावना क्षेत्रीकरण (Ground Water Prospect Zoning) के कई अध्ययन किए गए हैं। इन अध्ययनों के ज़रिये भूजल संरक्षण और प्रबंधन के लिए उपयुक्त क्षेत्रों की पहचान करके कारगर कदम उठाने के प्रयास किए गए हैं।
भूजल मानचित्र के फायदे
यह मानचित्र भूगर्भ में भूजल की उपलब्धता के बारे में प्रत्येक 10 मीटर × 10 मीटर के ग्रिड के लिए एक सटीक और विस्तृत विवरण प्रदान करता है।
मानचित्र में भूजल की अलग-अलग संभावनाएं अलग-अलग रंगों की कोडिंग के माध्यम से दर्शाई जाती हैं।
भूजल मानचित्रों को कंप्यूटर या मोबाइल पर डिजिटल रूप से देखकर किसी स्थान पर गए बिना ही वहां की ज़मीन के नीचे मौजूद पानी की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
डिजिटल भूजल मानचित्रों का उपयोग कर किसान अपने खेतों में सिंचाई के लिए कुएं की खुदाई या बोरिंग के लिए सबसे उपयुक्त स्थान का पता लगा सकते हैं।
जिन स्थानों पर भूजल का अत्यधिक दोहन हो रहा है। उन स्थानों को इस मानचित्र के माध्यम से चिह्नित करके भूजल का संरक्षण किया जा सकता है।
कम भूजल की संभावना वाले क्षेत्रों में भूजल का अत्यधिक दोहन करने पर रोक लगाई जा सकती है।
ये मानचित्र जलभृत मानचित्रण (Aquifer mapping) के लिए अच्छे इनपुट साबित होते हैं।
इन मानचित्रों के ज़रिये जल संकटग्रस्त क्षेत्रों की पहचान करके आवश्यकतानुसार उपायों के ज़रिये भूजल स्तर में सुधार लाने का प्रयास किया जा सकता है।