अग्रसेन की बावली (जिसे उग्रसेन की बावड़ी भी कहा जाता है), प्राचीन स्मारक और पुरातात्विक स्थलों और अवशेष अधिनियम, 1958 के तहत भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा संरक्षित स्मारक है। लगगभग 60 मीटर लंबी और 15 मीटर चौड़ी यह ऐतिहासिक बावड़ी नई दिल्ली में कनॉट प्लेस, जंतर मंतर के पास, हैली रोड़ पर स्थित है। यह 108 सीढ़ी या पैड़ी वाली बाबड़ी तीन मंजिला इमारत के समान ऊंची है। प्रत्येक स्तर पर दोनों तरफ धनुषाकार मेहराब एक साथ पंक्तिबद्ध हैं। इसका निर्माण 14 वीं शताब्दी में हुआ था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पुरातत्वविद् वाईडी शर्मा का मानना था कि बावली की डिजाइन तुगलक युग से संबंधित है, जबकि अन्य लोगों का मत है कि इसके डिजाइन लोदी काल से प्रतीत होते हैं। अनूठी वास्तुकला और ऐतिहासिक परिवेश के कारण अग्रसेन की बावली को बॉलीवुड द्वारा बहुत पसंद किया जाता है। अग्रसेन की बावली को कई फिल्मों में दिखाया गया है और यह दिल्ली में प्रसिद्ध फिल्म शूटिंग स्थानों में से एक में बदल गया है।
यह अपनी तरह की एकमात्र बावली है जिसका आकार गोल है। इतिहासकारों के अनुसार फिरोज शाह तुगलक द्वारा इसका निर्माण किया गया और यह फिरोज शाह कोटला (तत्कालीन फिरोजाबाद) के गढ़ के अंदर स्थित है। यह बावली पिरामिड संरचना से ठीक पहले स्थित है, जिस पर अशोक स्तंभ खड़ा है। कुल 33 मीटर के सतह व्यास के साथ और लगभग 9 मीटर के एक कुएं के व्यास के साथ, वहां के क्षेत्र के अनुसार ये दिल्ली में सबसे बड़ी बावली है। अभिलेख बताते हैं कि इसमें टेराकोटा पाइप हैं जो जल के अतिप्रवाह को रोकते थे और इसे पास की यमुना नदी से भी जोड़ते हैं। बावली का पश्चिम पक्ष आगंतुकों एवं पर्यटकों के लिए खुला है, हालांकि यह कहा जाता है कि मूल रूप से इसमें पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं से प्रवेश की व्यवस्था थी। इस अद्दभुत संरचना का सबसे अच्छा दृश्य ऊंचाई से देखा जा सकता है। इसके लिए आपको पास में ही स्थित पिरामिडल संरचना पर चढ़ना है। पिरामिड के प्रत्येक स्तर के साथ, आपको बावली के अधिक से अधिक दृश्य दिखाई देंगे।
भारत में यह बावली या कुंड गुजरात में प्रसिद्ध मोढेरा सूर्य मंदिर, मेहसाना जिले के "मोढेरा" नामक गांव में पुष्पावती नदी के किनारे प्रतिष्ठित है। मंदिर सूर्य देव को समर्पित है और ।। वीं शताब्दी में सोलंकी वंश के भीमदेव । शासनकाल के दौरान बनाया गया था। स्टेपवेल आयताकार है और इसमें चार मंज़िले हैं। इसके चरण हैं जो जलाशय में उतरते हैं। यह काफी व्यापक है और इसमें भगवान गणेश, विष्णु और अन्य स्थानीय देवताओं के 180 लघु मंदिर हैं। इसका उपयोग न केवल पानी के भंडारण के लिए किया जाता था बल्कि धार्मिक समारोहों के प्रदर्शन के लिए भी किया जाता था। यह प्राचीन मंदिर उड़ीसा के कोणार्क में सूर्य मंदिर की याद ताजा करता है। इतिहास के पन्ने बदलकर, स्कंद पुराण और ब्रह्म पुराण जैसे शास्त्रों में मोढ़ेरा के उल्लेख को नोटिस किया जा सकता है। मोढेरा के आस-पास के क्षेत्र को धर्मारण्य (धार्मिकता का जंगल) के रूप में जाना जाता था और इस स्थान पर भगवान राम का आशीर्वाद था। आज, सूर्य मंदिर भारतीय पुरात्व विभाग द्वारा संरक्षित है और यहां हर साल पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है।
गुलाबी शहर जयपुर के अनेकों वास्तु चमत्कारों के बीच पन्ना-मीना का कुंड नामक प्राचीन बावली को सबसे महत्वपूर्ण किन्तु छिपा हुआ माना जा सकता है। 16वीं सदी में स्थापित, जयपुर में पन्ना-मीना का कुंड पीने और अन्य दैनिक जरूरतों के लिए पानी के साथ स्थानीय लोगों की आपूर्ति करने के लिए बनाया गया था। खासकर शुष्क ग्रीष्मकाल के दौरान कुंड के आसपास रहने वाले समाजों के लिए एक सामुदायिक केंद्र के रूप में भी कार्य करता है और साथ ही साथ फसल सिंचाई के लिए भी उपयोग होता है। लोग सीढ़ी के कई स्तरों पर इकट्ठा होते और बैठते, और बातचीत करते हैं।
अदलाज की बावड़ी एक शानदार सीढ़ीनुमा संरचना है, जिसे अदलाज ग्राम में और उसके आसपास पानी के संकट को रोकने के लिए शानदार ढंग से बनाया गया है। यह बावड़ी गुजरात की राजधानी गांधीनगर के दक्षिण-पश्चिम में 3 से 4 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। अदलाज बावड़ी को 1498 में बनाया गया था और यह भूजल तक पहुंच प्रदान करने के लिए भारत में निर्मित कई कदम कुओं में से एक है। इस बावड़ी की वास्तुकला उस समय के भारत के इंजीनियरों और वास्तुकारों की बुद्धिमत्ता का उत्कृष्ट चित्रण करती है। जैसे ही आप बावड़ी के अंदर जाते हैं वैसे ही आप तापमान में अचानक सुखदायक गिरावट महसूस करते हैं। सांस लेते ही प्रशांति का अनुभव होता है और बावड़ी की बारीक एवं जटिल नक्काशी की सुंदरता को देख मन प्रफुल्लित हो उठता है।
गुजरात के अहमदाबाद में स्थित, माता भवानी नी वाव भारत की सबसे पहली बावड़ियों में से है। इसका निर्माण 11वीं शताब्दी में चालुक्य वंश के शासन काल में हुआ था। इस बावड़ी के तीन स्तर या मंज़िलें हैं और देवी माता भवानी का एक मंदिर है। इसके निर्माण का मुख्य कारण जल आपूर्ति था और माता का मंदिर बहुत बाद में बनाया गया था। यह सौंदर्यशास्त्र और वास्तुकला के मामले में इस बावड़ी के समकक्ष अन्य और कोई बावड़ियां नहीं ठहर पाती हैं।
कर्नाटक स्थित हम्पी में पुष्करणी टैंक या बाबड़ी है जो मंदिरों के बराबर में स्थित हैं। भारत के इन विशाल सीढ़ीनुमा टैंक का निर्माण विजयनगर साम्राज्य के समय किया गया था। और इन्हें हम्पी के लोगों द्वारा पूजा स्थल के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। यहां तक कि वार्षिक जल महोत्सव भी इन पानी के टैंकों में आयोजित किया जाता था। आज, अधिकांश टैंक खंडहर में बदले हुये खड़े हैं, लेकिन आगंतुकों को आकर्षित करने में विफल नहीं होते हैं। इनमें सबसे अधिक पवित्र टैंक राजसी सीमा क्षेत्र (रॉयल एनक्लोजर) में स्थित है, जो हजारा राम मंदिर के पास स्थित है।
राजस्थान में हिंडौन शहर में जच्चा की बाउरी भारत में सबसे बड़ी खुली बाबड़ी है। कहा जाता है कि इसका निर्माण 14 वीं शताब्दी में लक्खी बंजारा द्वारा कराया गया था। इसके साथ कई किंवदंतियां जुड़ी हैंः जैसे कि इस बाउरी का पानी इतना शुद्ध होता है कि किसी की कपड़े साफ करने के लिए किसी साबुन आदि की जरूरत नहीं पड़ती। वास्तुकला और एतिहासिक महत्व को देखते हुये सरकार के पुरातत्व विभाग द्वारा अब इसे संरक्षित किया जा रहा है।
बूंदी, राजस्थान में कोटा जिले के पास रानीजी की बावली भारत की प्राचीनतम बाबड़ियों में से एक है। यह राजपूत शासकों द्वारा बनाई गई थी और इसमें हिन्दू राजपूती वास्तुकला का सजीव चित्रण है। इस बावली में एक संकीर्ण प्रवेश द्वार है जिसमें चार मजबूत खंभे हैं और ऊंची छत पर झुका हुआ है। इसमें कुछ भाग में जल का कुआं, कुछ भाग में मंदिर और कुछ भाग में महल का हिस्सा है, रानीजी की बावली शहर का एक महत्वपूर्ण धरोहर स्मारक है।
18वीं शताब्दी में निर्मित तूरजी की झालरा नाम की यह बावड़ी राजस्थान के जोधपुर में स्थित है और इसे अभी हाल ही में नवीनीकृत किया गया है। इस बाबड़ी का उपयोग स्थानीय लोगों के लिए जल के स्रोत के रूप में लिया जाता है।
इसका निर्माण लाल बलुआ पत्थर का उपयोग करके किया गया था और इसमें विभिन्न जानवरों और देवताओं की मूर्तियां भी उकेरी गई हैं। इस बावड़ी को देश के सबसे बेहतरीन बावड़ियों में से एक माना जाता है। समय के साथ वह मलबे से भर गया था, लेकिन अभी हाल में ही साफ किया गया है, और आज, यहां अनेक स्थानीय एवं विदेशी पर्यटकों द्वारा भ्रमण किया जाता है। विशेष रूप से बच्चे इसमें नहाते हैं जो चिलचिलाती गर्मी से राहत के रूप में बावली के पानी में डुबकी लगाते हैं।
लक्कुंडी, होस्पेट और हम्पी के बीच स्थित एक छोटा सा गांव है। गांव अपने कई चालुक्य कालीन मंदिरों के लिए लोकप्रिय है। इन मंदिरों में बीच लक्कुंडी कल्याणी एक ऐसी धरोहर है जो अभी भी पर्यटक मानचित्र पर चिन्हित नहीं हो पायी है और अनेक लोगों को इसका भान नहीं है। लेकिन इतिहास प्रेमियों और वास्तुकला के प्रति उत्साही लोगों के लिए यह एक स्वर्ग से कम नहीं है। लक्कुंडी गांव में लगभग 100 सीढ़ियों वाले इस टैंक को स्थानीय लोग कल्याणियां कहते है। यह कल्याणी अपनी वास्तुकला की सुंदरता के क्षेत्र में अद्वितीय और अत्यंत लोकप्रिय हैं। चालुक्य मंदिरों में इनकी उपस्थिति मात्र से ही लोग इन मंदिरों को 'कल्याणी चालुक्य मंदिरों' के नाम से जानते हैं।
प्राचीन भारतवर्ष में जल प्रबंधन पर विशेष ध्यान दिया जाता था। विभिन्न जल स्रोतों के संरक्षण और जल संरचनाओं को लगभग सभी पूर्व के शासकों ने अपनी प्राथमिकता पर रखा था। जन कल्याण के कार्यों में बाबड़ियों, कुओं, तालाबों आदि का निर्माण सर्वोपरि माना जाता था। इस लेख में भारत की कुछ प्रमुख वावड़ियों का उल्लेख किया गया है। इनके अलावा बहुत सारी बावड़ियाँ हैं जो लगभग हर छोटे-बड़े शहरों में देखने को मिल सकती हैं। इस लेख में उल्लेखित हर एक बावड़ी का अपना एक इतिहास है, एक विशिष्ट वास्तुकला है और हर एक का अपना एक विशेष ध्येय है। इनमें से कई तो मध्यकालीन युग के दौरान बनाई गई थी, जो आज भी स्थानीय लोगों की जल की मूलभूत आवश्यकता को पूरा कर रही हैं। किन्तु इनमें से अनेक बावड़ियां स्थानीय लोगों एवं सरकारी उपेक्षा का शिकार हो सूख गई हैं और जर्जर अवस्था में पहुंच गई हैं। कुछ बावड़ियों का तो नामो-निशान तक नहीं है और कुछ का नाम है पर निशान नहीं है जैसे कि पुरानी दिल्ली में स्थित, खारी बावली जो आज एशिया का सबसे बड़ा मसाला बाजार है परंतु बावड़ी गायब है। कहा जाता है कि शेरशाह सूरी के पुत्र इस्लाम शाह ने 16वीं शताब्दी के मध्य के शासनकाल के दौरान इस बावली का नाम जल में खारेपन के कारण (नमक या लवण की मात्रा) रखा गया था। कालांतर में इस बावली का जल सूख गया और इस पर स्थानीय निवासियों द्वारा स्थायी रूप से कब्जा कर लिया गया। और अंत में, एक मसाला बाजार इसकी जगह पर आ गया।
दुर्भाग्य से, कुछ दुर्घटनाओं के कारण वर्तमान में अधिकांश बावड़ियों में आजकल प्रवेश द्वार बंद रहता है। चूंकि, बाबड़ियां अमूमन कई मंजिला भूमिगत गहरी संरचनाएं होती हैं और इनमें सदैव कुछ ना कुछ स्थिर भूमिगत जल भरा होता है। इसलिए, आकस्मिक फिसलन और डूबना एक वास्तविक संभावना है, खासकर बच्चों के साथ, यही वजह है कि आजकल वे बंद हैं। किन्तु यदि सरकार इन बावड़ियों को संरक्षित करे और पूरी सुरक्षा की व्यवस्था करे तो ये बावड़ियां रमणीक पर्यटन स्थलों में परिवर्तित हो सकती हैं। इस प्रकार ये बावड़ियां राजस्व के साथ-साथ जल संरक्षण में सहयोग कर सकती हैं।