जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक घटना है, जो मानव और पृथ्वी के सभी क्षेत्रों को प्रभावित कर रही है। इसके कारण उत्पन्न होने वाली विभिन्न प्रतिकूल घटनाओं जैसे-सूखा, बाढ़, चक्रवात, अत्यधिक गर्मी और शीतलहर आदि की वजह से भारतीय कृषि भी प्रभावित हो रही है। भारत में कुल उत्सर्जित होने वाली ग्रीनहाउस गैसों में कृषि का लगभग 14 प्रतिशत योगदान है। जलवायु परिवर्तन से देश में लाखों लोगों की खाद्य सुरक्षा और आजीविका पर संकट उत्पन्न हो गया है। कृषि में जल की बहुत ही अहम भूमिका है। भूजल की उपलब्धता जलवायु परिवर्तन के कारण विशेषतः निम्न वर्षा और उच्च भूजल वाले क्षेत्रों में प्रभावित हो रही है। देश में हाल ही के दशकों में सिंचाई के लिए भूजल उपयोग में अप्रत्याशित वृद्धि देखी गई है।
परिभाषा 1- भूजल पुनर्भरण को सामान्य अर्थों में जल के नीचे की ओर प्रवाह की मात्रा या प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जाता है जो भौम जल स्तर तक पहुंचता है और भूजल भंडार में वृद्धि करता है।
परिभाषा 2- भूजल पुनर्भरण का सीधा मतलब है भूजल संसाधनों की भरपाई। यह प्रक्रिया नियमित रूप से बारिश और बर्फ पिघलने के माध्यम से स्वाभाविक रूप से होती है। इसे कृत्रिम रूप से भी प्रेरित किया जा सकता है। महत्वपूर्ण गणना यह है कि जलभृत से पानी को पंप करने की तुलना में पुनर्भरण अधिक दर पर होना चाहिए।
इस परियोजना के क्रियान्वयन से पहले अधिकांश किसान मृदा और जल संरक्षण तकनीकों से अनभिज्ञ थे। कुछ किसान देसी तरीकों का उपयोग करके अपने ट्यूबवेल को रिचार्ज कर रहे थे जैसे बरसात के मौसम में बहते पानी को कच्चे ट्यूबवेल के वॉल्व को खोलकर जल संरक्षित करना आदि। लेकिन निथराई/निस्पंदन की समस्या के कारण गड्ढे में मिट्टी/गाद जमा हो जाती है। इसे बार-बार साफ करने की आवश्यकता होती है। यह एक थकाऊ प्रक्रिया है और पानी की अत्यधिक बर्बादी होती है। उपरोक्त निष्कर्षों और ट्यूबवेल को रिचार्ज करने की उपयोगिता के आधार पर स्थानीय रूप से उपलब्ध सीमेंट पाइप (छिद्रित), ट्यूबवेल में ईंट की दीवार का उपयोग करके ट्यूबवेल की कम लागत वाली स्वदेशी पुनर्भरण संरचना को विकसित किया गया और ट्यूबवेल के बाहर पानी निथराई/निस्पंदन के लिए अलग से एक गड्ढा भी तैयार किया गया।
भूजल पर बढ़ते हुए दबाव के देखते हुए भाकृअनुप द्वारा भारत में सभी संकटग्रस्त जिलों में भूजल पुनर्भरण परियोजनाएं संचालित की जा रही हैं। जलवायु समुत्थानशील कृषि में राष्ट्रीय नवाचार (निक्रा) परियोजना के तहत भूजल पुनर्भरण को प्राथमिकता के रूप में अपनाया गया है। इस परियोजना के तहत गांव में हस्तक्षेप और संस्थागत विकास की अवधारणा को अपनाया गया है। निक्रा परियोजना के तहत अपनाए गए 151 गांवों से बढ़कर 400 गांवों में इस तकनीक का विस्तार हुआ है। ये गांव कम समय में जलवायु समुत्थानशील कृषि पर प्रशिक्षण के केंद्र बन गए हैं। इससे जिलों के अन्य हिस्सों में क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर प्रसार के अवसर खुले हैं। पिछले दस वर्षों के दौरान राजस्थान में वर्षा के स्वरूप में बदलाव देखा गया है। वर्तमान में अधिक शुष्क अवधि के साथ-साथ वर्षा का असमान वितरण हो रहा है। राजस्थान के भरतपुर जनपद में जल संकटग्रस्त पारिस्थितिकी में फसल क्षेत्र को बढ़ाने के लिए भूजल की गुणवत्ता और उपलब्धता में सुधार के लिए कम लागत वाली ट्यूबवेल पुनर्भरण तकनीक को लागू किया गया। इस कार्य में अग्रिम पंक्ति प्रसार हो रहा है। राजस्थान के भरतपुर जनपद में जल संकटग्रस्त पारिस्थितिकी में फसल क्षेत्र को बढ़ाने के लिए भूजल की गुणवत्ता और उपलब्धता में सुधार के लिए कम लागत वाली ट्यूबवेल पुनर्भरण तकनीक को लागू किया गया। इस कार्य में अग्रिम पंक्ति प्रसार हेतु संस्थानों और जिला कृषि विभाग की एकीकृत टीम ने कार्य किया।
इस तकनीक में सीमेंट की 8-10 रिंग, 4-5 फीट त्रिज्या और 2 फीट ऊंचाई की 500 ईंटें, 1 बोरी सीमेंट, पाइप 10 फीट, 6 फीट लंबाई के एक छिद्रित पाइप का उपयोग किया जाता है। इसकी औसत लागत 10000 से 12000 रुपये तक आती है। इस नवाचार में कुल लागत और श्रम का 25 प्रतिशत हिस्सा किसान द्वारा एवं 75 प्रतिशत हिस्सा भाकृअनुप द्वारा निक्रा परियोजना के तहत वहन किया जाता है। इस संरचना के निर्माण में दो दिन का समय लगता है। ट्यूबवेल पुनर्भरण तकनीक भूजल को रिचार्ज करने का एक वैकल्पिक साधन प्रदान करती है। इससे फसलों के लिए आवश्यकतानुसार जल की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सकती है।
भरतपुर के तीन गांवों-सितारा, सहेंती एवं मुकुंदपुरा में ट्यूबवेल पुनर्भरण परियोजना पर कार्य किया गया। इसका अत्यधिक सकारात्मक प्रभाव पड़ा। परियोजना क्रियान्वयन से पहले (वर्ष-2012) तीन गांवों का फसल आच्छादन केवल 303 हेक्टेयर था, जो ट्यूबवेल पुनर्भरण के बाद वर्ष 2020 में बढ़कर 418 हेक्टेयर हो गया। इसमें लगभग 38 प्रतिशत बढ़ोतरी दर्ज की गयी।
भरतपुर जिले के सितारा गांव में कुल 250 ट्यूबवेल पुनर्भरण संरचनाएं सफलतापूर्वक निर्मित हो चुकी हैं। सहेंती और मुकुंदपुरा गांवों के किसानों ने भी इस कम लागत वाली तकनीक (वर्ष 2017 से वर्ष 2020) को अपनाया है। पुनर्भरण से उपलब्ध भूजल (8-10 फीट) के कारण रबी मौसम की फसलों की उपज में हानि को 90 प्रतिशत तक कम कर दिया है। इससे किसान सरसों के अलावा गेहूं, जौ और सब्जियों की खेती कर पा रहे हैं। एकत्रित हुए जल से किसानों को सितंबर में वर्षा नहीं होने पर रबी फसलों की बुआई के लिए खेतों की पूर्व सिंचाई करने में मदद मिली। इस तकनीक को अपनाने से जलस्तर में (2.5 से 4.0 मीटर) सार्थक वृद्धि हुई और लगभग 4000 क्यूबिक मीटर वर्षाजल एकत्र हुआ जो लगातार ट्यूबवेलों में पहुंचाया गया।
वर्ष 2017-18 से वर्ष 2020-21 के दौरान 326.24 हेक्टेयर क्षेत्र में गेहूं की फसल पर 498 प्रदर्शनों का आयोजन किया गया। पुनर्भरण तकनीक अपनाने से किसानों के पास 6 सिंचाई के लिए अतिरिक्त जल उपलब्ध हो सका। इससे गेहूं की उपज में 42 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई। गेहूं (राज-4238) के प्रदर्शनों से शुद्ध लाभ39600 से 56480 रुपये प्रति हैक्टर प्राप्त हुआ तथा औसत आय 45222 रुपये प्रति हैक्टर प्राप्त हुई।
वर्ष 2017-18 से वर्ष 2020-21 के दौरान 53.16 हैक्टर में जौ की फसल पर 102 प्रदर्शनों का आयोजन किया गया। पुनर्भरण तकनीक अपनाने से किसानों का 5 सिंचाई का अतिरिक्त जल उपलब्ध हो सका। इससे जौ की उपज में 35.20 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई। जौ (आरडी 2794) के प्रदर्शनों से शुद्ध लाभ 35820 से 44880 रुपये प्रति हैक्टर प्राप्त हुआ तथा औसत आय 38842.5 रुपये प्रति हैक्टर प्राप्त हुई।
वर्ष 2017-18 से वर्ष 2020-21 के दौरान 224.62 हैक्टर क्षेत्र में सरसों की फसल पर 560 प्रदर्शनों का आयोजन किया गया। पुनर्भरण तकनीक अपनाने से किसानों को 4 सिंचाई का अतिरिक्त जल उपलब्ध हो सका जिससे सरसों की उपज में 45-50 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई। सरसों (डीआरएमआरआईजे-31) के प्रदर्शनों से शुद्ध लाभ 61500 से 117500 रुपये प्रति हैक्टर प्राप्त हुआ तथा औसत आय 81650 रुपये प्रति हैक्टर प्राप्त हुई।
कम लागत वाली ट्यूबवेल पुनर्भरण तकनीक से भूजल की गुणवत्ता में सुधार हुआ। यह प्रणाली सिंचाई लागत, मृदा की लवणता को कम करने में उपयोगी साबित हुई। इस सफल तकनीक से सिंचित क्षेत्र में वृद्धि हुई है और साथ ही गेहूं, जौ और सरसों की उपज में क्रमशः 42.00 और 45.50 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इस तकनीक ने कृषक समुदाय के बीच जागरूकता पैदा की और जल की कमी की समस्या को हल करने में काफी मददगार साबित हुई।
ट्यूबवेलों के सफल पुनर्भरण (वर्ष 2012 में 38 से वर्ष 2022 में 250 तक) के कारण 63 हैक्टर क्षेत्र (गेहूं, जौ और सरसों) में रबी फसलों में दो से तीन सिंचाइयों के लिए अतिरिक्त पानी उपलब्ध हुआ और उपज में होने वाली हानि 90 प्रतिशत तक कम हुई। निक्रा द्वारा अपनाए गए और आसपास के गांवों में रबी फसलों का क्षेत्रफल वर्ष 2012 में 76 हैक्टर से बढ़कर वर्ष 2022 में 1283 हैक्टर हो गया। इससे 780 किसानों को लाभ हुआ। भूजल की गुणवत्ता में (ई.सी. 9.5 से 5.96 और पी-एच 7.49 से 7.06) भी सुधार हुआ। गेहूं, जौ और सरसों की पैदावार में क्रमशः 42.00, 35.20 और 45.50 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई।
जलस्तर में 8-10 फीट तक की वृद्धि हुई। संग्रहित जल का उपयोग सूखे के दौरान सिंचाई के लिए और रबी फसलों में बुआई से पहले सिंचाई के लिए उपयोग में लिया जाता है। बागवानी फसल के साथ फसल विविधीकरण जैसे-बेर की किस्म थाई एप्पल आदि। जल पुनर्भरण संरचनाओं के निर्माण से किसानों को गेहूं, जौ, सरसों और सब्जियां उगाने का अवसर मिला। अपनाई गई तकनीक से सिंचाई की लागत में कमी हुई, ट्यूबवेलों का पुनर्भरण हुआ। सिंचाई के लिए जल की उपलब्धता बढ़ी। इसके परिणामस्वरूप किसानों ने सरसों की फसल के साथ सब्जियों, गेहूं और जौ को भी फसलचक्र में सम्मिलित किया।
कम लागत वाली जल पुनर्भरण संरचनाओं (रिचार्ज ट्यूबवेल) के निर्माण ने गेहूं, जौ, सरसों और सब्जियां उगाने का अतिरिक्त अवसर प्रदान किया। इसके साथ ही इस तकनीक से किसानों ने सूखा प्रतिरोधी किस्में, कैंचा (हरी खाद के लिए), अंतःफसल प्रणाली, बुआई तकनीक, भूमि स्वरूप, उच्च उपज देने वाली चारे की खेती आदि को अपनाया। इससे किसानों की आय में वृद्धि हुई और उन्नत किस्मों के किसान-से-किसान बीज विनिमय में काफी बढ़ोत्तरी हुई।
कम लागत वाली ट्यूबवेल पुनर्भरण तकनीक को सिंचाई लागत को कम करने में बहुत उपयोगी पाया गया। राजस्थान के भरतपुर के गांवों में अधिकांश किसानों (780) ने इसे अपनाया। इससे भूजल की गुणवत्ता में सुधार के कारण मृदा की लवणता में भी कमी आई। इसके फलस्वरूप गेहूं, जौ और सरसों की फसलों के अलावा सब्जियों को उगाने में भी सफलता प्राप्त हुई।
लेखकगण - * नवाब सिंह, वरिष्ठ वैज्ञानिक व अध्यक्ष, केवीके, भरतपुर (राजस्थान); ** पी.पी. रोहिल्ला, प्रधान वैज्ञानिक (पशुधन प्रबंधन), अटारी, जाधपुर (राजस्थान); *** दिलीप मातवा, एस. आर. एफ. निक्रा परियोजना, अटारी, जोधपुर (राजस्थान); **** जे.पी. मिश्रा, निदेशक, अटारी, जोधपुर (राजस्थान)