कश्मीर में पहाड़ियों के किनारे बसे छोटे-छोटे गांव पानी के लिए प्राकृतिक चश्मों पर निर्भर हैं, जिनमें से अधिकतर तेज़ी से सूख रहे हैं। तस्वीर: वाहिद भट
भूजल

क्या यादों में ही बचे रह जाएंगे कश्मीर घाटी के चश्मे?

पिछले 20 सालों में कश्मीर के आधे से ज़्यादा मीठे पाने के सोते या तो सूख चुके हैं या सिकुड़ गए हैं। घटती बारिश और बढ़ते जल प्रदूषण के दरम्‍यान हिमालय की घाटियों में खामोशी से एक बड़ा जल संकट पांव पसार रहा है।

Author : वाहिद भट

गांदरबल ज़िले के गांव गुज्जरपट्टी हयां में अपने घर के पास खड़े मोहम्मद सुल्तान (43) ज़मीन पर मौजूद दरारों की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, ‘ये चश्मा कभी सालभर बहता रहता था। अब मुश्किल से गर्मियों तक ही इसमें पानी रहता है।’  हिमालय की तलहटी में बसा गांदरबल ज़िला अल्पाइन घास के मैदानों, ग्लेशियर से निकलते मीठे पानी के सोतों और सीढ़ीदार खेतों के लिए जाना जाता है। 

बीते कई दशकों से सुल्तान का परिवार इसी चश्मे पर पूरी तरह निर्भर रहा है। पीने के पानी और खेती की ज़रूरतें यहीं से पूरी होती थी। लेकिन अब सुल्तान समेत पूरा गांव पानी लाने दो किलोमीटर दूर जाता है। तकलीफ़ इस बात की है कि उन्हें भरोसा नहीं कि वह पानी भी पीने लायक है या नहीं।

यह कहानी अकेले सुल्तान के गांव की नहीं है। पूरी कश्मीर घाटी में ग्रामीण जीवन का आधार रहे ऐसे हज़ारों चश्मे और सोते या तो सूख रहे हैं या धीरे-धीरे ज़हरीले होते जा रहे हैं।

मोहम्मद सुल्तान रोज़ाना सिर्फ़ सूखे झरने के करीब होकर नहीं गुज़रते, हर रोज़ उन्हें उन बीते दिनों की यादों से होकर गुज़रना पड़ता है जब इस झरने का पानी उनके परिवार की ज़रूरतें पूरी करता था।

सूखते और प्रदूषित होते चश्मे

कश्मीर की नदियां, चश्मे, झीलें और ग्लेशियर ही यहां के लोगों के लिए पेयजल का मुख्य स्रोत हैं। हिमालय और पीर पंजाल रेंज से आता यह पानी कश्मीर के आम जनजीवन की रीढ़ है। घाटी में बर्फ और चश्मों से पोषित सहायक नदियों का महीन जाल बिछा है। ये नदियां मीठे पानी की झीलों को पानी देती हैं और पारिस्थितिकी तंत्र के साथ-साथ, लोगों की भी ज़रूरतें पूरी करती हैं।

स्थानीय भाषा में इन चश्मों को ‘नग’ या ‘नाग’ कहते हैं। जम्मू-कश्मीर के 6,553 गांवों में से 3,300 से अधिक गांवों में मीठे पाने का कम से कम एक चश्मा ज़रूर है। कुछ गांवों में यह संख्या और भी ज़्यादा है। लेकिन बीते दो दशकों में आधे से ज़्यादा झरने या तो पूरी तरह सूख चुके हैं या उनमें बहुत कम पानी बहता है।

नारानाग का सूखा हुआ वाटर स्टोरेज टैंक। यहां कभी छह झरने थे, अब बस एक बचा है।

जनवरी 2025 में केंद्र सरकार के जल शक्ति विभाग के अधिकारियों ने गांदरबल और श्रीनगर ज़िलों में चश्मों के पानी की जांच की। कुल 40 में से 37 नमूनों में बैक्टीरिया पाए गए। जल शक्ति लोक स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग के एग्जीक्यूटिव इंजीनियर समीउल्लाह बेग चेतावनी देते हुए कहते हैं, ‘चश्मे के पानी को इस्तेमाल करने से पहले उबाल लेना चाहिए।’ 


यह चेतावनी कई इलाकों में पीलिया के मामले दर्ज़ किए जाने के बाद आई। यह पहली बार नहीं हुआ है। साल 2022 में नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जम्मू-कश्मीर के 258 चश्मों में से 6.2% का पानी पीने लायक नहीं था। प्रतिशत में यह आंकड़ा छोटा लग सकता है। मगर यह दूर-दराज के उन गांवों के लिए काफी चिंताजनक स्थिति है जहां पानी का दूसरा कोई विकल्प नहीं है।

गांवों, शहरों और जंगलों में फैले हुए ये चश्मे बारिश, बर्फबारी और भूमिगत नदियों से पोषित होते हैं। पानी के लिए लोगों की इन पर निर्भरता होने के बावजूद इनके प्रबंधन पर ध्यान नहीं दिया गया है। इनकी ज़िम्मेदारी लोक स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग (पीएचई), वन विभाग और झील संरक्षण एवं प्रबंधन प्राधिकरण (एलसीएमए) के बीच बंटी हुई है, लेकिन श्रीनगर ज़िले की ही बात करें, तो इन विभागों में तालमेल की कमी देखी जा सकती है।

खुर्शीद बेगम के लिए ये जगह दिन भर में दो बार दोस्तों से मिलने औऱ बातचीत करने की जगह थी, जहां अब वीरानगी रहती है।

पानी भरने जाना काम नहीं था, मिलने-जुलने का भी ज़रिया था

श्रीनगर से तकरीबन 50 किमी की दूरी पर नारानाग गांव में खुर्शी बेगम रहती हैं। 61 साल की खुर्शी बेगम के लिए पानी भरने जाना एक काम नहीं था, बल्कि दिन में दो बार पड़ोस की महिलाओं से मिलने का ज़रिया भी था। वे याद करती हैं कि कैसे उनकी दिनचर्या चश्मे के इर्द-गिर्द बुनी हुई थी।

पहले हम सुबह-शाम चश्मे पर जाते थे। गांव की सभी महिलाएं वहीं मिलती थीं। हम पानी भरते, बातें करते। जब तक हमारी बारी आती, बच्चे नज़दीक ही खेलते थे। चश्मा ज़िंदगी का हिस्सा हुआ करता था। लेकिन अब चश्मा सूख गया है। अब दूसरी जगह से पानी लाने के लिए मीलों पैदल चलना पड़ता है, वहां का भी कुछ भरोसा नहीं। अब पहले की तरह औरतें साथ पानी नहीं भरतीं, किसी के पास इतनी दूर जाने का समय नहीं। अब पानी लाना बस एक काम बन गया है। सबको यही फिक्र है कि पानी खत्म होने से पहले ज़रूरत भर पानी मिल जाए। मेरी बेटियों को पता ही नहीं कि घर के नज़दीक  बहते साफ़ पानी के चश्मे के साथ बड़ा होना कैसा होता है। हमें कभी फ़िल्टर करने या उबालने की चिंता नहीं थी। अब तो उबालते हैं, छानते हैं, फिर भी डरते हैं।
खुर्शी बेगम, नारानाग
झरने का पानी इकट्ठा करने के लिए बनाया गया यह टैंक अब मिट्टी और गंदगी समेट रहा है।

नारानाग में कभी छह प्राकृतिक चश्मे थे। अब केवल एक बचा है। उस एक चश्मे पर ही नारानाग समेत कई गांव निर्भर हैं। इन स्रोतों के सूख जाने से फसलों की पैदावार घट रही है। गांव के पास में ही स्टोन-क्रशर मशीनें लग गई हैं। पत्थरों की कटाई से निकलने वाली धूल गांव के पेड़ों और फसलों की पत्तियों को ढक कर उनके छिद्र बंद कर देती है, जिससे उत्पादन और घट रहा है। 

अवैध खनन से बढ़ रही हैं मुश्किलें

खनन का असर नारानाग तक ही सीमित नहीं है। पूरी घाटी में खनन के कारण ज़मीन और जलधाराओं/जलस्रोतों में बदलाव आ रहा है। कश्मीर की वेशव नदी स्थानीय कशीर गाद (ट्राउट मछली) के लिए जानी जाती थी। फिहलाल इस नदी की 35 किलोमीटर लंबाई पर अवैध खनन काम चल रहा है। इसके चलते मछलियां घटने लगी हैं।

सिंध नदी (गांदरबल), मावर नाला (कुपवारा), फ्रास्तहार नाला (बारामुला), और अरिन (बांडीपोरा) जैसे जलस्रोतों में भी पानी के प्रदूषित होने और आस-पास की फसल को नुकसान होने की शिकायतें सामने आई हैं।

कश्मीर में सीमेंट और चूना पत्थर का खनन भूजल को दूषित कर रहा है। जिप्सम के खनन से जल निकासी के रास्ते बदल रहे हैं और भूस्खलन का खतरा बढ़ा है। खनन कार्य के खराब प्रबंधन के असर के नुकसान लंबे समय तक रहते हैं।
डॉ. सारा काज़ी, हाइड्रोजियोलॉजिस्ट, कश्मीर विश्वविद्यालय

लगातार घट रही है बारिश

कश्मीर का तापमान तेज़ी से बढ़ रहा है, जिसकी कीमत यहां के जल स्रोत चुका रहे हैं। साल 1980 के बाद से औसत तापमान 0.8°C बढ़ा है, और साल 2000 के बाद से साल के सबसे गर्म दिन और भी ज़्यादा गर्म हुए हैं।

सर्दियाँ अब ज़्यादा शुष्क हो गई हैं। पिछले दो दशकों में इस क्षेत्र के ग्लेशियर 15% तक सिकुड़ गए हैं। लगातार घटती बर्फबारी और वसंत में ही बर्फ पिघलना शुरू हो जाने के कारण, घाटी के चश्मों में पहले की तुलना में अब पानी जल्दी खत्म होने लगा है।

बीती कई सर्दियों में बारिश चिंताजनक रूप से कम हुई है। दिसंबर 2024 से फरवरी 2025 तक कश्मीर में बारिश में 70% की कमी रिकॉर्ड की गई। बीते आठ सालों में यह सबसे निचला रिकॉर्ड है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह कोई संयोग नहीं है। साल 2020 से ही बारिश सामान्य से कम हो रही है और फिर 2025 के शुरुआती महीनों में तो नाममात्र को ही पानी बरसा है

गांदरबल ज़िले के एक ब्लॉक में मनरेगा के तहत हुए काम का शिलापट्ट।

बढ़ते तापमान का असर

इस बदलाव का असर दूर तक देखा जा रहा है। हिमालय क्षेत्र में सभी बड़ी नदियों का 90% तक पानी चश्मों से आता है और। चश्मों के सूखने के कारण पेयजल की समस्या बढ़ रही है, किसानों को नुकसान हो रहा है और पनबिजली पर भी इसका असर देखने को मिल रहा है। यह स्थिति सिर्फ़ कश्मीर की नहीं है, उत्तराखंड और सिक्किम में भी यही समस्याएं देखने को मिल रही हैं। 

दुनिया का तापमान 50 सालों में 1.5°C बढ़ा है। हालांकि, विशेषज्ञों की मानें तो आने वाले दशकों में हिमालय में तापमान 6°C तक बढ़ सकता है, जो कश्मीर के चश्मों जैसे नाज़ुक पारिस्थितिकी तंत्रों के लिए और खतरनाक साबित होगा। 

ये बदलाव अब दूर की चेतावनी नहीं रह गए हैं, बल्कि आम जीवन को प्रभावित करने लगे हैं। बीते 29 मई को गांदरबल के कुलान गुंड में गांव वालों ने पीने के पानी की मांग को लेकर श्रीनगर-सोनमर्ग हाईवे जाम कर दिया। जल शक्ति विभाग पर शिकायतों को नज़रअंदाज़ करने और लापरवाही का आरोप लगाते हुए महिलाएं भी धरने में शामिल हुईं। हफ्तों से आपूर्ति बंद होने के कारण लोग असुरक्षित स्रोतों का पानी पीने को मजबूर हैं।

कश्मीर के सूख चुके झरनों को पुनर्जीवित करने के लिए काम कर रहे मंज़ूर वांगनू (दाएँ, घुटनों के बल) छात्रों के साथ पेड़ लगाने के एक अभियान में।

उम्मीद के सोते: झरने बचाने की स्थानीय पहल

इस पानी और पर्यावरण के संकट के बीच कुछ लोग इन स्रोतों को पुनर्जीवित करने के लिए काम कर रहे हैं। साल 2022 में श्रीनगर के पर्यावरण कार्यकर्ता मंज़ूर वांगनू ने चश्मों को पुनर्जीवित करने के लिए एहसास  नाम का अभियान शुरू किया। वॉलेंटियरों और स्कूली बच्चों की मदद से उन्होंने गांदरबल में चार चश्मों को फिर से पुनर्जीवित किया। फिलहाल वे निगीन झील संरक्षण संगठन के अध्यक्ष हैं और अभी श्रीनगर के अम्दा कदल चश्मे को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहे हैं।

‘मैं चश्मों की अपनी विरासत को वापस लाना चाहता हूं,’ वे कहते हैं।

बीते सालों में सरकार ने जल जीवन मिशन और स्प्रिंगशेड पुनर्जीवन परियोजना जैसी योजनाएं शुरू की हैं। हालांकि, नीति आयोग ने देश भर के चश्मों की मापने की पहल पर ज़ोर दिया है, मगर असल में काम की चाल बहुत धीमी है। ज़मीनी पहलें अब भी वांगनू जैसे कुछ लोगों पर ही निर्भर हैं।

गुज्जरपट्टी हयां में रहने वाले मोहम्मद सुल्तान को आज भी अपने घर के पास वाले चश्मे के पानी का स्वाद याद है। वे कहते हैं, ‘बीस साल पहले, हम पानी कभी उबालते नहीं थे। चश्मे से ठंडा, साफ पानी मिलता था, जो बोतलबंद पानी से भी बेहतर था। मेहमान ये पानी मांग कर पीते थे। अब, हम छानते हैं, उबालते हैं, और फिर भी चिंता करते हैं। जिस पानी को पीकर मैं बड़ा हुआ उसका स्वाद मेरे पोते-पोतियों को चखने तक नहीं मिला।’

इंडिया वाटर पोर्टल की पहली क्षेत्रीय पत्रकारिता फैलोशिप के दौरान लिखी गई वाहिद भट की रिपोर्ट का यह अनुवाद शाश्वत उपाध्याय ने किया है।

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