ऐसे कृषि क्षेत्र जो प्रायः सूखे की समस्या से प्रभावित रहते हैं वो सभी क्षेत्र सूखे के कारण 50% तक या इससे भी अधिक फसल उपज में हानि का अनुभव कर सकते हैं। दुनिया की 35% से अधिक कृषि भूमि की सतह को शुष्क या अर्ध शुष्क माना जाता है जो अधिकांशतः कृषि उपयोग के लिये अपर्याप्त वर्षा प्राप्त करती हैं। भारत के लगभग दो तिहाई भौगोलिक क्षेत्र में 1000 मिमी से कम वर्षा (असमान और अनियमित वितरण) होती है। वर्तमान में भारत के लगभग 140 मिलियन हेक्टेयर के बुआई क्षेत्र में से 68% क्षेत्र सूखे की स्थिति के प्रति अधिक संवेदनशील है और लगभग 50% ऐसे क्षेत्र को 'गंभीर' श्रेणी के रूप में वर्गीकृत किया गया है जहाँ सूखे की आवृत्ति लगभग नियमित रूप से घटित होती रहती है। दुनिया का लगभग 36% भूमि क्षेत्र अर्थ शुष्क श्रेणी में आता है जहाँ सालाना केवल 5 से 30 इंच तक वर्षा होती है और शेष 64% क्षेत्र फसल के मौसम (हर्ड,1976) के दौरान अस्थायी सूखे की स्थिति से ग्रसित रहता है। वैश्विक स्तर पर संभावित कृषि योग्य भूमि का लगभग एक तिहाई क्षेत्र अपर्याप्त जल की आपूर्ति से ग्रस्त है और अधिकांश शेष क्षेत्र में समय-समय पर सूखा पड़ने पर फसलों की पैदावार कम हो जाती है (क्रेमर 1980)। अफ्रीका, एशिया और पूर्वी क्षेत्रों में किसानों के लिये जल की कमी एक महत्वपूर्ण समस्या है, जहाँ कृषि के लिए 80-90% दोहित जल का उपयोग किया जाता है (एफ.ए.ओ., 2000)।
विभिन्न अजैविक तनाव के बीच सूखा या नमी तनाव दुनिया भर में फसलों की पैदावार और उत्पादकता को प्रभावित करने वाला प्रमुख सीमित कारक है। प्रकृति में जल आमतौर पर पौधों की वृद्धि के लिये सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है। समान्यतया, पौधे की प्रजातियों का प्रदर्शन जल के अधिग्रहण, पोषक तत्वों के ग्रहण और कार्बन स्थिरीकरण पर निर्भर करता है साथ ही साथ इन सभी पहलुओं को कैसे विनियमित किया जाये इस पर भी निर्भर करता है। तरल रूप में जल विलयों के प्रसार और मासफ्लो की अनुमति देता है।और इसी कारण यह संपूर्ण पौधों में पौषक तत्वों और उपापचयों के हस्तांतरण और वितरण के लिये बहुत ही आवश्यक है। जल तनाव के लिये पौधों की प्रतिक्रिया मुख्य रूप से तनाव को गंभीरता और अवधि और मुख्य रूप से पौधों की वृद्धि के स्तर पर निर्भर करती है। पौधों की वृद्धि और विकास के लिये आवश्यक कई कायकी और जैव रासायनिक प्रक्रियायें सूखे से प्रभावित होती है और जल की कम उपलब्धता के दौरान झिल्ली विघटन और एंजाइम निष्क्रियता को रोकने के लिये पौधे आणविक, सेलुलर और सम्पूर्ण स्तर पर सूखा तनाव के प्रति विभिन्न रक्षा तंत्रों को प्रदर्शित करते है।
भारत अपने कुल 9.3 मिलियन हेक्टेयर (एन. एच. बी. 2014) के क्षेत्र से 162.89 मिलियन टन सब्जियों का उत्पादन करता हैं। पिछले 3 दशकों से हमारे देश में सब्जियों की उत्पादकता (1.65 गुना ) में काफी बढ़ोतरी हुई है। वर्तमान में भारत दुनिया में चीन के बाद सब्जियों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है दुनिया के सब्जी बाजार में भारत का हिस्सा लगभग 16% है भारत में काफी विविध प्रकार की जलवायु की परिस्थितियां पायी जाती है। जो 50 से अधिक देशी और विदेशी सब्जियों के उत्पादन को सक्षम बनाती है। और यह देश सब्जियों की जैव विविधता में भी समृद्ध है और इसी कारण कई सब्जियों की उत्पत्ति का प्राथमिक/माध्यमिक केंद्र भी है। इन सभी उपलब्धियों के बावजूद भारत में सब्जियों की प्रति व्यक्ति खपत विश्व खाद्य संगठन (WHO) मानकों (एफएओ द्वारा अनुशंसित 300 ग्राम दिन / व्यक्ति) की क्षमता के विरुद्ध 180 ग्राम/ दिन/ व्यक्ति) ही है। लोहा तत्व की कमी से हमारे देश में एनीमिया की समस्या फैली हुई है जो वयस्कों में 45% से लेकर महिलाओं और बच्चों में 70% या इससे भी अधिक व्यापक है। इसलिये, संतुलित आहार के माध्यम से पौषण प्रदान करके हमारे देश की आबादी को स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान करने की तत्काल आवश्यकता है।
सब्जियाँ प्रोटीन, विटामिन, खनिज, खाद्य फाइबर, सूक्ष्म पोषक तत्वों, एंटीऑक्सिडेंट्स और फाइटोकेमिकल्स आदि का महत्वपूर्ण स्रोत हैं। हमारे शरीर में सूक्ष्म पौषक तत्वों की कमियों पर काबू पाने के लिये सब्जियाँ सबसे अच्छा स्रोत हैं और इसके अलावा सब्जियों से खाद्य फसलों की तुलना में छोटे- बड़े किसानों को प्रति हेक्टेयर कृषि भूमि से बहुत ज्यादा आय और नौकरियां प्राप्त होती हैं। आम तौर पर सब्जियाँ पर्यावरण की चरम घटनाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होती हैं। इस प्रकार उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में फसलों की कम पैदावार के लिये अधिक तापमान और मृदा में सीमित नमी जैसे प्रमुख कारण जिम्मेदार हैं और इन जलवायु परिवर्तनों का प्रभाव आगे और भी अधिक बढ़ेगा। विश्व में कुल जल की आपूर्ति पहले से ही सीमित होती जा रही है इस प्रकार जनसंख्या के दबाव में वृद्धि और जल संसाधनों के लिये लगातार बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण सूखे का प्रभाव और भी अधिक गंभीर हो जाएगा (मैकविलियम,1986)। दुनिया भर में अनुचित जल का उपयोग और सकती है। विकासशील देशों में अनुचित जल वितरण प्रणाली के कारण आगे जल की उपलब्धता में और भी कम हो सकती है। भविष्य में जल की उपलब्धता जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होने की उम्मीद है और इस गंभीर जल तनाव की स्थिति से फसलों (मुख्य रूप से सब्जियों) की उत्पादकता विशेष रूप से प्रभावित होगी। सूखा के तनाव से मृदा में घुलनशील लवणों की सांद्रता में वृद्धि होती हैं जिससे पौधों की कोशिकाओं से जल ओसमोटिक प्रवाह द्वारा बाहर निकल जाता है। इससे पौधों की की कोशिकाओं में घुलनशील लवणों की सांद्रता में वृद्धि हो जाती है जिससे वाटर पोटेन्शियल कम हो जाता है और झिल्ली टूट जाती है और कोशिका की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया जैसे प्रकाश संश्लेषण में बाधा उत्पन्न हो जाती है। सब्जियाँ प्रायःरसदार (सकुलेंट) प्रवृति की होती हैं जिनमें 90% से ज्यादा जल की मात्रा होती है जो विशेष रूप से फूलों के बनने से लेकर बीजों के विकास की अवस्था के दौरान सूखे के तनाव के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं।
सूखा यहाँ तक कि उर्वरक प्रयोग किये गये क्षेत्रों में भी पौषक तत्वों की कमियों का कारण बन सकता है जो मृदा के मैट्रिक्स से अवशोषित जड़ों की सतह में पोषक तत्वों के डिफ्यूजन को कम कर देता है और पत्तियों तक स्थानान्तरण की दर को भी कम कर देता है। सूखे के लक्षण एक प्रकार से लवण तनाव के समान होते हैं क्योंकि जड़ क्षेत्र में लवणों की उच्च सांद्रता ऑसमोटिक प्रभाव के कारण जड़ों से जल की हानि को बढ़ा देती है। कई क्षेत्रों में सूखा और लवणता की समस्या पहले से ही व्यापक रूप से फैली हुई है और वर्ष 2050 (अशरफ, 1994) तक सभी कृषि क्षेत्रों की 50% से अधिक भूमि में लवणता की गंभीर समस्या पैदा होने की उम्मीद की जा सकती है।
जल बचत सिंचाई प्रबंधन: दुनिया की कुल सिंचित भूमि में से लगभग 80% से अधिक क्षेत्र में परंपरागत सतही सिचाई विधि का उपयोग किया जाता है लेकिन देखा जाये तो क्षेत्रीय स्तर पर इसकी दक्षता केवल 40-50% (वॉन वेस्टारप 2004) ही है। जबकि ड्रिप सिंचाई पद्धति में 50- 80% तक सिचाई जल की बचत प्राप्त होती है क्योंकि इसमें छोटी छोटी प्लास्टिक की नलिकाओं के माध्यम से सीधे पौधों को सिचाई जल प्रदान किया जाता है और अपवाह और डीप परकोलेशन के कारण होने वाली सिचाई जल की हानि कम हो जाती है। आमतौर पर पौधों के वाष्पोत्सर्जन (ET) द्वारा प्रति यूनिट जल की खपत से उत्पादन 10-50% तक बढ़ जाता है। ड्रिप सिंचाई प्रणाली द्वारा कम श्रम के साथ पौधों के प्रति इकाई क्षेत्र को अधिक सिंचित किया जा सकता है।
मृदा की नमी का संरक्षण, वाष्पीकरण को कम करने, मृदा के क्षरण को रोकने, खरपतवारों की वृद्धि को कम करने और उच्च तापमान एवं मृदा के साथ सीधे संपर्क से सब्जियों की फसलों को रक्षा करने के लिये पलवार का प्रयोग किया जाता है जैविक और अजैविक दोनों प्रकार की पलवार का प्रयोग अधिक मूल्य वाली सब्जियों के उत्पादन में आम बात है। जैविक पलवार का प्रयोग मृदा को उर्वरता, संरचना और अन्य गुणों को बढ़ाने में मदद कर सकता है। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के निचले इलाकों में जहाँ तापमान अधिक है वहाँ धान की पुआल की पलवार के साथ काले भूरे रंग की प्लास्टिक की पलवार के संयोजन की सिफारिश की जा सकती है (ए.वी.आर.डी.सी., 1990) क्योंकि यह सूर्य को विकिरण को मृदा की सतह तक पहुँचने से बचाता है और धान का पुआल, प्लास्टिक को सीधे सूरज की रोशनी से बचाता है जिससे दिन के दौरान मृदा के तापमान में अधिक वृद्धि नहीं हो पाती है।
पूर्वी एशिया में 20 वीं शताब्दी के दौरान सब्जियों की फसलों में ग्राफ्टिग विधि को तैयार किया गया था और अब सामान्यतः जापान, कोरिया और कुछ यूरोपीय देशों में अब इसका अभ्यास लगातार किया जाता है। वर्ष 1950 के दशक में बैंगन की फसल को ग्राफ्टिंग से तैयार किया गया था जिसके बाद वर्ष 1960 और वर्ष 1970 (एडेलस्टीन, (2004) में ककड़ी और टमाटर के लिये भी कलम बनाना शुरू किया गया। ग्राफ्टिंग में एक ही पौधे का उत्पादन करने के लिये दो जीवित पौधों के हिस्सों (रूटस्टॉक और सियोन) को एक साथ जोड़ना शामिल होता है। इसको प्राथमिक रूप से फलदार सब्जियों जैसे कि टमाटर, बैंगन और कुकरविट्स में उत्पादन को प्रभावित करने वाले मृदा जनित रोगों को नियंत्रित करने के लिये इस्तेमाल किया जाता है। जब विशिष्ट प्रकार के सहिष्णु गुण वाले रूटस्टॉक्स का उपयोग किया जाता है तो यह ग्राफ्टिंग विधि मृदा से संबंधित पर्यावरणीय तनावों जैसे कि सूखा, लवणता, मृदा का कम तापमान और बाढ़ के लिये सहिष्णुता प्रदान कर सकती है
कुछ जंगली प्रजातियाँ मुदा में नमी को सहनशीलता को सहन करने की क्षमता रखती हैं और इन जंगली प्रजातियों से उपयोगी जीन को खेती योग्य फसलों को प्रजातियों में शामिल किया जाना चाहिये ताकि नमी तनाव के तहत भी ऐसी किस्मों से अधिक उपज प्राप्त की जा सके। कुछ महत्वपूर्ण सूखा सहिष्णु प्रजातियों और इनके जीनोटाइप्स को तालिका 200 में दर्शाया गया है।वर्तमान के दौरान विज्ञान में प्रगति के साथ सूखा सहिष्णु जीनोटाइप्स की पहचान या विभिन्न उपकरणों तकनीकों का उपयोग सूखा सहिष्णु जीनोटाइप्स की पहचान या छंटनी करने के लिये किया जाता है। कुछ महत्त्वपूर्ण उपकरणों / तकनीकों की चर्चा तालिका 21 में प्रस्तुत की गई है।
मानव शरीर में सूक्ष्म पौषक तत्वों की कमियों को पूरा करने के लिये सब्जियाँ सबसे अच्छा स्रोत हैं और छोटे-बड़े किसानों को खाद्य फसलों की तुलना में सब्जियों की बुआई से प्रति हेक्टेयर अधिक आय प्राप्त होती है और रोजगार सर्जन भी अधिक प्राप्त होता है। हाल ही के वर्षों में सब्जियों का विश्वव्यापी उत्पादन दोगुना हो गया है और सब्जियों में वैश्विक व्यापार का मूल्य भी खाद्य फसलों से अधिक हो गया है। वैश्विक स्तर पर जलवायु में महत्वपूर्ण परिवर्तन नमी तनाव को प्रभावित करेंगे जिसके परिणामस्वरूप सब्जियों की खेती भी प्रभावित होगी। अतः जल संसाधनों की उपलब्धता में बढ़ती कमी की समस्या के कारण सूखा सहिष्णुता और अधिक जल उपयोग दक्षता वाले जर्मप्लाज्म का इस्तेमाल आवश्यक हो गया है। अधिकांश क्षेत्रों के लिये ये दोनों ही गुण अनिवार्य हैं। स्वाभाविक रूप से सूखा तनाव और नियंत्रित वातावरण के तहत सूखा सहिष्णुता के लिये जीनोटाइप्स की स्क्रीनिग विशेष रूप से फसलों के पौधों में महत्वपूर्ण नमी तनाव की अवधि के दौरान सहिष्णु और संवेदी जीनोटाइप्स के बीच अंतर की जानकारी जानने के लिये बहुत ही आवश्यक हैं। इससे संबन्धित अनुसंधान को नवीनतम जीनोमिक्स संसाधनों के साथ जोड़ना चाहिये जिसमें मात्रात्मक आनुवंशिकी, जीनोमिक्स सहित फसलों के पौधों के जीनोटाइप्स एवं उगाये गये वातावरण के बीच अंतः क्रियाओं को कार्यकी और जैव रासायनिक समझ के साथ-साथ फसल सुधार की बेहतर ढंग से सूचना प्राप्त करना बहुत ही जरूरी है। पर्यावरण परिवर्तनशीलता को कम करने, आगे को आबादी के आकार को कम करने और चयन को सुविधाजनक बनाने के द्वारा आणविक मार्करों का उपयोग प्रजनन कार्यक्रमों की दक्षता बढ़ाने की संभावना प्रदान करता है। सब्जियों को अलग- अलग जंगली प्रजातियों में नमी तनाव के प्रति सहिष्णुता की संभावना रहती है क्योंकि इनके जीनोटाइप्स न्यूनतम नमी वाली स्थितियों में उगने की क्षमता रखते हैं। (टॉरसिलास एट अल 1995) जंगली प्रजातियों के फायदेमंद गुणों को अच्छी सस्य विशेषताओं के साथ के साथ फसलों की व्यावसायिक किस्मों में मिलाया जा सकता है (अशरफ, 2010)