हिमालय से भी पुरानी अरावली की पहाड़ियां समूचे उत्तर भारत के जलवायु संतुलन, मानसूनी हवाओं के मार्ग, भूजल रीचार्ज और प्रदूषण नियंत्रण में अहम भूमिका निभाती हैं। इसलिए इसे सिर्फ हरियाणा ही नहीं, बल्कि पूरे उत्तर भारत की जीवनरेखा कहा जा सकता है।
खासतौर पर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली–एनसीआर के लिए तो ये पहाड़ियां फेफड़े और प्याऊ का काम करती हैं। अरावली के जंगल भूजल को रीचार्ज करते हैं, तापमान को संतुलित रखते हैं, थार के मरुस्थल से आने वाली धूल भरी आंधियों को रोकते हैं और कार्बनडाईऑक्साइड को सोख कर वायु प्रदूषण को कम करते हैं।
लेकिन, हाल ही में हरियाणा सरकार के एक नीतिगत बदलाव ने अरावली की पहाड़ियों और इसके जंगलों के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। हरियाणा सरकार ने “वन” की परिभाषा को नए ढंग से तय किया है।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक हरियाणा राज्य में अब कोई ज़मीन तभी वन यानी जंगल मानी जाएगी, जब उसका क्षेत्रफल पांच हेक्टेयर हो या अगर यह पहले से घोषित वन के साथ जुड़ा है तो कम से कम दो हेक्टेयर हो। साथ ही, उसमें कम से कम 40% कैनोपी कवर यानी वृक्षों की छतरी हो। पर्यावरणविदों का कहना है कि वनों की यह नई परिभाषा अरावली के पारिस्थितिक तंत्र के लिए घातक साबित होगी, क्योंकि, इससे छोटे-छोटे भूखंड, खुले झाड़ीदार वन और 40% से कम कैनोपी कवर वाले सभी क्षेत्र इस दायरे से बाहर हो जाएंगे।
ऐसे में, इन ज़मीनों पर निर्माण कार्य करना या इनका इस्तेमाल औद्योगिक गतिविधियों या अन्य व्यावसायिक कामों के लिए करना आसान हो जाएगा। इससे दिल्ली-एनसीआर के आसपास जंगलों का दायरा और भी सिमट जाएगा, जो भयंकर वायु प्रदूषण से जूझ रही देश की राजधानी सहित उत्तर भारत के कई राज्यों के लिए नई पर्यावरणीय समस्याएं खड़ी कर सकता है।
अरावली के लिए 40% कैनोपी कवर का पैमाना अव्यावहारिक
पर्यावरण कार्यकर्ता चेतन अग्रवाल ने इस मामले पर बात करते हुए इंडियन एक्सप्रेस से कहा कि हरियाणा सरकार की इस नई परिभाषा और खासतौर से 40% छत्र घनत्व (कैनोपी कवर) के मानदंड के कारण अरावली के वनों को झटका लगेगा। अरावली से सटे दिल्ली के इलाकों, गुरुग्राम, फरीदाबाद के जंगल वाले कई इलाके और असोला भट्टी वन्यजीव अभ्यारण्य भी इस मानदंड को पूरा नहीं कर पाएंगे। दो और पांच हेक्टेयर के न्यूनतम क्षेत्रफल की शर्त भी ऐसे शुष्क राज्य के लिए अनुचित है। इसे 1 और 2 हेक्टेयर रखा जाना चाहिए था।
अरावली एक सूखा इलाका है, जहां सालाना बमुश्किल 400–600 मिलीमीटर बारिश होती है। इसलिए यहां ऊंचे और बड़े पेड़ों वाले घने जंगल नहीं पनप सकते। अरावली की पारिस्थितिकी झाड़ीदार और खुले वनों पर आधारित है, जो जल संरक्षण और जैव विविधता दोनों के लिए अहम हैं। ऐसे क्षेत्रों में कैनोपी कवर अकसर 10–30% ही रहता है। यहां 40% कैनोपी कवर का पैमाना थोपने का मतलब है अरावली की अधिकांश हरियाली को वन की परिभाषा से बाहर कर देना। इसका असर यह होगा कि जो खुले वन अभी तक कानूनी रूप से संरक्षित माने जाते थे, वे कानूनी संरक्षण से वंचित हो जाएंगे।चेतन अग्रवाल, पर्यावरण कार्यकर्ता
छोटे पैच क्यों हैं महत्वपूर्ण
अरावली में बहुत से वन क्षेत्र छोटे-छोटे पैच में फैले हुए हैं। इसके चलते कई जगहों पर दो हेक्टेयर या उससे भी कम क्षेत्र में घनी हरियाली मिल जाती है। ये छोटे भूखंड आपस में मिलकर जैव विविधता की शृंखला यानी इकोलॉजिकल कॉरिडोर बनाते हैं। इनके कारण ही तेंदुआ, सियार और पक्षियों की कई प्रजातियां दिल्ली–एनसीआर के आसपास के इलाकों में रह पा रही हैं। पर, हरियाणा सरकार की नई परिभाषा में दो हेक्टेयर से छोटे क्षेत्रों को वन मानने से इनकार कर दिया गया है।
द क्विंट की एक रिपोर्ट में रिटायर्ड वन अधिकारी आर.पी. बलवान का कहना है कि “पांच हेक्टेयर जैसी बड़ी सीमा तय करना अरावली जैसे पहाड़ी भूभाग की वास्तविकता को नज़रअंदाज़ करना है। यहां इतने बड़े पैमाने पर एकसाथ वनक्षेत्र मिलना ही मुश्किल है।”
टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक गुड़गाँव में 76% और फरीदाबाद में लगभग 74% वन क्षेत्र खुले और झाड़ीदार इलाकों की श्रेणी में आते हैं। वन की नई परिभाषा लागू होने पर यह क्षेत्र कानूनी सुरक्षा से बाहर हो सकते हैं। इससे लगभग 14,000 एकड़ अरावली भूमि “गैर-वन” घोषित हो सकती है। यह वही भूभाग है जो न केवल दिल्ली-एनसीआर को ताज़ा हवा देता है, बल्कि गर्मी के दिनों में लू (हीट वेव) के प्रकोप को कम करने में अहम भूमिका निभाता है। साथ ही यह इलाके भूजल को रीचार्ज करने में भी महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के विपरीत है सरकार का रुख
इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने टी.एन. गोदावर्मन बनाम भारत संघ के मामले में कहा था कि “वन” का तात्पर्य उसके शब्दकोशीय अर्थ के अनुरूप समझा जाना चाहिए। यदि कोई क्षेत्र वृक्षों से आच्छादित है तो उसे वन माना जाएगा, चाहे वह सरकारी रिकॉर्ड में वन के रूप में दर्ज़ हो या नहीं। अदालत ने राज्य सरकारों को निर्देश दिया था कि इसी आधार पर वे अपने-अपने राज्यों में वन जैसे सभी भूखंडों को चिह्नित करें।
लेकिन, वन को लेकर हरियाणा की 18 अगस्त को जारी राजपत्र अधिसूचना सुप्रीम कोर्ट की इस व्यापक व्याख्या से बिल्कुल अलग है। इसमें सरकार ने किसी भूमि को वन भूमि मानने के मानकों को क्षेत्रफल से लेकर हरियाली (कैनोपी कवर) को सीमित कर दिया है। पर्यावरणविदों का कहना है कि इससे राज्य के शेष अरावली वनों में से अधिकांश कानूनी संरक्षण से बाहर हो सकते हैं।
उनका कहना है कि हरियाणा सरकार ने जानबूझकर परिभाषा को संकुचित कर दिया है, ताकि बड़ी संख्या में अरावली की जमीनें वन संरक्षण अधिनियम से बाहर हो जाएं। इससे रीयल एस्टेट और खनन लॉबी को फायदा पहुंच सके। हरियाणा सरकार ने यह कदम 19 फरवरी 2024 को सुप्रीम कोर्ट की तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा जारी आदेश के बाद उठाया गया है, जिसमें देश के सभी राज्यों को 12 दिसंबर, 1996 को टीएन गोदावर्मन मामले के अनुरूप ‘वन’ के निर्धारण के लिए व्यापक “शब्दकोश अर्थ” का उपयोग करने का निर्देश दिया गया था।
अदालत ने आदेश दिया था कि राज्यों को "किसी भी ज़मीन पर किसी भी काम को मंज़ूरी देने के लिए ‘वन’ शब्द की शब्दकोशीय परिभाषा के अनुसार चलना होगा।" शब्दकोशों में आमतौर पर वनों का वर्णन ऑक्सफ़ोर्ड लर्नर्स डिक्शनरी की इस परिभाषा के समान मिलता है "वृक्षों से घनी तरह से आच्छादित भूमि का विशाल क्षेत्र"।
इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय ने अशोक कुमार शर्मा बनाम भारत संघ मामले में वन (संरक्षण) अधिनियम 2023 में संशोधन को दी गई चुनौतियों की सुनवाई करते हुए सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया था कि वे परिभाषित करें कि "वन" क्या है और ऐसे क्षेत्रों की पहचान करने के लिए सर्वेक्षण शुरू करें।
इसके लिए एक महीने के भीतर विशेषज्ञ समितियों के गठन का आदेश दिया गया था, ताकि ‘वन जैसे क्षेत्रों’, ‘अवर्गीकृत वनों’ और ‘सामुदायिक वनों’ का मानचित्रण किया जा सके। कोर्ट ने छह महीने के भीतर इन रिपोर्टों को केंद्र सरकार को सौंपने का निर्देश दिया था। इस मामले में कुछेक राज्यों को छोड़कर बाकी का रवैया ढीलाढाला ही दिखाई दिया है।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक महाराष्ट्र ने तीन समिति ने गठित कर ज़िला-वार वन भूमि का विवरण तैयार किया और जीआईएस आधारित डिजिटल मैप बनाना शुरू कर दिया है। ओडिशा में केंद्रीय प्राधिकृत समिति की देखरेख में वन भूमि की जियो रेफरेंसिंग का काम लगभग 95% पूरा हो चुका है। वहीं, हरियाणा में इस मामले में सुस्ती देखने को मिल रही है। कोर्ट के आदेश पर यहां विशेषज्ञ समितियां तो घोषित कर दी गई हैं, लेकिन “वन” की परिभाषा अंतिम रूप से तय न होने की वजह से सर्वेक्षण शुरू नहीं हो पाया है। यह देरी 9 सितंबर, 2025 को होने वाली सुप्रीम कोर्ट की आगामी सुनवाई में एक मुद्दा बन सकती है।
रीयल एस्टेट और खनन लॉबी का दबाव
न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले दो दशकों में गुड़गांव और फरीदाबाद में रीयल एस्टेट सेक्टर ने तेज़ी से विस्तार किया है। हाईवे और एक्सप्रेसवे के इर्द-गिर्द होने के कारण अरावली की इन ज़मीनों पर रीयल एस्टेट लॉबी की नज़रें गड़ी हुई हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक हाल के वर्षों में फरीदाबाद के सराय ख्वाजा क्षेत्र में हाल ही में 52 एकड़ संरक्षित अरावली भूमि से जंगलों का अवैध रूप से साफ किया जा चुका है। इस क्षेत्र को सुप्रीम कोर्ट के आदेश से जंगल (डीम्ड फॉरेस्ट) माना गया था।
वन विभाग ने मामला दर्ज़ किया है, लेकिन नई परिभाषा लागू होने पर दोषियों को बच निकलने का रास्ता मिल जाएगा। गुड़गांव से लेकर फरीदाबाद तक के क्षेत्रों में पेड़ों की कटाई करके ज़मीनों की बिक्री करने और अवैध निर्माण के मामले आए दिन सामने आते रहते हैं। ये घटनाएं बताती हैं कि कानूनी सुरक्षा कमजोर पड़ते ही अरावली के लिए खतरा और गहराएगा।
दूसरी ओर पहाड़ियों से पत्थर खनन के लिए माइनिंग लॉबी भी इसपर काबिज़ होना चाहती है और सुप्रीम कोर्ट की रोक के बावजूद यहां पर लगातार अवैध खनन किया जा रहा है। अब तक वन संरक्षण अधिनियम (एफसीए) में आने वाली ये ज़मीनें जंगल की नई परिभाषा के चलते अब कानूनी सुरक्षा के दायरे से बाहर हो जाएंगी और रीयल एस्टेट और खनन लॉबी को यहां अपनी कारोबारी गतिविधियां चलाने की कानूनी ढील मिल जाएगी।
निजी डेवलपरों को जहां ज़मीनें खरीद कर निर्माण की खुली छूट मिल जाएगी, वहीं माइनिंग कंपनियों के लिए यहा खदानें चलाकर पत्थर निकालने का रास्ता खुल जाएगा। इसी कारण पर्यावरणविद हरियाणा सरकार के इस नीतिगत बदलाव को “कॉर्पोरेट लॉबी के दबाव का नतीजा” बता रहे हैं।
सरकार के कदम और उनकी सीमाएं
हरियाणा सरकार कह रही है कि उसने अरावली को बचाने के लिए “853 हेक्टेयर पुनर्जीवन योजना” शुरू की है। इसके तहत छह जिलों गुड़गांव, फरीदाबाद, नूंह, पलवल, महेंद्रगढ़ और रेवाड़ी में कुल 1.8 लाख पौधे लगाए जाएंगे, ताकि वनों के विनाश और मरुस्थलीकरण को रोका जा सके।
लेकिन, सवाल यह है कि सरकार अगर वनों का संरक्षण करना चाहती है तो वन की परिभाषा को सीमित करके और मानकों में ढील देकर वनभूमि को मिली कानूनी सुरक्षा के घेरे को कमज़ोर क्यों किया जा रहा है। हज़ारों हेक्टेयर में फैले मौजूदा जंगलों को खतरे में डालकर महज़ 853 हेक्टेयर में पौधे लगाने का क्या औचित्य है? अगर मौजूदा वनों की मूल पारिस्थितिकी को कानूनी सुरक्षा ही नहीं मिलेगी, तो नई पौधारोपण योजनाएं कितनी कारगर होंगी?
इसके अलावा सरकार के पौधारोपण कार्यक्रम को लेकर यह भी कहा जा रहा है कि यह एक अच्छा कदम है, लेकिन कृत्रिम वृक्षारोपण कभी भी अरावली के प्राकृतिक वनों की पारिस्थितिकी की जगह नहीं ले सकता। प्राकृतिक ढंग से और देशज प्रजातियों से बने पुराने जंगलों को बचाना ज़रूरी है, क्योंकि इन्हें स्थानीय ज़रूरतों और आबोहवा के अनुरूप कुदरत ने खुद तैयार किया है। इसलिए पुराने जंगल जैव विविधता और पारिस्थितिक तंत्र के लिहाज़ से किसी भी कृत्रिम पौधरोपण से कहीं अधिक कारगर होते हैं।
सवाल सिर्फ पौधों की संख्या का नहीं, बल्कि जंगलों के टिकाऊपन का भी है, जिसे मौजूदा प्राकृतिक वनों को कानूनी सुरक्षा देकर ही सुनिश्चित किया जा सकता है। इस प्रकार हरियाणा की नई वन परिभाषा ने अरावली के भविष्य पर ऐसे ही कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। यह सवाल इस लिए भी काफी महत्वपूर्ण हो जाते हैं, क्योंकि अरावली की पहाडि़यां और उसे जंगल केवल हरियाणा की नहीं, बल्कि पूरे उत्तर भारत की एक मूल्यवान प्राकृतिक धरोहर हैं। पर्यावरण की बेहतरी के लिए इसे बचाना ज़रूरी है।
सिमटेंगे अरावली के जंगल, तो बढ़ेगा मरुस्थलीकरण और जलवायु परिवर्तन
डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट के मुताबिक हरियाणा सरकार की नई परिभाषा सिर्फ राज्य में कानूनी ढील नहीं, बल्कि पूरे उत्तर भारत के रेगिस्तानीकरण को तेज़ करने वाला कदम भी साबित हो सकती है। अरावली पर्वतमाला राजस्थान से लेकर हरियाणा और दिल्ली तक थार मरुस्थल के विस्तार को रोकने वाली प्राकृतिक दीवार है। इसलिए अगर अरावली की हरियाली घटती है, तो यह प्राकृतिक अवरोध कमजोर पड़ जाएगा और उत्तर भारत में मरुस्थलीकरण की गति बढ़ सकती है।
अरावली की ढलानों पर मौज़ूद झाड़ियों की जड़ें मिट्टी को बांधकर रखती हैं, जिससे वर्षा जल मिट्टी को बहाकर नहीं ले जा पाता। इन झाड़ियों के जंगलों के कटने पर मिट्टी का कटाव और उसके रेत में बदलने की प्रक्रिया तेज़ हो जाएगी। जिससे, यह इलाका रेगिस्तान का रूप ले सकता है।
हिन्दुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) और अंतर्राष्ट्रीय अर्ध-शुष्क भूमि कंसोर्टियम (आईसीएआरडीए) की रिपोर्टों के हवाले से बताया गया है कि राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली के कई हिस्से पहले से ही मरुस्थलीकरण की चपेट में हैं और अरावली इन प्रक्रियाओं को रोकने में प्रमुख भूमिका निभाती है। इसलिए अरावली के जंगलों के सिमटने से मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया तेज़ हो सकती है।
इसके अलावा जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में अरावली के पहाड़ और जंगल काफ़ी महत्वपूर्ण हैं। यह कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करके कार्बन सिंक का काम करते हैं। यदि यह हरियाली नष्ट होती है, तो न केवल CO₂ अवशोषण क्षमता घटेगी, बल्कि वातावरण में ग्रीनहाउस गैसें बढ़ने से तापमान में बढ़ोतरी होगी। इससे आसपास के इलाकों में गर्मी और हीटवेव की समस्या बढ़ सकती है और जलवायु परिवर्तन की समस्या भी गंभीर हो सकती है। धूलभरी आंधियों के चलते दिल्ली और आसपास के इलाकों में धूल प्रदूषण 30–40% तक बढ़ सकता है।