संयुक्त राष्ट्र ने लगातार होने वाले विकास के लिए साल 2015 में कुल 17 लक्ष्य तय किए थे जिन्हें सतत विकास लक्ष्य यानी सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल (एसडीजी) कहा जाता है। इन सभी लक्ष्यों को सतत विकास के 2030 एजेंडा के तहत अपनाया गया था। इनका मकसद गरीबी खत्म करना, पृथ्वी की सुरक्षा और सभी लोगों के लिए बेहतर व समृद्ध जीवन सुनिश्चित करना है।
इन लक्ष्यों में से लक्ष्य 6 का संबंध पानी और साफ़-सफ़ाई से है। इसका उद्देश्य ‘सभी के लिए स्वच्छ जल और स्वच्छता सुनिश्चित करना है।’ इसमें केवल हर व्यक्ति की पानी तक पहुंच नहीं, बल्कि जल संसाधनों का टिकाऊ प्रबंधन व गुणवत्ता सुनिश्चित करना भी शामिल है।
संयुक्त राष्ट्र ने एसडीजी 6 को केवल साफ़ जल-आपूर्ति तक ही सीमित न रखकर इसमें जल की गुणवत्ता, जल के प्रबंधन, पारिस्थितिकी और साझेदारी जैसे पहलुओं को भी शामिल किया है। इनका उद्देश्य जल और स्वच्छता को मानव अधिकार के रूप में स्थापित करने के साथ ही, जल-संसाधनों का प्रबंधन कुछ इस तरह से करना है कि वर्तमान और भविष्य दोनों के लिए साफ़ पानी की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके।
इस लक्ष्य के मुख्य तत्वों में शामिल हैं:
सुरक्षित और सुलभ जल: इसके तहत हर व्यक्ति को पर्याप्त मात्रा में सुरक्षित पानी मुहैया करवाने के साथ ही उसके किफ़ायती और पहुंच में होने को भी शामिल किया गया है। यह एसडीजी-6 का मूल तत्त्व है।
स्वच्छता: इस तत्व में सभी के लिए शौचालय की सुविधा, खुले में शौच की आदत का अंत, माहवारी के दौरान स्वच्छता, हाथ धोने जैसी आदतों को बढ़ावा देने की बात की गई है। इसके अलावा दूषित घरेलू पानी और मल निस्तारण की व्यवस्था भी इस लक्ष्य का हिस्सा है।
जल-गुणवत्ता और प्रदूषण-नियंत्रण: इसमें जल में रासायनिक, औद्योगिक या जैविक प्रदूषण के स्तर को कम करना और गंदे पानी को साफ़ करके उसके पुनः उपयोग को बढ़ावा दिया गया है।
जल संसाधनों का सतत प्रबंधन: कृषि, उद्योग और घरेलू उपयोग में जल-उपयोग की दक्षता को बढ़ाने पर ज़ोर दिया गया है ताकि जल-स्रोतों पर पड़ने वाले बोझ को कम किया जा सके। इसमें पाइपलाइन लीकेज जैसी कमियों को कम करने और एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन (आईडब्ल्यूआरएम) के विस्तार पर ज़ोर दिया गया है।
भूजल और जल-पारिस्थितिकी की रक्षा: इसमें नदियों, झीलों, आर्द्रभूमियों सहित भूजल के तमाम स्रोतों का संरक्षण और उनके पुनर्स्थापन को सुनिश्चित करने की बात कि गई है। इसमें आर्द्रभूमियों, बाढ़-मैदानों और जलग्रहण क्षेत्रों का पुनर्जीवन, जल जैव-विविधता की रक्षा और नदी किनारे के जंगलों और पारिस्थितिकी का संरक्षण शामिल है।
एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन: स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक जल-संसाधनों की समग्र योजना और नीति-निर्माण पर विशेष ध्यान केंद्रित करने पर बल देने के साथ ही इसमें नदी बेसिन और भूजल प्रबंधन योजनाएं, अंतर्राज्यीय और अंतर्राष्ट्रीय जल-साझेदारी और डेटा साझा करने और संस्थागत समन्वय की व्यवस्था शामिल है।
सामुदायिक स्तर पर भागीदारी और साझेदारी: इसके तहत जल और स्वच्छता से जुड़ी योजनाओं में स्थानीय समुदायों की सक्रिय भागीदारी के साथ ही राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिलने वाले सहयोग और आर्थिक सहायता को सुनिश्चित किया जाना है।
एनवायरनमेंटल ट्रैकिंग रिपोर्ट (2023) के अनुसार, भारत के लगभग 1000 ब्लॉक गंभीर भूजल संकट का सामना कर रहे हैं।
हालांकि, एसडीजी-6 के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए भारत में जल जीवन मिशन, अटल भूजल योजना, वर्षा जल संचयन अभियान, कैच द रेन अभियान, राष्ट्रीय जल मिशन, राष्ट्रीय एक्विफर मैपिंग और मैनेजमेंट के अलावा जल शक्ति अभियान जैसी योजनाओं को शुरू किया गया है। लेकिन, इन तमाम प्रयासों के बावजूद, देश में भूजल संकट गहराता जा रहा है। तेज़ी से बढ़ रही जनसंख्या, शहरीकरण और औद्योगिक विस्तार ने जल संसाधनों पर दबाव डाला है, जिससे जल की गुणवत्ता और उपलब्धता में भी कमी आई है। इन लक्ष्यों को पूरा करने में आने वाली मुख्य बाधाओं में शामिल हैं:
जल संसाधनों की घटती उपलब्धता: अत्यधिक भूजल दोहन, नदियों का सूखने और वर्षा पर बहुत अधिक निर्भरता के कारण जल स्रोत लगातार कम हो रहे हैं। सीजीडब्लूबी के अनुसार भारत के 70 प्रतिशत भूजल-ब्लॉक “अतिदोहित क्षेत्र” बन चुके हैं।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा भूजल उपभोक्ता देश है। देश की 70 प्रतिशत सिंचाई और 85 प्रतिशत पेयजल की ज़रूरत भूजल से ही पूरी होती है। पिछले कुछ दशकों में तेजी से बढ़ती आबादी, कृषि और उद्योगों की मांग को पूरा करने के लिए भूजल पर निर्भरता की वजह से भूजल का स्तर लगातार घट रहा है।
अलग-अलग सरकारी और गैर सरकारी स्रोत बताते हैं कि भारत में सिंचाई के लिए उपयोग में लाए जाने वाले कुल पानी का लगभग 60 से 62 प्रतिशत हिस्सा भूजल से आता है। इसके अलावा भारत के गांवों में पीने के पानी का भी ज़्यादातर हिस्सा भूजल के ही भरोसे है। यह निर्भरता भूजल पर तत्काल दबाव बनाती है।
एनवायरनमेंटल ट्रैकिंग रिपोर्ट (2023) के अनुसार, भारत के लगभग 1000 ब्लॉक गंभीर भूजल संकट का सामना कर रहे हैं।
सीजीडब्लूबी के आंकड़े के अनुसार तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में 42 प्रतिशत ब्लॉकों में भूजल का अत्यधिक दोहन हो रहा है।
कई राज्यों जैसे राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में जल तालिकाएं तेजी से घट रही हैं, जिससे कृषि उत्पादन और पेयजल आपूर्ति पर बुरा प्रभाव पड़ा है।
सीजीडब्लूबी की साल 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में वार्षिक भूजल पुनर्भरण क्षमता 449.08 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) है, जबकि वार्षिक भूजल दोहन 241.34 बीसीएम है। सरकार का दावा है कि अटल भूजल योजना, जल जीवन मिशन और कैच द रेन अभियान जैसी पहलों के कारण भूजल प्रबंधन में सुधार हुआ है।
इसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि औसतन भूजल दोहन (किसी क्षेत्र में भूजल के पुनर्भरण यानी रिचार्ज की तुलना में निकाले जाने वाले पानी की मात्रा) का आंकड़ा 59.26 प्रतिशत है। लेकिन भूजल के अत्यधिक दोहन की यह स्थिति देश के कई राज्यों में गंभीर है और उनकी वास्तविक स्थिति इस सरकारी दावे से मेल खाती नज़र नहीं आती।
अगर हम केवल पंजाब राज्य का उदाहरण लें तो, पंजाब में भूजल दोहन का आंकड़ा 156.87 प्रतिशत तक पहुंच चुका है। जिसका सीधा मतलब है ज़मीन पुनर्भरण के माध्यम से जितना पानी जमा कर सकती है उससे लगभग डेढ़ गुना ज़्यादा पानी हर साल निकाला जा रहा है। इस असंतुलन ने जालंधर, लुधियाना, संगरूर और पटियाला जैसे कई इलाकों को “अत्यधिक दोहन वाले क्षेत्र” की श्रेणी में ला दिया है।
ऐसी ही स्थिति हरियाणा की भी है। सीजीडब्लूबी की साल 2023 की ही रिपोर्ट के अनुसार इस राज्य का भूजल दोहन 134.37 प्रतिशत है, जिसमें गुरुग्राम, फरीदाबाद, करनाल और कैथल जैसे ज़िले हैं। खेती के बढ़ते दबाव और तेज़ी से हो रहे शहरीकरण के कारण इन ज़िलों में जलस्तर तेजी से नीचे जा रहा है।
इसके अलावा, राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश के नोएडा, गाजियाबाद, मेरठ और आगरा ज़िलों में भूजल के पुनर्भरण के दावे और उसके दोहन की वास्तविक स्थिति में अंतर स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
रेगिस्तानी भूभाग होने के बावजूद, राजस्थान के जयपुर, झुंझुनूं और नागौर में भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण जलस्तर हर साल औसतन 1 मीटर तक नीचे जा रहा है।
वहीं देश की राजधानी दिल्ली में भूजल दोहन की दर 120 प्रतिशत से अधिक है। विशेषकर दक्षिण और पश्चिम दिल्ली के नज़फ़गढ़, द्वारका, जनकपुरी, उत्तम नगर, मोती नगर आदि इलाकों में बोरवेलों से जल निकासी ने पुनर्भरण की संभावनाओं को लगभग खत्म कर दिया है।
दरअसल, हज़ारों गहरे बोरवेलों से लगातार पानी खींचा जा रहा है। भूजल निकालने की गति, वर्षा से मिलने वाले पुनर्भरण से कई गुना अधिक हो गई है। जिसका नतीजा यह हुआ है कि ज़मीन के नीचे पानी का स्तर इतनी गहराई तक चला गया है कि सामान्य वर्षा से उसकी कमी पूरी नहीं हो पा रही है। दिल्ली जल बोर्ड (डीजेबी) के अनुसार, शहर का जलस्तर लगभग 300 मीटर तक गिर चुका है।
उत्तर प्रदेश के नोएडा, गाज़ियाबाद, मेरठ और आगरा जैसे ज़िलों में औद्योगिक और आवासीय विकास के चलते जलस्तर लगातार गिर रहा है। राज्य के कुल 823 विकासखंडों में आगरा के बिचपुरी, अकोला, बरौली अहीर, खंडौली जैसे लगभग 165 ब्लॉक ओवर-एक्सप्लॉइटेड यानी अति-दोहन वाले क्षेत्र घोषित किए जा चुके हैं। जबकि, उत्तर प्रदेश उन 7 राज्यों की सूची में शामिल है जहां अटल भूजल योजना को प्राथमिकता दी गई है और इसके अंतर्गत यहां भूजल स्तर के पुनर्भरण के प्रयास किए जा रहे हैं।
तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे दक्षिण भारतीय राज्यों की स्थिति भी चिंताजनक है। चेन्नई, कोयंबटूर और बेंगलुरु जैसे शहरी इलाकों में अत्यधिक भूजल दोहन के कारण गर्मियों में जल-संकट सामान्य हो चुका है। इन क्षेत्रों में अति-दोहन वाले क्षेत्रों का प्रतिशत 42 है। चेन्नई और बेंगलुरु जैसे शहरों में गर्मियों में डे ज़ीरो की स्थिति (वह दिन जब नलों में पानी आना बंद हो जाता है) आ जाती है।
सरकार का कहना है कि अटल भूजल योजना और कैच द रेन अभियान जैसे प्रयासों से देश में भूजल पुनर्भरण को प्रोत्साहन मिला है। इसका एक उदाहरण उत्तर प्रदेश में साल 2022 में लागू की गई अमृत सरोवर योजना है। इस योजना के तहत राज्य में 16,630 तालाबों के निर्माण से बरेली, ललितपुर, हमीरपुर जैसे कुछ ज़िलों में जलस्तर में सुधार दर्ज़ हुआ।
नमामि गंगे एवं ग्रामीण जलापूर्ति विभाग के मुख्य सचिव अनुराग श्रीवास्तव ने नवभारत टाइम्स द्वारा आयोजित भूजल रक्षा भविष्य की सुरक्षा नाम से आयोजित एक सभा में कहा कि पिछले पांच राज्य के 29 ज़िलों में भूजल स्तर में सुधार दर्ज हुआ है। सीजीडब्लूबी ने भी अपने रिपोर्ट में इन ज़िलों में 2 मीटर से कम तक के सुधार की बात की है।
लेकिन कैग (सीएजी) की साल 2024 की रिपोर्ट के आंकड़े बताते हैं कि कई राज्यों में निगरानी प्रणाली और डेटा-अपडेटिंग में हुई देरी से योजना का प्रभाव उम्मीद से कम रहा। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 31 राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों में से सिर्फ कुछ ही (आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, केरल, मध्य प्रदेश, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान) राज्यों में स्थानीय-स्तर और राज्य सरकारों के बीच मॉनिटरिंग मैकेनिज्म प्रभावी रूप से स्थापित हैं।
साथ ही, पुनर्भरण के लिए तरह-तरह के प्रयास, जैसे नए तालाबों का निर्माण, पुराने जल-स्रोतों जैसे रिचार्ज कुएं, परकोलेशन टैंक (वर्षा या सतही जल को रोककर धीरे-धीरे ज़मीन में रिसने में मदद करने वाला ढांचा) आदि की मरम्मत और देखरेख जैसे कदम उठाए तो गए लेकिन बरती गई अनियमितता के कारण कारगर साबित नहीं हुए। इसका एक उदाहरण अमृत सरोवर योजना ही है, जिसके उत्तर प्रदेश में सफल होने के प्रमाण हैं।
कर्नाटक सरकार ने साल 2023 में घोषणा की कि उसके 60 प्रतिशत ब्लॉकों में जलस्तर में सुधार हुआ, पर सीजीडब्लूबी रिपोर्ट में केवल 36 प्रतिशत ब्लॉकों में वास्तविक वृद्धि दिखी।महाराष्ट्र के ग्राउंडवाटर सर्वे एंड डवलपमेंट एजेंसी (जीएसडीए) ने भूजल पुनर्भरण में गति लाने के लिए, “भूजल समृद्ध ग्राम स्पर्धा” (इसमें ग्राम पंचायतों को भूजल प्रबंधन, जल सुरक्षा योजना एवं अन्य बचत/पुनर्भरण गतिविधियों के आधार पर पुरस्कृत किया जाता है।) अपनाया, जिससे गांव-स्तर पर जलसंरक्षण प्रतिस्पर्धा बढ़ी।
लेकिन सतही जलाशयों पर अत्यधिक निर्भरता के कारण कई जगहों पर पुनर्भरण का लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया और इसका असर सीमित ही रहा। उदाहरण के लिए, सोलापुर ज़िले के दक्कन-बेसाल्ट क्षेत्रों में अटल भूजल के तहत किए गए स्थानीय प्रयासों के बावजूद रिचार्ज-सेल या ढांचों की कम संख्या और हाइड्रोलॉजी (पृथ्वी पर जल के स्रोतों, वितरण, संचलन और गुणों का अध्ययन करने वाला विज्ञान) के कारण भूमि-स्तर पर अपेक्षित भूजल सुधार धीमा रहा।
नमामि गंगे एवं ग्रामीण जलापूर्ति विभाग के मुख्य सचिव अनुराग श्रीवास्तव ने नवभारत टाइम्स द्वारा आयोजित भूजल रक्षा भविष्य की सुरक्षा नाम से आयोजित एक सभा में कहा कि पिछले पांच राज्य के 29 ज़िलों में भूजल स्तर में सुधार दर्ज हुआ है।
कुछ ज़िलों में केवल कुछ दर्ज़न रीचार्ज-शाफ़्ट बनाए गए, जिसके कारण उनका अपेक्षित असर नहीं हुआ। उदाहरण के लिए अटल भूजल योजना में इसकी संख्या 37 बताई गई है, जो कि ज़रूरत के हिसाब से काफ़ी कम है।
जल-प्रदूषण और घटती गुणवत्ता: औद्योगिक अपशिष्ट, खेती में प्रयोग होने वाले रसायनिक तत्व, और घरेलू सीवेज से नदियां व भूजल प्रदूषित हो रहे हैं। भारत में भूजल के स्तर में गिरावट के साथ ही इसकी गुणवत्ता पर भी असर पड़ रहा है और यह एक बड़ी समस्या बनती जा रही है।
सीजीडब्लूबी और सीपीसीबी के संयुक्त अध्ययन (2023) में पाया गया कि देश के 23 राज्यों के 335 ज़िलों में फ्लोराइड, आर्सेनिक, नाइट्रेट, और लोहे की मात्रा तय सुरक्षित सीमा (45 mg/L) से अधिक है।
सीजीडब्लूबी की रिपोर्ट ‘भूजल गुणवत्ता का अवलोकन’ में यह भी कहा गया है कि भारत में जहां-जहां भूजल का अत्यधिक उपयोग (उदाहरण के लिए पंजाब, हरियाणा, राजस्थान आदि राज्य) हो रहा है, उन जगहों पर फ्लोराइड (>1.5 mg/L) और आर्सेनिक (>0.01 mg/L) की अधिक मात्रा पाई गई है।
इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में भूजल में पाए जाने वाले रासायनिक तत्वों के राज्य-वार आंकड़े कुछ इस प्रकार हैं:
पानी और स्वच्छता तक असमान पहुंच: भारत में जल और स्वच्छता सेवाओं की पहुंच में बहुत ज़्यादा असमानता देखने को मिलती है। एक ओर शहरी क्षेत्रों में जल आपूर्ति और सीवेज नेटवर्क अपेक्षाकृत बेहतर हैं, वहीं ग्रामीण व दुर्गम इलाकों में स्थिति अभी भी चिंताजनक है। इन क्षेत्रों में स्वच्छ जल और सुरक्षित शौचालय की उपलब्धता सीमित है, जिससे सामाजिक-आर्थिक असमानता और बढ़ जाती है।जल जीवन मिशन के बावजूद, कई दुर्गम ग्रामीण क्षेत्रों में पाइप जल कनेक्शन अब भी अधूरा है। जल जीवन मिशन के तहत सरकार का लक्ष्य वर्ष 2024 तक हर ग्रामीण परिवार को पाइप से जलापूर्ति उपलब्ध कराना है।
लेकिन जल शक्ति मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान और उत्तर प्रदेश राज्यों में ग्रामीण घरों में पाइप जल कनेक्शन की कवरेज औसतन 55 प्रतिशत है। वहीं देश-स्तर पर यह औसत कवरेज लगभग 50 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि राज्यों के बीच क्षेत्रीय असमानता बनी हुई है। रिपोर्ट में इस बात का भी ज़िक्र है कि हिमाचल प्रदेश, गोवा और तेलंगाना जैसे राज्यों में लगभग हर घर जल योजना का लक्ष्य लगभग पूरा हो चुका है, जबकि मध्य भारत और उत्तर-भारत के कई हिस्सों में नल-जल आपूर्ति अब भी अधूरी है। इसके अलावा, दुर्गम व पहाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों में पाइपलाइन विस्तार और स्रोत स्थिरता से जुड़ी चुनौतियां अब भी बनी हुई हैं।
स्वच्छता को सुनिश्चित करने वाले इंफ़्रास्ट्रक्चर के रख-रखाव में कमी: खबरों में यह बात सामने आई है कि स्वच्छ भारत मिशन के तहत बने शौचालयों और सीवेज नेटवर्क का रख-रखाव समय के साथ कमज़ोर पड़ रहा है, जिससे उनकी उपयोगिता घटती जा रही है।
टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक खबर के अनुसार इस आंकड़े के लिए किए गए सर्वेक्षण में भाग लेने वाले लगभग 52 प्रतिशत लोगों ने कहा कि स्वच्छ भारत मिशन के लागू होने के आठ साल पूरे होने की बाद भी उनके क्षेत्र में फंक्शनल सार्वजनिक शौचालय की उपलब्धता में कोई सुधार नहीं हुआ है।
वहीं एक दूसरे सर्वे के अनुसार लगभग 58 प्रतिशत शहरी नागरिकों का मानना है कि बाजारों, रेलवे-बस स्टेशनों, धार्मिक जगहों आदि में बने सार्वजनिक शौचालय (सीबीएम-के अंतर्गत) की स्थिति बुरी है। इतना ही नहीं, कई शहरी इलाक़ों में शौचालय या तो बंद पड़े हैं और अगर खुले भी हैं पानी, सफाई और दूसरी सुविधाओं की कमी के कारण इस्तेमाल के लायक नहीं हैं।
इसके अलावा, प्रबंधन की जवाबदेही को लेकर किसी तरह के स्पष्ट दिशा-निर्देश न होने के कारण भी इनके रख-रखाव, मरम्मत और सुविधाओं की स्थिति में लगातार गिरावट देखी जा रही है। हालांकि, मिशन से जुड़े अधिकारियों का कहना है कि शौचालयों की पहुंच में बढ़ोतरी हुई है लेकिन नियमित उपयोग की दर में कमी आई है। उदाहरण के लिए, 2018-19 में ग्रामीण घरों में शौचालय उपयोग 87 प्रतिशत था, पर 2020-21 तक गिरकर लगभग 65 प्रतिशत तक हो गया।
इस गिरावट के कई कारण सामने आए हैं:
कर्मचारियों का अभाव: शौचालयों का निर्माण तो हो गया, लेकिन नियमित सफाई, पानी आपूर्ति, स्लज की सफाई आदि की व्यवस्था लचर है। इस स्थिति के लिए ज़िले या नगर निगमों में सफाई स्टाफ या ठेकेदारों की कमी को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है।
स्लज / सेप्टिक टैंक के प्रबंधन की समस्या: गांवों के घरों में बनाए गए शौचालयों के सेप्टिक टैंकों की सफाई नहीं होने के कारण वे उपयोग करने की हालत में नहीं रह जाते हैं।
जवाबदेही और ज़िम्मेदारी की अस्पष्टता: कम्युनिटी शौचालयों या सार्वजनिक शौचालयों के मामले में यह समस्या पाई गई है कि इनके संचालन-रख-रखाव की ज़िम्मेदारी को लेकर स्पष्टता नहीं है। यानी यह स्पष्ट नहीं है कि ये शौचालय नगर निगम, पंचायत, ठेकेदार, स्वयं सहायता समूह में से किसके अधीन आते हैं।
उपयोग में कमी: यदि उपयोगकर्ता स्वच्छता, जल आपूर्ति, सुरक्षा-निजता आदि नहीं पाते तो उपयोग छोड़ देते हैं। उपयोग में कमी से व्यवस्थाएं चलाना और भी कठिन हो जाता है।
जलवायु परिवर्तन: अनियमित वर्षा, सूखा और बाढ़ जैसी घटनाएं जल-स्रोतों की स्थिरता को प्रभावित करती हैं। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से पुनर्भरण दर (रिचार्ज दर) में कमी आ रही है।
भारत में वर्षा जल का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा साल के केवल चार महीनों (जून से सितंबर) में होता है। यह चार महीने भारत में मानसून का समय होता है।
भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ हाइड्रोलॉजी, रुड़की की साल 2024 की संयुक्त रिपोर्ट बताती है कि मानसून की असमानता ने पुनर्भरण (भूजल रिचार्ज) की प्रक्रिया को असंतुलित कर दिया है। इस असमानता के कारण कुछ इलाकों में जहां भारी बारिश होती है, वहीं कुछ इलाके सूखे पड़े रहते हैं। उदाहरण के लिए राजस्थान, गुजरात जैसे पश्चिमी राज्यों में भूजल स्तर गिरने के पीछे यहां पड़ने वाला सूखा है।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद - राष्ट्रीय जल विज्ञान एवं जल संसाधन संस्थान यानी आईसीएआर-एनआईडब्ल्यूएआर (2022) और सीजीडब्लूबी की रिपोर्ट में बताया गया है कि बाढ़ के बाद मिट्टी में सिल्ट और महीन बालू की मोटी परत जम जाती है, जिससे भूजल पुनर्भरण की दर घट जाती है।
दूसरी तरफ़ पूर्वी राज्यों जैसे बिहार (गंगा-कोसी बेसिन), असम (ब्रह्मपुत्र और बराक घाटी), पश्चिम बंगाल (उत्तर और मध्य भाग) में बार-बार आने वाली बाढ़ के कारण सतही जल तो बढ़ा है लेकिन लंबे समय में भूजल रिचार्ज पर इसका सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा है। इसका कारण इन इलाकों में मिट्टी की ऊपरी सतह का सघन हो जाना बताया गया है, जिसके कारण पानी रिसने की दर में कमी आ जाती है।
इसके अलावा,भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद - राष्ट्रीय जल विज्ञान एवं जल संसाधन संस्थान यानी आईसीएआर-एनआईडब्ल्यूएआर (2022) और सीजीडब्लूबी की रिपोर्ट में बताया गया है कि बाढ़ के बाद मिट्टी में सिल्ट और महीन बालू की मोटी परत जम जाती है, जिससे भूजल पुनर्भरण की दर घट जाती है। इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि बिहार के सुपौल, दरभंगा और मधुबनी जिलों में, कोसी बाढ़ के बाद मिट्टी की औसत पारगम्यता (परमिएबिलिटी) 40 से 60 प्रतिशत तक घटने के प्रमाण मिले।
संस्थागत समन्वय की कमी: भारत में पानी से जुड़े मामलों और फ़ैसलों को राज्य सरकारों के अधीन रखा गया है जबकि, सीजीडब्लूबी जैसी शीर्ष की संस्था को केंद्र सरकार के दायरे में रखा गया है। यह देश के भूजल संसाधनों के प्रबंधन, निगरानी, मूल्यांकन, संवर्धन और विनियमन के लिए वैज्ञानिक इनपुट प्रदान करने के लिए ज़िम्मेदार है। वहीं जल और स्वच्छता की ज़िम्मेदारी जल शक्ति, पर्यावरण, ग्रामीण विकास आदि जैसे कई मंत्रालयों के अधीन हैं और इसमें राज्य सरकार की भूमिका ज़्यादा होती है। ऐसे में इन संस्थानों में आपसी तालमेल की कमी के कारण नीतियों और योजनाओं को पूरी तरह से लागू कर पाना संभव नहीं होता है।
इस नीतिगत ढांचे के कारण अधिकार-प्रणाली का विभाजन असमानता का शिकार हो जाता है। नतीजतन, नीतियों को लागू करने से लेकर उनसे जुड़ी जवाबदेही तय करने तक का सारा मामला स्पष्ट नहीं हो पाता है।
इसका एक उदाहरण यह है कि साल 2005 में केंद्र ने भूजल के विकास और प्रबंधन को विनियमित और नियंत्रित करने के लिए एक मॉडल विधेयक पास किया था। इस मॉडल में 2016-17 में कुछ बदलाव भी किए गए। इसका उद्देश्य राज्यों को भूजल कानून बनाने के लिए दिशा-निर्देश देना है। फिर भी, ऐसा अनेक राज्य के उदाहरण हैं जहां यह मॉडल या तो देर से लागू किया गया या आधा-अधूरा लागू हुआ है।
उदाहरण के लिए, कैग ने अपनी 2021 की रिपोर्ट में यह कहा कि “केवल 19 राज्य और केंद्र-शासित प्रदेशों ने भूजल-विनियमन का कानून बनाया है और उनमें से चार में आंशिक रूप से लागू हुआ है।” उदाहरण के लिए राज्य गुजरात में भूजल-कानून प्रस्तावित तो था लेकिन लागू नहीं हुआ था। कैग की इसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ने गुजरात ने कुल 68 प्रतिशत भूजल संसाधन इस्तेमाल कर लिए हैं लेकिन इसके बावजूद भी वहां मॉडल बिल 2005 के अनुसार कानून लागू नहीं हुआ है।
इसके अलावा, नीति आयोग समग्र जल सूचकांक, 2023 बताता है कि जल प्रबंधन के लिए एकीकृत डेटा-शेयरिंग तंत्र नहीं है। वहीं अधिकांश राज्यों में भूजल मानचित्र 3 से 4 साल पुराने हैं। जिसके कारण पॉलिसी-निर्धारण और प्रभावी पुनर्भरण-योजनाएं बनाना आसान नहीं होता है।
इन सभी स्थितियों के कारण नीतियों को लागू करने से लेकर उनसे जुड़ी जवाबदेही तय करने तक का पूरा चक्र कमज़ोर पड़ जाता है।
वित्तीय एवं तकनीकी संसाधनों की कमी: एसडीजी 6 का उद्देश्य साल 2030 तक सभी को सुरक्षित पेयजल, स्वच्छता और हाइजीन (डब्ल्यूएएसएच) उपलब्ध करवाना है। भारत में इन लक्ष्यों को ग्राम पंचायत, नगर पंचायत, नगरपालिका जैसे स्थानीय निकायों की मदद से लागू किया जा रहा है। लेकिन ज़्यादातर पंचायतों और स्थानीय निकायों के पास वित्तीय व तकनीकी संसाधनों की कमी है, जिससे योजनाओं का दीर्घकालिक संचालन और रख-रखाव मुश्किल हो जाता है।
सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस एकाउंटेबिलिटी (सीबीजीए) और वाटरएड की साल 2021 की रिपोर्ट भी इन तथ्यों की पुष्टि करती है कि
पंचायतों को मिलने वाले वित्त आयोग अनुदान और राज्य सरकार की सहायता अपर्याप्त हैं।
अनुदान का ज़्यादातर हिस्सा निर्माण जैसे कार्यों में खर्च हो जाता है, नतीजतन तैयार की जाने वाली प्रणालियों के संचालन और रख-रखाव (ऑपरेटिंग एंड मैनेजमेंट) के लिए बजट बचता ही नहीं है।
कई पंचायतें अपने स्तर पर पर्याप्त राजस्व (उपभोक्ता शुल्क,जल-कर आदि) नहीं जुटाने में असमर्थ होती हैं।
ज़्यादातर पंचायतों और स्थानीय निकायों के पास वित्तीय व तकनीकी संसाधनों की कमी है, जिससे योजनाओं का दीर्घकालिक संचालन और रख-रखाव मुश्किल हो जाता है।
इसी रिपोर्ट में बिहार और ओड़िशा जैसे राज्यों के उदाहरण दिए गए हैं, जिनके ग्राम पंचायतों को नियमित वाश संचालन और रखरखाव के लिए ज़रूरी बजट का 10 प्रतिशत से भी कम प्राप्त होता है।
इसके अलावा स्थानीय निकायों में प्रशिक्षित इंजीनियर, जल गुणवत्ता विशेषज्ञ या परियोजना प्रबंधन कर्मियों की कमी के साथ ही ग्राम जल एवं स्वच्छता समितियों (वीडब्लूएससी) के पास तकनीकी मार्ग-दर्शन की कमी के मामले भी सामने आए हैं।
पंचायतों में जूनियर इंजीनियर, पंप ऑपरेटर जैसे तकनीकी कर्मचारियों की कमी से जल योजनाएं या तो रुकी हुई हैं या आधी-अधूरी संचालित हैं।
वहीं नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि जल सेवा-शुल्क या स्वच्छता सेवा के लिए स्थानीय स्तर पर राजस्व-प्रणाली कमज़ोर है। साथ ही ठोस डेटा-प्रणाली (ऐसे मैपिंग, जल स्रोत डेटा, जल गुणवत्ता डेटा) न होने से योजना-निर्माण का काम मुश्किल हो जाता है।
जन-सहभागिता की कमी: एसडीजी 6 का लक्ष्य सिर्फ “सुविधाएं बनाना” नहीं, बल्कि समाज में जल संरक्षण और स्वच्छता को लोगों की जीवनशैली का हिस्सा बनाना है। लेकिन भारत में अब भी अधिकांश जल एवं स्वच्छता योजनाएं ऊपर-से-नीचे (टॉप-डाउन) ढंग से चलाई जाती हैं। यानी सरकार योजनाएं बनाती है, पर स्थानीय समुदायों का मालिकाना अधिकार, उनकी साझेदारी और सक्रिय सहभागिता सीमित ही रहती है।
जल-संरक्षण व स्वच्छता कार्यक्रमों में आम जनता की भागीदारी सीमित है, जिससे ज़मीन पर होने वाले परिवर्तन की गति धीमी है। इसका कारण यह है कि योजनाओं के निर्माण के केंद्र में अक्सर ही इंजीनियरिंग व निर्माण को अधिक महत्त्व दिया जाता है। नतीजतन सामुदायिक व्यवहार या स्थानीय ज्ञान की भूमिका कम हो जाती है। इसके अलावा लोगों में जल-संरक्षण के लंबे समय में मिलने वाले लाभ और स्वच्छता के वैज्ञानिक महत्व की समझ भी सीमित है।
व्यवहार परिवर्तन संवाद (बीसीसी) जैसे सरकारी अभियान (भारत सरकार और राज्य सरकारों द्वारा लोगों में सोच, दृष्टिकोण और व्यवहार बदलने के उद्देश्य से चलाए जाने वाले अभियान) स्थायी ना होकर आयोजन-केंद्रित ही रह जाते हैं।
कैग की साल 2023 की रिपोर्ट बताती है कि मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओड़िशा, राजस्थान जैसे राज्यों में वीडब्लूएससी की न तो नियमित बैठकें होती हैं, न ही योजना निर्माण में स्थानीय लोगों को शामिल किया जाता है। उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ और झारखंड के आदिवासी बहुल गांवों में जल उपयोगकर्ता समूहों पर उच्च जाति या आर्थिक रूप से समृद्ध परिवारों का प्रभुत्व है, जिसके कारण आदिवासी परिवारों को निर्णय लेने से बाहर रखा जाता है।
वहीं राजस्थान में इन समितियों में महिलाओं की सदस्यता बहुत कम है, और जो शामिल हैं, उनकी भी निर्णय-प्रक्रिया में भागीदारी लगभग न के बराबर रहती है। नतीजा यह हुआ है कि घर-घर नल जल योजना में भी जल-स्रोतों के स्थान महिलाओं की सुविधा के अनुसार तय नहीं किए गए हैं।
वहीं ओडिशा की दलित बस्तियां इन योजनाओं के लाभ से वंचित हैं। गंजम और कालाहांडी ज़िलों के कुछ हिस्सों में, दलित बस्तियों से पहले ही पानी की पाइपलाइनें बंद हो गईं। इन इलाकों की महिलाएं अब भी दूर के स्रोतों से पानी लाने को मजबूर हैं। वाटरएड इंडिया की पहल लीविंग नो वन बिहाइंड की 2021 की रिपोर्ट में ज़िक्र है कि योजना निर्माण में इन समुदायों की भागीदारी नहीं थी, इसलिए उनकी आवश्यकताओं को प्राथमिकता नहीं दी गई।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि जन-सहभागिता का मतलब सिर्फ़ समितियां बनाना नहीं, बल्कि उन्हें सक्रिय और जवाबदेह बनाना है। साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना कि वे स्थानीय लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली हों न कि केवल सरकारी नीतियों का ढांचा भर।
जब तक हाशिए के समुदायों को योजना-निर्माण में बराबरी की भागीदारी नहीं दी जाएगी, तब तक जल और स्वच्छता योजनाएं समावेशी और टिकाऊ नहीं बन पाएंगी।
सामुदायिक भागीदारी और स्थानीय पहल को सशक्त बनाना:
प्रत्येक क्षेत्र में जल प्रबंधन योजनाओं को स्थानीय समुदाय की भागीदारी से तैयार किया जाए।
पारंपरिक जल स्रोतों जैसे तालाब, बावड़ी, जोहड़ आदि के पुनर्जीवन को प्राथमिकता दी जाए।
स्थानीय जल-ज्ञान और पारंपरिक तकनीकों को नीतियों में शामिल कर क्षेत्र-विशेष के अनुसार कार्य योजना बनाई जाए।
कृषि में जल-दक्षता बढ़ाना:
भारत में भूजल का सबसे बड़ा हिस्सा खेती और सिंचाई में उपयोग होता है। इसलिए फसल विविधीकरण को प्रोत्साहन दिया जाए, ताकि पानी की अधिक मांग वाली फसलों पर निर्भरता कम हो।
ड्रिप और स्प्रिंकलर जैसी आधुनिक सिंचाई तकनीकों को किसानों तक पहुंचाने के लिए अनुदान और प्रशिक्षण बढ़ाया जाए। इन तरीक़ों को अपनाकर जल उपयोग घटाया जा सकता है।
कम पानी वाली फसलें (ज्वार, बाजरा, रागी जैसे मोटे अनाज) को बढ़ावा देकर भूजल दोहन कम किया जा सकता है।
वर्षा जल संचयन:
भूजल स्तर सुधारने का एक सरल और प्रभावी तरीका है वर्षा जल संचयन। इसलिए हर राज्य में भवन निर्माण अनुमति के साथ रेनवॉटर हार्वेस्टिंग प्रणाली को अनिवार्य किया जाए। उदाहरण के लिए दिल्ली, तमिलनाडु जैसे राज्यों में भवन निर्माण के समय रेनवॉटर हार्वेस्टिंग प्रणाली को अनिवार्य बनाने से भूजल स्तर में सुधार दर्ज किया गया
पंचायत स्तर पर सार्वजनिक भवनों और स्कूलों में वर्षा जल संचयन संरचनाएं बनाई जाएं।
संग्रहित वर्षा जल को भूजल पुनर्भरण के लिए उपयोग करने के स्पष्ट दिशानिर्देश तय किए जाएं।
स्थानीय व प्रशासनिक सहयोग का समन्वय:
किसी भी बड़े प्रयास की सफलता के लिए स्थानीय समुदाय और प्रशासन के बीच तालमेल ज़रूरी है इसलिए नीतियां बनाते समय क्षेत्र के भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक ढांचे को ध्यान में रखा जाना चाहिए।
योजनाओं की निगरानी और मूल्यांकन में स्थानीय समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित की जाए, ताकि जवाबदेही बढ़े।
वैज्ञानिक और तकनीकी दृष्टिकोण:
केंद्रीय भूजल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) की राष्ट्रीय जलभृत मानचित्रण परियोजना (एनएक्यूआईएम) के तहत अब तक केवल 25 लाख वर्ग किमी क्षेत्र का सर्वेक्षण हुआ है। इसे गति दी जाए ताकि सभी क्षेत्रों का सर्वेक्षण पूरा हो सके
प्रत्येक ब्लॉक के लिए भूजल उपयोग सीमा और पुनर्भरण योजना तैयार की जाए।
सेंसर-आधारित निगरानी प्रणालियां विकसित कर वास्तविक समय में भूजल स्तर का डेटा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराया जाए।
भूजल की समस्या सिर्फ पानी की कमी या पर्यावरण से जुड़ा मुद्दा नहीं है बल्कि यह हमारे सतत विकास, खेती, स्वास्थ्य और बराबरी से जुड़ा बड़ा सवाल भी है। एसडीजी 6 हमें याद दिलाता है कि “सबके लिए स्वच्छ जल और स्वच्छता” केवल एक सरकारी लक्ष्य नहीं, बल्कि जीवन की बुनियादी ज़रूरत है। अगर भारत 2030 तक इस लक्ष्य को सच में पाना चाहता है, तो सिर्फ़ पाइपलाइन बिछाने या हर घर तक नल का पानी पहुंचाने से बात नहीं बनेगी। हमें पानी को सिर्फ़ एक संसाधन नहीं, बल्कि अपनी साझा धरोहर और ज़िम्मेदारी मानकर उसकी रक्षा करनी होगी ताकि “किसी को भी पीछे न छोड़ने” का वादा सच में पूरा हो सके।