पिछले अंश में आपने पढ़ा कि किस प्रकार देश के विभिन्न राज्यों में मनरेगा सौ दिन का निश्चित रोजगार देने में विफल साबित हुई है। इस अंश में मनरेगा में अंतर्गत न्यूनतम मजूदरी और राज्यों में उसके हाल के बारे में बताया गया है। पेश है आज का अंश -
एक बार फिर मनरेगा चर्चा में है। कोरोना वायरस के कारण देशव्यापी लाॅकडाउन के चलते दिल्ली और महाराष्ट्र सहित देश के विभिन्न राज्यों के करोड़ों की संख्या में मजदूरों ने पलायन किया था। प्रवासी मजदूरों में सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूर थे। पलायन का कारण रोजगार का अभाव और पेट की भूख थी, जिसने इन्हें अपने घर लौटने पर मजबूर कर दिया, लेकिन रोजगार के बिना घर पर भी पेट की भूख कैसे मिटती। ऐसे में विभिन्न राज्यों की सरकारों के सामने करोड़ों की आबादी को रोजगार देना चुनौती बन गया था, लेकिन फिर प्रवासी मजदूरों से मनरेगा के अंतर्गत काम कराने का निर्णय लिया गया। किंतु मनरेगा के अंतर्गत वादों और धरातल पर कार्यों में काफी अंतर है।
प्रवासी मजदूरों के पलायन के बाद की स्थिति यानि मई 2020 की बात करें तो इस दौरान मनरेगा के अंतर्गत देश में 13.87 करोड़ जाॅबकार्ड पर करीब 27 करोड़ लोग दर्ज थे। बिहार में मनरेगा में 2.61 करोड़ श्रमिक दर्ज हैं, लेकिन सक्रिय श्रमिक केवल 63.23 लाख ही हैं। इसी प्रकार पश्चिम बंगाल में 2.86 करोड़ श्रमिकों में से 1.39 करोड़, छत्तीसगढ़ में 94.61 लाख में से 67.55 लाख और मध्य प्रदेश में 1.62 करोड़ श्रमिकों में से केवल 95 लाख श्रमिक ही सक्रिय है। लाॅकडाउन से पहले के आंकड़ों पर नजर डाले तो उत्तरप्रदेश में 1.85 करोड़, बिहार में 1.86 करोड़, पश्चिम बंगाल में 1.27 करोड़, गुजरात में 40.95 लाख, राजस्थान में 1.08 करोड़ और मध्यप्रदेश में 71.33 लाख परिवारों के पास जाॅबकार्ड हैं। अब आंकड़ों में इजाफा इसलिए हुआ है क्योंकि पलायन के बाद काम की मांग बढ़ गई है। सीएसीई की ‘स्टेट आफ इंडियाज़ इनवायरमेंट रिपोर्ट 2020’ के मुताबिक मई माह में मनरेगा के अंतर्गत 40 प्रतिशत ज्यादा हाउसहोल्ड रोजगार के लिए आवेदन कर चुके हैं। लेकिन मनरेगा में मजदूरों को मजदूरी काफी कम मिल रहा है।
रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2019-20 देश के 32 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से 20 राज्यों में मजदूरों को न्यनतम मजदूरी से कम भुगतान किया गया है। केंद्रीय ग्रामीण मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक छत्तीसगढ़ में प्रतिदिन की मजदूरी 190 रुपये निर्धारित की गई है, जबकि मजदूरों को भुगतान 174 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से किया गया है। यही हाल अन्य राज्यों का भी है। पश्चिम बंगाल में 204 रुपये के स्थान पर 193 रुपये, मध्यप्रदेश में 190 रुपये के स्थान पर 180 रुपये, गुजरात में 224 रुपये के स्थान पर 188 रुपये और राजस्थान में 220 रुपये के स्थान पर लगभग 167 रुपये का भुगतान हुआ है। पिछले साल मजदूरी का लगभग 5.6 प्रतिशत भुगतान करने में देरी हुई थी, जो कि लगभग 2591.78 करोड़ रुपये के बराबर है। ऐसे ही वर्ष 2018-19 में 18.3 प्रतिशत भुगतान देरी से हुआ था। सबसे बुरा हाल वर्ष 2016-17 का था। इस दौरान केवल 44.28 प्रतिशत भुगतान ही 15 दिन के भीतर किया गया था। कुछ अन्य राज्यों की जानकारी नीचे चार्ट में दी गई है।
वर्ष 2019-20 में पुड्डुचेरी में 15 प्रतिशत लोगों को भुगतान देरी से हुआ था, जबकि नागालैंड में 93.59 प्रतिशत, जम्मू और कश्मीर में 93.07 प्रतिशत, अरुणाचल प्रदेश में 90.84 प्रतिशत, मणिपुर में 86.02 प्रतिशत, लक्षद्वीप में 30.3 प्रतिशत, अंडमान और निकोबार में 80 प्रतिशत, गोवा में 19.93 प्रतिशत, मेघालय में 13.25 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में 8.77 प्रतिशत, उत्तराखंड में 0.02 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 3.28 प्रतिशत, त्रिपुरा में 5.88 प्रतिशत, तेलंगाना में 6.76 प्रतिशत, तमिलनाडु में 0.34 प्रतिशत, सिक्किम में 12.83 प्रतिशत, राजस्थान में 0.44 प्रतिशत, पंजाब में 6.12 प्रतिशत, ओडिशा में 1.63 प्रतिशत, मिज़ोरम में 2.59 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 2.22 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 3.48 प्रतिशत, केरल में 0.33 प्रतिशत, कर्नाटक में 4.05 प्रतिशत, झारखंड में 0.01 प्रतिशत, हिमाचल प्रदेश में 1.43 प्रतिशत, हरियाणा में 4.54 प्रतिशत, गुजरात में 2.29 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 5.49 प्रतिशत, बिहार में 6.11 प्रतिशत, असम में 3.41 प्रतिशत और आंध्र प्रदेश में 3.86 प्रतिशत प्रति लोगों को समय से भुगतान नहीं किया गया था।
इसी तरह मनरेगा में कई विसंगतिया हैं, लेकिन फिलहाल सबसे बड़ी विसंगति कम मजदूरी मिलना है। कम मजूदरी, समय पर मजदूरी न मिलना और सौ दिन तक रोजगार न मिलने के कारण ही मजूदरों को बड़ी संख्या में पलायन करना पड़ता है। यदि हम छोटे शहरों की ही बात करें तो हरिद्वार, देहरादून जैसे जिलों में औसतन मजदूरी 400 रुपये प्रतिदिन मिलती है, लेकिन मनरेगा के अंतर्गत यही मजदूरी 30-40 प्रतिशत तक कम हो जाती है। दिल्ली, मुंबई, बंगलुरु आदि में भी लगभग 400 रुपये मजदूरी तो मिलती ही है। इस बात का विश्लेषण करने पर आसानी से पता चल जाएगा कि आखिर क्यों मजदूर पलायन करता है। सरकारें मजदूरों को रोकने के कई वादे और घोषणाएं भी करती हैं, लेकिन सरकार के प्रति विश्वास के अभाव के कारण मजदूर रुकते नहीं हैं। वास्तव में, सरकार को मजूदरी बढ़ाकर लगभग 500 रुपये या इससे अधिक करनी चाहिए। ताकि मजूदर पलायन न करें और जो मजदूरी उसे बड़े शहरों में मिलती है, वही अपने शहर में ही मिल जाए। साथ ही मनरेगा के अंतर्गत कार्यों को बढ़ाकर 100 दिन की न्यूनतम मजूदरी के स्थान पर 150 दिन करने की जरूरत है।
सभी चार्ट सीएसई की रिपोर्ट से लिए गए हैं।