शरावती घाटी के पंप-स्टोरेज परियोजना का एक प्रमुख उद्देश्य राज्य में राज्य में सौर और पवन जैसी नवीकरणीय ऊर्जा के अस्थिर उत्पादन को बैकअप और स्टोरेज के ज़रिए संतुलित करना भी है। चित्र: विकीमीडिया कॉमन्स
नीतियां और कानून

शरावती घाटी का पंप-स्टोरेज परियोजना: ऊर्जा सुरक्षा या पारिस्थितिकी के लिए नया खतरा?

बिजली उत्‍पादन बढ़ाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों, वन्‍य जीवों और पारिस्थितिक तंत्र को डाला जा रहा है ख़तरे में, नतीजतन विस्‍थापन और आजीविका का भी संकट पैदा हो रहा है।

Author : डॉ. कुमारी रोहिणी

महकमेकर्नाटक की शरावती घाटी में बढ़ती बिजली मांग को पूरा करने के लिए एक बड़ा पंप-स्टोरेज हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट प्रस्तावित है। लेकिन, जैसे ही परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए भूमि-अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू हुई, स्थानीय समुदायों और पर्यावरण समूहों का विरोध तेज हो गया।

यह परियोजना कर्नाटक पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड (केपीसीएल) की है, जिसकी क्षमता 2000 मेगावॉट तय की गई है। इसे 2016 में सरकारी मंज़ूरी मिली थी और इसे राज्य की ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए एक अहम कदम माना गया था।

हालांकि इस परियोजना का प्रस्ताव राज्य में बिजली की बढ़ती मांग की पूर्ति को देखकर किया गया था। लेकिन इसका एक प्रमुख उद्देश्य राज्य में राज्य में सौर और पवन जैसी नवीकरणीय ऊर्जा के अस्थिर उत्पादन को बैकअप और स्टोरेज के ज़रिए संतुलित करना भी है। ताकि पीक और नॉन-पीक समय में बिजली की आपूर्ति अधिक स्थिर व भरोसेमन्द हो सके।
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार जनवरी 2025 तक राज्य की कुल नवीकरणीय ऊर्जा स्थापित क्षमता लगभग 23018 मेगावॉट है। इसमें सौर ऊर्जा 9282 मेगावॉट और पवन ऊर्जा लगभग 6852 मेगावॉट है।

हालांकि स्थानीय लोगों, पर्यावरण विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं के वर्षों से जारी विरोध के चलते परियोजना की शुरुआत टलती रही। लेकिन हाल ही में केपीसीएल ने बेगोड़ी सहित कई गांवों में लोगों को उनकी ज़मीनें ख़ाली करने के लिए नोटिस भेजा है। जिसके बाद विवाद फिर उभर आया है।

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार जनवरी 2025 तक राज्य की कुल नवीकरणीय ऊर्जा स्थापित क्षमता लगभग 23018 मेगावॉट है। इसमें सौर ऊर्जा 9282 मेगावॉट और पवन ऊर्जा लगभग 6852 मेगावॉट है।

शरावती घाट शिवमोग्गा (शिमोगा) और उत्तर कन्नड़ा जिलों के बीच पश्चिमी घाट के मध्य क्षेत्र में स्थित है। यह इलाका घने जंगलों, नदियों, मिट्टी, वन्यजीवों और अनोखी जैव-विविधता के लिए जाना जाता है, जहां सभी प्राकृतिक तंत्र एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं।

ऐसा अनुमान है कि यह परियोजना घाटी की प्राकृतिक पारिस्थितिकी को असंतुलित कर सकती है। बड़े पैमाने पर निर्माण और भारी मशीनरी की आवाजाही शरावती नदी के प्राकृतिक बहाव में बदलाव ला सकती है। इससे जंगल की सेहत, मिट्टी की गुणवत्ता और पूरे भू-दृश्य की स्थिरता पर असर पड़ने की आशंका है।

परियोजना क्षेत्र पश्चिमी घाट जैसे संवेदनशील पारिस्थितिक क्षेत्र में आता है। यहां जंगल कटने, सुरंग खोदने और जलाशय विस्तार जैसे कार्य स्थानीय वन्यजीवों और पौधों की विविधता को सीधे खतरे में डाल सकते हैं।

फ्रंटलाइन में प्रकाशित जानकारी के अनुसार, भारतीय वन सेवा की वरिष्ठ अधिकारी प्रणीता पॉल ने साइट निरीक्षण रिपोर्ट में परियोजना को लेकर कई गंभीर पर्यावरणीय आपत्तियां दर्ज की थीं। इसके बावजूद प्रस्ताव को सैद्धांतिक मंज़ूरी दे दी गई।

पर्यावरण विशेषज्ञ जोसेफ हूवर ने भी टिप्पणी की है कि परियोजना को “राजनीतिक दबाव” के कारण आगे बढ़ाया गया, जिससे इन चिंताओं को और विश्वसनीय आधार मिलता है।

इन विरोधों के कारण मंज़ूरी के बावजूद भी परियोजना का काम शुरू नहीं हो सका था लेकिन सरकार और केपीसीएल का कहना है कि ऊर्जा सुरक्षा, बढ़ती बिजली मांग और नवीकरणीय ऊर्जा की अस्थिरता को संतुलित करने की आवश्यकता के कारण इस परियोजना पर काम शुरू करना अब ज़रूरी है।

दूसरी ओर ग्रामीणों का आरोप है कि अधिग्रहण की प्रक्रिया जल्दबाज़ी और दबाव में शुरू की गई है, जबकि पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों पर सही चर्चा अभी भी बाकी है।

क्‍या होता है पंप-स्टोरेज प्रोजेक्‍ट?

पंप स्टोरेज हाइड्रोपावर, जल विद्युत ऊर्जा के भंडारण का एक विशेष तरीका है।

पंप स्टोरेज हाइड्रोपावर, जल विद्युत ऊर्जा के भंडारण का एक विशेष तरीका है। अलग-अलग ऊंचाई पर स्थित दो जलाशयों, एक ऊपरी जलाशय और एक निचला जलाशय, से बिजली उत्पन्न की जाती है। जब बिजली की मांग कम होती है, तब पानी को ऊपरी जलाशय में पंप किया जाता है। जब बिजली की ज़रूरत बढ़ती है, तो पानी निचले जलाशय की ओर छोड़ा जाता है जो टरबाइन चलाकर बिजली पैदा करता है। यह तरीका बिजली की उपलब्धता को जरूरत के समय संतुलित रखने का एक स्मार्ट उपाय है।

परियोजना की रूपरेखा और लागत

शरावती घाटी की इस परियोजना की कुल लागत अनुमानतः 10,240 करोड़ रुपये तय की गई है। इसमें 10,085.8 करोड़ रुपये परियोजना के मूल यानी निर्माण, संरचना, पम्प-टर्बाइन, सुरंग, भूमिगत पावरहाउस आदि पर खर्च किए जाएंगे। 254.395 करोड़ रुपये का बजट जंगल, अधिगृहित ज़मीन के लिए किसानों और बागवानों को दिये जाने वाले मुआवज़े के लिए आवंटित हैं, वहीं लगभग 47.85 करोड़ रुपये की राशि जंगल और ज़मीन के अतिरिक्त हिस्सों के लिए हैं जहां पावर-लाइन या निर्माण संबंधी काम होंगे। शरावती घाटी की इस परियोजना में ऊपरी जलाशय के लिए 62.48 मीटर ऊंचे तालाकाले बांध और निचले जलाशय के रूप में 64 मीटर ऊंचाई वाले गेरुसोप्पा बांध का इस्तेमाल किया जाएगा।

परियोजना में कुल 2000 मेगावॉट बिजली पैदा करने के लिए 250 मेगावॉट की क्षमता वाले आठ यूनिट लगाए जाएंगे। इसके लिए घाटी की लगभग 100.645 हेक्टेयर ज़मीन का इस्तेमाल होगा, जिसमें 54.155 हेक्टेयर जंगल है।

केपीसीएल का कहना है कि मौजूदा जलाशयों का उपयोग नए बांध बनाने और अतिरिक्त ज़मीन अधिग्रहण की जरूरत को कम करेगा। इस परियोजना के तहत पानी को “ऊपर-पंप करें, नीचे-छोड़ें” के सिद्धांत पर 50-60 साल तक दोबारा उपयोग किया जाएगा, जिससे यह एक तरह की जल-बैटरी के रूप में काम करेगी।

आने वाले समय में जब सौर और पवन ऊर्जा का उत्पादन बढ़ेगा, तब इस पंप-स्टोरेज प्रणाली की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाएगी, क्योंकि यह ग्रिड को स्थिर बनाए रखने और बिजली की मांग-पूर्ति को संतुलित करने में मदद करेगी।

पर्यावरणीय चुनौतियां

केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) ने इस परियोजना को मंजूरी दे दी है। लेकिन पर्यावरण विशेषज्ञ मानते हैं कि यह क्षेत्र प्रकृति की दृष्टि से बेहद संवेदनशील है। विशेषकर पश्चिमी घाट में स्थित शरावती घाटी लायन-टेल्ड माकाक वन्यजीव अभयारण्य के पास है, जहां इन बंदरों के अलावा कई दुर्लभ प्रजातियां पाई जाती हैं।

अगर यहां किसी भी तरह का इंसानी दखल या निर्माण होता है, तो इसका असर केवल एक जगह तक सीमित नहीं रहेगा। इससे नदी का बहाव बदल सकता है, मिट्टी की स्थिरता और बनावट प्रभावित हो सकती है, जंगलों में रहने वाले जानवरों की जीवनशैली प्रभावित होगी, और बारिश के प्राकृतिक चक्र में भी बदलाव आएगा।

जैव-विविधता पर असर

परियोजना के लिए इलाके के जंगलों की कटाई की योजना है। ऐसे में इलाक़े की जैव-विविधता पर इसका असर पड़ेगा। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है-
घट सकती है जंगली जानवरों की प्रजनन दर : सड़कों और सुरंगों के निर्माण से घाटी में रहने वाले हाथी, बाघ, गौर, स्लेंडर लोरिस और किंग कोबरा जैसे जंगली जानवरों की आवाजाही और प्रजनन पर असर पड़ सकता है। ये जानवर शिकार और प्रजनन के लिए लंबी दूरी तय करते हैं, इसलिए उनकी गतिविधियों में रुकावट आने से प्रजनन दर में कमी आ सकती है। नेचर कंजर्वेशन फ़ाउंडेशन के वैज्ञानिक टी. आर. शंकर रमन के अनुसार, सिर्फ़ एक किलोमीटर सड़क निर्माण भी लगभग 10 हेक्टेयर क्षेत्र की पारिस्थितिकी को प्रभावित कर देता है।

सिर्फ़ एक किलोमीटर सड़क निर्माण भी लगभग 10 हेक्टेयर क्षेत्र की पारिस्थितिकी को प्रभावित कर देता है।
टी. आर. शंकर रमन, वैज्ञानिक, नेचर कंजर्वेशन फ़ाउंडेशन

जानवरों की मौतें बढ़ने का खतरा : शरावती घाटी में किए गए अध्ययन एक और गंभीर समस्‍या का उल्‍लेख करते हैं। यह मानवीय गतिविधियों के बढ़ने के चलते होने वाली वन्‍य जीवों की मौतों की समस्‍या है। क्‍योंकि, इन गतिविधियों के चलते इलाक़े में वाहनों का आवागम बढ़ने से सड़क पार करने, निर्माण और मानव उपस्थिति से जानवरों की मृत्यु दर बढ़ी है।

पानी के बहाव में बदलाव : भूमिगत खुदाई और सुरंग निर्माण से भी पारिस्थितिकी पर असर पड़ता है। इससे जल-परतों यानी ज़मीन के नीचे पानी के बहाव और भूजल को सहेज कर रखने वाले जलभृदों (एक्विफर) पर बुरा असर पड़ सकता है। पंप-स्टोरेज हाइड्रोपावर परियोजनाओं से जुड़े अध्ययन दिखाते हैं कि बड़े पैमाने पर निर्माण होने पर जोखिम बढ़ जाता है, खासकर जब पानी ऊपर और नीचे वाले जलाशयों के बीच लगातार पंप किया जाता और छोड़ा जाता है।

शरावती घाटी लायन-टेल्ड माकाक वन्यजीव अभयारण्य के पास है, जहां इन बंदरों के अलावा कई दुर्लभ प्रजातियां पाई जाती हैं।

मीथेन प्रदूषण: एक अध्ययन के अनुसार, वैश्विक मीथेन उत्सर्जन में झीलों और बड़े जलाशयों से निकलने वाली गैस का हिस्सा लगभग 10 फ़ीसद है। दरअसल झीलों और जलाशयों में नीचे जमी हुई पत्तियां-लकड़ी जैसे जैविक पदार्थ धीरे-धीरे सड़ते हैं। पानी की गहराई में जहां ऑक्सीजन कम होती है, वहाँ सूक्ष्म जीव इस सड़े हुए पदार्थ को तोड़ते हुए मीथेन बनाते हैं। इसी वजह से ऐसे जलाशयों से लगातार थोड़ी-थोड़ी मीथेन हवा में निकलती रहती है। इसी कारण शरावती नदी घाटी के दोनों जलाशयों से भी मीथेन गैस का उत्सर्जन होगा जिससे नदी तंत्र और पारिस्थितिकी में बदलाव ला सकती है।

इस घाटी में शेर-पूंछ वाला मकाक, किंग कोबरा, नमी वाले मवार और झरनों के पास रहने वाली कई संवेदनशील और एन्डेमिक प्रजातियां पाई जाती हैं। बड़े पैमाने पर निर्माण से जैव-विविधता पर गंभीर असर पड़ने की संभावना है। इसलिए मीथेन उत्‍सर्जन को लेकर भी सावधानी बरतना बेहद ज़रूरी है।

स्थानीय आबादी और आजीविका पर मार: शरावती नदी घाटी सिर्फ़ जैव-विविधता का केंद्र नहीं है, बल्कि यहां सदियों से बसे कई ग्रामीण और जनजातीय समुदाय अपनी आजीविका के लिए यहां के जंगल और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर करते हैं। हाइड्रो पावर परियोजना के कारण नदी के बहाव में संभावित बदलाव सीधे तौर पर क्षेत्र के किसानों, बाग़वानी करने वालों और मछली पालकों को प्रभावित कर सकते हैं। इससे नदी की पारिस्थितिकी, पानी की गुणवत्ता और जल-जीवों की उत्पादकता में कमी आ सकती है। साथ ही मिट्टी का कटाव और लैंडस्लाइड जैसी समस्याएं भी बढ़ सकती हैं, जिसका असर निचले और ऊपरी हिस्सों में खेती और बागवानी कर रहे परिवारों की आजीविका पर पड़ेगा। क्षेत्र में शुरू हुए भूमि-अधिग्रहण की वजह से कई किसान और बाग़बान अपने खेत और बाग़ खो सकते हैं, साथ ही उनके घर भी खतरे में हैं। ऐसे बदलाव स्थानीय लोगों की ज़िंदगी और आजीविका दोनों पर लंबे समय तक असर डाल सकते हैं।

क्‍यों हो रहा विरोध?

शरावती नदी घाटी और इसकी पारिस्थितिकी को बचाने के लिए स्थानीय संस्थाएं और सामुदायिक समूह इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं। एसडब्ल्यूएएन संस्था के पर्यावरण कार्यकर्ता अखिलेश चिपली इस परियोजना के असर को लेकर चिंतित हैं। वे कहते हैं, “यह परियोजना पूरी तरह घाटी की पारिस्थितिकी को नजरअंदाज कर बनाई गई है। इसमें हेडरेस, टेल-रेस, प्रेशर शाफ्ट्स और पावर प्लांट के अलावा कर्मचारी क्वार्टर का निर्माण भी शामिल है। केपीसीएल इनसे जुड़े ट्रांसमिशन की जानकारी नहीं दे रहा। अनुमान है कि लगभग 500 एकड़ जंगल कटेंगे।”

निम्मा शरावती (नादी कानिवे) उलिसी होराता समिति जैसी संस्थाओं ने जागरूकता अभियान शुरू किए हैं। उनका कहना है, “हमें शरावती नदी और सदाबहार जंगलों को बचाना होगा। इसके लिए वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत ढूंढने और सतत विकास सुनिश्चित करने की जरूरत है।”

शेरावती घाटी के बेगोड़ी गांव के मंजूनाथ हेगड़े को अपनी ज़मीन खाली करने का नोटिस मिला है। वे पिछले 60 साल से यहां खेती कर रहे हैं। इसके अलावा वेंकटरमन नाइक और अर्पिता मारुथि गुरुजी जैसे अन्य लोगों को भी नोटिस भेजा गया। मारुथि गुरुजी गेरुसोप्पा के बंगरमक्की मठ के महंत हैं और इस परियोजना का विरोध करने वाले मुख्य लोगों में से एक हैं। वे कहते हैं, “यह परियोजना नई नहीं है। 2000 के दशक में इसकी नींव रखी गई थी। अब सरकार इसे तेज़ी से लागू करना चाहती है। लेकिन हम इसे होने नहीं देंगे। अगर खुदाई और कटाई के लिए मशीनें लायी गईं, तो उन्हें मुझसे होकर गुजरना होगा।”

विशेषज्ञों की राय: सेंटर फॉर वाइल्डलाइफ़ स्टडीज़ के वरिष्ठ शोधकर्ता डॉ. अमित हेगड़े ने अधिकारियों से पुनर्विचार की अपील की। उनका कहना है, “इंसानों के पास एक जगह से दूसरी जगह जाने का विकल्प है, लेकिन शरावती घाटी के मेंढक, सलामैंडर और सांपों जैसी प्रजातियों के पास यह विकल्प नहीं है। विकास कभी भी विशिष्ट प्राकृतिक आवासों की कीमत पर नहीं होना चाहिए।”

स्थानीय लोग और पर्यावरणविद् इस बात पर जोर देते हैं कि पश्चिमी घाट जैव विविधता का हॉटस्पॉट है। पंप-स्टोरेज जैसी बड़ी हाइड्रो परियोजनाएं ऊर्जा की जरूरत को पूरा करने का दावा करती हैं, लेकिन ये नदियों, जल स्रोतों, भूमि की जल-धारण क्षमता, वनजीवन और स्थानीय आजीविका पर गंभीर असर डालती हैं।

सरकारी महकमे का बुरा व्‍यवहार : आंदोलनकारियों का कहना है कि सरकार और पुलिस का कड़ा रवैया और बुरा व्‍यवहार भी यहां के हालात बिगाड़ रहा है। सर्वे टीम और भूमि मापने वाली एजेंसियां बिना पूर्व सूचना और पर्याप्त जानकारी के काम कर रही हैं। स्थानीय लोगों से कोई भी संवाद नहीं किया जा रहा है। नोटिस और सूचनाओं के लिए यहां के लोगों को समझ में आने वाली कन्नड़ भाषा का इस्तेमाल न होना भी असंतोष का कारण है। सुरक्षा बलों की मौजूदगी से लोगों को ऐसा लगता है कि उनकी आवाज दबाकर बलपूर्वक उनकी ज़मीने छीनी जा रही हैं। उनका कहना है कि इतने लोगों और वन्‍यजीवों के निवास वाले इस इलाके को सिर्फ़ “ऊर्जा परियोजना के लिए खाली ज़मीन” की तरह नहीं देखा जा सकता। यहां पूरी पारिस्थितिक प्रणाली काम करती है, और उसमें बदलाव की कीमत बहुत बड़ी हो सकती है।

आगे की राह : हो रही प्रोजेक्‍ट की समीक्षा

फिलहाल शरावती घाट पंप-स्टोरेज परियोजना की समीक्षा जारी है। लेकिन, यह स्पष्ट है कि घाटी कर्नाटक का एक अत्यंत संवेदनशील और जैव-विविधता से समृद्ध क्षेत्र है। इसलिए किसी भी बड़े फैसले से पहले स्थानीय समुदायों और पारिस्थितिकी पर पड़ने वाले संभावित प्रभावों का गंभीर मूल्यांकन करना ज़रूरी है।

ऊर्जा की बढ़ती मांग को पूरा करने में बेशक, इस परियोजना का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। लेकिन, शरावती घाटी की नदी-प्रणाली, जंगल, मिट्टी, जल-धाराओं और स्थानीय आजीविका पर इसका स्थायी और व्यापक असर पड़ने की संभावना है। इसलिए इसे केवल एक ऊर्जा समाधान के रूप में नहीं देखा जा सकता। स्थानीय लोगों, पर्यावरण विशेषज्ञों और शोधकर्ताओं की चिंताओं पर भी गंभीरता से विचार किया जाना ज़रूरी है। पारदर्शिता, स्थानीय लोगों से बातचीत और सतत विकास के विकल्प खोजे बिना परियोजना को लागू करने से घाटी का प्राकृतिक और सामाजिक तंत्र दोनों ही चीज़ें खतरे में आ सकती हैं। ऐसे में परियोजना का भविष्य केवल इस बात पर निर्भर करेगा कि सरकार और संबंधित संस्थाएं पर्यावरण और स्थानीय समुदायों की सुरक्षा को प्राथमिकता देती है या नहीं। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो घाटी की जैव-विविधता और स्थानीय आजीविका पर निश्चित और गंभीर प्रभाव पड़ने की संभावना है।

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