COP 30 सम्मेलन में लगभग 194 अलग-अलग देशों और उनके संगठनों ने भाग लिया। तस्वीर: Rafa Neddermeyer/COP30
नीतियां और कानून

जल, जंगल और वित्त: COP 30 के कुछ सबक

इस वर्ष COP 30 सम्मेलन का आयोजन 10 से 21 नवंबर 2025 तक ब्राज़ील के अमेज़न क्षेत्र में पारा राज्य के बेलेम शहर में हुआ। रिपोर्ट बताती हैं कि वित्त, ऊर्जा और जंगल, इन तीनों मोर्चों पर ठोस सहमति न बनने से इस सम्मेलन की महत्वाकांक्षा सीमित रह गई।

Author : डॉ. कुमारी रोहिणी

इस वर्ष 30वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन का आयोजन 10 से 21 नवंबर 2025 तक ब्राज़ील के अमेज़न क्षेत्र में पारा राज्य के बेलेम शहर में हुआ। इसे कॉन्फ़्रेंस ऑफ पार्टीज, संक्षेप में कॉप 30 सम्मेलन के नाम से भी जाना जाता है। इस सम्मेलन में लगभग 194 अलग-अलग देशों और उनके संगठनों ने भाग लिया। 

आयोजन के लिए ब्राज़ील का चुनाव प्रतीकात्मक अर्थ लिए हुए था कि जंगल-संरक्षण और जीवाश्म-ईंधन विकास जैसी दो विरोधाभासी विचार एक ही देश में साथ-साथ संभव हैं। इस विरोधाभास का महत्व इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि एक तरफ़ ब्राज़ील अमेज़न के संरक्षण की मुहिम का अगुआ बनना चाहता है, वहीं दूसरी तरफ़ तेल और गैस के नए क्षेत्रों के विकास को भी बढ़ावा दे रहा है। यह फ़ैसला साफ़ दिखाता है कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी सभी गतिविधियां और कार्रवाई आज भी लगातार राजनीति, धन और पर्यावरण के बीच होने वाली खींचतान में फंसी हुई है।

कॉप 30 का मुख्य लक्ष्य वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 सेल्सियस तक सीमित करने के लिए जलवायु से जुड़ी कार्रवाई को तेज़ करना और पेरिस समझौते को मज़बूत बनाना था। वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5°C तक सीमित करने का लक्ष्य औद्योगिक क्रांति-पूर्व स्तरों की तुलना में तय किया गया है। अगर पृथ्वी का औसत तापमान साल 1850 -1900 के औसत से 1.5°C अधिक हो जाता है, तो दुनिया पेरिस समझौते की मुख्य तापमान-सीमा पार कर देगी।

कॉप की स्थापना मार्च 1995 में हुई थी। इस सम्मेलन के गठन का उद्देश्य जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए सदस्य देशों के बीच समन्वय स्थापित करना है। इन लक्ष्यों में धरती को जलवायु परिवर्तन से बचाने, कार्बन उत्सर्जन कम करने, देशों के बीच आपसी सहयोग बढ़ाने और सतत व सुरक्षित भविष्य सुनिश्चित करने जैसे काम शामिल हैं।

इस साल की उपलब्धियां

अनुकूलन वित्त को तीन गुना किया गया: कॉप 30 सम्मेलन में शामिल सभी 194 देशों ने एक समझौते के तहत विकासशील देशों को दिए जाने वाले अनुकूलन वित्त को तीन गुना बढ़ाने पर सहमति व्यक्त की है। अनुमान है कि अब यह राशि सालाना 3.57 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर लगभग 10.71 लाख करोड़ रुपये हो जाएगी।

इस फ़ैसले को वैश्विक मुतिराव का नाम दिया गया है। ब्राज़ील के मूल टूपी निवासियों की प्राचीन टूपी भाषा के शब्द मुतिराव का अर्थ है समुदाय के लोगों द्वारा साथ मिलकर किसी साझा लक्ष्य को पाना।

वैश्विक मुतिराव के तहत अब केवल कार्बन उत्सर्जन को कम करने पर ही ध्यान नहीं दिया जाएगा, बल्कि बाढ़, सूखा, समुद्र-स्तर बढ़ने, खेती से जुड़े जोखिमों और तटीय कटाव जैसी समस्याओं का सामना कर रहे समुदायों की सुरक्षा को भी प्राथमिकता दी जाएगी। इससे अनुकूलन परियोजनाओं और जल-संवेदनशील क्षेत्रों के लिए वित्तीय समर्थन को बढ़ावा मिलेगा।

जलवायु अनुकूलन के केंद्र में होगा पानी: सम्मेलन में ‘हाई लेवल मिनिस्टीरियल इवेंट ऑन वॉटर एंड क्लाइमेट एक्शन: वॉटर्स ऑफ़ चेंज - शिपिंग रिज़िलियेंट एंड सस्टेनेबल पाथवेज़’ नामक सत्र में पानी को जलवायु कार्रवाई की केंद्रीय प्राथमिकता के रूप में स्पष्ट मान्यता दी गई। इस सत्र में ग्लोबल गोल ऑन एडेप्टेशन (जीजीए) के अंतर्गत प्रस्तावित 59 संकेतकों में पानी, पारिस्थितिक तंत्र, बुनियादी ढांचा और आजीविका को जलवायु अनुकूलन का मूल आधार माना गाया। यह इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि पहली बार अनुकूलन लक्ष्यों की निगरानी में पानी से जुड़े जोखिम और समाधान व्यापक रूप से शामिल किए गए हैं।

वैश्विक मुतिराव के तहत अब केवल कार्बन उत्सर्जन को कम करने पर ही ध्यान नहीं दिया जाएगा, बल्कि बाढ़, सूखा, समुद्र-स्तर बढ़ने, खेती से जुड़े जोखिमों और तटीय कटाव जैसी समस्याओं का सामना कर रहे समुदायों की सुरक्षा को भी प्राथमिकता दी जाएगी।
कॉप 30 में पहली बार पानी को अनुकूलन के एक उप-विषय के रूप में न देखकर जलवायु कार्रवाई के केंद्र में जगह दी गई है

ओशियन एंड क्लाइमेट प्लेटफार्म की रिपोर्ट बताती है कि इन संकेतकों में तटीय और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र के लिए अलग ट्रैकिंग की व्यवस्था का प्रस्ताव दिया गया है। यानी समुद्र-स्तर में होने वाली वृद्धि, तटीय कटाव, मैंग्रोव संरक्षण, खारेपन में आए बदलाव जैसी जल-संबंधी चुनौतियों की अब स्वतंत्र रूप से निगरानी की जा सकेगी।

इस तरह, मंत्रिस्तरीय सत्र की प्राथमिकताओं, जीजीए के संकेतकों और समुद्री-तटीय पारिस्थितिक तंत्र की नई ट्रैकिंग व्यवस्था, तीनों मिलकर यह बताते हैं कि कॉप 30 में पहली बार पानी को अनुकूलन के एक उप-विषय के रूप में न देखकर जलवायु कार्रवाई के केंद्र में जगह दी गई है और जल-संवेदनशील अनुकूलन प्रोजेक्ट और पारिस्थितिक तंत्र (आर्द्रभूमि) को महत्व मिला है।

वैश्विक व्यापार और जलवायु नीतियों में समन्वय पर बातचीत

कार्बन उत्सर्जन, प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग और समुदायों की आजीविका पर अंतरराष्ट्रीय व्यापार की संरचना, नियम और प्रक्रिया जैसी चीजों का सीधा असर पड़ता है। दुनिया भर में सामान, कच्चा माल, कृषि उत्पाद, इलेक्ट्रॉनिक्स, ऊर्जा संसाधनों का परिवहन जहाज़ों, ट्रकों और विमानों के माध्यम से होता है। वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में लगभग 5 से 8 फीसद हिस्सा अंतरराष्ट्रीय शिपिंग और एविएशन से हुए उत्सर्जन का है। 

सोयाबीन, पाम ऑयल, बीफ़, और लकड़ी जैसे उत्पादों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार के कारण अमेज़न, कॉन्गो और दक्षिण-पूर्व एशिया में जंगलों की कटाई में तेज़ी आई है। ये सभी कार्बन उत्सर्जन के छिपे हुए लेकिन प्रमुख और बड़े स्रोत हैं। 

इन पहलुओं को देखते हुए कॉप 30 में पहली बार वैश्विक व्यापार और जलवायु नीतियों को जोड़कर देखा गया और इन विषयों पर विस्तार से चर्चा हुई। विशेषज्ञों का मानना है कि यह पहल व्यापार और जलवायु नीतियों के बीच समन्वय बढ़ाने और सतत वैश्विक अर्थव्यवस्था बनाने में मदद कर सकती है। और इससे भविष्य में कार्बन-बॉर्डर टैक्स, पर्यावरणीय मानदंड वाले व्यापार नियम, और हरित तकनीकों की वैश्विक पहुंच जैसे मुद्दों पर दिशा तय हो सकती है।

उत्सर्जन घटाने की रणनीति में जंगलों की जगह

कॉप के अब तक के सम्मेलनों में जंगल और जैव-विविधता को अक्सर प्राथमिकता सूची में न रखकर ‘साइड ट्रैक’ की तरह ही देखा गया था। लेकिन कॉप 30 में पहली बार विशेष रूप से अमेज़न और उसके संरक्षण को केंद्र में रखा गया है। इससे यह समझ और मजबूत हुई कि जलवायु और कार्बन उत्सर्जन की चर्चा सिर्फ ऊर्जा-क्षेत्र तक सीमित नहीं हो सकती। इसमें जंगल, भूमि का उपयोग, स्वदेशी समुदाय, कार्बन सोखने वाले जंगल, मिट्टी और समुद्र जैसे प्राकृतिक तंत्र और पूरी जैव-विविधता भी उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

आयोजन के लिए अमेज़न वर्षावन का चुनाव इस बात का प्रतीक बनी कि जलवायु से जुड़ी समस्याओं का समाधान तब तक संभव नहीं है जब तक कि इसमें जंगल, ज़मीन और स्थानीय समुदायों की समान भूमिका सुनिश्चित न की जाए।

सम्मेलन की औपचारिक रिपोर्ट में भी इसका ज़िक्र है कि वन-क्षेत्रों को साल 2030 तक उत्सर्जन कम करने की रणनीति में शामिल किया गया है। इसमें माना गया कि इस लक्ष्य को पूरा कर पाना तब तक असंभव है, जबतक जंगलों की कटाई पर रोक नहीं लगाई जाती। इसके अलावा, नए पेड़ लगाने और जंगलों की पुनर्बहाली की दिशा में भी काम करना होगा। 

इसलिए, ज़मीन के उपयोग, उसके उपयोग में आने वाले बदलावों और जंगल-विकास से जुड़ी स्पष्ट योजनाओं की जानकारी को एनडीसी में शामिल कर दिया गया है, जिसे देशों को हर पांच साल में अपडेट करना होगा।

पार्टनरशिप ऑफ फ़ॉरेस्ट्स के लैटिन अमेरिका के निदेशक फ़ेलिप बोरशिवर ने भी कुछ इसी तरह की टिप्पणी करते हुए कहा, “अमेज़न के बिलकुल बीच बसे बेलेम में कॉप 30 सम्मेलन का आयोजन सिर्फ़ एक प्रतीक भर नहीं है। असल में यह एक ऐसी परीक्षा है जिसमें इस बात की जांच की जाएगी कि जलवायु नेतृत्व को लेकर ब्राज़ील पर किस हद तक भरोसा किया जा सकता है, और दुनिया के बाकी देश कितनी गंभीरता से बातों से आगे बढ़कर ठोस नतीजों तक पहुंच सकते हैं।”

विवाद और खामियां

जीवाश्म ईंधन और वित्त पर स्पष्ट रोडमैप की कमी

कॉप 30 के सम्मेलन में तेल, कोयला और प्राकृतिक गैस जैसे जीवाश्म ईंधन के विकल्प को लेकर ठोस बातचीत नहीं की गई और न ही इसे लेकर कोई स्पष्ट रोडमैप ही दिया गया। इसके अलावा, इस पर भी चर्चा नहीं की गई कि कैसे चरणबद्ध तरीके से इन जीवाश्म-ईंधनों के उपयोग से निकला जा सकता है।

सम्मेलन में छोटे द्वीपीय देशों, यूरोपीय संघ, लैटिन अमेरिकी देशों सहित 80 से अधिक देशों ने विशेष रूप से कुछ मांगों का ज़िक्र किया था। ये देश चाहते थे कि सम्मेलन के अंतिम दस्तावेज़ में यह स्पष्ट रूप से लिखा जाए कि जीवाश्म-ईंधन के उत्पादन और उपयोग को कब तक पूरी तरह से समाप्त किया जाएगा, किन मध्यवर्ती चरणों में कटौती की जाएगी और तेल, गैस व कोयले जैसे जीवाश्म-ईंधनों से हटकर सौर, पवन, जल, बायो-ऊर्जा जैसे स्वच्छ, नवीकरणीय और टिकाऊ ऊर्जा स्रोतों की ओर क्रमबद्ध और सुरक्षित बदलाव के आर्थिक समर्थन का ढांचा क्या होगा।

सऊदी अरब, रूस, यूएई, कुवैत जैसे तेल-उत्पादक देशों ने कड़े शब्दों में इस मांग का विरोध किया। उनका कहना था कि कई देशों की अर्थव्यवस्था अब भी तेल-निर्यात पर ही टिकी है। इसलिए, ऐसी शर्तें आर्थिक अस्थिरता को जन्म दे सकती हैं।

कॉप 30 के सम्मेलन में तेल, कोयला और प्राकृतिक गैस जैसे जीवाश्म ईंधन के विकल्प को लेकर ठोस बातचीत नहीं की गई और न ही इसे लेकर कोई स्पष्ट रोडमैप ही दिया गया।

हालांकि, सम्मेलन में सभी देशों के बीच अनुकूलन वित्त की राशि को बढ़ाकर तीन गुना किए जाने को लेकर सर्वसहमति बनी है, लेकिन कुछ बातें स्पष्ट नहीं हैं। जैसे कि वित्त अनुकूलन के तहत कितनी राशि दी जाएगी, कौन से देश किन देशों को ये राशि देंगे और इस राशि के वितरण और आवंटन की समय सीमा क्या होगी आदि।

इसके अलावा, अनुदान-और-ऋण का विभाजन, और लाभ-प्राप्त देशों तथा समुदायों की सूची जैसी मूल बातें भी अस्पष्ट रह गई हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसी स्थिति में अनुकूलन वित्त आगे चलकर समाधान के बदले विवाद का रूप ले सकता है।

COP 30 के दौरान सामने आई चुनौतियां

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने इस सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में कहा कि वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने में असफल होना दरअसल एक "नैतिक विफलता और घातक लापरवाही" का नतीजा है। जलवायु लक्ष्यों को पाने की दिशा में इस दौरान कई चुनौतियां भी देखने को मिली, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

एनडीसी को नहीं किया जा रहा अपडेट: साल 2015 के पेरिस समझौते के तहत हर देश के लिए यह बताना ज़रूरी है कि वह कार्बन उत्सर्जन में कितनी कमी लाएगा, इस कमी को लाने की समय सीमा क्या होगी, और जलवायु अनुकूलन के लिए कौन-कौन से कदम उठाए जाएंगे। हर देश को पांच साल में एक बार इन सभी जानकारियों को पेरिस समझौते में तय किए गये राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (एनडीसी) के तहत अपडेट करना होता है। यूएनडीपी की एक रिपोर्ट बताती है कि कॉप 30 के पहले, अगस्त 2025 तक कंबोडिया, जर्मनी, फ़्रांस, सोलोमन द्वीप और बारबाडोस सहित केवल 30 देशों ने ही एनडीसी के अपने आंकड़े अपडेट किये थे। जबकि भारत, चीन, इंडोनेशिया सऊदी अरब समेत लगभग 150 देश अब तक अपने एनडीसी को अपडेट नहीं कर पाए थे।

वित्तीय सहायता पर एकजुटता की कमी: कॉप 30 में जहां एक ओर अनुकूलन और जल-लचीलेपन पर देशों के बीच सहमति बनी, वहीं जलवायु-वित्त को लेकर मतभेद साफ दिखे। इसका कारण यह था कि चर्चा केवल अनुकूलन वित्त तक सीमित न रहकर नवीकरणीय ऊर्जा, उत्सर्जन में कमी, ऊर्जा-संक्रमण, तकनीक, प्रशिक्षण और संस्थागत क्षमता जैसे क्षेत्रों के लिए होने वाले लंबी अवधि वाले निवेश पर भी केंद्रित थी। इन मुद्दों पर विकसित और विकासशील देशों के विचार अलग-अलग थे।

जापान, अमेरिका और यूरोपीय संघ के कुछ देशों का मानना था कि जलवायु-वित्त को स्वैच्छिक और लचीला रखा जाए, और देशों पर कानूनी रूप से किसी तय अनिवार्य राशि का बोझ न डाला जाए। उनका तर्क था कि ऊर्जा-संक्रमण और डी-कार्बोनाईजेशन जैसे क्षेत्रों की ज़रूरतें तेजी से बदलती हैं, इसलिए लंबे समय तक निश्चित फंड तय करना व्यावहारिक नहीं होगा।

इसके विपरीत भारत, ब्राज़ील, दक्षिण अफ़्रीका, इंडोनेशिया और छोटे द्वीपीय देशों ने अनिवार्य और सुनिश्चित वित्त की मांग की। इन देशों का कहना था कि जलवायु संकट का सबसे बड़ा असर उन्हीं पर पड़ा है। इसलिए अनुकूलन, ऊर्जा-संक्रमण और क्षति-पूर्ति जैसी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अनुदान या सस्ती ब्याज दरों पर ऋण उपलब्ध कराना आवश्यक है। भारी लागत के कारण वे बाध्यकारी और स्थिर वित्तीय ढांचे को महत्वपूर्ण मानते हैं।

जापान, अमेरिका और यूरोपीय संघ के कुछ देशों का मानना है कि जलवायु-वित्त को स्वैच्छिक और लचीला रखा जाए, और देशों पर कानूनी रूप से किसी तय अनिवार्य राशि का बोझ न डाला जाए।

वैकल्पिक ईंधन के इस्तेमाल को लेकर मतभेद: जीवाश्म-ईंधन के बदले वैकल्पिक ईंधनों के उपयोग को लेकर भी देशों के बीच मतभेद गहरे थे। जर्मनी, डेनमार्क, फ्रांस जैसे यूरोपीय संघ और फिजी, मालदीव, जैसे छोटे द्वीपीय देशों ने जीवाश्म ईंधन के उपयोग से समयबद्ध चरणबाहर यानी टाइमली फेज-आउट का दबाव बनाया। लेकिन सऊदी अरब, रूस, यूएई और कुवैत जैसे तेल-उत्पादक देशों ने आर्थिक अस्थिरता का हवाला देकर इस बाध्यकारी लक्ष्य को स्मानने से मना कर किया। नतीजतन, इस विषय को लेकर किसी तरह का स्पष्ट रोडमैप नहीं बन सका।

ब्राज़ील, कोलंबिया और पेरू जैसे अमेज़न क्षेत्र वाले देशों का मानना है कि जब तक भूमि-अधिकार, निगरानी और निर्णय-प्रक्रिया में आदिवासी समुदायों को भी औपचारिक भूमिका नहीं मिलेगी, तब तक जंगल संरक्षण टिकाऊ नहीं हो सकेगा।

जंगल के उपयोग पर अस्पष्टता: जंगल-उपयोग और स्थानीय समुदायों के अधिकारों पर चर्चा इस बात पर अटककर रह गई कि जंगलों को कैसे देखा जाए। क्या उन्हें सिर्फ कार्बन जमा करने वाले भंडार की तरह माना जाए, या फिर उन्हें स्थानीय लोगों के अधिकारों और संरक्षण के नज़रिए से समझा जाए?

ब्राज़ील, कोलंबिया और पेरू जैसे अमेज़न क्षेत्र वाले देशों का मानना है कि जब तक भूमि-अधिकार, निगरानी और निर्णय-प्रक्रिया में आदिवासी समुदायों को भी औपचारिक भूमिका नहीं मिलेगी, तब तक जंगल संरक्षण टिकाऊ नहीं हो सकेगा।

यूरोपीय संघ, नॉर्वे और जर्मनी जैसे देशों का मानना था कि कार्बन बाज़ारों को आसान बनाया जाए, ताकि कंपनियां या देश उत्सर्जन को कम करने पर “कार्बन क्रेडिट” कमा सकें। बाद में ये क्रेडिट खरीद-बिक्री या आपस में अदला-बदली किए जा सकें, जिससे उन्हें अपने जलवायु लक्ष्यों को पूरा करना आसान हो जाए।

इसका विरोध करते हुए कॉर्डिनेटर ऑफ इंडीजीनस ऑर्गेनाइज़ेशंस ऑफ़ द अमेज़न बेसिन (सीओआईसीए) जैसे आदिवासी समूहों और पर्यावरण संगठनों ने भूमि-अधिकार और आजीविका पर पड़ने वाले जोखिमों को लेकर चिंता ज़ाहिर की। उनका तर्क था कि कार्बन बाज़ार केंद्रित मॉडल से ज़मीन पर निर्भर रहने वाले जंगल-निवासी समुदायों के भूमि-अधिकार, सांस्कृतिक अधिकार और आजीविका को खतरा है, क्योंकि इससे कंपनियों और सरकारों को समुदायों की भूमि पर नियंत्रण बढ़ाने का रास्ता मिल सकता है।

कुल मिलाकर, वित्त, ऊर्जा और जंगल, इन तीनों मोर्चों पर ठोस सहमति न बनने से सम्मेलन की महत्वाकांक्षा सीमित रह गई।

कॉप 30 ने अनुकूलन वित्त, जंगल से जुड़ी समस्याओं के उपाय, स्थानीय समुदायों की जगह जैसे कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर प्रगति की है। लेकिन इसने यह भी दिखाया कि वैश्विक राजनीति, आर्थिक हित, विकास-वित्त की उलझनों के कारण जलवायु कार्रवाई की गति अभी संतोषजनक स्तर पर नहीं पहुंच सकी है।

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