असरदार नीति निर्माण, बेहतर प्रशासन की मुख्य आवश्यकता है। छाया स्रोत: लाज़रस मार्सन, अनस्प्लैश
नीतियां और कानून

भारत में जल नीतियां: अतीत और वर्तमान

किस तरह तैयार हुई है भारत की राष्ट्रीय जल नीति? जानिए अकसर पूछे जाने वाले सवालों (FAQ) के जरिये।

Author : इंडिया वाटर पोर्टल

भारत में जल की स्थिति क्या है? 

भारत में दुनिया की 18% आबादी रहती है, लेकिन हमारे पास कुल जल संसाधन का केवल 4% हैं। इसके चलते भारत की गिनती दुनिया में पानी की सबसे ज्‍यादा कमी वाले देशों में होती है। नति निर्माण से जुड़े भारत सरकार के थिंक टैंक, नीति आयोग (विश्व बैंक, 2023) की रिपोर्ट बताती है कि भारत में बड़ी संख्या में लोग अब अधिक से लेकर अत्यधिक जल संकट का सामना कर रहे हैं। अगस्त 2023 में प्रकाशित, वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के एक्वाडक्ट वाटर रिस्क एटलस ने चेतावनी दी है कि भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है जो आने वाले वर्षों में सबसे गंभीर जल संकट का सामना कर सकते हैं। यह देश के कृषि उत्पादन को प्रभावित कर सकता है और अर्थव्यवस्था को बाधित कर सकता है। इसलिए, आने वाले वर्षों में जल संकट से बचने के लिए भारत को जल संसाधनों के प्रबंधन के लिए तत्काल स्थायी व्‍यवस्‍था करने की ज़रूरत है। 


नीति आयोग की रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि 2030 तक देश में पानी की मांग, आपूर्ति के लिए उपलब्ध पानी से दोगुनी हो जाएगी। इससे आबादी का एक बड़ा हिस्सा प्रभावित होगा और देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में लगभग 6% की कमी आएगी। जल संसाधन मंत्रालय के एकीकृत जल संसाधन विकास के लिए राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, पानी का ज़्यादा इस्‍तेमाल होने की स्थिति में 2050 तक पानी की आवश्यकता 1,180 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) होने की संभावना है, जबकि वर्तमान में उपलब्धता 695 बीसीएम है (नीति आयोग, 2018)।


भारत में 53% खेती-बाड़ी बारिश के पानी पर ही निर्भर है, जबकि मानसून लगातार अनियमित होता जा रहा है। इसके चलते, सूखा पड़ने की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। भारत के वर्षा पर निर्भर किसान पहले से ही संकट का सामना कर रहे हैं। भूमिगत जल संसाधन, जो कुल जल आपूर्ति का करीब 40% है, तेज़ी से घटते जा रहे हैं। इससे भी चिंताजनक बात यह है कि जो पानी उपलब्ध है उसके भी दूषित होने का खतरा है। इससे हर साल लगभग 2,00,000 मौतें होती हैं (नीति आयोग, 2018)।

जल संकट के समय भारतीय राज्यों के बीच जल बंटवारे को लेकर संघर्ष अकसर बढ़ जाता है, जो इस तथ्य की ओर इशारा करता है कि जल प्रशासन के लिए मौजूद ढांचे और संस्थानों को जलवायु परिवर्तन जैसी उभरती चुनौतियों के तहत बढ़ती आबादी की पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए समय के साथ लगातार विकसित करने की आवश्यकता है (नीति आयोग, 2018)।

जल नीति पर चर्चा की आवश्यकता क्यों है?

प्रभावी नीति निर्माण, सुशासन लागू करने के प्रमुख सिद्धांतों में से एक है। नीति में ऐसे दिशा-निर्देश शामिल होते हैं, जो निर्णय लेने और तर्कसंगत परिणाम प्राप्त करने में मदद कर सकते हैं। इसे प्रक्रिया या प्रोटोकॉल के रूप में लागू किए गए इरादों का लेखा-जोखा कहा जा सकता है । सरकारें और संस्थान, कानून, विनियमन, प्रक्रिया, प्रशासनिक कार्रवाई, प्रोत्साहन और स्वैच्छिक अभ्यासों आदि के रूप में नीतियां बनाते हैं। कई बार, संसाधनों का आवंटन भी नीतिगत निर्णयों को प्रतिबिंबित करता है। 

देश में बेहतर जल प्रबंधन के लिए नीतियां बनाने की आवश्यकता है। यह इसलिए ज़रूरी है क्योंकि देश के कई हिस्सों में पानी की वास्तविक कमी है, जबकि अन्य हिस्सों में यह कमी जल संसाधनों के कुप्रबंधन के कारण पैदा हो रही है।

जल संसाधनों को लेकर निर्णय लेना इसलिए भी कठिन है, क्योंकि जगह के साथ उनकी प्रकृति भी बदल जाती  है और वे कई अन्य संसाधनों पर निर्भर होते हैं। इस पर काम करने के लिए कई लोगों और संस्थानों की सहभागिता की ज़रूरत होती है, जो इसे और भी जटिल व चुनौतीपूर्ण बना देता है (OECD, 2016)। पानी के इस्‍तेमाल को लेकर मनुष्यों और पर्यावरण के बीच उचित संतुलन होना चाहिए। इस संतुलन को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय, राज्य या उप-राज्य स्तर पर जल नीतियों को तैयार करना बहुत महत्वपूर्ण है (राठी और मिश्रा, 2021)।

जल संसाधन प्रबंधन के लिए कई सरकारी एजेंसियों ने 1987 में पहली राष्ट्रीय जल नीति को लागू करने का प्रयास किया। समय-समय पर इसमें संशोधन करके पानी के विवेकपूर्ण उपयोग को प्रोत्साहित करने और पर्यावरण पर बोझ कम करने की कोशिश भी की गई (राठी और मिश्रा, 2021)। 

भारत की जल नीतियां किन सिद्धांतों पर आधारित हैं?

भारत में जल नीतियों के मूल सिद्धांत
स्रोत: भारत में जल नीतियां: एक आलोचनात्मक समीक्षा। इंडियन जर्नल ऑफ़ साइंस एंड टेक्नोलॉजी, 14(47):3456-3466)। यह पेपर cc लाइसेंस के तहत ओपन एक्सेस के लिए उपलब्ध है।

पूर्व-औपनिवेशिक काल से लेकर अब तक जल नीति में हुए क्‍या-क्‍या बदलाव?


पूर्व-औपनिवेशिक काल

पूर्व-औपनिवेशिक काल में भारत में पानी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होने के कारण जल विनियमन पर कोई खास ध्‍यान नहीं दिया गया (कुलेट, पी. और गुप्ता, जे., 2009)।

औपनिवेशिक काल

धरती की सतह पर मौजूद जल (सरफेस वाटर) पर सरकारी नियंत्रण की अवधारणा औपनिवेशिक काल से शुरू हुई। ब्रिटिश शासन के दौरान सामान्य कानूनी सिद्धांतों को लागू करके पानी पर नियंत्रण और पानी के अधिकारों को विनियमित किया गया था, जिसमें भूमि मालिकों के पानी के अधिकारों पर जोर दिया गया था। रिपेरियन राइट्स (तटवर्ती अधिकार) ने एक भूस्वामी को अपनी भूमि पर मौजूद सतही जल का उपयोग करने की अनुमति दी। साथ ही उसे अपनी भूमि के भीतर मौजूद भूमिगत जल के असीमित उपयोग का भी अधिकार था (कुलेट, पी. और गुप्ता, जे., 2009)। 

तटबंधों की सुरक्षा और रखरखाव तथा तटबंधों के लिए भूमि अधिग्रहण के लिए कानून भी इस अवधि के दौरान बनाए गए। इन कानूनों को लागू करने का काम नियंत्रक को सौंपा गया। इस दौरान पारित किए गए अन्य कानूनों में नेविगेशन के लिए नहरों का विनियमन, उपयोगकर्ताओं पर कर लगाना, नदियों के संरक्षण, नावों और मत्स्य पालन के लिए नियम शामिल थे। उत्तरी-भारत नहर और जल निकासी अधिनियम (1873) ने सिंचाई, नेविगेशन और जल निकासी को विनियमित किया और सरकार के 'प्राकृतिक प्रवाह में बहने वाली सभी नदियों और धाराओं और सभी झीलों के पानी को सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए उपयोग और नियंत्रित करने' के अधिकार को मान्यता दी (प्रस्तावना)। इससे सतही जल पर राज्य का नियंत्रण मजबूत हुआ और लोगों के अधिकार कमजोर हुए (कुलेट, पी. और गुप्ता, जे., 2009)।

औपनिवेशिक कानून ने जल से संबंधित जिम्मेदारियों के मामले में केंद्र और राज्य के बीच शक्तियों का विभाजन भी किया। भारत सरकार अधिनियम (1935) के तहत राज्यों या प्रांतों को जल आपूर्ति, सिंचाई, नहरों, जल निकासी और तटबंधों, जल भंडारण और जल विद्युत (हाइड्रो पावर) पर निर्णय लेने का अधिकार दिया गया, जबकि प्रांतों और/या रियासतों के बीच विवादों के निपटारे का अधिकार गवर्नर जनरल के अधिकार क्षेत्र में रहा (कुलेट, पी. और गुप्ता, जे., 2009)।


उत्तर-औपनिवेशिक काल

1987 की जल नीति तक के महत्‍वपूर्ण पड़ाव 

1950: भारत के संविधान ने सभी जल संसाधनों का स्वामित्व सरकार को दे दिया। इसे राज्य का विषय घोषित किया गया तथा नागरिकों के पेयजल के अधिकार को मान्यता दी गई।

1951-56: प्रथम पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत पहली बार जल आपूर्ति और स्वच्छता को राष्ट्रीय एजेंडे में जोड़ा गया और जलापूर्ति के अंतर्गत स्वच्छता (सेनिटेशन) को शामिल किया गया।

1954: स्वास्थ्य योजना के एक अंग के रूप में पहला राष्ट्रीय जल आपूर्ति और स्वच्छता कार्यक्रम कार्यक्रम शुरू किया गया।

1956-61: द्वितीय पंचवर्षीय योजना: इस योजना में जलापूर्ति क्षेत्र को अधिक प्राथमिकता नहीं दी गई, लेकिन लोक स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभागों (पीएचईडी) को वित्त पोषण (फंडिंग) उपलब्ध कराया गया।

1956: अंतरराज्यीय जल विवादों के निपटारे के लिए कानून (अंतरराज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम 1956)

1961-66: तीसरी पंचवर्षीय योजना में ऐसे गांवों की पहचान समस्याग्रस्त गांवों के रूप में की गई थी, जिनके मैदानी इलाकों में 1.6 किलोमीटर की दूरी या पहाड़ी क्षेत्रों में 100 मीटर की ऊंचाई के भीतर पेयजल स्रोत नहीं था, जो जल जनित रोगों से ग्रस्त थे तथा जिनके जल स्रोतों में अत्यधिक लवणता, लौह, फ्लोराइड या विषैले तत्व मौजूद थे।

1968: राज्यों को 20,000 से कम आबादी वाली बस्तियों और ग्रामीण इलाकों में जल आपूर्ति योजनाओं को मंजूरी देने के लिए वित्तीय अधिकार दिए गए। इसमें पीने के पानी के गंभीर संकट वाले गांवों को प्राथमिकता दी गई।

1969: संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय बाल आपातकालीन कोष (यूनिसेफ) के तकनीकी सहयोग से राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल आपूर्ति कार्यक्रम शुरू किया गया।

1972-73: राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को पेयजल की उपलब्धता बढ़ाने में सहायता देने के लिए भारत सरकार द्वारा त्वरित ग्रामीण जल आपूर्ति कार्यक्रम (ARWSP) शुरू किया गया।

1975: ARWSP की जगह न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम (MNP) शुरू किया गया, जिसका उद्देश्य पूरी आबादी को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराना था।

1977-78: ARWSP को पुनः शुरू किया गया, लेकिन इसके लिए धनराशि की व्‍यवस्‍था राज्यों द्वारा MNP के माध्यम से करने का प्रावधान किया गया।

1980-85: छठी पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत जल आपूर्ति क्षेत्र को विशेष महत्व दिया गया। यह प्राथमिकता संयुक्त राष्ट्र की मार्च 1977 की द मार डेल प्लाटा घोषणा के अनुरूप थी, जिसमें वर्ष 1981 से 1990 तक की अवधि को पीने के पानी की आपूर्ति और स्वच्छता के अंतरराष्ट्रीय दशक के रूप में मनाने की बात कही गई थी।

1981: अंतरराष्ट्रीय पेयजल आपूर्ति और स्वच्छता दशक (1981-1990) के तहत सभी गांवों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए नीतियों को परिभाषित करने हेतु राष्ट्रीय स्तर पर एक शीर्ष समिति (एपेक्‍स कमेटी) का गठन किया गया।

1985: ग्रामीण जल आपूर्ति और स्वच्छता का जिम्‍मा ग्रामीण विकास विभाग को सौंप दिया गया, जो उस समय कृषि मंत्रालय के अधीन था।

1987: पहली राष्ट्रीय जल नीति

तालिका स्रोत: गुप्ता, एम. और बिस्वास, आर. (2021) भारत में जल नीतियों की संरचना: एक अवलोकन, नगरलोक , खंड LIII, अंक 4, 42। नगरलोक एक त्रैमासिक ओपन एक्सेस जर्नल है।

राष्ट्रीय जल नीति, 1987

1987 में लागू की गई पहली राष्ट्रीय जल नीति का उद्देश्य सिंचाई क्षेत्र को बढ़ाना, खाद्य उत्पादन को 1987 के 150 मिलियन टन से बढ़ाकर 2000 में 240 मिलियन टन तक पहुंचाना, देश की शत-प्रतिशत आबादी की पेयजल की जरूरतों को पूरा करना और 80% शहरी और 20% ग्रामीण आबादी की स्वच्छता आवश्यकताओं को पूरा करना था। नीति दस्तावेज में भूजल का उपयोग करने, बाढ़ को नियंत्रित करने, सूखे के प्रभाव को कम करने, जल प्रदूषण को खत्म करने, एक मानकीकृत राष्ट्रीय सूचना प्रणाली स्थापित करने, जल संसाधनों के लिए एक वैज्ञानिक योजना और विकास प्रक्रिया शुरू करने, किसान प्रबंधित सिंचाई प्रणाली स्थापित करने जैसी जरूरतों पर भी जोर दिया गया  (परांजपे, वी., राठौर, आरएस, 2014)। 

हालांकि, NWP 1987 के प्रमुख तत्वों का क्रियान्वयन नहीं हो सका और राज्य सरकारों की ओर से सकारात्मक प्रतिक्रिया के अभाव में NWP 1987 अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में विफल रही, जैसा कि परांजपे, वी. और राठौर, आर.एस. (2014) ने बताया।

जल नीति, 2002 तक की प्रमुख घटनाएं

1991: राष्ट्रीय पेयजल मिशन (NDWM) 1986 का नाम बदलकर राजीव गांधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन (RGNDWM) कर दिया  गया।

1992: 74वां संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया गया और शहरी स्थानीय निकाय (ULBs)  बनाए गए, जिन्हें नगर निगम, नगर परिषद और नगर पंचायत के रूप में जाना जाता है।

1993: 1991 की जनगणना के अनुसार 20,000 से कम आबादी वाले शहरों को सुरक्षित और पर्याप्त जल आपूर्ति सुविधाएं प्रदान करने के लिए त्वरित शहरी जल आपूर्ति कार्यक्रम (AUWSP) शुरू किया गया।

1994-95: पांच मेट्रो शहरों के लिए मेगा सिटी योजनाएं शुरू की गईं।

1994: 73वें संविधान संशोधन के प्रावधानों के अनुसार पंचायती राज संस्थाओं (PRIs) को पेयजल उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी सौंपी गई।

1992-97: आठवीं पंचवर्षीय योजना: जल आपूर्ति क्षेत्र की समस्याओं की पहचान की गई और एक सुधार एजेंडा प्रस्तावित किया गया, जिसमें जल को एक बिक्री योग्य वस्तु (कमोडिटी) के रूप में मानने पर जोर दिया गया।

1994: क्षेत्र सुधार पायलट परियोजना (SRPP) शुरू की गई, जिसके तहत जल सेवाओं की विकेन्द्रीकृत डिलीवरी को क्रियान्वित किया गया। इसका ज़ोर गांवों के स्तर पर जल आपूर्ति प्रबंधन पर था। सरकार की भूमिका सेवा प्रदाता (सर्विस प्रोवाइडर) से बदलकर सुविधा प्रदाता (फेसिलिटेटर) की हो गई। परीक्षण (पायलट प्रोजेक्‍ट) के तौर पर देश के 67 जिलों में सेक्‍टर सुधार परियोजनाएं शुरू की गईं।

1997-2002: नौवीं पंचवर्षीय योजना: इसका उद्देश्य शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में 100% जल आपूर्ति कवरेज, शहरी क्षेत्रों में 60% और ग्रामीण क्षेत्रों में 30% स्वच्छता कवरेज था, जिसमें विकेंद्रीकरण और निजीकरण पर जोर दिया गया।

2002: RGNDWM ने राष्ट्रीय पेयजल आपूर्ति के लिए स्वजलधारा कार्यक्रम के रूप में क्षेत्र सुधार पायलट परियोजना को पूरे देश में लागू किया।

तालिका स्रोत: गुप्ता, एम. और बिस्वास, आर. (2021) भारत में जल नीतियों की संरचना: एक अवलोकन, नगरलोक , खंड LIII, अंक 4, 42। नगरलोक एक त्रैमासिक ओपन एक्सेस जर्नल है।

राष्ट्रीय जल नीति, 2002

दूसरी राष्ट्रीय जल नीति वर्ष 2002 में जारी की गई। नीति की प्रस्तावना उन महत्वपूर्ण सिद्धांतों की समझ प्रदान करती है, जिन पर यह नीति आधारित है और इसमें ये तीन मुख्य बिंदु शामिल हैं:-

  • एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन और विकास के प्रति प्रतिबद्धता।

  • पर्यावरण संबंधी चिंताओं को महत्व

  • विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर आधारित नवीन तकनीकों और रणनीतियों को महत्व (सिद्दीकी, एम.एस., तिथि निर्दिष्ट नहीं)

राष्ट्रीय जल नीति 2002 की मुख्य विशेषताएं यहां देखी सकती हैं। नीति के विभिन्न खंडों का विवरण और 1987 की नीति के साथ तुलना यहां देखी जा सकती है।

NWP 2002 बाढ़ की समस्या को कम करने, सिंचाई की सुविधा को ज्‍यादा बड़े क्षेत्र तक पहुंचाने, सिंचाई में पानी के उपयोग की दक्षता को बढ़ाने और खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिए सुधार लाने जैसे उद्देश्‍यों में विफल रही (परांजपे, वी., राठौर, आर.एस., 2014)।

यह योजना जल निकायों के प्रदूषण को रोकने, ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में लोगों को पीने योग्य पानी और स्वच्छता सुविधाएं उपलब्ध कराने, नदियों के पर्यावरणीय प्रवाह को बनाए रखने, उप-बेसिन या नदी-बेसिन स्तर पर जल क्षेत्र के विभिन्न घटकों को एकीकृत करने में भी विफल रही (परांजपे, वी., राठौर, आर.एस., 2014)।

हालांकि, 2002 की नीति में 'बांध सुरक्षा कानून' लागू करने, विवादों के समयबद्ध समाधान के लिए 1956 के अंतर-राज्यीय जल विवाद अधिनियम में संशोधन करने और अतिक्रमण तथा जल गुणवत्ता में गिरावट को रोककर मौजूदा जल निकायों के संरक्षण के लिए कानून बनाने की जोरदार सिफारिश की गई थी। लेकिन ये सभी सुधार अधूरे रह गए (परांजपे, वी., राठौर, आरएस, 2014)।

जल नीति, 2012 तक की प्रमुख घटनाएं 

2002-07: दसवीं पंचवर्षीय योजना का लक्ष्य शहरी और ग्रामीण आबादी को जल आपूर्ति के लिए शत-प्रतिशत कवरेज प्रदान करना, पानी का एक कमोडिटी के रूप में प्रबंधन करना, सरकार की भूमिका को प्रत्यक्ष सेवा प्रदाता (डायरेक्‍ट सर्विस प्रोवाइडर) से सुविधा प्रदाता (फैसिलिटेटर) में बदलना रहा, जिससे निजीकरण को बढ़ावा मिला।

2003: ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाओं का प्रावधान (PURA) : इसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाएं और आजीविका के अवसर प्रदान करना था।

2004: सभी पेयजल कार्यक्रमों को RGNDWM के तहत लाया गया।

2005: भारत निर्माण कार्यक्रम (BNP)  ग्रामीण बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए एक पांच वर्षीय कार्यक्रम था, जिसमें पेयजल आपूर्ति समेत छह घटकों को शामिल किया गया।

2007: स्वजलधारा की फंडिंग के अनुपात में बदलाव करते हुए 90:10 केंद्र सरकार-कम्‍यूनिटी शेयर को बदलकर केन्द्र और राज्य की 50:50 फंडिंग कर दिया गया। सामुदायिक अंशदान (कम्‍यूनिटी शेयर) को वैकल्पिक (ऑप्‍शनल) बना दिया गया।

2007-12: ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना का उद्देश्य 63 शहरों और 5098 कस्बों को जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (JNNURM) और छोटे एवं मध्यम शहरों के लिए शहरी अवसंरचना विकास योजना (UIDSSMT) कार्यक्रमों के तहत शामिल करना था, ताकि लोगों को पर्याप्त पेयजल उपलब्ध कराया जा सके। इसका मकसद पर्सनल हेल्‍थ केयर, सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्वच्छता, स्वच्छ पेयजल, भोजन की उपलब्‍धता और स्वच्छता व खान-पान के तौर-तरीकों के बारे में लोगों को जानकारी देकर एक बेहतर समझ पैदा करना था। 

2008: जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने और उनसे निपटने के लिए राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्य योजना (NAPCC) शुरू की गई। राष्ट्रीय जल मिशन भी इस कार्यक्रम के तहत शुरू किए गए आठ मिशनों में से एक था।

2009: जल संसाधन मंत्रालय ने जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना के अंतर्गत संशोधित व्यापक राष्ट्रीय जल मिशन के लिए खंड I और खंड II का लोकार्पण किया ।

2010: पेयजल आपूर्ति विभाग का नाम बदलकर पेयजल एवं स्वच्छता विभाग कर दिया गया।

2011: पेयजल एवं स्वच्छता विभाग को अपग्रेड कर अलग से बने पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय के तहत रखा  गया।

2012: ड्राफ्ट NWP 2002 को NWP 2012 में अपडेट किया गया और पेयजल को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई।

तालिका स्रोत: गुप्ता, एम. और बिस्वास, आर. (2021) भारत में जल नीतियों की संरचना: एक अवलोकन, नगरलोक , खंड LIII, अंक 4, 42। नगरलोक एक त्रैमासिक ओपन एक्सेस जर्नल है।

राष्ट्रीय जल नीति, 2012

राष्ट्रीय जल नीति, 2012 के तहत देश में जल संसाधनों के संरक्षण, विकास एवं बेहतर प्रबंधन के लिए अनेक सिफारिशें की गईं।

राष्ट्रीय जल नीति 2012 की मुख्य विशेषताएं यहां देखी जा सकती हैं।

नीति को नदी बेसिन एजेंसियों/प्राधिकरणों/संगठनों के निर्माण में देरी, नीतिगत सिफारिशों के अपर्याप्त कार्यान्वयन, असाध्य अंतर-राज्यीय विवादों और भारत की वार्षिक जल उपलब्धता के बारे में अति-आशावादी अनुमानों जैसी सीमाओं (लिमिटेशंस) का सामना करना पड़ा। इस नीति में भारत की 

प्राचीन जल संस्कृतियों, सिंचाई ऊर्जा संबंध, सिंचाई के लिए पानी के उपयोग के बदलते पैटर्न, IWRM सिद्धांतों के अनुप्रयोग और पानी के निजीकरण और पानी हड़पने के मुद्दे पर भी विचार नहीं किया (परांजपे, वी., राठौर, आरएस, 2014)। 


'सहायकता (सब्सीडीएरिटी) सिद्धांत' (यानी नियोजन और निर्णय लेने की शक्तियों को उस स्तर तक हस्तांतरित करना जहाँ लोग उन निर्णयों से प्रभावित होंगे) को भी नीति में शामिल नहीं किया गया। इसमें प्राथमिकताओं को सूचीबद्ध करने से भी परहेज किया गया और केवल पानी के विभिन्न प्रकार के उपयोगों का उल्लेख किया। परांजपे, वी. और राठौर, आरएस (2014) की रिपोर्ट के अनुसार इसने भौगोलिक परिस्थितियों, कृषि-जलवायु क्षेत्रों, देश में मौजूद सामाजिक-आर्थिक असमानताओं आदि से संबंधित विविधता को भी पर्याप्त महत्व नहीं दिया। 

देश में नीति निर्माण की चुनौतियाँ क्या हैं?

गुप्ता, एम. और बिस्वास, आर. (2021) कहते हैं कि NWP 1987, NWP 2002 और NWP 2012 की तुलना से पता चलता है कि नीतियों में जल संस्थानों के 'जल कानून' घटक (वाटर लॉ कंपोनेंट) की कमी है और इस प्रकार उनकी कानूनी ताकत कमजोर है। हालांकि वे 'जल नीति' (वाटर पॉलिसी) के मामले में मजबूत  हैं, लेकिन वे 'जल प्रशासन' (वाटर मैनेजमेंट) के मामले में पिछड़ जाते हैं।

भारत में जल नीति लगातार विकसित हो रही है, लेकिन केंद्र और राज्य के जल संस्थानों की असंगत और परस्पर विरोधी नीतियां इसकी वास्तविक प्रगति में बाधा बनती रही हैं। भारत में जल नीतियों को भूजल अधिकारों को लागू करने, ट्यूबवेलों में मीटर लगाने जैसे मामलों में कई समस्‍याओं का सामना करना पड़ता है। 

जल नीति के निर्माण में कई प्राधिकरण शामिल होते हैं। ये जिलों, क्षेत्रों, राज्यों आदि के बीच की राजनीतिक सीमाओं और बेसिनों, उप-बेसिनों और जलग्रहण क्षेत्रों आदि जैसी जल-भूवैज्ञानिक सीमाओं में बंटे होते हैं। ऐसे में, एक साझा ढांचे के अभाव में नीतियों को लागू किया जा पाना कठिन हो जाता है। 

विभिन्न जल संस्थानों और नदी बेसिन प्रबंधन स्तर पर डेटा की कमी या डेटा में विरोधाभास होना, योजना बनाने और प्रबंधन के काम को बेहद मुश्किल बना देता है। केंद्र और राज्यों में जल संसाधन, ग्रामीण विकास, कृषि और शहरी विकास मंत्रालय जैसे विभिन्न विभागों के बीच समन्वय की कमी स्थिति को और उलझा  देती है। इसके अलावा हमारी अर्थव्यवस्था भी प्रभावी जल प्रशासन (वाटर गवर्नेंस) के लिए एक और चुनौती साबित होती है (गुप्ता, एम. और बिस्वास, आर., 2021)।

कर्नाटक की नई जल नीति

साल 2017 के एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में कर्नाटक ज्ञान आयोग (KJA) द्वारा राज्य के लिए एक नई जल नीति का मसौदा तैयार करने के लिए टास्क ग्रुप की स्थापना शामिल थी, जिसका नेतृत्व प्रोफेसर मिहिर शाह, श्री एस वी रंगनाथ और डॉ. शरच्चन्द्र लेले ने किया था। टास्क ग्रुप ने कर्नाटक सरकार को एक व्यापक रिपोर्ट सौंपी, जिसमें राज्य के लिए एक नई मसौदा जल नीति (न्‍यू ड्राफ्ट वाटर पॉलिसी) और इसकी सिफारिशों के समर्थन में इसमें विस्‍तृत तर्क पेश किए गए थे। मसौदा रिपोर्ट 2019 में प्रस्तुत की गई और इसमें जल कानून और जल प्रशासन के घटकों से संबंधित कई ऐसी रोचक जानकारियां प्रस्तुत की गईं जो NWP 1987, 2002 और 2012 में शामिल नहीं थीं।

इसमें जल प्रशासन के लिए एक व्यापक जल ढांचा कानून (वाटर फ्रेमवर्क लॉ) पारित करने, भूजल अधिनियम और सिंचाई अधिनियम को संशोधित करने की सिफारिश की गई है। इसमें राज्य, बेसिन और उप-बेसिन स्तर पर जल विनियामक प्राधिकरणों की स्थापना के लिए एक कानून बनाया जाना भी शामिल है। प्रदूषण बोर्ड, जल बोर्ड और शहर के जल प्रबंधन के प्रशासन में नागरिक की भागीदारी (सिटीजन वॉयस), पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने के लिए जल-संबंधित एजेंसियों को फिर से आकार देना, साथ ही इन एजेंसियों के स्टाफिंग और प्रशासनिक ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन करना शामिल है। इसे जल डेटा संग्रह, विश्लेषण, अनुसंधान, प्रसार और आउटरीच के लिए एक नए मिशन के साथ जोड़ा जाना है, जिससे कि राज्य में जल संसाधनों के कुशल, टिकाऊ और न्यायसंगत प्रबंधन को प्रोत्साहित करने के लिए जल प्रशासन और जनता के लिए सभी स्तरों पर जानकारी उपलब्‍ध हो सके।

रिपोर्ट का विवरण यहां देखा जा सकता है। कर्नाटक राज्य जल नीति की महत्वपूर्ण विशेषताओं के बारे में अधिक जानने के लिए डॉ. शरच्चंद्र लेले के साथ यह साक्षात्कार भी पढ़ें।

आगे की राह

नवंबर 2019 में, जल शक्ति मंत्रालय ने पहली बार नई राष्ट्रीय जल नीति (NWP) का मसौदा तैयार करने के लिए स्वतंत्र विशेषज्ञों की एक समिति गठित की। एक वर्ष की अवधि में इस समिति को राज्य और केंद्र सरकारों, शिक्षाविदों और पेशेवरों की ओर से 124 प्रविष्टियां प्राप्त हुईं। नई NWP इस व्यापक विचार-विमर्श के जरिये निकली आम सहमति पर आधारित निम्नलिखित बिंदुओं पर केंद्रित है:

  • बांध निर्माण और भूमिगत जल की निकासी से संबंधित आपूर्ति-केंद्रित दृष्टिकोण (सप्‍लाई सेंट्रिक अप्रोच) से हटकर, जल की मांग और वितरण के प्रबंधन पर ज़ोर।

  • सार्वजनिक खरीद कार्यक्रमों में विविधता लाकर पोषक अनाज, दालों और तिलहनों को शामिल करना, ताकि किसानों को अपनी फसल पद्धति (क्रॉपिंग पैटर्न) को बदलने और पानी बचाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। 

  • एकीकृत शहरी जल आपूर्ति और अपशिष्ट जल प्रबंधन, सीवेज के ट्रीटमेंट और डीसेंट्रलाइज्‍ड वेस्‍ट वाटर मैनेजमेंट के जरिये शहरी नदी क्षेत्रों के पारिस्थितिक तंत्र को बहाल करने के लिए, पानी की खपत कम करने-रिसाइकल करने-दोबारा इस्‍तेमाल करने (रिड्यूस-रिसाइकल-रीयूज़) को बढ़ावा। 

  • पीने से इतर पानी के इस्‍तेमाल जैसे फ्लशिंग, अग्नि सुरक्षा, वाहन धुलाई जैसे कामों में ट्रीटेड वेस्‍ट वाटर के इस्‍तेमाल को अनिवार्य करने की आवश्‍यकता पर ज़ोर।

  • NWP में बड़े बांधों में भारी मात्रा में संग्रहित पानी का जिक्र किया गया है, जो अभी भी किसानों तक नहीं पहुंच रहा है। इसमें बताया गया कि कैसे दबावयुक्त बंद संवहन पाइपलाइनों (प्रेशराइज्‍़ड क्‍लोज कन्वियांस पाइपलाइंस) को सुपरवाइज़री कंट्रोल एंड डेटा एक्विज़िशन (SCADA) प्रणालियों और दबावयुक्त सूक्ष्म सिंचाई (प्रेशराइज्‍़ड माइक्रो इरिगेशन) के साथ जोड़कर बहुत कम लागत पर सिंचित क्षेत्र का विस्तार किया जा सकता है।

  • "प्रकृति-आधारित समाधानों" के ज़रिये जल की आपूर्ति, जैसे कि पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण करने वाले समुदायों के लिए मुआवज़े आदि की व्यवस्था की मदद से जलग्रहण क्षेत्रों (कैचमेंट एरिया) का पुनरुद्धार ।

  • शहरी क्षेत्रों के लिए वर्षा उद्यानों (रेन गार्डन्‍स) और बायो-स्वेल्स के रूप में ब्‍लू-ग्रीन इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर , गीले घास के मैदानों (वेट मैडो) के साथ नदियों का पुनरुद्धार, जैव-उपचार के लिए निर्मित आर्द्रभूमि (वेट लैंड्स), शहरी पार्क, पारगम्य फुटपाथ, ग्रीन रूफ जैसे उपाय प्रस्तावित हैं।

यदि भारत की जल समस्या का समाधान करना है, तो यह महत्वपूर्ण है कि नीति को 2030 तक लागू किया जाए। (गुप्ता, एम. और बिस्वास, आर., 2021)। 

राज्यों की मौजूदा जल नीतियां

भारत में पानी राज्‍यों के अधिकार क्षेत्र में आने वाला विषय है और राज्य को अपनी सीमाओं के भीतर आवश्यकताओं के अनुरूप अपनी रणनीति बनाने की स्वतंत्रता है। देश के कई राज्यों की अपनी जल नीतियां हैं। ये नीतियां राष्ट्रीय जल नीति पर आधारित हैं और राष्ट्रीय जल नीति को राज्य के लिए उपयुक्‍त रणनीति में बदलने का काम कर रही हैं । 

संदर्भ

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