दो साल पहले की बात है। दक्षिण अफ्रीका की राजधानी केपटाउन में हाहाकार मचा हुआ था। भूजल समाप्त होने के कारण नल सूख गए थे। लोग पीने से लेकर रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए बूंद बूंद पानी के लिए तरस रहे थे। पानी की इस भीषण समस्या के कारण केपटाउन में ‘‘डे जीरो’’ (zero day) की घोषणा की गई। लोगों को जल संरक्षण (water conservation) की अहमियत समझाने के लिए एक सप्ताह तक नलों को सूखा रखा गया, यानी नलों में पानी की सप्लाई बंद कर दी गई, लेकिन विश्व के किसी भी देश ने दक्षिण अफ्रीका की समस्या को गंभीरता से नहीं लिया, क्योंकि सभी को लगता था, कि ये उनके देश में नहीं होगा, लेकिन अति दोहन और जागरुकता के अभाव के कारण विश्व के अधिकांश देशों में जल संकट गहरा गया है। पानीदार देश भारत भी भीषण जलसंकट (water crisis) की भयावहता की तरफ तेजी से बढ़ रहा है, जहां चेन्नई में भूजल (ground water) लगभग समाप्त हो चुका है और राजधानी दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद, बेंगलुरु आदि में समाप्त होने की कगार पर है। उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में तो पानी की सुरक्षा भी करनी पड़ रही है, जिसके लिए नदियों और तालाबों के पास गर्मियों में सुरक्षाकर्मियों को तैनात किया जाता है। तो वहीं जल का मुख्य स्त्रोत कहे जाने वाले और सैंकड़ों नदियों के उद्गम स्थल के रूप में विख्यात उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी राज्यों में भी जल संकट धीरे धीरे विकराल रूप ले रहा है तथा मैदानी इलाकों में जो पानी बचा है वो लगातार प्रदूषित होता जा रहा है, जिसका सजीव उदाहरण बेंगलुरु है।
भारत में हर साल 1068 मिमी बारिश होती है, जिससे करीब 4 हजार क्यूबिक मीटर पानी मिलता है, लेकिन वर्षा जल संग्रहण की कोई व्यवस्था न होने के कारण ये बेशकीमती पानी नदियों और नालों के माध्यम से समुद्र में जाकर व्यर्थ हो जाता है। इससे बारिश का पानी न तो उपयोग हो पाता है और न ही जमीन के अंदर जा पाता है। नजीजतन भारत में भूजल (ground water) स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। चेन्नई और बेंगलुरु भारत के ‘‘केपटाउन’’ बनने की कगार पर पहुंच रहे हैं, लेकिन फिर भी भारत के नागरिक पूरी तरह भूजल पर निर्भर हैं और जल संकट होने के बावजूद भी भूजल का अतिदोहन कर रहे हैं। वर्षों से हो रहे इस अति दोहन के परिणामस्वरूप भारत की कुल भूजल दोहन क्षमता 300 क्यूबिक मीटर से कम रह गई है। जल गुणवत्ता सूचकांक (water quality index) में भी भारत 122 देशों की सूची में 120वे पायदान पर है। इससे भारत में शेष बचे जल की गुणवत्ता का अंदाजा लगाया जा सकता है।
भारत में जल इस हद तक प्रदूषित हो चुका है कि गंगा (ganga river) और यमुना (yamuna river) सहित कई बड़ी नदियों का पानी पीने योग्य नहीं बचा है। कानपुर में गंगा नदी और दिल्ली में यमुना नाले में ही तब्दील हो गई है। तालाबों पर अतिक्रमण है तो कहीं तालाबों को कूड़ादान बना दिया गया है, जबकि कई तालाबों (ponds) में सीवरेज छोड़ा जाता है। उद्योगों का जहरीला कैमिकल वेस्ट तालाबों और नदियों में ही बहा दिया जाता है, जिससे भूजल भी प्रदूषित हो रहा है। हाल ही में कर्नाटक राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (केएसपीसीबी) द्वारा आईटी सिटी के नाम से मशहूर बेंगलुरु में झीलों के पानी के लिए गए सैंपल में पानी की गुणवत्ता (water quality) की पोल खुल गई है। केएसपीसीबी ने हाल ही में बेंगलुरु के 64 झीलों से पानी का सैंपल लिया। सैंपल की जांच में किसी भी झील का पानी जल गुणवत्ता सूचकांक (water quality index) के अनुसार संतोषजनक गुणवत्ता वाला नहीं पाया गया।
केएसपीसीबी द्वारा लिए गए सभी सैंपल को ‘‘डी’’ और ‘‘ई’’ श्रेणी में रखा गया। ‘‘डी’’ श्रेणी के पानी को केवल वन्यजीवों और मत्स्य पालन के लिए उपयुक्त हैं, जबकि ‘‘ई’’ श्रेणी के पानी का उपयोग केवल सिंचाई, औद्योगिक शीतलन और नियंत्रित अपशिष्ट निपटान के लिए किया जा सकता है। हालाकि ये आंकड़ा केवल बेंगलुरु की स्थिति बता रहा है, लेकिन भारत के सभी राज्यों और शहरों में तालाबों और झीलों की स्थिति ऐसी ही है। यहां झीलों के पानी के प्रदूषित (water pollution) होने का मुख्य कारण उद्योगों का कैमिकल वेस्ट और सीवरेज है। जिस कारण बेंगलुरु में झीलों की ये स्थिति हो गई है कि कई बार पानी में विषाक्त फोम तैरते हैं , जो कई बार उड़कर इधर उधर बिखरने से लोगों के लिए समस्या बन जाता है। इन सभी को रोके बिना पानी को स्वच्छ करना फिलहाल संभव नहीं है। हाल ही में केंद्रीय जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत (Jalshakti Minister Gajendra singh shekhawat) ने भी कहा था कि ‘‘यदि लोग जल्द पानी की गंभीरता को नहीं समझे तो भविष्य में भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से को भीषण जल संकट (water crisis) का सामना करना पड़ेगा।’’ वास्तव में इन सभी समस्याओं को देखते हुए अब समय आ गया है कि जल संरक्षण (water conservation) के प्रति हर व्यक्ति को सचेत हो जाना चाहिए। जिसके लिए केवल अधिकारों की बात करने से कुछ नहीं होगा, बल्कि पर्यावरण के प्रति अपने कर्तव्यों को भी हमें निर्वहन करना होगा।
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