छत्तीसगढ़ का भिलाई शहर अपने इस्पात (स्टील) कारखाने के लिए देशभर में जाना जाता है। स्टील प्लांट से हुए औद्योगिक विकास ने बीते पांच-छह दशकों में इस शहर का काया कल्प कर दिया है। अपने बेहतरीन नगर नियोजन और इंन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए मशहूर य औद्योगिक शहर इन दिनों गंभीर जल प्रदूषण और जल संकट के लिए चर्चा में है।
शहर के कई इलाकों में चल रहे कारखानों ने अपने गैरज़िम्मदार रवैये के चलते आसपास के क्षेत्रों के भूजल को इस कदर ज़हरीला बना दिया है कि बोरिंग से काले रंग का प्रदूषित पानी निकल रहा है। नुकसानदेह रसायनों वाले इस पानी का इस्तेमाल करने से लोग बीमार हो रहे हैं। पानी इतना हानिकारक है कि जानवरों को पिलाने पर उनकी सेहत भी खराब हो रही है और खेतों की सिंचाई करने पर यह मिट्टी को भी खराब कर रहा है।
पत्रिका की रिपोर्ट के मुताबिक, भिलाई में 300 से अधिक छोटे-बड़े उद्योगों के कारण भू-जल तेजी से प्रदूषित होता जा रहा है। अधिकतर फैक्ट्रियां उपयोग के बाद बचने वाले केमिकल युक्त पानी का उपचार (ट्रीटमेंट) या रीसाइकल करने के बजाय उसे प्लांट परिसर में ही बोरिंग के ज़रिए जमीन के भीतर डाल रही हैं।
इस गैरज़िम्मेदाराना और गैरकानूनी रवैये की वजह से भिलाई के भूजल में ज़हर घुलता जा रहा है। जल प्रदूषण का बुरा असर अब ज़िले के कई इलाकों में साफ़ तौर पर देखने को मिल रहा है। इसके बावज़ूद ज़िम्मेदार विभाग पानी को प्रदूषित करने वाली औद्योगिक इकाइयों पर कोई सख्त कार्रवाई नहीं कर रहा है।
भिलाई के छावनी क्षेत्र और चरोदा के ग्राम अकलोरढीह में लोगों के घरों में बोरिंग है, पर उसमें निकलने वाला पानी इतना केमिकल युक्त है कि पीने तो दूर नहाने-धोने के लिए भी इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। स्थानीय निवासी इस पानी का इस्तेमाल केवल घर की धुलाई और शौचालय की सफाई के लिए ही करते हैं।
कारखानों के पीछे से गुजरने वाला बरसाती नाला सालभर केमिकल युक्त प्रदूषित जल से भरा रहता है। इसके चलते भारी दुर्गंध आने के अलावा इस इलाके की ज़मीन और भूजल पर भी इसका बुरा असर पड़ रहा है। पानी में मौजूद हानिकारक रसायनों के चलते आसपास की मिट्टी और भूजल दोनों तेजी से दूषित हो रहे हैं।
बारिश के पानी की निकासी के लिए बनाया गया यह नाला अब यह उद्योगों का गंदा आउटलेट बन चुका है। इस इलाके में 32 हजार से अधिक लोग रहते हैं। यहां जलापूर्ति के लिए पाइपलाइन भी बिछी हुई है, लेकिन मरम्मत और रखरखाव के अभाव में यह अकसर खराब रहती है, जिसके कारण इलाके में पानी की किल्लत बनी रहती है। जल संकट के समय पानी के टैंकर ही एकमात्र सहारा बनते हैं, जिनसे लोगों को पानी खरीदना पड़ता है।
यदि कोई रासायनिक पदार्थ मिट्टी में मिल रहा है, तो वह दो से तीन महीने में भूजल स्रोत में मिल सकता है। भिलाई के कई क्षेत्रों की मिट्टी क्ले है, जिसमें एल्युमिनियम ऑक्साइड होता है और इसकी सोखने की क्षमता अधिक होती है। ऐसे में यदि हम रोजाना मिट्टी पर ऐसे रासायनिक पदार्थों को डाल रहे हैं, तो यह मिट्टी को खराब करने के बाद गुरुत्वाकर्षण बल के कारण 2 से 3 महीने में भूजल में मिल जाएगा और हानि पहुंचाएगा।डॉ. संतोष कुमार सार, रिसर्चर व चेयरमैन (एनवायरनमेंटल साइंस एंड इंजीनियरिंग, बोर्ड ऑफ स्टडीज़)
पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत बिना उपचार जल निकासी दंडनीय अपराध है। दोषी उद्योगों पर जुर्माने और कारखानों को सील करने का भी प्रावधान है। हालांकि, ज़िम्मेदार सरकारी महकमों के कर्मचारियों की मिलीभगत के चलते यहां कोई कार्यवाही नहीं होती।
केमिकल उद्योगों में अनिवार्य रूप से एफ़्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट (ईटीपी) लगाने का नियम है। यह एक ऐसी शोधन इकाई (ट्रीटमेंट यूनिट) होती है जो औद्योगिक अपशिष्ट जल यानी इंडस्ट्रियल वेस्ट वाटर को साफ करके उसे रसायनों से मुक्त करने के लिए लगाई जाती है।
इसका मुख्य उद्देश्य केमिकल, ऑयल, भारी धातुओं और अन्य हानिकारक पदार्थों को पानी से अलग करना होता है, ताकि वह जल नदियों, नालों या भूमिगत जल को प्रदूषित न करे। इस सबके लिए इसमें न्यूट्रलाइजेशन टैंक, भौतिक-रासायनिक उपचार और सौर वाष्पीकरण टैंक होना ज़रूरी है।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एसपीसीबी) के नियमों के अनुसार ऐसे सभी उद्योग, जो जल प्रदूषण फैला सकते हैं, उनके लिए ईटीपी लगाना और उसे सुचारु रूप से चलाना अनिवार्य है। इन नियमों की कागज़ी खानापूर्ति के लिए भिलाई में कुछ फैक्ट्रियों ने अपने परिसर में यह प्लांट तो लगाया है, पर ज़्यादातर मामलों में इनकी ट्रीटमेंट की क्षमता काफी कम है।
इसके अलावा, कंपनियां अपना खर्चा बचाने के लिए इन ईटीपी संयंत्रों को चालू भी बहुत कम रखते हैं। कई कारखानों में तो यह प्लांट महज़ शो-पीस बनकर रह गए हैं। कंपनियां इन ईटीपी यूनिटों को चलाने के बजाय अपने प्रदूषित सीवेज को पाइपों के ज़रिये परिसर में ही बने बोरवेलों के ज़रिये ज़मीनों में डाल रही हैं।
यह कारस्तानी इसलिए की जाती है, क्योंकि कारखानों के भयंकर रूप से प्रदूषित पानी को नालों के ज़रिये नदी, झील या तालाबों जैसे सतही जलस्रोतों में छोड़े जाने पर यह लोगों की नज़र में आ जाएगा। इसका विरोध हो सकता है। इसलिए लोगों की आंख में धूल झोंकने के लिए कारखाने अपने प्रदूषित पानी को चुपचाप बोरिंग और बोरवेलों के ज़रिये जमीन के भीतर डाल देते हैं, जो भूजल के प्रदूषण का कारण बन रहा है।
एनडीटीवी की रिपोर्ट के मुताबिक भिलाई का भूजल दूषित होने की समस्या करीब 30 साल पहले छावनी की एक दाल मिल से शुरू हुई थी। औद्योगिक इकाइयों को चला रही कंपनियों के अपने फायदे के लिए नियमों को ताक पर रख कारोबार करने के गैरज़िम्मेदाराना रवैये के चलते वार्ड के कुछ मीटर से शुरू हुई समस्या धीरे-धीरे 5 किलोमीटर के दायरे में फैल गई।
आज यह करीब 50 हजार की आबादी तक को प्रभावित कर रही है। रिपोर्ट के मुताबिक दुर्ग जि़ले में 1547 छोटे, मझोले और बड़े उद्योग हैं। भिलाई में 1322 औद्योगिक कारखाने हैं। इनमें दो दर्ज़न से ज़्यादा उद्योग केमिकल या उससे जुड़े उत्पाद बनाते हैं, जबकि 25 उद्योग जीआई पाइप और तार बनाते हैं। इन उद्योगों द्वारा कैमिकल युक्त प्रदूषित पानी ज़मीन के भीतर छोड़े जाने के कारण छावनी क्षेत्र के 5 किलोमीटर के दायरे में बोरिंग से काला बदबूदार पानी निकल रहा है।
इस पानी में केमिकल के अलावा जला हुआ ऑयल भी देखने को मिलता है। इस प्रदूषित पानी का इस्तेमाल कपड़े धोने तक में नहीं किया जा सकता, क्योंकि लोगों के मुताबिक इससे उनके कपड़े खराब हो जाते हैं। साथ ही, कारखानों ने आसपास की खुली ज़मीनों पर अपने खराब केमिकल की बोरियों और तारकोल के ड्रमों व जले हुए तेल के डिब्बों को भी डंप कर रखा है।
कभी-कभी यह औद्योगिक कचरा इतनी ज़्यादा मात्रा में डाल दिया जाता है कि इसकी बदबू से लोगों में सांस की बीमारी और दम घुटने की स्थिति पैदा हो जाती है। ये चीज़ें ज़मीन से रिस कर भूजल में मिलकर उसे प्रदूषित कर रही हैं।
पहले यह समस्या सिर्फ छावनी क्षेत्र में थी। उसके बाद धीरे-धीरे दुर्गा मंदिर इलाके (वार्ड 46) का भूजल प्रदूषित होने लगा। इसके बादउससे लगे हुए बालाजी नगर (वार्ड नंबर 45) और फिर बापू नगर ( वार्ड नंबर 43) भी इस केमिकल प्रदूषण के दायरे में आ गया। इन इलाकों केी करीब 50 से 60 हजार की आबादी कारखानों के दूषित जल से प्रभावित है।
हथखोज इलाके में रेलवे पटरी के आस-पास की खाली पड़ी ज़मीनों पर तारकोल, डामर वेस्टेज, खतरनाक केमिकल खुलेआम डंप किए जा रहे हैं। ईटीवी की रिपोर्ट के मुताबिक, स्थानीय लोगों का कहना है कि लंबे समय से तारकोल और खराब ऑयल की गंध से परेशान हैं। फैक्ट्री के मालिक यहां अपने कारखानों का खराब और जला हुआ तेल फेंक रहे हैं, जिससे क्षेत्र में प्रदूषण फैल रहा है।
प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि सुबह करीब 3 बजे कारखानों के टैंकर औद्योगिक क्षेत्र से आते हैं और सड़क पर वाहन खड़ा करके पाइप की मदद से टैंकर में भरा खराब ऑयल मैदानों में बहा देते हैं। यह काम लंबे समय से चल रहा है, जिसके कारण जमीन के बड़े हिस्से में ऑयल जमा हो गया है और काफी बदबू भी फैल रही है।
नई दुनिया की एक रिपोर्ट में हथखोज से निकलकर अकलोरडीह, सुरडुंग, जरवाय, पर्थरा, नंदौरी, लिमतरा, सुरजीडीह होकर खारुन नदी तक जाने वाली नहर का पानी भी फैक्ट्रियों के कैमिकल से प्रदूषित होने की बात कही गई है। कभी लोग इस नहर का साफ पानी पीते थे। नहर की वजह से भूजल स्तर काफी ऊंचा रहता था और आसपास के खेतों में फसल भी अच्छी होती थी। पर, फेक्ट्रियों के रासायनिक प्रदूषण ने नहर के पानी को अब खेती में इस्तेमाल लायक भी नहीं छोड़ा है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक करीब चार साल पहले 2021 में भी भिलाई इस्पात कारखाने (बीएसपी) से निकलने वाले गंदे और केमिकल युक्त पानी से कई गावों के खेतों की ज़मीनें खराब होने का मामला सुर्खियों में आया था। जब किसानों ने इसका विरोध किया, तो तत्कालीन क्षेत्रीय पर्यावरण अधिकारी डॉ. अनीता सावंत ने इसपर बीएसपी को नोटिस दिया था। नाले के गंदे पानी का सैंपल लेकर दुर्ग के कलेक्टर को जांच कराने के लिए पत्र भी भेजा गया था। जांच के बाद दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई की बात कही गई थी। इस सबके बावजूद भिलाई में कारखानों से होने वाला रासायनिक जल प्रदूषण थमने का नाम नहीं ले रहा है।